लॉयाड विलियम टेलर एवं फॉरेस्ट ग्लेन टकर

तकरीबन जब से दिशासूचक बना, तभी से सामान्य तौर पर यह पता था कि चुम्बकीय दिशासूचक ठीक उत्तर की ओर इंगित नहीं करता है। एक चीनी खगोलशास्त्री ने आठवीं सदी में बताया था कि उसके इलाके में दिशासूचक का विचलन दक्षिण से 3 अंश पश्चिम की ओर है। एक अन्य स्थान पर विचलन दक्षिण से 5o 15' पूर्व की ओर था एवं 300 साल बाद इसी स्थान पर विचलन बढ़कर 7° 30' हो गया था। इन अवलोकनों से (समय के लिहाज से) मापन की सटीकता का परिचय मिलता है। अलबत्ता, ये बिखरे हुए अवलोकन थे। चुम्बकीय विचलन के व्यवस्थित मापन का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता। यह काम काफी बाद में पाश्चात्य विश्व में हुआ।

चुम्बकीय विचलन के व्यवस्थित अध्ययन को शुरुआती गति देने का काम सन् 1492 में क्रिस्टोफर कोलम्बस ने किया। वह उस समय अपने हिसाब से ईस्ट इंडीज़ की समुद्री यात्रा पर था। स्पेन के राजा व रानी को लिखे एक पत्र में कोलम्बस ने अपनी खोज का वर्णन कियाः

"जब मैं स्पेन से वेस्ट इंडीज़ की ओर यात्रा कर रहा था तब मैंने देखा कि एज़ोर्स से 100 लीग पश्चिम की ओर बढ़ने पर ....... दिशासूचक की सुई, जो तब तक उत्तर-पूर्व की ओर इंगित कर रही थी, उत्तर पश्चिम की ओर घूम गई।''

जैसे ही यह अफवाह फैली कि दिशासूचक अनपेक्षित व्यवहार कर रहा है, जहाज़ के यात्रियों में खलबली मच गई थी। कोलम्बस ने किसी तरह उन्हें तसल्ली दी। उसने उन्हें यह समझाया, और उसे यकीन भी था कि वास्तव में दिशासूचक के नहीं बल्कि ध्रुव तारे के व्यवहार में विचित्रता है। साथियों के बीच बतौर खगोलशास्त्री उसकी अच्छी साख ने मामला सुलटा दिया। और अमरीका की खोज' के मार्ग में उत्पन्न एक और खतरा टल गया।

धीरे-धीरे दुनिया के अलग-अलग भागों में चुम्बकीय विचलन का तथ्य साबित हुआ तथा इसे रिकॉर्ड किया गया। चुम्बकीय विचलन की प्रथम प्रामाणिक तालिका रॉबर्ट नॉर्मन ने कोलम्बस के अवलोकन के लगभग 100 साल बाद सन् 1581 में तैयार कीआज दुनिया के हर हिस्से के चुम्बकीय विचलन के विस्तृत चार्ट उपलब्ध हैं। इनमें समान विचलन वाले स्थानों से गुजरती हुई रेखाएं खिंची होती हैं। इन रेखाओं को समदिक्पाती रेखाएं (Isogonic Lines) कहते हैं। चूंकि विचलन में निरंतर बदलाव होते रहते हैं इसलिए ये चार्ट समय-समय पर नए सिरे से बनाने पड़ते हैं।

दरअसल जिस बात ने कोलम्बस को हैरत में डाला वह विचलन से संबंधित नहीं थी। विचलन की बात तो बहुत पहले से ज्ञात थी। कोलम्बस को इस बात पर हैरत हुई कि शून्य विचलन के क्षेत्र भी होते हैं। यह वह रेखा है जिस पर चुम्बकीय सुई ठीक भौगोलिक उत्तर की ओर इंगित करती है। स्वाभाविक भी है कि पूर्व की ओर विचलन से पश्चिम की ओर विचलन तक पहुंचने में सुई शून्य विचलन से

समदिक्पाती रेखाएं: इस नक्शे के बाहरी किनारों पर दिए गए अंक भौगोलिक अक्षांश और देशांतर हैं। नक्शे के भीतर समदिक्पाती रेखाएं हैं। इनमें पूर्वी विचलन दिखाती रेखाएं काली हैं और पश्चिमी विचलन दर्शा रही रेखाएं डॉटेड हैं। समदिक्पाती रेखा का अर्थ है कि उस रेखा पर किसी भी बिन्दु पर रखी गई चुंबकीय सुई भौगोलिक उत्तर से समान विचलन दिखाएगी यानी 20 डिग्री पश्चिम की समदिक्पाती रेखा पर कहीं भी चुंबकीय सुई रखी जाए तो वह ठीक भौगोलिक उत्तर की तरफ इंगित नहीं करेगी बल्कि उससे 20 डिग्री के कोण पर स्थिर रहेगी।

इस मानचित्र में चुंबकीय उत्तर-दक्षिण ध्रुव व चुंबकीय भूमध्यरेखा भी दिखाई गई है। चुंबकीय भूमध्यरेखा यानी पृथ्वी पर वे स्थान जहां चुंबकीय सुई को झुकाव (विचलन नहीं) शून्य हो यानी कि जहां चुंबकीय सुई एकदम क्षैतिज रहती है।

गौर से देखें तो इस नक्शे में कुछ रेखाओं पर उत्तर की ओर इंगित कर रहे तीर बने। हैं; ये शून्य विचलन वाले इलाके हैं जहां चुंबकीय सुई ठीक भौगोलिक उत्तर दर्शाती है। ऐसे ही एक इलाके का जिक्र कोलंबस ने भी किया था।

होकर गुजरेगी हीं।

कोलम्बस ने शून्य विचलन वाले क्षेत्र का संबंध कुछ जलवायु परिवर्तनों, चन्द काल्पनिक खगोलीय गड़बड़ियों से जोड़ दिया। उसने यह भी माना कि शून्य विचलन का संबंध ‘सर्गासो सागर' से है जहां समुद्री वनस्पतियों का मशहूर जमावड़ा है। लिहाज़ा कोलम्बस का ख्याल था कि उसने एक ऐसा स्थान खोज लिया है जो पूरी धरती पर अनोखा व अद्वितीय है।

दिशासूचकः कुछ व्यापक असर
कोलम्बस की तरह पोप एलेक्जेण्डर षष्ठम् के मन में भी इसी तरह के विचार पनपे होंगे, इसीलिए उन्होंने शून्य विचलन की इस रेखा को धरती के दो हिस्सों के बीच राजनैतिक विभाजन की रेखा निरूपित किया। पोप ने व्यवस्था बनाई कि इन दो हिस्सों में खोजा जाने वाला कोई भी नया इलाका क्रमशः स्पेन व पुर्तगाल को मिलेगा। स्पेन व पुर्तगाल दोनों उस समय विश्व शक्तियां थीं।

पुर्तगाल के तत्वाधान में 'वास्को डी गामा' ने भी दिशासूचक की मदद से काफी साहसिक यात्राएं कीं। उसने ‘केप ऑफ गुड होप' से होकर 'ईस्ट इंडिया' का एक नया मार्ग खोज निकाला और इस तरह से कोलम्बस की अमरीका खोज को निरर्थक कर दिया। अर्थात् जहां कोलम्बस हार गया था, वहां वास्को डी गामा सफल हो गया। ईर्ष्या से जलते हुए स्पेन ने मेगेलान को आदेश दिया कि वह समुद्री मार्ग से पश्चिम की ओर यात्रा करते हुए उसी स्थान पर पहुंचने का प्रयास करे ताकि ईस्ट इंडीज को अपने (स्पेन के) अधीन किया जा सके।

स्थिति यह थी कि शून्य विचलन की रेखा से पूर्व की ओर यात्रा करके यह स्थान खोजा गया था, अतः यह पुर्तगाल के हिस्से में आता था। अब यदि इसी रेखा से पश्चिम की ओर बढ़ते हुए इस स्थान तक पहुंचा जा सके तो स्पेन इस पर अपना दावा कर सकता था। पोप एलेक्जेण्डर की व्यवस्था की यही व्याख्या थी।

मेगेलान ने सन् 1520-22 के दौरान पूरी धरती का चक्कर लगाकर इस स्थान पर अण्डे गाड़ दिएइस होड़ का आर्थिक-राजनैतिक परिणाम जो भी रहा हो, मगर उस वजह से विज्ञान ने जो तरक्की की उससे तो सभी देश लाभान्वित हुए ही।

तो धरती के चुम्बकत्व के अध्ययन से जो उपलब्धियां हुईं उन्हें किस पैमाने पर तोला जाए? व्यापक आर्थिक फेरबदल; राजनैतिक होड़ और उनसे उत्पन्न भयानक युद्ध; लोगों का अभूतपूर्व आवागमन; नस्लों का मेल जोल तथा विभिन्न संस्कृतियों व धर्मों पर इसका प्रभाव; वैज्ञानिक खोजें जिनके फलस्वरूप जीवन के नए स्तर परिभाषित हुए?

संक्षेप में, यह दुनिया जो एक दर्जन सदियों से निश्चेष्ट पडी थी अचानक एक सर्वथा नए नस्लवादी उद्यम की ताकत से हरकत में आ गई। और इसकी पृष्ठभूमि में थी एक छोटी-सी चुम्बकित सुई जो एक चूल पर अस्थिर ढंग से टिकी थी - मगर सदैव उत्तर की ओर इशारा करती हुई।

चुम्बकीय नमन की खोज
चुम्बक के मामले में खोजों की तो यह शुरुआत भर थी। जैसा कि अधिकांश अन्य मामलों में होता। रहा है, चुम्बक के संदर्भ में भी ज्ञानार्जन को इस बात से रफ्तार मिली कि यह काम समाज के लिए उपयोगी है। इसके बाद, एक के बाद एक खोज के बीच सदियों का नहीं केवल दशकों का अंतराल रहा।

सन् 1544 में न्यूरेमबर्ग के एक पादरी जॉर्ग हार्टमैन ने देखा कि एक अचुम्बकित स्टील की सुई अपनी चूल पर संतुलित रहती है, मगर जैसे ही इसे चुंबकित किया जाता है इसका उत्तरी सिरा धरती की ओर झुक जाता है। उसने अपनी इस खोज की खबर ‘प्रशिया' के काउंट अल्बर्ट को दी मगर पेरेग्राइन की ही तरह उसका खत भी अगले तीन सौ साल तक लोगों की नज़र से छिपा रहा।

इस प्रभाव को सन् 1576 में रॉबर्ट नॉर्मन ने फिर से खोजा। रॉबर्ट नॉर्मन वही है जिसने बाद में सन् 1580 में चुंबकीय विचलन का प्रथम चार्ट छापा। सुई का चुम्बकीय नमन (झुकाव) काफी ज्यादा था। दरअसल इस अक्षांश पर धरती का चुम्बकीय क्षेत्र क्षैतिज नहीं बल्कि उर्ध्वाधर ही ज्यादा होता है। नॉर्मन ने एक सुई बनाई जो क्षैतिज की बजाए उर्ध्व तल में घूमती थी। इसकी मदद से नॉर्मन ने लंदन में चुंबकीय सुई के झुकाव का मान 71 50

नॉर्मन की चुंबकीय सुईः यह सुई उर्ध्व तल में घूम सकती थी। इसकी मदद से नॉर्मन ने लंदन में चुंबकीय झुकाव पता लगाया।

निकाला। सन् 1581 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'न्यू एट्रेक्टिव' में नॉर्मन ने अपनी खोज का ब्यौरा इन शब्दों में प्रस्तुत कियाः

“मैंने पाया कि सुई को लोडस्टोन से स्पर्श करने के बाद उत्तर बिन्दु कुछ मात्रा में क्षितिज से नीचे की ओर झुक जाता है। इसे फिर से संतुलित करने के लिए मुझे दक्षिण बिन्दु पर थोड़ा मोम लगाना पड़ा।"

चुंबकीय विचलन की तरह अब पृथ्वी के समस्त हिस्सों के लिए चुंबकीय नमन (या उन्नयन) के मान निकाले जा चुके हैं। इन्हें समनमन रेखाओं से दर्शाया भी गया है। नमन भी समय के साथ बदलता रहता है। नॉर्मन के वक्त में लंदन में चुंबकीय सुई का झुकाव 71" 50' था, वह बाद के 150 वर्षों में बढ़कर अधिकतम 74° 42' तक पहुंचा और तब से यह कम होता जा रहा है।

चुम्बकीय क्षेत्र की शक्ति
विचलन व झुकाव पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के दो पक्ष हैंकुछ अर्थों में, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की शक्ति या तीव्रता की जानकारी कहीं ज्यादा महत्व रखती है। अलबत्ता इस अवधारणा का विकास काफी देर से हुआ। इस दरम्यान चुम्बकत्व के

चुंबकीय झुकाव और विचलनः आमतौर पर दिक्सूचक को उत्तर ध्रुव जिस दिशा में रुकता है वह भौगोलिक उत्तर से कुछ हटकर होती है। भौगोलिक उत्तर से हटाव या विचलन को विचलन कोण कहा जाता है। (चित्र-1)

यदि चुंबकीय सुई को इस तरह कील में फंसाया जाए कि वह उर्ध्वाधर दिशा में भी धूम सके तो चुंबकीय सुई झुकाव को भी दर्शाती है। (चित्र-2) यह झुकाव चुंबकीय भूमध्य रेखा पर सबसे कम यानी शून्य डिग्री होता है तथा चुंबकीय ध्रुवों पर नब्बे डिग्री होता है। किसी एक जगह पर भी चुंबकीय झुकाव समय के साथ-साथ बदलता रहता है।

अन्य पहलुओं को लेकर प्रमुख खोजें चलती रहीं। इन्हें हम कुछ समय के लिए एक तरफ रखकर पहले धरती के चुम्बकीय क्षेत्र की बात पूरी कर लेते हैं।

सन् 1776 में एक फ्रेंच गणितज्ञ व खगोलशास्त्री ज्यां चार्ल्स बोर्ड ने एक तरीका खोज निकाला जिससे धरती के अलग-अलग स्थानों के चुम्बकीय क्षेत्रों की तीव्रता की तुलना की जा सकती थी। उसका तरीका दोलक द्वारा गुरुत्वत्वरण की तुलना की विधि के ही समान था। दोलन करती किसी चुम्बकीय सुई पर, दोलक की ही तरह, पृथ्वी के चुंबकीय बल क्षेत्र की तीव्रता का असर पड़ेगा। अंतर सिर्फ इतना है। कि एक मामले में असर पृथ्वी के गुरुत्व बल का है तथा दूसरे मामले में चुम्बकीय बल का। सामान्य दोलक के दो स्थानों पर दोलन से हमें उन दो स्थानों पर गुरुत्व बल की तीव्रता का अनुपात पता चलता है, मान नहीं। इसी प्रकार से चुम्बकित सुई के मामले में भी हम दो स्थानों की चुम्बकीय तीव्रता का अनुपात ही निकाल सकते हैं। लिहाजा जब तक कि धरती के चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता को परम राशि (Absolute Value) के रूप में व्यक्त करना संभव नहीं हुआ, तब तक अलग-अलग प्रेक्षकों के अवलोकनों या एक ही प्रेक्षक द्वारा अलग-अलग सुई से लिए गए अवलोकनों की तुलना संभव न थी। यह स्थिति काफी समय बाद सन् 1833 में बदली।

प्रारम्भिक चुम्बकीय सर्वेक्षण
यह अत्यंत रोचक बात है कि पहला व्यापक चुम्बकीय सर्वेक्षण सन् 1698 में एडमण्ड हैली ने किया था। यह पहला मौका था जब किसी सरकार ने खालिस वैज्ञानिक मकसद से की जा रही यात्रा को अनुदान दिया थाबदकिस्मती से हैली सिर्फ विचलन व नमन नापने की स्थिति में था। उसके पास तीव्रता की अवधारणा नहीं थी और यदि होती भी तो परम मान निकालने में असमर्थता के चलते उसके अवलोकन बेकाम ही रहते। हैली के प्रयास के लगभग सौ साल बाद सरकारी सहायता से दूसरे चुम्बकीय सर्वेक्षण का मौका आया। इस मर्तबा बोर्ड ने सन् 1785 में दो जहाज़ों से दक्षिण सागर की यात्रा की योजना बनाई। बदकिस्मती से ये दोनों जहाज़ गुम हो गए। किन्तु एक जहाज़ पर मौजूद एक अफसर ने हादसे से पूर्व लिए गए कुछ अवलोकन फ्रांसीसी विज्ञान अकादमी को भेजे। ये प्रथम आंकड़े थे जिनसे पता चलता था कि अक्षांश बढ़ने के साथ पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता भी बढ़ती है। आज हम जानते हैं कि पृथ्वी के क्षेत्र की तीव्रता अपने अधिकतम बिन्दु पर न्यूनतम की अपेक्षा तीन गुना ज्यादा है। इन दो बिन्दुओं पर नमन कोण क्रमशः 87 और 8° हैं

आजकल पृथ्वी के चुम्बकीय चार्ट तीन-तीन के समूह में होते हैं। पहले दो चार्ट समविचलन (आइसोगोनिक) व समनमन (आइसोक्लिनिक) रेखाओं के होते हैं तथा तीसरा चार्ट समतीव्रता (आइसोडायनेमिक) रेखाओं का होता है। इन तीनों नक्शों के आधार पर हम दुनिया के लगभग किसी भी बिन्दु पर धरती की चुम्बकीय स्थिति पता कर सकते हैं।

विचलन व नमन की तरह पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता भी निरंतर बदलती रहती है। प्रायः ये परिवर्तन धीमी गति से होते हैं किन्तु सन् 1722 से दैनिक व घण्टेवार परिवर्तनों का अस्तित्व भी पता चला है। इसके अलावा यकायक परिवर्तन भी होते हैं। कभी-कभी ये परिवर्तन बहुत तेजी से होते हैं और प्रायः (सदैव नहीं) इनका संबंध सूर्य के धब्बों व 'ऑरेरा बोरिएलिस* से होता है। यह संबंध सन् 1740 से ज्ञात है।

भूचुंबकत्वः कारणों की खोज
पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में होने वाले उतार-चढ़ाव पृथ्वी के बाहर होने वाली घटनाओं से उत्पन्न होते हैं, इस खोज ने पृथ्वी के चुम्बकत्व की उत्पत्ति की तलाश को नया जीवन दे दिया। इस संदर्भ में प्राचीन काल से चली आ रही एक परिकल्पना यह थी कि लोडस्टोन के पर्वत होते हैं। ईसा पूर्व द्वितीय सदी में यूनानी कवि और चिकित्सक कोलोफोन के निकेण्डर' ने इस मिथक को जन्म दिया कि चुम्बकीय पत्थर की खोज मैग्नस ने संयोगवश की थी। प्लाइनी ने प्रथम ईस्वी सदी में इसे अपनी पुस्तक 'नेचुरल हिस्ट्री में स्थान दिया और इस कथा को और विस्तार दे दियाः

"सिंधु नदी के निकट दो पर्वत हैं; एक की प्रकृति लोहे को आकर्षित करने की है तथा दूसरे की विकर्षण की। अतः यदि जूते में कीलें लगी हों, तो एक पर्वत से पैर उठाया नहीं जा सकता और दूसरे पर पैर रखा नहीं जा सकता।''

एक सदी पश्चात् जब टोलेमी ने ‘ज्यॉग्रफी' लिखी तब उसने प्रथम पर्वत को दक्षिण चीन के तट पर स्थित एक टापू में तब्दील कर दिया और कहा कि जिन जहाज़ों को कीलों से जोड़ा गया हो वे इस टापू की ओर खिंचकर चिपक जाते हैं। तेरहवीं सदी तक यह कथा और विस्तार पा चुकी थी। कथा

*उत्तर ध्रुवीय इलाकों में अक्सर आकाश में लाल-हरी रंग-बिरंगी रोशनियां दिखती हैं जिन्हें ऑरेरा बोरिएलिस या उत्तर ध्रुवीय प्रकाश कहते हैं। दक्षिणी ध्रुवीय इलाकों में भी ऐसा ही प्रकाश दिखता है जिसे ‘ऑरेरा ओस्ट्रेलिस' कहते हैं।

के नए संस्करण में इस टापू को भूमध्य सागर में सरका दिया गया और इसे एक जलमग्न पर्वत का रूप दे दिया गया। इस पर्वत में ऐसी क्षमता थी। कि यह पास से गुजरते जहाजों की सारी कीलें खींच लेता था, जिससे जहाज के अस्थि पंजर खुल जाते थे। अपने विकास के दौरान किसी वक्त यह कथा ‘अरेबियन नाइट्स' में स्थान पा गई, जो वाकई इसका सही स्थान था।

परन्तु, इस दरम्यान चुम्बकीय टापू की कथा ने वैज्ञानिक साहित्य पर भी गहरा प्रभाव छोड़ा। चुम्बकीय सुई के रुकने की दिशा की व्याख्या में यह उपयोगी हो सकती थी। लिहाज़ा चुम्बकीय भण्डारों को एक बार फिर सरकाया गया - इस बार उन्हें सरकाकर ग्रीनलैण्ड के उत्तर में स्थित किसी जगह पर भेज दिया गया।

विलियम गिल्बर्ट: गिल्बर्ट ने चुंबक को लेकर काफी सारे प्रयोग किए और धरती के चुंबकत्व को लेकर परिकल्पना पेश की।

अलबत्ता, जब सोलहवीं सदी में यह साफ हो गया कि चुम्बकीय सुई के व्यवहार की व्याख्या हेतु चुम्बकीय पदार्थ का जितना भण्डार जरूरी होगा वह धरती के कुल आयतन का एक बड़ा भाग होगा, तभी जाकर नए सिद्धांत की तलाश की तलब शुरू हुई। यह नया सिद्धांत विलियम गिल्बर्ट ने सन् 1600 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘डी मेग्नेट' में प्रतिपादित किया।

गिल्बर्ट की किताब, डी मेग्नेट
‘विलियम गिल्बर्ट' को बहुधा ‘चुम्बकत्व का जनक' कहा जाता है। यह संज्ञा शायद इस अर्थ में सही है। कि उसने तब तक संकलित चुम्बकत्व संबंधी समस्त ज्ञान में से सत्यापन योग्य ज्ञान को अगली पीढ़ी को सौंपने का अहम काम किया था। उसे आमतौर पर जितना श्रेय दिया जाता है, उसका वास्तविक वैज्ञानिक योगदान उससे कम भी है और ज्यादा भी। कम इस मायने में कि, हालांकि वह मौलिकता में किसी से पीछे न था किन्तु चुम्बकत्व के ज्ञान में उसका प्रमुख योगदान एक वैज्ञानिक खोजकर्ता के रूप में कम और एक विश्वकोश निर्माता के रूप में ज्यादा था। ज्यादा इस अर्थ में कि उसने आधुनिक विज्ञान की संपूर्ण भावना में ग्रंथ लिखने में गैलीलियो को पूरा एक पीढ़ी पीछे छोड़ दिया था।

पेरेग्राइन की ही तरह गिल्बर्ट ने भी लोडस्टोन को एक गोले का आकार दिया। इसे वह टेरेला (छोटी धरती) कहता था। अलबत्ता पेरेग्राइन के विपरीत गिल्बर्ट अपने गोले के चुम्बकीय गुणों को धरती के चुम्बकीय गुणों के सदृश मानता था। पेरेग्राइन की ही तरह गिल्बर्ट ने भी लोडस्टोन गोले के विभिन्न बिन्दुओं पर चुम्बकीय सुई का नमन देखा - ध्रुवों पर त्रिज्या की दिशा में, मध्य रेखा पर स्पर्श रेखा के समान्तर व अन्य बिन्दुओं पर इनके बीच। गिल्बर्ट को, अलबत्ता, यह जानकारी भी थी कि धरती के समकक्ष बिन्दुओं पर भी चुम्बकीय सुई लगभग इसी तरह व्यवहार करती है। लिहाजा गिल्बर्ट इस स्थिति में था कि इन दो के बीच समानता स्थापित कर सके। पेरेग्राइन को यह जानकारी उपलब्ध न थी।

पार्थिव चुम्बकत्व और गिल्बर्ट
उक्त सादृश्य (Analogy) एक बड़ा योगदान था। पृथ्वी को एक विशाल चुम्बक मानने का विचार आज इतना जाना-माना है कि संभवतः हम यह न समझ पाएं कि पहली बार इस विचार के प्रस्तुत होने का क्या महत्व रहा होगा। यह विचार इतना स्वाभाविक और सरल लगता है फिर भी दो हजार बरसों तक चुम्बक की क्रिया के इर्द-गिर्द जो अटकल बाजी चली उसमें शायद गिल्बर्ट से पहले

1. छोटी धरती: धरती के चुंबकीय गुणों को समझने के लिए गिल्बर्ट ने लोड स्टोन को गोलाकार बनाया। इस गोले को उसने टेरेला (छोटी धरती) कहा। उसने इस गोले पर विभिन्न बिन्दुओं पर चुंबकीय सुई के झुकाव को देखा और पाया कि धरती का चुंबकत्व भी सुई के साथ ऐसा ही व्यवहार करता है।

2. छड़ चुंबक का चुंबकीय क्षेत्रः गिल्बर्ट पहला व्यक्ति था जिसने किसी छड़ चुंबक के चुंबकीय क्षेत्र का रेखाचित्र प्रस्तुत किया। यह चित्र उसकी पुस्तक ‘डी मेग्नेट' से लिया गया है। भौगोलिक उत्तरी ध्रुव से चुंबकीय सुई के विचलन की व्याख्या करते हुए उसने यह रेखाचित्र प्रस्तुत किया था।

3. चुंबकित करनाः किसी लोहे के टुकड़े को चुंबकित करने के तरीके का ब्यौरा देते हुए गिल्बर्ट ने बताया कि गर्म करके, पीटते हुए ठंडा करते समय यदि लोहे को चुंबकीय उत्तर या दक्षिण के समान्तर रखें तो लोहे में चुंबकीय गुण आ जाते हैं। यहां लोहे को चुंबकित करने का एक दृश्य, गिल्बर्ट की किताब से।

चुंबकीय विचलन और झुकाव का ब्यौराः लंदन में सन् 1540 से चुंबकीय विचलन और चुंबकीय नमन कोण में आए बदलावों को रिकॉर्ड किया गया है। सन् 1540 में विचलन 7 डिग्री पूर्व की ओर था और नमन कोण लगभग 69 डिग्री था। इसके बाद इसमें लगातार बदलाव होता दिखता है। सन् 1700 में विचलन 6 डिग्री पश्चिम की ओर था और नमन कोण लगभग 74 डिग्री था और सन् 1963 में विचलन 6 डिग्री पश्चिम में था और नमन कोण लगभग 67 डिग्री था।

किसी को यह ख्याल तक नहीं आया कि दिशासूचक जिस ढंग से घूमता है वह इसलिए है कि पृथ्वी खुद एक चुम्बक है।

मगर बदकिस्मती से गिल्बर्ट ने मामले का जरा अतिसरलीकरण कर दिया। उसने कल्पना की कि पृथ्वी ‘टेरीन पदार्थ से बनी है जो लोडस्टोन की ही फितरत रखता है। इस कल्पना के मुताबिक हवा-पानी झेलते-झेलते पृथ्वी के अधिकांश खुले भाग से यह गुण लुप्त हो गया है जबकि अंदरूनी भाग अभी भी ‘आदि रूप में है। पृथ्वी को एक विशाल चुम्बक निरुपित करती यह अवधारणा वैज्ञानिक सोच में एक वास्तविक योगदान था हालांकि आज हम इसके आधार पर पृथ्वी के संघटन की व्याख्या नहीं करते। पृथ्वी के क्षेत्र में उतार-चढ़ाव का तथ्य गिल्बर्ट के सिद्धांत को चुनौती देता था। गिल्बर्ट ने इस तथ्य को ही अस्वीकार कर दिया, हालांकि उसके सामने इसके स्पष्ट प्रमाण थे। भौगोलिक उत्तर से चुंबकीय सुई के विचलन की व्याख्या करते हुए गिल्बर्ट ने एक छड़ चुंबक के चुम्बकीय क्षेत्र का प्रथम रेखाचित्र प्रस्तुत किया था।

गिल्बर्ट ने कॉपर्निकस द्वारा प्रस्तुत घूमती पृथ्वी की अवधारणा को अपनाया जबकि उस जमाने में ऐसा करना खतरे से खाली न था। गिल्बर्ट ने इस अवधारणा को अपने नए सिद्धांत का सहारा दिया और कहा कि पृथ्वी का घूर्णन तथा चुम्बकत्व संबंधित हैं तथा चुम्बकत्व के कारण ही पृथ्वी घूमती है। केपलर ने इस सुराग को पकड़ा और इसका विस्तार किया एवं इसके आधार पर सूरज के इर्द-गिर्द ग्रहों की परिक्रमा की व्याख्या कर दी।

गिल्बर्ट ने यह भी दर्शाया कि जब लोहे की एक छड़ को गर्म करके चुम्बकीय धुववृत्त के समान्तर रखकर ठण्डा करते वक्त पीटा जाता है तो वह चुम्बकित हो जाती है।

गिल्बर्ट बहुत मेहनती था और एक बार कोई काम शुरू करने पर किसी कीमत पर रुकता नहीं था। एक बार उसने 75 हीरे प्राप्त किए सिर्फ उस प्राचीन विश्वास की जांच करने के लिए - जिसके अनुसार हीरा चुम्बकीय पदार्थों का चुम्बकत्व नष्ट कर देता है।

अपनी कर्मठता पर उसने स्वयं यह टिप्पणी की थीः

"परंतु यदि किसी को यहां व्यक्त मत सहमति के योग्य न लगें और वे मेरे कुछ विचित्र विचारों को स्वीकार न करना चाहें, तो भी वे उन अनगिनत प्रयोगों और खोजों - जिनके आधार पर दर्शन मूलतः फलता-फूलता है - पर ध्यान दें; और हमने इन्हें बहुत तकलीफों व रतजगों और बहुत पैसा खर्च करके खोजा है तथा प्रदर्शित किया है। .....इस किताब में एक भी बात ऐसी नहीं है जिसकी छानबीन न की गई हो और जिसे हमारी अपनी आंखों के सामने बार-बार करके दोहराया न गया हो।"

गिल्बर्ट की मौलिकता शायद इसलिए ज्यादा फलदायी रही क्योंकि यह विषयवस्तु की नहीं बल्कि विधि की मौलिकता थी। उस समय के लिहाज़ से यह महत्वपूर्ण बात थी। उसने अपने पूर्ववर्तियों के अथक परिश्रम का पूरा लाभ उठाया मगर लगभग हर चीज़ को प्रायोगिक जांच की कसौटी पर परखा।

यदि हम गिल्बर्ट की गलतफहमियों के प्रति संवेदनशील रुख अपनाएं, जो शायद उसके जमाने को देखते हुए अनिवार्य भी है, तो चुम्बकत्व के हमारे आधुनिक ज्ञान का जनक होने का उसका रुतबा गलत नहीं लगता। इसके बाद भी हम गिल्बर्ट से पूर्ववर्ती

चुंबकीय दिक्सूचकः चीन में हॉन राजाओं के समय में इस्तेमाल किया जाने वाला एक प्राचीन दिक्सूचक। मैग्नेटाइट (लोडस्टोन) को चम्मच की शक्ल देकर उसे एक बोर्ड पर रखा जाता था। इस बोर्ड पर चम्मच स्वतंत्र रूप से घूम सकता था और दिशासूचक का काम करता था।

खोजियों को पूर्ववर्ती जनक कह ही सकते हैं। साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि गिल्बर्ट ने पृथ्वी के चुम्बकत्व की उत्पत्ति संबंधी जो सिद्धांत दिया था, वह अस्वीकार्य साबित हो चुका है।

पृथ्वी का चुम्बकत्व : एक पहेली
इस लेख का समापन पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की उत्पत्ति की वास्तविक व्याख्या के साथ होना चाहिए। बदकिस्मती से यह मुमकिन नहीं है। शायद विज्ञान इसी तरह चलता है। इस विषय में आज तक की उपलब्धि यह है कि हमारे पास बारीक अवलोकन व मापन हैं जो पिछले पांच सौ सालों में एकत्रित हुए हैं। इसके अलावा पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की व्याख्या में दो किस्म के प्रयासों को वैज्ञानिक तरजीह मिल रही है। एक है कि इसका श्रेय पृथ्वी के अंदर मौजूद एक या एक से ज्यादा विशाल मगर काल्पनिक चुम्बकों को दे दिया जाए। पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के अनुरूप इन काल्पनिक चुम्बकों के आकार, स्थिति, तीव्रता आदि की गणना का काम सिद्धांतकारों के लिए संतोषप्रद जुगाली का सबब बना हुआ है। ऐसे चुम्बकों के भौतिक अस्तित्व की असंभवता तथा साथ में पृथ्वी के चुम्बकत्व में होने वाले आवर्ती उतार चढ़ावों के चलते इस सिद्धांत की हवा निकलती दिख रही है।

दूसरा प्रयास ऐसा है जो भौतिक रूप से ज्यादा यथार्थवादी किन्तु गणितीय दृष्टि से पेचीदा लगता है। सरल रूप से इसे ऐसे बयान किया जा सकता है। चुम्बकीय क्षेत्र प्रायः विद्युत धारा के परिणाम होते हैं। विद्युत धारा मात्र विद्युत आवेशों की गति का नाम है। यह पता है कि वायुमंडल अत्यंत आवेशित है तथा पृथ्वी के साथ घूमता है। समस्या यह है कि वायुमंडल में आवेश की मात्रा तथा वितरण का निर्धारण करना जो पृथ्वी के चुम्बकत्व की व्याख्या कर सकेगा। इसके बाद यह देखना होगा कि क्या इसका प्रायोगिक सत्यापन किया जा सकता है।

इतना तो स्पष्ट हो ही गया होगा कि इस विषय में अभी हम उस स्थिति तक नहीं पहुंचे हैं कि व्यापक संश्लेषण के द्वारा आगे का रास्ता खुलने की गुंजाइश बने, जबकि कई अन्य विषयों में उम्मीद की वजह बन चुकी है। जब यह व्यापक संश्लेषण होगा तब समस्त संकलित जानकारी बेशक काम आएगी और हम सोचेंगे कि और जानकारी होती तो अच्छा था। तब तक हम एडमण्ड हैली के शब्दों को दोहरा सकते हैं कि ये वे रहस्य हैं जो अब तक मानव जाति को अज्ञात हैं और भविष्य के उद्यम के लिए आरक्षित हैं।


लॉयड विलियम टेलर व फोरेस्ट ग्लेन टकर द्वारा सर्वप्रथम यह लेख 'फिजिक्स द पायोनियर साइंस' में 1944 में प्रकाशित किया गया। मौजूदा लेख टचस्टोन पब्लिशिंग कंपनी द्वारा 1972 में प्रकाशित ‘रियल्म ऑफ साइंस' के खंड 8 से साभार अनुदित।
अनुवादः सुशील जोशी। एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम और स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। इसके अलावा स्वतंत्र लेखन तथा अनुवाद भी करते हैं।

धरती के चुंबकत्व की उत्पत्ति

इस लेख में आपने चुंबकत्व को लेकर इंसानी समझ में आए बदलावों को पढ़ा। यह लेख 55 साल पहले लिखा गया था; धरती के चुंबकत्व के बारे में इसमें जो परिकल्पना प्रस्तुत की गई थी वह आज सुनने को भी नहीं मिलती। आज इस चुंबकत्व की व्याख्या करने के लिए और बहुत-सी परिकल्पनाएं प्रस्तुत की जाती हैं, परन्तु धरती के चुंबकत्व को लेकर अभी भी हमारी समझ बहुत अधूरी है। फिर भी यह जानना तो ज़रूरी है ही कि ये प्रचलित अवधारणाएं क्या हैं, और उनके पीछे क्या तर्क हैं।

अब यह माना जाता है कि पृथ्वी का चुंबकत्व उसकी अंदरूनी संरचना की वजह से है। परन्तु यह भी साफ है कि धरती की भीतरी संरचना को ध्यान से देखें तो इसके केन्द्र से होकर गुजरते हुए किसी विशाल छड़ चुंबक की मौजूदगी का कोई आसार नज़र नहीं आता जैसी कि पहले परिकल्पना की गई थी। धरती की ऊपरी परत जिसे क्रस्ट कहा जाता है, इसके बाद 3000 किलोमीटर मोटाई वाली चट्टानी परत है जिसे मैंटल कहा जाता है, और फिर उसके बाद लगभग 3000 किलोमीटर मोटाई वाला धरती का केन्द्रीय भाग है जिसे कोर कहा जाता है। कोर को बाहरी हिस्सा तरल अवस्था में है तथा बीच का भाग ठोस है। भीतरी ठोस कोर मुख्य रूप से लोहे-निकल से बना हुआ है ऐसा प्रतीत होता है।

अधिकांश भूवैज्ञानिकों का मानना है कि तरल कोर में मौजूद आवेशित कणों की गतिशीलता के कारण ही धरती का चुंबकत्व बना हुआ है। ये आवेशित कण विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं, और ये विद्युत धाराएं अपने इर्द-गिर्द एक चुंबकीय क्षेत्र को जन्म देती हैं। तरल कोर में कणों की गतिशीलता बनी रहती है फलस्वरूप विद्युत धारा की निरंतरता और चुंबकीय क्षेत्र का बना रहना संभव हो पाता है। अब यह सवाल जरूर सामने आता है कि तरल कोर में आवेशित कणों की गतिशीलता को बनाए रखने वाला बल आखिर कहां से आता है?

एक विचार है कि तरल कोर में विद्युत धाराएं बनने का प्रमुख कारण है धरती का अपने अक्ष पर घूमना। इस अक्षीय गति के कारण ही तरल कोर में गतिशीलता बनी रहती है। इस विचार के पक्ष में कई सारे तथ्य सामने आए हैं। जैसे बृहस्पति ग्रह अपने अक्ष पर तेज़ी से घूमते हुए 10 घंटे में एक चक्कर पूरा करता है और उसका चुंबकीय क्षेत्र धरती के मुकाबले ज्यादा शक्तिशाली है। चांद अपने अक्ष पर एक पूरा चक्कर लगभग 28 दिन में पूरा करता है और उसका चुंबकीय क्षेत्र काफी कमजोर है। शुक्र अपने अक्ष पर बहुत ही धीमी गति से घूमता है और उसका चुंबकीय क्षेत्र भी बेहद कमजोर है। यानी जो पिंड अपने अक्ष पर जितनी तेजी से घूमेगा, उसका चुंबकीय क्षेत्र उतना ही शक्तिशाली होगा।

धरती के चुंबकत्व के लिए एक और संभावना है - तरल कोर में बहने वाली संवहन धाराएं। (जैसे पानी को गरम करते समय पानी में नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे संवहन धाराएं चलती हैं।) ठोस कोर से चलने वाली उष्मा तरल कोर में मौजूद आयनों, इलेक्ट्रॉनों को ऊपर-नीचे लाने, ले जाने का काम करती है; फलस्वरूप तरल पदार्थ चुंबकीय क्षेत्र का निर्माण करता है। यह भी संभव है कि धरती की अक्षीय गति और संवहन धाराएं मिलकर चुंबकीय क्षेत्र बनाते हों।

बहरहाल, अभी भी हम किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके हैं। इसलिए भी क्योंकि हमारी धरती का चुंबकत्व बहुत से अजीबो-गरीब कारनामे भी दिखाता है। अगर धरती का इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि धरती का चुंबकत्व काफी अस्थिर है। पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव कुछ हज़ार या लाख साल के अंतराल के बाद पलट जाते हैं यानी जहां उत्तर ध्रुव था वहां दक्षिण ध्रुव और जहां दक्षिण ध्रुव था वहां उत्तर ध्रुव बन जाता है। इतना ही नहीं पलटने से पहले चुंबकीय क्षेत्र काफी कमजोर हो जाता है और ध्रुव इधर -उधर भटकने लगते हैं। ये सब क्यों होता है इसके जवाब की तलाश अभी भी जारी है।

- माधव केलकर