कमलेश चन्द्र जोशी

बच्चों की अपनी दुनिया है, उनके पास अपना नजरिया है। बस जरूरत है एक माहौल देने की जिसमें बच्चे को स्वाभाविक विकास हो सके।

पब्लिक स्कूलों में पढ़ाने के बाद १ बस्ती के बच्चों के साथ काम करते हुए कुछ अलग तरह के अनुभव रहे हैं। स्कूलों में जहां बच्चे सुबह सुबह गुड मॉर्निग सर या गुड मॉर्निंग मैडम कहकर अभिवादन करते हैं जो अपने आप में अभिवादन का बेहद सतही व यांत्रिक तरीका होता है। हमें यह महसूस भी होता है कि वे किन्ही दबावों के चलते इस तरह नमस्ते कर रहे हैं। लेकिन हम जिसे बस्ती में काम करते हैं वहां की बात ही कुछ और है। बस्ती में बच्चे हमसे कहते हैं - “भैयाजी नमस्ते छोले सस्ते'' तो मैं भी हंसकर कहता हूं - ‘सस्ते नहीं महंगे वाले खाएंगे।'' यदि बच्चे खेलकूद में व्यस्त हैं तो वे सिर उठाकर भी नहीं देखेंगे। लेकिन बच्चों का नमस्ते करने का यह तरीका कहीं भी औपचारिक नहीं लगता। और स्कूली बच्चों वाला डर तो कहीं दिखता ही नहीं - कि अगर हम नमस्ते नहीं करेंगे तो सर कुछ कहेंगे या परीक्षा में कम नम्बर देंगे।

इसके अलावा हमारे सेंटर की कक्षा में भी सब बच्चे मस्त नजर आएंगे। सब कक्षा में अपनी मर्जी से बैठते हैं। सभी अपने मन पसंद काम कर सकते हैं। न इस बात का तनाव कि मैंने गृहकार्य नहीं किया है, न मैंने यूनीफॉर्म नहीं पहना है का अपराध बोध। ठीक इसका उल्टा स्कूलों में होता है। टीचर किसी काम में मशगूल है तो बच्चे मुंह पर अंगुली रखकर बेहरकत बैठे रहेंगे और एक बालक जिसको सभ्य भाषा में मॉनीटर कहा जाता है, वह उन सब बच्चों पर नजर रखे हुए होगा।

बस्ती में हमारे केन्द्र पर हम स्कूली औपचारिकताओं की बजाए इस बात पर ध्यान देते हैं कि बच्चे किस तरह सीख रहे हैं? बस्ती केन्द्र की कक्षा के कुछ अनुभव मैं आपको बताना चाहता हूं।
4 वर्षीय जगदीश हमारे केन्द्र पर आता है और वह बच्चों की लाइब्रेरी की कक्षा में जुड़ता है। एक दिन वह अपने दांतों को अंगुली से रगड़कर बताने लगा कि भैयाजी रगड़ने से जो चूं-चूं की आवाज़ आ रही है, इस तरह से चुहिया भी करती है।

8 वर्षीय अमिताभ एक दिन कविताओं की एक किताब देख रहा था। फिर चित्र पर अंगुली रखकर बताने लगा - “भैयाजी ये सब बच्चे जैसे हाथ जोड़कर खड़े हैं वैसे ही हम भी स्कूल में खड़े होते हैं। मैं यह चित्र बनाऊगाः
चार वर्षीय राहुल को मैंने एक दिन स्लेट पर गोलेनुमा आकार बनाकर पूछा यह क्या है? तो उसने बताया यह आम है।
इन छोटे-छोटे रोज के अनुभवों से ही यह समझ बन पाती है कि बच्चे किस तरह से आसपास की चीजों से अपना रिश्ता जोड़ने की कोशिश करते हैं।

मेरी सहयोगी साथी गीता ने भी अपनी कक्षा का एक रोचक अनुभव मुझे बताया। हुआ यह कि गीता अपनी कक्षा में बच्चों को नाम लिखना सिखा रही थी और इसके लिए उसने हर बच्चे के नाम का एक-एक कार्ड बना रखा था। हर बच्चे को उसके नाम का कार्ड दिया और कार्ड देखकर अपना नाम कॉपी पर लिखने को कहा गया। लेकिन सात वर्षीय अकबर अली ने नाम लिखने का एक नायाब तरीका निकाला। उसने अपने बालों पर कार्ड को घिसा (वह बालों में काफी तेल लगाकर आता है) और उस कार्ड को अपनी कॉपी पर दबाकर छापने की कोशिश कर रहा था। जब यह अनुभव गीता ने मुझे बताया तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि, बच्चे सीखने के क्या क्या तरीके निकालते हैं?

इस तरह के कुछ अनुभव मुझे घर बैठे भी मिल गए। वहां भी मेरी यह समझने की कोशिश रही है कि बच्चे की दुनिया को हम कैसे समझते हैं? एक बार मेरे घर पर यह बात चल रही थी कि बड़ा होकर कौन क्या बनेगा? 9 वर्षीय मेरी भतीजी हेमू से जब पूछा गया तो उसने बताया कि वह डॉक्टर बनेगी। उसके बाद जब उसके भाई मोनू से हमने पूछा तो उसने बताया स्कूल में विक्टर भैया घंटी बजाते हैं, मैं वही विक्टर भैया बनूंगा। जाहिर है कि यहां पर मोनू की समझ इतनी ही थी कि उसे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर से क्या मतलब? उसे तो विक्टर भैया का घंटी बजाना ही अच्छा लगा।
इसी तरह से इस बार होली का भी एक उदाहरण है - मोनू ने एक पुड़िया रंग पूरी बाल्टी में घोल दिया, क्योंकि वह उसे रंग को अपने बहुत सारे दोस्तों पर डालना चाहता था। लेकिन उसके माता-पिता ने उसे डांट लगाई। वे वहा पर बच्चे के नज़रिए को समझने की बजाए अपनी समझ लगा रहे थे कि गाढ़ा रंग बनाओ तब डालो।
इन दो उदाहरणों से हमें यह समझ लेना चाहिए कि बच्चों की दुनिया को, उनके नज़रिए को हम उनकी तरह से ही समझे, उसे अपनी बुद्धि से न तोलें।

अंत में, वापस फिर से बस्ती के केन्द्र की ओर मुड़े। बस्ती में बच्चों को पढ़ाते हुए या गतिविधियां करवाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना होता है कि अगर कक्षा लेते समय पढ़ाने वाले साथी की पढ़ाने में रुचि हो, उसमें उत्साह हो तो कक्षा में खुद ब-खुद काम करने का माहौल बन जाता है। लेकिन यदि पढ़ाने वाला। अरुचि दिखाए और केवल पढ़ाना है इसलिए पढ़ाए या बच्चों को अपनी अपनी जगह बिठा दे तो फिर आप जितना कहें या भय दिखाएं बच्चों को सम्हालना और कक्षा का माहौल बनाना मुश्किल हो जाता है। बच्चों के साथ कविता-कहानी की गतिविधि करवाते समय कविता-कहानी के चुनाव के बारे में मेरा अनुभव यह रहा है कि चुनाव इस तरह से किया जाए कि उनका बच्चों की दुनिया से संबंध हो। कविता के बारे में तो यह भी देखा गया कि कोई ज़रूरी नहीं कविता में कोई लय हो यदि कविता बच्चों को भा जाए तो उनकी जुबान पर चढ़ ही जाती है।


कमलेश चन्द्र जोशीः वर्तमान में ‘नालंदा' शैक्षिक नवाचार केन्द्र, लखनऊ में कार्यरत हैं।