जे. ए. संतोष

मानव के विकास पर एक नई नज़र
मानव के विकास का एक प्रचलित चित्रण। इसे देखकर लगता है कि मानव का क्रमवार विकास होता जा रहा है और वह लगातार विशाल बनता जा रहा है। लेकिन कितना सच है इसमें? कितना प्रभावित करता है यह चित्रण पूर्वजों के बारे में, अपना नजरिया बनाने में हमें?
जीवाश्मों के अध्ययन के नए सूचकों ने मानव के क्रमिक विकास के * इस पहलू को हिला कर रख दिया है। अब मामला इस चित्रण से काफी फर्क दिखता है।

मानव जाति के विकास का एक बहुत प्रचलित चित्रण किताबों से लेकर पत्रिकाओं, फिल्मों आदि जैसे माध्यमों में बारंबार मिलता है। इसमें होमिनिड (वह वर्ग जिसमें मनुष्य व उसके पूर्वज आते हैं) के पंक्तिबद्ध समूह को समय के साथ साथ जैव विकास की अलग-अलग स्थितियों से गुजरते हुए दर्शाया जाता है। इस चित्र की शुरुआत नाटे कद के, झुके और छोटे सिर वाले पूर्वज से होती है और कतार में आगे बढ़ते हुए चित्र क्रमशः निरंतर लंबे, सीधे । और बड़े सिर वाले होते चले जाते हैं। इनमें से सबसे आखिरी वाला आधुनिक मानव है जो कि सबसे लंबा, एकदम सीधा खड़ा हुआ और बड़े सिर वाला है। लेकिन हाल में हुए एक अध्ययन ने इस प्रचलित नज़रिए को जड़ से हिला दिया है। 

इस अध्ययन से पता चला है कि पिछले 50 हजार वर्षों में मानव के शरीर और मस्तिष्क दोनों के वज़न और आकार में निरंतर कमी आई है, जबकि इस दौर के पहले के पांच लाख वर्षों में शरीर व मस्तिष्क के आकार में काफी तेज़ वृद्धि हुई थी।
तीन वैज्ञानिकों (रफ, टिंकॉस और हॉलीडे) का यह शोध प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका नेचर के 8 मई 1997 के अंक में प्रकाशित हुआ है। यह शोध काफी विस्तृत है। इसके लिए उन्होंने पिछले बीस लाख सालों के दौरान रहे होमो कुल (जीनस) के विभिन्न सदस्यों के 163 जीवाश्मों का विश्लेषण किया। इस शोध में उन्होंने कई नई और विश्वनीय तकनीकें इस्तेमाल की।

इसके आधार पर यह अनुमान लगाया है कि आज का मानव प्लीस्टोसीन* युग के दौरान किसी भी समय रहे अपने पूर्वजों से 9 से 1 3% छोटा है। साथ ही पिछले 50 हजार वर्षों के दौरान यह गिरावट निरंतर जारी दिखती है। इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि प्रारंभिक आधुनिक मानव (जो आज से 90 हज़ार से लेकर 30 हजार वर्ष पूर्व तक रहे थे) का मस्तिष्क आज के मानव से 10% अधिक बड़ा था। वर्तमान काल में शरीर के आकार की तरह मस्तिष्क का आकार भी लगातार कम होता जा रहा है।

वज़न के अनुमान में विश्वसनीयता
शरीर का वजन एक महत्वपूर्ण मापदंड है। मनुष्य के वज़न और शरीर की विभिन्न रचनाओं के बीच संबंध ढूंढने की बहुत-सी कोशिशें की गई हैं परन्तु फिर भी हड्डियों के नमूनों से वज़न को सही अनुमान लगा पाना समस्यामूलक ही रहा है।

* यह युग 19.5 लाख साल पहले से लेकर एक लाख साल पहले तक माना जाता है।

इसको नापने के एक प्रचलित तरीके में सिर से लेकर पंजे तक की लंबाई या फिर कूल्हे की हड्डी (पेल्विस या पेडू) से लेकर पंजे तक की लंबाई नाप ली जाती है। इन लंबाइयों और शरीर के वज़न के बीच अच्छा सहसंबंध मिलता है। लेकिन जीवावशेष अधिकतर टूटे फूटे, टुकड़ों में मिलते हैं; इसलिए पुरामानव वैज्ञानिकों को विभिन्न भूगर्भीय कालों के न तो पर्याप्त नमूने मिलते हैं और न ही सब कालों का प्रतिनिधित्व करते हुए नमूने।

वज़न के आकलन के लिए पूर्व में कई अन्य सूचकों का भी इस्तेमाल किया गया जैसे कि कपाल (खोपड़ी) व दांत की मोटाई और आंख के गड्ढे का साईज़ आदि। लेकिन इनमें से अधिकतर सूचक विश्वसनीय साबित नहीं हुए; क्योंकि इनके आधार पर जो वज़न निकले उनमें 50 प्रतिशत तक की घट-बढ़ थी। इसलिए अपने पूर्वजों का वज़न पता करने की दिशा में जो समस्या हमेशा खड़ी रही है वो है। विश्वसनीय सूचकों की कमी - जिनके आधार पर वजन का भरोसेमंद आकलन मिल सके। इस वजह से प्रमुखतः उन सब शोधकर्ताओं को समस्याओं से जूझना पड़ा जो इन लाखों वर्षों के दौरान जैव विकास के रुख, (Trends) का अध्ययन करना चाहते थे।

ऐसा लगता है कि इस अध्ययन के प्रमुख लेखक, क्रिस्टोफर रफ दो दशकों की खोज के बाद उस सही विधि को हासिल कर पाने में कामयाब हो गए हैं, जो शरीर के वज़न के अनुमान के लिए एक विश्वसनीय सूचक साबित विज्ञान हो सकती है। चिकित्सा व फोरेन्सिक के क्षेत्र में शोध से यह स्पष्ट हो चुका है कि इस काम के लिए आपको सूचक बतौर ऐसी शारीरिक रचनाएं ढूंढनी होंगी जिन पर आकार (Size) का असर पड़ता है। ऐसे सूचकों की खोज, जो उपयुक्त तो हों ही साथ ही जीवाश्मों में भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हों, काफी चुनौतीपूर्ण थी।

इस शोध में वज़न का आकलन करने के लिए स्वतंत्र रूप से एक-दूसरे से बिल्कुल अलग दो लक्षणों का इस्तेमाल किया गया। और दोनों तरीकों से हासिल परिणामों में जो अनुरूपता व समानता मिली उससे इन सूचकों को विश्वसनीयता हासिल हुई।
इनमें से पहला सूचक है जंघास्थि (Femur) के गेंदनुमा सिर की चौड़ाई। यह सिर कूल्हे की हड्डी में बने खांचे में फंसता है (देखिए चित्र)। जीवित इंसानों में इस गेंदनुमा सिर की चौड़ाई शरीर के वजन के समानुपाती होती है। जितना भारी शरीर, उसको थामने के लिए जरूरत उसी अनुपात में बड़े गेंदनुमा सिर की। यह एक अच्छा सूचक है क्योंकि एक तो इसका विश्वसनीय मापन काफी आसान है, साथ ही

वज़न के आकलन के दो सूचक: जंघास्थि के गेंदनुमा सिर और कूल्हे की हड्डी को रेखाचित्रः इस शोध में शरीर के वज़न के आकलन के लिए इन दो सूचकों का इस्तेमाल किया गया। जंघास्थि का गेंदनुमा सिर कूल्हे की हड्डी के कोटर में जाकर फंसता है।

जीवाश्मों में जंघास्थि के काफी सारे नमूने उपलब्ध हैं। इसी तरह दूसरा सूचक शरीर की लंबाई, कूल्हे की हड्डी (पेल्विस) की अधिकतम चौड़ाई और शरीर के वज़न के आपसी संबंध पर आधारित है।
पहले वैज्ञानकों ने इन दोनों तकनीकों को नमूनों पर आजमाया और पाया कि दोनों से मिलने वाला आकलन (अनुमान) करीब-करीब समान था।
इससे शोधकर्ताओं का इन सूचकों पर विश्वास जमा और उन्होंने जीवाश्म बन चुके कंकालों के विभिन्न नमूनों पर इन्हें आज़माया।

शारीरिक वज़न में गिरावट
एक बार वज़न का सही अंदाज़ लगाने में सफलता मिली तो अगला कदम था - जैव विकास के रुख (Trends) पर नजर डालना। परिणामों से स्पष्ट रूप से नज़र आ रहा था कि आज के मानव अपने पूर्वजों से न केवल छोटे हैं बल्कि निरंतर और भी छोटे होते जा रहे हैं।
सबसे बड़ा आकार उस होमो सेपियन्स ने हासिल किया था जिसे हम निएन्डरथल के प्रचलित नाम से जानते हैं। इनका वास आज से लगभग 75 हजार साल से लेकर 36 हजार साल पूर्व के बीच के काल में रहा। वे आज के मानव की तुलना में लगभग 30 प्रतिशत बड़े थे।

इसमें कोई शक नहीं कि निएन्डरथल विशाल थे लेकिन और भी विस्मयकारी है यह जानना कि लगभग 20 लाख वर्ष पहले भी पृथ्वी पर अन्य विशाल काय होमिनिड विचर रहे थे जिनका शरीर आज के मानव से किसी मायने में कमतर नहीं था। प्लीस्टोसीन युग के जो नमूने मिले उनको औसत शारीरिक वज़न वर्तमान मानव से 12.7 प्रतिशत अधिक था। इसके साथ ही 19.5 लाख साल पहले से लेकर 10 हजार साल पहले तक के जो 163 नमूने चुने गए, उनमें से 75 प्रतिशत नमूनों के शरीर का वज़न आज के मानव से अधिक था।

शोधकर्ताओं ने पिछले 50,000 से लेकर 10,000 साल के बीच के समय में वजन में लगातार गिरावट दर्ज की है। यह खोज इस अध्ययन के लेखकों के लिए काफी आश्चर्यजनक थी, क्योंकि संयोग से यह अवधि वही है जिसमें - जिन्हें हम शारीरिक रचना के अनुसार आधुनिक मानव कहते हैं। वे प्रकट हुए। ऐसा माना जाता है कि आधुनिक मानव के इसी समूह से वर्तमान मानव की उत्पत्ति हुई है।

उस युग के जीवावशेषों और आज के मानव के वज़न की तुलना से ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य के वजन के घटने का क्रम वर्तमान में भी जारी है। पचास हजार साल पहले के मानव का वज़न आज के मानव से 11-12% अधिक था। पर वजन में यह महत्वपूर्ण भिन्नता निचले अक्षांश के (अर्थात भूमध्य रेखा के पास के) नमूनों की तुलना में ही पाई गई। इसके विपरीत उस समय के ऊंचे अक्षांशों के वासियों की आज के मानव की तुलना में शारीरिक भिन्नता कम थी - 0.3 से 3.7 प्रतिशत; सांख्यिकी की दृष्टि से भी यह अंतर कोई खास मायने नहीं रखता।

शोध के लेखक हमें सचेत करते हैं कि प्लीस्टोसीन युग के जीवावशेषों और आज के मानव में 12.7 प्रतिशत का जो अंतर पाया गया है उसका अर्थ लगाने से पहले हमें कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि कुछ कारक
---जैसे कि वह अक्षांश जहां के मानव का वह जीवाश्म है और उसका लिंग
---अंतर के इस परिमाण पर काफी असर डाल सकते हैं। वर्तमान समय में भी जो लोग उच्च अक्षांश के क्षेत्रों (भूमध्य रेखा से दूर) में रहते हैं लंबे होते हैं, बनिस्बत निचले अक्षांश (भूमध्य रेखा के पास) के क्षेत्रों में रह रहे लोगों के। और मनुष्य में नर औसतन, मादा से लंबे होते हैं।

विभिन्न अक्षांशों से पर्याप्त संख्या में नमूने न मिलने की वजह से व नर-मादा नमूनों की संख्या में फर्क के कारण शोध में आए दोषों को दूर करने की दृष्टि से इस विश्लेषण की साफ-सफाई की प्रक्रिया की गई। इसके बाद जो निष्कर्ष निकले उनके अनुसार प्लीस्टोसीन के हमारे पूर्वज वर्तमान मानव से कम-से-कम 9.2 प्रतिशत बड़े थे। और पहले जो 12.7 प्रतिशत का फर्क आया था वो दोनों वजहों से था - एक तो उच्च अक्षांशों के नमूनों की संख्या ज्यादा थी और दूसरा कुल नमूनों में नर नमूनों की संख्या मादा से ज्यादा थी।

मस्तिष्क के वज़न में उतार-चढ़ाव
जैसे ही शरीर के वज़न प्रमाणित हुए तो मस्तिष्क के आकार मापे गए। इसके लिए अच्छी तरह से स्थापित सह संबंधों का चयन किया गया। पता चला कि बीस लाख साल पहले पृथ्वी पर घूम रहे हमारे पूर्वज हालांकि छह फुटे तो थे; लेकिन उनके मस्तिष्क का आकार आज के इंसान की तुलना में करीब एक तिहाई ही था। बाद के दस लाख सालों तक मस्तिष्क का आकार यही रहा। छह लाख से लेकर एक लाख वर्ष पूर्व के बीच मस्तिष्क के आकार में असाधारण तौर पर वृद्धि हुई।

इजराइल के स्खुल और क्वाफजेह क्षेत्रों से मिले 90 हजार साल पहले के गुफावासी मानव और फ्रांस में मिले 30 हजार साल पहले के क्रो-मैग्नन

पिछले बीस लाख सालों में दिमाग के वज़न और E. Q. ( एनसेफेलाइजेशन कोशेन्ट ) का रुख। ग्राफ में दिख रही काली लाइन बाईं तरफ के y अक्ष पर दिए गए मस्तिष्क के आकार को दर्शाती है। वहीं टूटी हुई लाइन दाईं ओर के y अक्ष पर दी गई E. Q. को दर्शाती है। x अक्ष पर समय, log,, पैमाने पर दर्शाया गया है।

शैल चित्रकारों के जीवावशेषों के अध्ययन से समझ में आया कि इनका मस्तिष्क सबसे बड़ा था: वर्तमान इंसान की तुलना में करीब 10 प्रतिशत बड़ा। इसके बाद शरीर के वजन की तरह मस्तिष्क के आकार में भी क्रो-मैग्नन काल से लेकर आज तक लगातार गिरावट दर्ज की गई है।
कहते हैं न कि बड़ा ही सदैव बेहतर नहीं होता - यहां जो बात मायने रखती है वो है शरीर और मस्तिष्क का तुलनात्मक अनुपात।
एक सूचक है एनसेफेलाइजेशन कोशेन्ट (E. Q.*) - जो दरअसल मस्तिष्क के वज़न और शरीर के वजन का अनुपात है; जिसकी तुलना कई बार बुद्धिमता से कर दी जाती है। चूंकि कालांतर में मस्तिष्क और शरीर का वज़न बदलता रहा है इसलिए E. Q. में बदलाव इनमें से केवल किसी भी एक के बदलाव के साथ मेल खाता नज़र नहीं आता।

19.5 लाख साल पहले से लेकर छह लाख साल पहले के बीच E. Q. का मान वर्तमान की तुलना में सिर्फ एक तिहाई था; और इस काल के दौरान इसमें कोई भी महत्वपूर्ण बदलाव नहीं देखा गया। छह लाख साल पहले


सामान्य तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द आई. क्यू. से इसका कोई संबंध नहीं है।


ऊपर वाला कपाल ‘क्रो मैग्नन मानव' का है और नीचे वाला कपाल, निएन्डरथल का। वर्तमान मानव और उसके पूर्वजों की तुलना में सबसे बड़ा मस्तिष्क को मैग्नन और इजराइल के गुफावासी मानव का पाया गया। क्रो मैग्नन 30 हजार साल पहले इस धरती पर विचर रहे थे।

E. Q. के मान में तेजी से बढ़ोत्तरी होती है जो एक लाख साल पहले तक वर्तमान मान की तुलना में 90 प्रतिशत तक पहुंच जाती है।
इसके बाद एक लाख साल पूर्व से 30 हजार साल के बीच के समय में E.Q. में तेजी से गिरावट आती है जो इस दौर में शरीर के आकार में तीव्र वृद्धि के कारण है। तब से लेकर आज तक शरीर का आकार क्रमशः छोटा होता चला गया और E. Q. फिर से बढ़ा, और बढ़कर वर्तमान मान तक पहुंच गया। हालांकि इसके बाद भी थोड़ी गिरावट आई है लेकिन वह कोई खास महत्वपूर्ण नहीं है।

बदलाव के कुछ संभावित कारण
क्या कारण रहे होंगे जिन्होंने करीब 13 साल (19.5 लाख से लेकर छह लाख साल पहले तक) के दौरान शरीर के आकार में बनी रही स्थिरता को प्रभावित किया?
कई कारण सामने रखे गए हैं, लेकिन वे सिर्फ अनुमान मात्र ही हैं। रोचक है कि वर्तमान इंसानों की तुलना में हमारे पूर्वजों का आकार काफी बड़ा था लेकिन मस्तिष्क का आकार छोटा था, इसकी वजह से ई. क्यू. का मान भी कम था। करीब छह लाख साल पहले शरीर के साईज़ में बढ़ोत्तरी से सामंजस्य बिठाने के लिए मस्तिष्क का आकार भी बढ़ा। लेकिन वे क्या कारण थे जिनकी वजह से शरीर का आकार बढ़ा?

एक आम व्याख्या के अनुसार हमारे पूर्वजों का ऊंचे अक्षांशों के क्षेत्रों की ओर जाना शायद आकार में बढ़ोत्तरी का कारण रहा होगा, क्योंकि इससे सतह और आयतन का अनुपात कम होने से ठंडी परिस्थितियों से जूझने में मदद मिलती है। लेकिन इस बिन्दु पर जॉन कैपलमैन नेचर पत्रिका के माध्यम से हमें ध्यान दिलाते हैं कि निचले अक्षांशों के कुछ नमूने भी मौजूद हैं। जिनका आकार काफी बड़ा है। कैपलमेन कहते हैं कि मादा को हासिल करने की प्रतिस्पर्धा में पैदा स्थितियों के चलते नर का आकार बढ़ा होगा। यह स्थिति हमारे वानर-पूर्वजों में भी पाई जाती है। कुछ समय बाद बड़े आकार की ज़रूरत कम महत्वपूर्ण हो गई क्योंकि सामूहिक रूप से शिकार करने की प्रवृत्ति और आपसी संवाद की क्षमताएं बढ़ीं। बाद के काल में शरीर के आकार में जो कमी हुई उसकी वजह शायद पौष्टिक आहार की कमी हो - क्योंकि खेती का चलन बढ़ने से शिकारी मानव का वैविध्यपूर्ण खानपान बदल गया।

औजारों के इस्तेमाल से और मवेशियों को पालतू बनाने से संभव है कि मानव को मशक्कत करने की जरूरत नहीं रही और उसकी । जीवनशैली पर फर्क पड़ा। संभव है कि यह भी आकार में गिरावट का एक कारण रहा हो।
इससे तात्पर्य यह है कि हमारी बुद्धि शायदे अधिक विकसित इसलिए हुई क्योंकि जैव विकास के दौरान प्राकृतिक चयन शरीर के आकार पर प्रभावशील हुआ न कि मस्तिष्क के आकार पर, जैसा कि पहले सोचा जाता था।
इस सबसे यह आमधारणा कि मानव का आकार बढ़ता गया और वो उतना ही अधिक बुद्धिमान होता चला गया - एकदम संदेहास्पद हो जाती है। मानव अधिक चतुर हुआ क्योंकि वह छोटा होता गया।


जे. ए. संतोषः सेंटर फॉर इकोलोजिकल साइन्सेज़, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइन्सेज, बेंगलौर में शोध करते हैं। मूल लेख अंग्रेज़ी में; अनुवाद - प्रीति जोशी। प्रीति जोशी, एनेबलिंग सेंटर, लेडी इरविन कॉलेज, दिल्ली में काम करती हैं।

यह लेख इंडियन एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ द्वारा प्रकाशित रेज़ोनेन्स पत्रिका के जनवरी 1998 अंक से लिया गया है।