लेव तोल्स्तोय

भूगोल के अध्यापन में सबसे पहले मैंने प्राकृतिक भूगोल को लिया। पहला पाठ मुझे अभी तक याद है। मैंने उसे शुरू ही किया था कि गड़बड़ा गया। हुआ। वह, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। यानी कि जिस चीज़ के बारे में मैं चाहता था कि दस वर्षीय किसान बच्चे जानें, उसके बारे में मैं खुद नहीं जानता था। दिन और रात क्या होते हैं, यह समझाना तो मैं जानता था, पर शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के बारे में गड़बड़ा गया। अपने अज्ञान पर शर्माकर मैंने कहे हुए को ही फिर से दोहराया और बाद में अपने बहुत से परिचित, शिक्षित लोगों से भी पूछा, मगर हाल ही में स्कूल से निकले लोगों या अध्यापकों के अलावा कोई भी मुझे ग्लोब की मदद के बिना ठीक से नहीं बता सका। पाठक चाहें, तो खुद इसकी आजमाइश करके देख। सकते हैं। मेरा दावा है कि सौ में से सिर्फ एक आदमी ही उसे जानता है, जबकि पढ़ने सभी बच्चे जाते हैं। मन ही मन भली भांति याद करके मैं फिर से समझाने लगा और मोमबत्ती और ग्लोब की मदद से - जैसा कि मुझे लगा - बहुत अच्छा समझाया। बच्चों ने मुझे बड़े ध्यान और चाव से सुना। (उन्हें वह जानने में खास दिलचस्पी थी, जिस पर उनके पिता यकीन नहीं करते, ताकि मौका आने पर अपनी बुद्धिमत्ता की शेरखी बघारी जा सके।)

जब मैं शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के बारे में बताना खत्म कर रहा था, संशयवादी स्योम्का ने, जो सबसे जल्दी समझ जाता है, मुझसे सवाल पूछा: “ऐसा कैसे है कि पृथ्वी तो घूमती है और हमारी झोंपड़ी वहीं की वहीं खड़ी रहती है? उसे भी तो अपनी जगह से हट जाना चाहिए।'' तो मैंने देखा कि कक्षा में जो सबसे तेज़ छात्र था, अपने समझाने के तरीके में मैं उससे भी खूब आगे निकल गया था। ऐसे में सबसे भोंदू भला क्या खाक समझे होंगे?

मैं पीछे लौटा, फिर से विस्तार से समझाया, तस्वीरें बनाकर दिखाईं। पृथ्वी के गोल होने के सभी सबूत पेश किए, जैसे पृथ्वी के गिर्द यात्रा, सबसे पहले जहाज का मस्तूल दिखाई देना, वगैरह; और यह सोचकर कि अब तो समझ गए होंगे, मैंने उन्हें वह सब लिख लेने को कहा, जो मैंने बताया था। उन्होंने जो लिखा उससे पता चला कि उनके लिए सबूतों को याद कर लेना ही मुख्य चीज़ था। दसियों ही नहीं, सैकड़ों बार मैंने सभी बातें। फिर से बताईं, पर हर बार नाकामयाबी ही हाथ लगती। परीक्षा में और अब भी शायद सभी विद्यार्थी संतोषजनक उत्तर देते। मगर मुझे लगता है कि वे समझे नहीं, और यह याद करके कि मैं भी तीस वर्ष की आयु तक ठीक से नहीं समझ पाया था, मैंने उनकी यह नासमझी माफ कर दी। जैसे बचपन से मेरे साथ हुआ था, उसी तरह अब वे भी बिना कुछ समझे। इन शब्दों में विश्वास कर ले रहे थे कि पृथ्वी गोल है, वगैरह, वगैरह। मेरे लिए तो समझना फिर भी अपेक्षाकृत आसान था, क्योंकि धाय-मां ने बहुत छोटी उम्र में ही मेरे मन में यह बात बिठा दी थी। कि जहां दुनिया खत्म होती है, वहां पृथ्वी और आकाश एक दूसरे से। मिलते हैं। और वहां, पृथ्वी के छोर पर औरतें समुद्र में कपड़े धोती हैं। और मुंगरियों को बाद में उठाकर आकाश पर रख देती हैं। हमारे विद्यार्थी उस उम्र को कभी का पार कर चुके हैं और उनकी जो धारणाएं पक्की हो चुकी हैं, वे उन बातों से बिल्कुल उल्टी हैं जो मैं उन्हें सिखाना चाहता हूं। उनके जो तर्क हैं, उन्हें ध्वस्त करने के लिए और विश्व के बारे में बने हुए। दृष्टिकोण को नष्ट करने के लिए अभी बहुत समय कोशिशें करते रहना होगा; तब जाकर ही वे समझ पाएंगे। भौतिकी और यांत्रिकी के नियम ही वह पहली चीज़ हैं, जो इन पुराने दृष्टिकोणों को जड़ से नष्ट करेगी। लेकिन मेरी तरह और दूसरों की तरह उन्होंने भी भौतिकी से पहले प्राकृतिक भूगोल को पढ़ना शुरू कर दिया।

क्यूं इतनी जल्दी
अन्य विषयों की भांति भूगोल के अध्यापन में भी जो सबसे आम, भद्दी और बुरी गलती की जाती है। - वह है जल्दबाजी। जैसे कि हम इस बात से बेहद खुश हो जाते हैं। कि हम जानते हैं कि पृथ्वी गोल है तथा सूर्य के गिर्द घूमती है, और यह बात जितनी जल्दी हो सके, विद्यार्थियों को बता डालना चाहते हैं। मगर महत्वपूर्ण यह जानना नहीं है कि पृथ्वी गोल है, बल्कि यह जानना है कि इस निष्कर्ष पर हम कैसे पहुंचे। बहुत बार बच्चों को बताया जाता है कि सूर्य पृथ्वी से इतने अरब वर्स्ट (दूरी नापने की रूसी इकाई) दूर है, मगर बच्चे के लिए इसमें आश्चर्य और दिलचस्पी की कोई बात नहीं होती। वह तो जानना चाहता है कि यह बात मालूम कैसे की गई।

फिर मैंने पृथ्वी की गोलाई के बारे में विस्तार से इसलिए बताया कि उसके बारे में जो कहा गया है, वह सारे ही भूगोल पर लागू होता है। एक हजार शिक्षित लोगों में से अध्यापकों और विद्यार्थियों को छोड़कर सिर्फ एक ही यह ठीक से जानता है कि सरदियां और गरमियां क्यों होती हैं। पृथ्वी गोल क्यों है, इस बात को बचपन में कोई भी नहीं समझ पाता, हालांकि सिखाया यह सबको जाता है।

प्राकृतिक भूगोल के बाद मैंने पृथ्वी के विभिन्न भागों और उनकी विशेषताओं के बारे में बताना शुरू किया, और इसमें से भी सिवाए। इसके कुछ बाकी नहीं बचा कि पूछे जाने पर सब बढ़-चढ़कर चिल्लाते हैं: एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया! पर अगर एकाएक पूछे कि फ्रांस विश्व के किस भाग में है (एक ही मिनट पहले बताया गया था कि इंगलैंड और फ्रांस यूरोप में हैं), तो जवाब में सुनने को मिलेगा कि फ्रांस अफ्रीका में है। जब भी हम भूगोल पढ़ाना शुरू करते हैं, हर बुझी-बुझी निगाह, कंठ से निकली हर आवाज़ एक ही प्रश्न पूछती प्रतीत होती है: किसलिए? और इस विषादजनक प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है।

स्कूल के कमरे से
अंत से शुरू करने का मामूली विचार जैसे इतिहास के अध्यापन में पैदा हुआ, वैसे ही भूगोल का अध्यापन भी स्कूल के कमरे से, अपने गांव से शुरू करने का मामूली विचार पैदा हुआ। मैंने ये प्रयोग जर्मनी में देखे थे और सामान्य ढंग से भूगोल के अध्यापन की असफलता से हतोत्साहित होकर खुद भी कमरे, घर, गांव का वर्णन करने लग गया। नक्शे खींचने की तरह ये अभ्यास भी निरर्थक नहीं है, मगर यह जानना कतई दिलचस्प नहीं है कि हमारे गांव के बाद क्या है? क्योंकि सभी विद्यार्थी जानते हैं कि वहां तेल्यातीन्की है। और तेल्यातीन्की के बाद क्या है? यह जानना भी दिलचस्प नहीं है, क्योंकि वहां भी तेल्यातीन्की जैसा ही कोई गांव होगा। और तेल्यातीन्की तथा उसके खेत बिल्कुल भी दिलचस्प नहीं हैं।

मैंने उन्हें मॉस्को और कीयेव जैसी महत्वपूर्ण भौगोलिक जगहों के बारे में बताने की कोशिश की, मगर यह सब उनके दिमाग में इतने क्रमहीन ढंग से बैठा कि उन्होंने सब कुछ रट ही डाला। मैंने नक्शे बनाकर भी दिखाए। यह उन्हें रोचक लगा और सचमुच इससे याद रखने में मदद मिली। पर पुनः प्रश्न पैदा हुआ याद रखने में मदद क्यों की जाए? मैंने उन्हें एक बार फिर ध्रुवक्षेत्रीय और विष् वृतीय देशों के बारे में बताकर देखा। उन्होंने मजे के साथ सुना और सुनाया भी, पर इन कहानियों में उन्हें और सब कुछ याद रहा, सिवाए उसके कि जो भूगोल से संबंध रखता था। मुख्य बात यह थी कि उनके लिए गांवों के नक्शे भूगोल नहीं, बल्कि भूगोल की पढ़ाई के वास्ते तैयार करने और उनमें भौगोलिक रुचि जागृत करने के लिए क्या किया जाना चाहिए।

विद्यार्थियों के लिए किसी भी कहानियां थीं। भूगोल से मिलती जुलती सिर्फ एक किताब ऐसी थी, जो थोड़ी-बहुत रोचक थी, हालांकि उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। मैं समझता हूं कि यह किताब इसकी सर्वोत्तम मिसाल है कि बच्चों को घटना की रोचकता की कसौटी यह नहीं होती कि वह इतिहास में कितना महत्व रखती है, बल्कि यह होती है कि इतिहासकार ने - और ज़्यादातर मामलों में तो लोक परंपरा ने - उसे कितने कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है।

रोचकता की जरूरत
रोमुलस और रीमस का इतिहास इसलिए रोचक नहीं है कि इन भाइयों ने विश्व के एक सबसे शक्तिशाली राज्य की स्थापना की थी, बल्कि इसलिए रोचक है कि उन्हें मादा भेड़िया द्वारा दूध पिलाए जाने, आदि की कहानियां बड़ी मजेदार, आश्चर्यजनक और सुंदर लगती हैं। ग्राकस बंधुओं को इतिहास अपनी कलात्मकता के कारण दिलचस्प है। इसी तरह , ग्रेगोरी सातवें और मारे गए सम्राट के इतिहास में भी रोचकता के सभी तत्व मौजूद हैं। मगर जातियों के महादेशांतरण के इतिहास में कोई मज़ा नहीं आएगा और वह निरर्थक भी होगा, क्योंकि उसकी विषयवस्तु में कलात्मकता नहीं है; ठीक वैसे ही कि जैसे मुद्रण के आविष्कार के इतिहास में भी नहीं है, चाहे हम विद्यार्थी को कितना भी विश्वास क्यों न दिलाएं कि यह इतिहास में एक पूरे युग को प्रतिनिधित्व करता है और गुटेनबर्ग एक महान व्यक्ति था। अगर आप अच्छे, रोचक ढंग से बताएंगे कि दियासलाई कैसे ईजाद हुई थी, तो विद्यार्थी कभी नहीं मानेगा कि दियासलाई का आविष्कारक गुटेनबर्ग से कम महान आदमी था।

संक्षेप में, बच्चे के लिए, या कहें तो विद्यार्थी के लिए, जिसने जीवन अभी शुरू भी नहीं किया है, सामान्य मानवीय रुचि की तो बात ही क्या, ऐतिहासिक रुचि नाम की भी कोई चीज़ नहीं है। जो है, वह सिर्फ कलात्मक रुचि है।

कहते हैं कि सभी कालों के इतिहास को कलात्मक ढंग से पेश किया जा सकता है। मगर मैं इससे सहमत नहीं हूं। इतिहास को । लोकप्रिय बनाने के लिए कलात्मक आवरण नहीं चाहिए, बल्कि जैसे कि कभी-कभी परंपरा, स्वयं जीवन और महान विचारक तथा कलाकार करते हैं, इतिहास की परिघटनाओं को सजीव बनाने की जरूरत है। बच्चों को इतिहास तभी पसंद आता है, जब उसकी अंतर्वस्तु में कलात्मकता का पुट होता है। उनके लिए ऐतिहासिक रुचि का कोई अस्तित्व नहीं है और न ही हो सकता है, और इसलिए बाल इतिहास नाम की भी न कोई चीज़ है, न ही हो सकती है।

इतिहास कलात्मक विकास के लिए सामग्री का काम कभी-कभार ही करता है, और जब तक ऐतिहासिक रुचि विकसित नहीं होती, इतिहास का प्रश्न भी नहीं उठ सकता।

यही बात भूगोल के संबंध में भी है। जब मित्रोफानुश्का से भूगोल सीखने को कहा गया, तो उसकी अम्मा बोली, “सारी दुनिया को जानकर क्या मिलेगा? कहीं जाना होगा, तो गाड़ीवान खुद ले जाएगा।'' भूगोल के विरुद्ध इससे ज्यादा कड़ी बात कोई नहीं कही गई है और दुनिया का कोई भी विद्वान ऐसी अकाट्य दलील का जवाब नहीं दे सकता। मैं यह पूरी गंभीरता से कह रहा हूं। मुझे बार्सीलोना नदी और नगर की स्थिति को जानने की क्या जरूरत थी, अगर 33 वर्ष तक एक बार भी यह ज्ञान मेरे किसी काम नहीं आया?

जहां तक मैं समझता हूं, मेरी आत्मिक शक्तियों के विकास में बार्सीलोना और उसके निवासियों का सबसे सुंदर चित्रण भी सहायक नहीं हो सकता था। स्योम्का और फेद्का  को पीटर्सबर्ग के जलमार्गों को जानने की क्या जरूरत है, अगर जैसी कि संभावना है, वे वहां कभी नहीं जा पाएंगे? अगर स्योम्का का वहां कभी जाना होगा भी, तो उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि उसने यह स्कूल में पढ़ा था या नहीं, क्योंकि तब इन जलमार्गों को वह व्यवहार में जान ही जाएगा और अच्छी तरह जान जाएगा। मैं नहीं समझ सकता कि उसकी आत्मिक शक्तियों के विकास में इस बात की जानकारी से कोई मदद मिल सकती है कि वोल्गा में सन से लदे जहाज़ नीचे की ओर जाते हैं और अलकतरे से लदे जहाज़ ऊपर की ओर; कि दुबोब्का नाम का एक बंदरगाह है; कि फलां भूमिगत परत फलां जगह तक जाती है; कि । सामोयेद लोग बारहसिंगा गाड़ियों पर सफर करते हैं, वगैरह-वगैरह।

मेरे पास गणित, प्रकृति, भाषा और कविता से संबंधित ज्ञान का एक पूरा भंडार है, जिसे देने के लिए मुझे पूरा वक्त नहीं मिल पाता। फिर मेरे परिवेशी जीवन द्वारा उठाए गए अनगिनत प्रश्न भी हैं, जिनका विद्यार्थी उत्तर चाहता है; और जिनका उत्तर देने से पहले। जरूरी है कि मैं उसे ध्रुवक्षेत्रीय बर्फ, उष्णकटिबंधीय देशों, ऑस्ट्रेलिया के पहाड़ों, अमरीका की नदियों, आदि से परिचित कराऊं।

इतिहास और भूगोल में अनुभव एक ही बात कहता है और हर कहीं हमारे विचारों की पुष्टि करता है। हर कहीं भूगोल और इतिहास गलत ढंग से पढ़ाए जाते हैं, परीक्षाओं के कारण पहाड़ों, नगरों और नदियों को, राजाओं और महाराजाओं को रट लिया जाता है। हर कहीं इन विषयों के अध्यापन पर असंतोष दिखाया जाता है, नए की तलाश की जाती है और तलाश असफल रहती है। मजे की बात तो यह है कि सभी मानते हैं कि भूगोल में अपेक्षाओं और सारी दुनिया के स्कूली विद्यार्थियों की भावना के बीच सामंजस्य नहीं है। और इसके नतीजे के तौर पर बच्चों को ये शब्द याद करवाने के हजारों विलक्षण उपाय सोचे जाते हैं। जबकि यह बहुत मामूली विचार किसी को भी नहीं सूझता कि इस भूगोल की, इन शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं है; कि इन शब्दों को जानना कतई जरूरी नहीं है। भूगोल को भूविज्ञान, प्राणिविज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, नृजातिवर्णन, और दूसरे भी न जाने किन-किन विज्ञानों से जोड़ने की, इतिहास की जीवनकथाओं से जोड़ने की सभी कोशिशें खोखले सपने हैं। ये ऐसी घटिया किताबों को जन्म देते हैं, जो न बच्चों के काम की हैं, न किशोरों के और न अध्याकों का कोई मतलब हल करती हैं, और न आम जनता का ही। सच तो यह है कि अगर भूगोल और इतिहास की इन तथाकथित नई किताबों के लेखक एक क्षण के लिए भी सोचते कि वे चाहते क्या हैं, और स्वयं इन किताबों के आधार पर पढ़ाकर देखते, तो उन्हें मालूम हो जाता कि उनकी सारी मेहनत कितनी व्यर्थ थी।

पहली बात तो यह है कि प्राकृतिक विज्ञानों और नृजातिवर्णन के साथ जोड़ने से भूगोल एक सा अत्यंत बोझिल विज्ञान बन जाएगा। कि जिसके अध्ययन के लिए सारा जीवन भी पूरा नहीं पड़ेगा और जो बच्चों की समझ में अकेले भूगोल से भी कम आएगा और ज्यादा शुष्क । होगा। दूसरे, ऐसी किताब लिखने के लिए शायद हज़ार साल बाद ही पर्याप्त सामग्री मिल सकेगी। क्रापीब्ना उयेज्द में भूगोल पढ़ाते । हुए मैं विद्यार्थियों को उत्तरी ध्रुव के जीव तथा वनस्पति जगत तथा भूवैज्ञानिक बनावट के बारे में विस्तार से बताने को बाध्य होऊंगा, क्योंकि इसके लिए मेरे पास आवश्यक सामग्री होगी। जबकि पड़ोस के ही उयेज्दों के बारे में। लगभग कुछ नहीं बता सकेंगा, क्योंकि इसके लिए कोई सामग्री नहीं होगी। मगर बच्चे और सामान्य बुद्धि मुझसे अध्यापन में संतुलन बनाए रखने की अपेक्षा करते हैं।

विकल्प यही रह जाता है कि या तो पाठ्यपुस्तक में जो लिखा है, उसे आंख मूंदकर पढ़ाऊं, या बिल्कुल भी न पढ़ाऊं। जैसे इतिहास के लिए ऐतिहासिक रुचि जागृत की जानी चाहिए, ठीक वैसे ही भूगोल के लिए भौगोलिक रूचि जगायी जानी चाहिए। और मैंने पाया है कि भौगोलिक रुचि या तो प्राकृतिक विज्ञानों द्वारा जगाई जाती है, या फिर यात्राओं द्वारा। वैसे 100 में से 99 मामलों में भौगोलिक रुचि यात्राओं का परिणाम होती है। जिस प्रकार अखबार और मुख्यतः जीवनियां पढ़ना और अपनी मातृभूमि के राजनीतिक जीवन में रुचि लेना इतिहास के अध्ययन की दिशा में पहले कदम का काम करते हैं; वैसे ही यात्राएं भूगोल के अध्ययन के लिए पहले कदम का काम करती हैं। आज के युग में अखबार, आदि पढ़ना और यात्राएं सबके लिए सुलभ और सुगम बन गए हैं और इसलिए हमें इतिहास और भूगोल के अध्यापन से संबंधित पुराने विश्वास को छोड़ने से डरना चाहिए। इस मामले में आज जीवन स्वयं इतना शिक्षाप्रद है कि अगर वास्तव में भूगोल और इतिहास का ज्ञान सामान्य विकास के लिए इतना आवश्यक होता, जितना कि हमें लगता है, तो जीवन सदा इस कमी को स्वयं पूरी कर देगा...। आज खगोलशास्त्र, अलंकारशास्त्र, काव्य शास्त्र, लैटिन, आदि नहीं पढ़ाए जाते। मगर इससे मानवजाति पहले से ज्यादा मूर्ख नहीं हो गई है। नए विज्ञान पैदा हो रहे हैं। प्राकृतिक विज्ञान लोकप्रिय बनने लगे हैं। विलोप पुराने विज्ञानों को, या अगर ठीक-ठीक कहें तो विज्ञानों के उन पहलुओं का भी होना चाहिए, जो नए विज्ञानों के आविर्भाव के कारण निरर्थक बन गए हैं।

रुचि जगाना, यह जानना कि विभिन्न देशों में लोग कैसे रहते हैं, कैसे रहते थे, कैसे पैदा हुए तथा बढ़े? उन नियमों के ज्ञान में रुचि जगाना, जिनसे मानवजाति हमेशा निदेशित होती है, और दूसरी ओर, सारे भू-मंडल पर प्रकृति की घटनाओं के नियमों और मानववंश के प्रसार के नियमों को समझने में। रुचि जगाना दूसरी बात है। मैं इसके लिए दो ही उपाय जानता हूं : कविता की कलात्मक अनुभूति और देशप्रेम। इन दोनों को विकसित करने के लिए अभी कोई पाठ्यपुस्तकें नहीं लिखी गई हैं, और जब तक वे नहीं हैं, हमें इसके तरीके खोजने चाहिए, न कि युवा पीढ़ी को मात्र इसलिए ही भूगोल तथा इतिहास सीखने पर विवश करना और अपने समय और शक्ति का अपव्यय करना चाहिए कि हमें इतिहास और भूगोल सिखाया गया था।


लेव तोलस्तोयः प्रसिद्ध रूसी साहित्यकार और शिक्षाशास्त्री जन्म: 1828 और मृत्युः 1910 लेव तोलस्तोय - शिक्षाशास्त्रीय रचनाएं, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को द्वारा 1987 में प्रकाशित।