माधव केलकर

कुछ दशकों पहले तक यह मान्यता थी कि प्रीकैम्ब्रियन चट्टानों में जीवाश्म नहीं मिलते। आज हमने साढ़े तीन अरब साल पुराने जीवाश्म खोज निकाले हैं। लेकिन हमारी मुख्य समस्या यह है कि हमारे फॉसिल रिकॉर्ड में केवल चंद कड़ियां ही हैं। ऐसी ही एक कड़ी को ढूंढ निकालने की कोशिश की है एक भारतीय भू-वैज्ञानिक ने, और वह भी भारत की ज़मीं पर ...।

कुछ महीने पहले अखबार की 1 सुर्खियों में जादवपुर वि. वि. - के प्रोफेसर पी. के. बोस का नाम आया था। हुआ कुछ यूं था कि बोस ने चुरहट (म. प्र. के रीवा जिले में) के पास प्रीकैम्ब्रियन चट्टानों में जटिल बहुकोशीय जंतुओं के जीवाश्म* (फॉसिल्स) खोज निकाले थे। जिन चट्टानों में ये फॉसिल्स पाए गए थे उन्हें एक अरब साल से भी ज्यादा पुराना माना जाता है। इस आधार पर इन जीवाश्मों की आयु भी 1 1 0 करोड़ साल बताई गई है। बोस की इस खोज को वैज्ञानिक किस हद तक मान्यता देते हैं यह अभी बहस का विषय है लेकिन यह सब पढ़ने के बाद मुझे यह बात परेशान करने लगी कि प्रो. बोस की खोज में क्या खास बात है और ऐसी कौन-सी पेचिदगियां हैं जो इस पर इतनी बहस हो रही है।

इस पूरे मुद्दे में पेचिदगियां कई सारी हैं इसलिए बेहतर होगा इन्हें सिलसिलेवार समझने की कोशिश करें।

जीवाश्मों ने दिए सबूत
धरती पर जीवन के विकास को लेकर इंसान काफी परेशान रहा है। धार्मिक मान्यताओं में जीवन के विकास की कई तरह की व्याख्याएं दी जाती रही हैं। लेकिन 19 वीं सदी में पहली बार वैज्ञानिक तर्को और जीवाश्मों के साक्ष्य के आधार पर पृथ्वी पर जीवन के विकास को समझने की कोशिश की गई। 19 वीं सदी में पृथ्वी पर जीवन के विकास को लेकर काफी सारे शोधकार्य हो रहे थे। इन शोधकार्यों में जीवाश्मों का बारीकी से अध्ययन करके यह पता लगाने की कोशिशें हो रही थीं कि धरती पर विभिन्न जीवों के आगमन का क्रम पता किया जाए। इन जीवाश्मों की मदद से कुछ हद तक धरती पर जीवन का विकासक्रम समझा जा सका। उस समय जिन चट्टानों में सबसे प्राचीन फॉसिल पाए गए थे उन्हें कैम्ब्रियन युग की चट्टानें कहा गया; जिन्हें अब 60 करोड़ साल पुराना माना जाता है। जीवाश्मों की मदद से (यहां उन जीवाश्मों की बात हो रही है जो नंगी आंखों से देखे जा सकें) लगभग पिछले 60 करोड़ सालों के बारे में ही जानकारी मिल सकी।

एक बात सभी विकास-वादियों और जीवाश्मविदों की समझ में आ रही थी कि जिन जीवों को क्रमवार जमाया

*जीवाश्म के मायने हैं चट्टानों में पाए जाने वाले जीव के किसी भी किस्म के अवशेष। जीवाश्मों के अंतर्गत लाखों साल पुराने हाथी के अवशेष से लेकर किसी चट्टान में पाए जाने वाले एक कोशिकीय जीवों के अवशेष को शामिल किया जाता है। इस लेख में अधिकांश जगह एक कोशिकीय माइक्रोफॉमिल्म की ही बात की गई है।

नामकरण की परंपरा

भूविज्ञान में भी अन्य विषयों की तरह चट्टानों व फॉसिल्स के नामकरण करते समय स्थान, खोजकर्ता, किसी प्रसिद्ध व्यक्ति, किसी स्थानीय जनजाति तथा स्थानीय परिवेश को ध्यान में रखा जाता है। जैसे भारत के संदर्भ में ही बात करें तो चट्टानों के एक समूह को गोंडवाना ग्रुप नाम दिया गया है। उड़ीसा में देखी गई एक चट्टान को स्थानीय खोंड़ा जनजाति के नाम पर खोंडालाइट नाम दिया गया, एक अन्य चट्टान का नाम गोंडाइट रखा गया है। आपको यह जानकर हैरत होगी कि एक चट्टान का नाम चारनोकाइट रखा गया है जिसे संभवतः कलकत्ता शहर की नींव रखने वाले जॉब चारनॉक की याद में रखा गया है। भूविज्ञान के काल चक्र में कैम्ब्रियन, डिवोनियन, सिलुरियन, ओविशियन जैसे नामों में भी यही स्थानीय तत्व काम कर रहा है।

गया है वे सभी बहुकोशीय जीव हैं। लेकिन पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत एकदम बहुकोशीय जीवों से नहीं हुई होगी। 19 वीं सदी के जीवाश्म विज्ञानी और विकासवादी खोजते रह गए लेकिन माइक्रोफॉसिल को खोज पाने की तकनीकी जानकारी के अभामें उन्हें 600 करोड़ साल से पुरानी चट्टानों (जिन्हें 'प्रीकैम्ब्रियन' या 'कैम्ब्रियन पूर्व कहा गया) में कोई भी जीवाश्म नहीं मिला और उन्होंने यह मान लिया कि प्रीकैम्ब्रियन चट्टानों में जीवन के कोई साक्ष्य नहीं मिलते।

बीसवीं सदी में धरती पर मौजूद सबसे पुरानी चट्टानों* के बारे में जानकारी मिलने के बाद यह समस्या और गहराने लगी कि चार अरब साल पहले धरती पर्याप्त रूप से ठंडी हो चुकी थी तो फिर आरंभिक जीवन की कड़ियां उन चट्टानों में फॉसिल के रूप में क्यों नहीं मिलतीं? एकदम 60 करोड़ साल पहले ही धरती पर बहुकोशीय जीवों के जीवाश्म क्यों मिलने लगते हैं? क्या वाकई बीच का करोड़ों सालों का दौर बिना जीवन का था?

भूविज्ञान में चट्टानों की जब चर्चा होती है तो लाखों, करोड़ों सालों में बातें होती हैं। चट्टानों की उम्र पता करने में यूरेनियम, पोटेशियम, लेड के रेडियो आइसोटोप्स ने खासी मदद की है। इनकी मदद से कनाडा में 3.96 अरब साल पुरानी चट्टान खोजी गई, तो ग्रीनलैंड में 3.80 अरब साल वाली सबसे पुरानी अवसादी चट्टान खोजी गई है। इन्हीं विधियों से धरती की सभी चट्टानों को कैम्ब्रियन पूर्व, कैम्ब्रियन, डिवोनियन......, ट्राइसिक, जुरासिक, क्रिटेशियस जैसे काल खंडों में विभाजित किया गया है।

यह प्रीकैम्ब्रियन है क्या बला
यहां पहले यह समझ लेना उचित होगा कि प्रीकैम्ब्रियन चट्टानों में फॉसिल खोजना दिक्कत का काम क्यों है। अधिकांश प्रीकैम्ब्रियन चट्टानें आग्नेय या अवसादी उत्पत्ति की हैं। दुनिया में प्रीकैम्ब्रियन चट्टानें दक्षिण अफ्रीका, कनाडा, ग्रीनलैण्ड, स्केंडेनेविया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और भारत (भारत में कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश) में फैली हुई हैं। ये चट्टानें 60 करोड़ साल से चार अरब साल पुरानी हैं। प्रीकैम्ब्रियन चट्टानों में से सिर्फ अवसादी चट्टानों में जीवाश्म मिलने की संभावना होती है। इन अवसादी चट्टानों में से अधिकांश काफी हद तक कायांतरित (Metamorphosed) हो चुकी हैं। जब अवसादी चट्टानों का कायांतरण हो रहा होता है तो अत्याधिक ताप और दबाव के कारण चट्टान में इतने अधिक परिवर्तन हो जाते हैं कि उनमें जीवाश्म मिलने की संभावना नहीं होती। इसलिए जब प्रीकैम्ब्रियन अवसादी चट्टानों में फॉसिल खोजने का काम शुरू हुआ तो उन चट्टानों पर ध्यान दिया गया जो कायांतरित न हुई हों या कम-से कम कायांतरण के दौर से गुज़री हों।

एडियाकरा के जीवाश्म
प्रीकैम्ब्रियन चट्टानी परतों में जीवाश्म खोजने का सिलसिला एडियाकरा पहाड़ी से शुरू होता है। दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की एडियाकरा पहाड़ियों पर 1947 में, कुछ बहुकोशीय जीवों के जीवाश्म खोजे गए। (ये छोटे थे परन्तु सूक्ष्मदर्शी के बिना देखे जा सकते थे) ये जीवाश्म छापों के रूप में थे और यह साफतौर पर पता चल रहा था कि इन जीवों का शरीर नरम हिस्सों से बना था। इनकी आयु के बारे में अनुमान है कि ये 68 करोड़ साल पुराने हैं। छापों के आधार पर इन जीवों की पहचान वर्तमान अकशेरुकों (इनवर्टिब्रेट) - स्पंज, जैलीफिश वगैरह से की गई है। एडियाकरा जीवों की मौजूदगी से दुनिया भर में प्रीकैम्ब्रियन चट्टानों में फॉसिल खोजने के काम ने जोर पकड़ा और जल्द ही दुनिया में 20 से भी ज्यादा स्थानों पर एडियाकरा जीवों के समकक्ष फॉसिल खोज लिए गए थे। वैसे एडियाकरा जीवाश्म बहुत पुराने नहीं हैं लेकिन इनकी खोज से पहली बार ऐसा अहसास हुआ कि खोज कार्य ठीक दिशा में चल रहा है।

गनफ्लिंट जीवाश्म
कामयाबी की अगली मंज़िल अमरीका की लेक सुपीरियर के पश्चिम तटीय इलाके में स्थित गनफ्लिंट थी। गनफ्लिंट में तीन से नौ इंच मोटी काली चर्ट (एक अवसादी चट्टान) की एक परत है जिसमें प्रीकैम्ब्रियन फॉमिल पाए गए हैं। ये फॉसिल सुक्ष्मदर्शी से देखे जा सकते थे। गनफ्लिंट परत की आयु के बारे में यह माना जाता है कि यह लगभग 2 अरब साल पुरानी है। 1964 में गनफ्लिंट के जीवाश्मों का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हुई कि यहां मिले जीवाश्मों में बैक्टीरिया तथा एलगी जैसी वनस्पतियों की कई प्रजातियां शामिल हैं।

जब गनफ्लिंट जीवाश्मों का अध्ययन किया जा रहा था उन्हीं दिनों एक मजेदार वाकया हुआ। एक जीव-वैज्ञानिक एम. सीगेल मिट्टी में रहने वाले सूक्ष्मजीवों पर शोध कर रहे थे। वे यह जानना चाहते थे कि बहुत ऊंचे तापमान पर, या बिना ऑक्सीजन, या बहुत ही कम ऑक्सीजन की मौजूदगी जैसी वायुमंडलीय स्थितियों में भी मिट्टी में रहने वाले कुछ सूक्ष्म जीव किस तरह जीवित रह पाते हैं। अध्ययन के लिए उन्होंने वेल्स और अलास्का से मिट्टी के नमूने भी इकट्ठे किए थे; और उन्होंने कुछ सूक्ष्म जीभी खोज लिए थे। उन्होंने जब गनफ्लिंट जीवाश्मों के चित्र देखे तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि ये जीव तो उनके द्वारा खोजे गए सूक्ष्मजीवों से मेल खाते हैं। सीगेल द्वारा खोजे गए सूक्ष्म जीव की कोशिका में कोई केन्द्रक नहीं था। लगभग इसी तरह की बातें गनफ्लिट में पाए गए बैक्टिरिया के बारे में भी देखी गई थी। सीगेल की खोज से इस बात की पुष्टि हुई की इस किस्म के सूक्ष्मजीव धरती पर पहले भी थे।

इसके बाद यह पता करने की

अपेक्स चर्ट जीवाश्मः अभी तक खोजा गया सबसे पुराना जीवाश्म। इसे 1993 में जे. विलियम स्कूप ने पश्चिम ऑस्ट्रेलिया से खोज निकाला। यह साढ़े तीन अरब साल पुराने जीवाश्म हैं। स्कूप यह मानते हैं कि ये जीव साइनोबैक्टिरिया समूह से संबंधित हैं और संभवत: प्रकाश संश्लेषण भी करते थे। उनकी मान्यता का आधार जीवाश्म के रूप में मिले जैविक पदार्थों के विश्लेषण हैं। यहां चित्र में जीवाश्मों के माइक्रोफोटोग्राफ के साथ उनके रेखाचित्र भी दिए गए हैं।

कोशिश की गई कि गनफ्लिंट की दो अरब साल पुरानी वनस्पतियां उस समय प्रकाश संश्लेषण जैसी क्रियाएं करती थीं या नहीं? गनफ्लिंट में जैविक पदार्थों के जो अवशेष मिले थे उनमें कार्बन के दो आइसोटोप कार्बन12 और कार्बन13 के अनुपात को पता किया गया। (वायुमंडलीय कार्बन डायऑक्साइड में कार्बन12, 99 प्रतिशत और कार्बन13, 1 प्रतिशत होता है ।) आमतौर पर जिन वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती है उनमें कार्बन की मात्रा एक प्रतिशत से भी कम हो जाती है। गनफ्लिंट में मिले जैविक पदार्थ में भी कार्बन13 की मात्रा कम पाई गई यानी वे एलगी जैसी वनस्पतियां प्रकाश संश्लेषण करती थीं यह अनुमान लगाया गया।

फिगट्री के जीवाश्म
जब खोज कार्य ने ज़ोर पकड़ा तो दक्षिण अफ्रिका में प्रीकैम्ब्रियन चट्टानों में खोजबीन के दौरान ट्रांसवाल प्रांत के फिगट्री इलाके में एक और सफलता मिली। 400 फीट मोटे चर्ट (एक किस्म की अवसादी चट्टान) नामक चट्टानी स्तर में कुछ जैविक पदार्थ और सूक्ष्म जीवाश्म (माइक्रोफॉसिल) की छाप देखी गई। रेडियो आइसोटॉप्स विधि से इन चट्टानों की आयु 3.2 अरब साल तय हुई। यानी ये गनफ्लिंट के जीवाश्मों में और एक अरब साल पुराने थे

फिगट्री के माइक्रोफॉसिल को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि जब इन चट्टानों की पतली काट को सूक्ष्मदर्शी से देखा जाता था तो जैविक पदार्थों की परतें ही दिखाई देती थीं। फिर चट्टान के बड़े टुकड़ों से इन जैविक परतों को बाहर निकाल करके (कार्बन रेप्लिका विधि) इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल किया गया तो नलाकार, गोलाकार जैविक

फिगट्री के जीवाश्म: बायां चित्र
इयोबेक्टेरियम का इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से लिया गया फोटोग्राफ। इनमें जीवाश्म में कोशिका की बाहरी और भीतरी परतें दिखाई दे रही हैं। कोशिका भित्ती की मोटाई है 0.15 माइक्रॉन। इस बैक्टिरिया की कोशिका भित्ती की मोटाई वर्तमान बेसिलस बैक्टिरिया की कोशिका भित्ती से मेल खाती है।
नीचे: फिगट्री में पाए गए गोलाकार आरचियोस्फेरॉइड बारबरटोनेसिस के दो थिन सेक्शन फोटोग्राफ दिए गए हैं। इन गोलों का व्यास 20 माइक्रॉन से कम है।

इस तरह पता चलता है माइक्रोफॉसिल का ....

अब तक आपके दिमाग में यह सवाल ज़रूर उठा होगा कि यह पता कैसे चलता है कि चट्टान में माइक्रो फॉसिल हैं या नहीं? सबसे पहले तो प्रीकैम्ब्रियन चट्टानों की खोज की जाती है, फिर इन चट्टानी परतों में भी उन परतों को चुना जाता है जिनका कायांतरण न हुआ हो। उसके बाद इन परतों में खोजबीन शुरू होती है। यदि इन परतों में कार्बनिक पदार्थों की मौजूदगी का पता चलता है तो इनमें जीवाश्म मिलने की संभावना होती है। ऐसी चट्टानों को इकट्ठा करते हैं और फिर एक-एक करके इन चट्टानों के छोटे टुकड़ों को कांच की पट्टी पर चिपकाकर टुकड़ों की घिमाई करके उन्हें आधे मिलीमीटर से कम मोटाई तक घिसा जाता है (इसे थिन मेक्शन कहा जाता है)। फिर साधारण सूक्ष्मदर्शी की मदद से इनका अध्ययन किया जाता है। कभी-कभी इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की मदद से भी इन चट्टानों का अध्ययन किया जाता है तब जाकर माइक्रोफॉमिल का पता चलता है।

संरचनाएं दिखाई देने लगीं; जिनकी पहचान शुरुआती बैक्टिरिया तथा ब्लू ग्रीन एलगी के रूप में की गई। एक और ग्वाम बात यह थी कि आमतौर पर ब्लू-ग्रीन एलगी कॉलोनी बनाकर रहते हैं लेकिन फिगट्टी में ये अलग अलग थे। नलाकार जीव को इओ बैक्टेरियम आइसोलेटम (Eobacterium Isolactum) नाम दिया गया। गोलाकार जीवों को आरचियो स्फे रॉयड बारबरटोनेसिस (Archaeo Sphaeroides barbertonesis) नाम दिया गया।

बिटर स्प्रिंग के माइक्रोफॉसिल
ऑस्ट्रेलिया के बिटर स्प्रिंग की प्रीकैम्ब्रियन चर्ट की परतों में कुछ एक कोशीय माइक्रोफॉसिल देखे गएबिटर स्प्रिंग चर्ट की आयु लगभग 82 करोड़ साले बताई जाती है। बिटर स्प्रिंग में इस बात के प्रमाण मिले हैं। कि कोई एक कोशीय जीव लैंगिक प्रजनन (सेक्सुअल रिप्रोडक्शन) से अपनी संख्या बढ़ाने में सक्षम हो गया था। यहां मेरा आशय यह नहीं है कि एक कोशीय जीवों ने इस क्षमता को 82 करोड़ साल पहले ही हासिल किया है। एक कोशीय जीवों में इस तरह की क्षमता पहले ही विकसित हुई होगी लेकिन अभी हमारे पास लैंगिक प्रजनन के इससे भी पुराने जीवाश्मीय सबूत नहीं हैं।

फॉसिल रिकार्ड में है खाली स्थान
ऊपर दिए गए वर्णन से एक ऐसी छवि बनती है कि फिगट्टी चट्टानों में जीवन के जो अवशेष मिलते हैं उस

बिटर स्प्रिंग के जीवाश्म: वे एक कोशीय जीव जिनकी कोशिका में माइटोकांड्रिया जैसी संरचनाएं मौजूद थीं। बिटर स्प्रिंग में चर्ट की परतों में जे, विलियम स्कूप ने एक ग्रीन एलगी की विभिन्न स्थितियों को खोज निकाला जिसकी मदद से कोशिका विभाजन का एक क्रम सामने आ सका है। ऊपर कोशिका विभाजन संबंधी माइक्रोफोटोग्राफ हैं और नीचे उन्हीं को रेखाचित्र द्वारा दिखाने की कोशिश की गई हैं।
स्केल: माइक्रॉन यानी एक मिलीमीटर का एक हजाग्वां हिस्मा।

जीवन के बारे में हमारी जानकारी सीमित है। फिर गन फ्लिंट में जीवन के जो लक्षण दिखते हैं उनसे पता चलता है कि प्रकाश संश्लेषण जैसी क्रियाएं शुरू हो गई थीं। बिटर स्प्रिंग से एडियाकरा - कैम्ब्रियन युग में एक कोशीय जीवन तेजी से जटिल बहुकोशीय जीवों-वनस्पतियों में तब्दील होता हुआ दिखता है।

एडियाकरा की बात हम पहले ही कर चुके हैं। तो कुल मिलाकर 82 करोड़ साल पुराने बिटर स्प्रिंग के एक कोशीय जीव इतनी जल्दी, मात्र 14 करोड़ सालों में किस तरह बहुकोशीय जीव में तब्दील हो गए यह समझ पाना खासा कठिन काम है।

इस तरह यह बात तो साफतौर पर समझ में आती है कि हमारे पास फॉसिल की मदद से पिछले साढ़े तीन अरब साल का इतिहास उपलब्ध है लेकिन इस रिकॉर्ड में काफी सारे ऐप्स हैं जिसका मुख्य कारण है कि हमारे  

धरती पर जीवन का विकास

जीवन के विकाम को लेकर भूवैज्ञानिकों, जीववैज्ञानिकों, विकासवादियों के अलग-अलग मत हैं। फिर भी ऐसा माना जाता है कि -

लगभग 4.5 अरब साल पहले पृथ्वी अस्तित्व में आई। तब उसकी सतह काफी गरम थी जो है कि:धीरे-धीरे ठंडी हुई। धरती पर जीवन के रूप में अस्तित्व में आए पानी में रहने वाले एक कोशीय जीव। (बैक्टिरिया आदि) जो सरल कोशिका से बने थे, जिसमें केन्द्रक अना था। इन्हें प्रोकेग्योटिक मेल कहा गया।

इसके बाद कैल्शियम कार्बोनेट से बनी स्ट्रोमेटोलाइट की परतें मिलती हैं। स्ट्रोमेटोलाइट

पास पृथ्वी पर जीवन के विकास के सारे घटनाक्रम फॉसिल के रूप में मौजूद नहीं हैं। इसलिए बिल्कुल पक्के तौर पर यह बता पाना काफी कठिन हो गया है कि ठीक किस समय पृथ्वी पर एक कोशीय जीव आए, या एक सरल कोशिका (Prokaryotic Cell) में विकास होकर ठीक किस समय उसमें माइटोकांड्रिया या क्लोरोप्लास्ट बने। ले देकर हमारे पास बतौर सबूत अपेक्स चर्ट, फिगट्री, गनफ्लिट, जैसे उदाहरण हैं लेकिन इनके भी बीच में करोड़ों साल का फासला है। इस बीच के समय में धरती पर जीवन के विकास में क्या हुआ यह अभी भी पक्के तौर पर बता पाना कठिन है। इसी तरह गनफ्लिंट से एडियाकरा के बीच और क्या-क्या घटित हुआ बता पाना अभी संभव नहीं है। यानी अभी और खोजबीन करनी होगी तभी फॉसिल रिकॉर्ड के गेप्स को पाटा जा सकेगा।

एक बार फिर प्रो. बोस की खोज पर आते हैं। मेरे ख्याल से प्रो. बोस की खोज को फॉसिल रिकॉर्ड के खाली-स्थान को पाटने की एक कोशिश माननी चाहिए। अभी भी आधुनिक बहुकोशीय जीवन की शुरुआत का एकमात्र सबूत एडियाकरा जीवाश्मों पर ही टिका हुआ है। आज जबकि काफी सारे विकासवादी, वैज्ञानिक पक्के तौर पर यह मानते हैं कि बहुकोशीय जीवन की शुरुआत शायद और भी पहले हुई होगी लेकिन फिलहाल हमारे पास कोई सबूत नहीं है। बोस की खोज इस बात का सबूत बन सकती है यदि यह खोज वैज्ञानिकों द्वारा तय की गई कसौटियों पर खरी उतरती है। यदि ऐसा होता है तो हमें बहुकोशीय जीवन की शुरुआत को 110 करोड़ साल पर ले जाने का

समुद्री ब्लू-ग्रीन एलगी और बैक्टिरिया द्वारा उत्सर्जित कैल्शियम कार्बोनेट से बनता है। विकास के इस दौर में बिना ऑक्सीजन के भी जिंदा रह सकने वाले जीव प्रमुखता से उपस्थित थे।

--इसके बाद उन ब्लू-ग्रीन एलगी का नंबर आता है जो आजकल के पौधों की तरह प्रकाश संश्लेषण कर ऑक्सीजन दे सकते थे। इस तरह धरती के वायुमंडल में धीरे-धीरे ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी।
--विकास की अगली पायदान पर वो एक कोशीय जीव खड़े थे जिनकी कोशिकाओं में केन्द्रक, माइटोकांड्रिया, क्लोरोप्लास्ट जैसी संरचनाएं थीं। और जो जनन करने में भी सक्षम थे।
--एडियाकरा के बहुकोशीय जीव स्पंज, जैली फिश वगैरह से मेल खाते जीव थे।
--बहुकोशीय जीवों के विकास में अगली क्रांति कैम्ब्रियन समय में हुई जब मोलस्का, आर्थोपोड़ा, जैसे समूह के जीव तेज़ी से पनपने लगे।
--धीरे-धीरे एम्फीबियन, कीट, कोनिफर वनस्पतियां, रेप्टाइल, पक्षी, स्तनधारी इस धरती पर अवतरित हुए।

प्रो. पी. के. बोस द्वारा चुरहट के पास खोजे गए 110 करोड़ साल पुराने बहुकोशीय जीव की बलुआ पत्थर पर दिख रही छाप का एक चित्र।
इस जलीय जीव के बारे में ऐसा माना जाता है कि यह तल में सुरंग बनाकर उसमें रहता था।

मौका मिलेगा। यानी हम कह सकते हैं कि धरती पर बहुकोशीय जीवन की शुरुआत लगभग 110 करोड़ साल पहले हो चुकी थी।

यहां इस बात को तो मानकर चलना होगा कि अभी भी हम प्रीकैम्ब्रियन जीवन के बारे में काफी कम जानते हैं और इस कमतर जानकारी को पूरा करने का एक ही तरीका है। कि खोज के काम को लगातार जारी रखा जाए और इसी खोजबीन में पी. के. बोस जैसे और भी कई लोग जुटे हुए हैं।


माधव केलकर: संदर्भ में कार्यरत हैं और उन्होंने भूगर्भ शास्त्र में अध्ययन किया है।