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एक सवाल, अनेक जवाब

सवाल: शीतकाल में एंटार्कटिक पेंग्विन के पैर लगातार बर्फ के साथ सम्पर्क में रहने के बावजूद क्यों नहीं जमते? सालों पहले मैंने रेडियो पर सुना था कि वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है कि पेंग्विन के पैरों में आनुषंगिक (collateral) रक्तसंचार होता है जो उन्हें जमने से बचाता है लेकिन मैंने इसके बारे में कोई और जानकारी या स्पष्टीकरण नहीं देखा है। पेंग्विन पर अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों से मैंने इस बारे में जानने की कोशिश की लेकिन कोई भी इसका उत्तर नहीं दे पाया।

सुज़ेन पेट
एनोगेरा, क्वीन्सलेंड, ऑस्ट्रेलिया

जवाब: ठण्डी जलवायु में रहने वाले अन्य पक्षियों की तरह पेंग्विन में भी, ताप-क्षति को रोकने और लगभग 40 डिग्री सेल्सियस का शारीरिक तापमान बनाए रखने के लिए अनुकूलन होता है। उनके पैर विशेष समस्याएँ पैदा करते हैं क्योंकि उनको पंखों या तिमिवसा (ब्लबर) से ढांका नहीं जा सकता। फिर भी उनकी सतह का क्षेत्रफल बड़ा होता है (इसी तरह की बात ठण्डी-जलवायु में रहने वाले ध्रुवीय रीछों जैसे स्तनधारियों पर भी लागू होती है)।

यहाँ दो तरह की व्यवस्थाएँ काम कर रही हैं। पहला, पेंग्विन रक्त पहुँचाने वाली धमनियों के व्यास को घटा-बढ़ा कर पैरों के रक्त प्रवाह की गति को नियंत्रित कर सकते हैं। सर्दी में प्रवाह घट जाता है, और जब गर्मी बढ़ती है तो प्रवाह बढ़ जाता है। मनुष्य भी ऐसा कर सकते हैं, इसी वजह से जब हमें ठण्ड लगती है तो हमारे हाथ और पैर सफेद हो जाते हैं और जब गर्मी लगती है तो गुलाबी। नियंत्रण बहुत ही परिष्कृत होता है और उसमें हायपोथेलेमस और विभिन्न तंत्रिका व हार्मोन सम्बन्धी तंत्र शामिल रहते हैं।

हालाँकि पेंग्विन में, पैरों के ऊपरी हिस्से में ‘काउंटर-करंट हीट एक्सचेंजर्स’ भी होते हैं। पैरों तक गर्म रक्त पहुँचाने वाली धमनियाँ बहुत-सी छोटी नलिकाओं में बँट जाती हैं। ये नलिकाएँ पैरों से ठण्डा रक्त वापस ला रहीं समान संख्या की शिराओं के साथ करीब से सटी रहती हैं। ऊष्मा का प्रवाह गर्म रक्त से ठण्डे रक्त की ओर होता है, जिसके चलते ऊष्मा बहुत कम मात्रा में नीचे पैरों की तरफ जाती है।

ताप-क्षति को कम करने और उसके साथ-साथ शीतदंश से बचने के लिए, सर्दियों में, पेंग्विन के पैर हिमांक बिन्दु से एक या दो डिग्री ऊपर रहते हैं। बतखों और हंसों के पैरों में भी इसी तरह की व्यवस्था होती है, लेकिन यदि वे कुछ हफ्ते घर के अन्दर गर्म वातावरण में रहें, और फिर बर्फ पर छोड़े जाएँ, तो उनके पैर ज़मीन पर जम सकते हैं क्योंकि उनकी फिज़ियोलॉजी गर्माहट के लिए अनुकूलित हो चुकी होती है और इस कारण पैरों का रक्त प्रवाह लगभग रुक जाता है और उनके पैरों का तापमान हिमांक बिन्दु से नीचे गिर जाता है।

जॉन डेविनपोर्ट
यूनिवर्सिटी मरीन बायोलॉजिकल स्टेशन
मिलपोर्ट, आइल ऑफ कुमरे, यूके

जवाब: मैं आनुषंगिक। रक्तसंचार की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर टिप्पणी नहीं कर सकता, लेकिन पेंग्विन के ठण्डे पैर की समस्या के उत्तर के एक भाग का एक दिलचस्प जैव रासायनिक स्पष्टीकरण है।
हीमोग्लोबिन से ऑक्सीजन का जुड़ाव सामान्यत: एक मज़बूत ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया है। जब हीमोग्लोबिन का एक अणु अपने आप को ऑक्सीजन से जोड़ता है तो एक निश्चित मात्रा में ऊष्मा (क़्क्त) निकलती है। आम तौर पर उलटी क्रिया में जब हीमोग्लोबिन द्वारा ऑक्सीजन छोड़ी जाती है, तो समान मात्रा में ऊष्मा अवशोषित होती है। चूँकि, ऑक्सीकरण और अन-ऑक्सीकरण जीव के अलग-अलग हिस्सों में होते हैं, अत: आणविक वातावरण या यूँ कहें कि बहुत ही छोटे स्तर के बदलाव (उदाहरण के लिए, अम्लीयता) से भी इस प्रक्रिया में कुल ताप की क्षति या वृद्धि हो सकती है।

DH का वास्तविक मान प्रजाति-दर-प्रजाति बदलता रहता है। एंटार्कटिक पेंग्विन में ठण्डे सतही ऊतकों में जिसमें पैर भी शामिल हैं, मनुष्यों की तुलना में क़्क्त काफी कम होता है। इसके दो लाभकारी प्रभाव होते हैं। पहला, इन पक्षियों के हीमोग्लोबिन द्वारा अन-ऑक्सीकरण में कम ऊष्मा अवशोषित होती है जिससे पैरों के जमने की सम्भावना कम हो जाती है।
दूसरा फायदा, ऊष्मागतिकी यानी थर्मोडायनेमिक्स के नियमों का परिणाम है। किसी भी उत्क्रमणीय क्रिया (reversible reaction) में, हीमोग्लोबिन द्वारा ऑक्सीजन के छोड़ने और अवशोषण के दौरान, कम तापमान अभिक्रिया को ऊष्माक्षेपी दिशा में बढ़ाता है, और विपरीत दिशा में रोकता है। इसलिए कम तापमान वाले स्थानों पर, अधिकतर प्रजातियों में हीमोग्लोबिन द्वारा ऑक्सीजन ज़्यादा प्रबलता के साथ अवशोषित होती है, और कम आसानी से निकलती है। अपेक्षाकृत सामान्य क़्क्त होने का मतलब होता है कि ठण्डे ऊतक में हीमोग्लोबिन का ऑक्सीजन बन्धुत्व या ऑक्सीजन के प्रति आकर्षण इतना अधिक नहीं होता कि ऑक्सीजन उससे अलग न हो सके।

प्रजातियों के बीच क़्क्त की इस विविधता के अन्य दिलचस्प परिणाम भी होते हैं। कुछ दक्षिण ध्रुवीय मछलियों में जब ऑक्सीजन विलग होती है तो वास्तव में ऊष्मा निकलती है। यह प्रक्रिया ट्यूना मछली में अत्यधिक मात्रा में होती है, जो ऑक्सीजन के हीमोग्लोबिन से अलग होने पर इतनी अधिक मात्रा में ऊष्मा निकालती है कि इस वजह से वो अपने शरीर के तापमान को अपने बाहरी वातावरण के तापमान से 17 डिग्री सेल्सियस तक अधिक रख सकती है। और हम इनको शीत-रक्त प्राणी कहते हैं!
कुछ जीवों में इनसे उलट होता है। उन्हें अतिसक्रिय चयापचय (metabolism) की वजह से ताप कम करने की ज़रूरत होती है। प्रवासी जल-मुर्गी में कबूतर के मुकाबले ऑक्सीकृत हीमोग्लोबिन का क़्क्त बहुत ज़्यादा होता है। इसलिए जल-मुर्गी बगैर बहुत गर्म हुए लम्बी दूरियों तक उड़ सकती है।

अन्त में, भ्रूण को किसी तरह ताप को कम करने की ज़रूरत होती है, और बाहरी दुनिया के साथ उसका एक मात्र सम्बन्ध माँ की रक्त आपूर्ति होता है। भ्रूणीय हीमोग्लोबिन द्वारा ऑक्सीकरण का DH मातृक हीमोग्लोबिन की तुलना में कम है। उसका परिणाम यह होता है कि ऊष्मा, ऑक्सीजन के भ्रूणीय हीमोग्लोबिन से जुड़ने पर जितनी निकलती है उसकी तुलना में ऑक्सीजन के माँ के रक्त से अलग होने पर ज़्यादा अवशोषित होती है। इस तरह ऊष्मा मातृक रक्त में स्थानान्तरित हो जाती है और भ्रूण से बाहर निकल जाती है।

क्रिस कूपर और माइक विल्सन
यूनिवर्सिटी ऑफ एसेक्स,
कॉलचेस्टर, यूके


अँग्रेज़ी से अनुवाद: पारुल सोनी: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
यह लेख ‘न्यू साइंटिस्ट’ पत्रिका द्वारा सन् 2006 में प्रकाशित पुस्तक ‘वाय डोंट पेंग्विन्स फीट फ्रीज़’ से साभार। यह पुस्तक ‘न्यू साइंटिस्ट’ पत्रिका के ‘लास्ट वर्ड’ कॉलम में प्रकाशित विविध प्रश्नों के पाठकों द्वारा भेजे गए जवाबों का संग्रह है।