लेखक:   रिनचिन
अनुवाद: सुशील जोशी  [Hindi PDF, 397 kB]

कहानी    
बह उठते ही मैं अम्मा का मूड महसूस कर सकता हूँ। वह छोटे-से कमरे में हर जगह फैल जाता है। किवाड़ों की दरारों में से आने वाली हवा भी उसे हटा नहीं सकती। अम्मा का चेहरा, सख्त है और वह मेरी ओर अपनी झूठी वाली मुस्कुराहट मुस्कुरा रही है। जब वह ऐसा करती है तो मुझे बहुत बुरा लगता है। आप उसे किसी और दिन मुस्कुराते देखें, वह मुस्कुराहट एक हँसी जैसी होती है। मैंने भोला को उसकी खिलखिलाती मुस्कुराहट को गर्मियों में बरसात कहते सुना है। अब यह वाली मुस्कुराहट देखे। नीम का काढ़ा।

जिस तरह से वह मुझे कपड़े पहनाती है, जिस तरह के कपड़े वह मुझे पहनाती है, मुझे पता है कि आज हम कौओं के बीच रहेंगे। बड़े-बड़े कमरे, चौड़े बरामदे जहाँ सब लोग फुसफुसा कर बातें करते हैं। दो छोटे-छोटे आदमी बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठे होते हैं, उन छोटी-छोटी मूर्तियों जैसे जो इस साल हमारे गाँव में पहली बार पण्डाल में बैठी थीं। इसमें अम्मा और मैं बहुत छोटे नज़र आते हैं। पिछले दो वर्षों में अम्मा ने कई ऐसे दिन गुज़ारे हैं। मगर मैं उसके साथ अभी-अभी यहाँ आने लगा हूँ। पहले अम्मा भोला के साथ शहर जाती थी।

कस्बे की छोटी अदालत के निकाल के बाद, काले कोट ने उन्हें सिर्फ मेरे साथ आने को कहा था। मैंने अम्मा को पूछते सुना था, “इसे लाना ज़रूरी है क्या? मैं इसे इस सबसे दूर रखना चाहती हूँ।”
“तुम्हें अपने बेटे के साथ दिखना चाहिए, उसे आसपास रखने से तुम एक माँ दिखती हो, एक अच्छी औरत दिखती हो।” अम्मा देर तक काले कोट को घूरती रही, और फिर कड़वी आवाज़ में कहा था, “मैं नहीं जानती अच्छी औरत क्या होती है, तुम लोगों को पता होगा, मैं कभी नहीं सोचती कि मैं क्या हूँ। मुझे तो बस यही सोचना पड़ता है कि लोग क्या सोचते हैं कि मैं क्या हूँ।”

काले कोट ने सिर हिलाया और बोलता गया, “मैं चाहता हूँ कि लोग सोचें कि तुम एक भोली-भाली गाँव की औरत हो, एक सीधी-सादी विधवा।”
इस बार अम्मा थोड़े सख्त लहज़े में बोली थी, “सब जानते हैं कि मैं सीधी-सादी विधवा या जो भी तुम्हारा मतलब है वह तो बिलकुल नहीं हूँ। बताओ, सीधा-सादा क्या होता है?”
काले कोट ने अपना मुँह खोला था, फिर जल्दी ही बन्द कर लिया था। भर्राई आवाज़ में उसने कहा था, “मैं वह सब नहीं जानता, बस इसे कचहरी में लेकर आना, और उस आदमी से कहना कि दूर ही रहे।”

जब अम्मा कुछ नहीं बोली तो उसने ज़ोर से कहा था, “तुम यह केस जीतना चाहती हो या नहीं? वैसे ही यह मुश्किल केस है और तुम्हारी ज़िन्दगी और तुम्हारे सारे लफड़े इसे और उलझा रहे हैं।”
जिस ढंग से उसने अम्मा की ओर देखा और जिस ढंग से बात की, उससे यह नहीं लगता था कि वह अम्मा की तरफ है। अम्मा उसके पास क्यों आई थी? ऐसा लगता नहीं था कि वह अम्मा की मदद करना चाहता था।

दुबला-पतला, सजीला, लगभग अम्मा के डील-डौल का, घुँघराले बाल और बड़ी-बड़ी आँखों वाला भोला जब रात को दबे पाँव घर में आया था, तब अम्मा और उसने अगले चक्कर के बारे में बात की थी। उसने कहा था, “बेहतर होगा कि मगन तुम्हारे साथ जाए।”
“क्यों?” अम्मा ने तीखे स्वर में पूछा था, “क्यों यह मेरे साथ आए, तुम क्यों नहीं? हम क्या कुछ गलत कर रहे हैं? हमारे पास छिपाने को क्या है?” थोड़ा रुककर उन्होंने फिर कहा था, “ऐसा सब करके मुझे लगता है मैं झूठ बोल रही हूँ।”

मुझे वह वाक्य याद है क्योंकि स्कूल में हमें कहा गया था कि झूठ बोलना पाप है, चोरी के बाद दूसरा सबसे बड़ा पाप। मगर मुझे पता है कि कई बार कोई सच बोलता है फिर भी झूठ माना जाता है और सच बोलने पर पिटाई भी हो सकती है, खासकर यदि वह सच मास्साब के बारे में हो। शंकर हमेशा ऐसे ही ‘सच्चे झूठ’ के झमेले में पड़ जाता था। कहीं अम्मा भी उसी जाल में तो नहीं फँस गई है?

“सच बोलने और झूठ बोलने में ज़्यादा अन्तर नहीं है, कि है?” भोला ने अम्मा का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा था। “यह सही है कि तुम एक अच्छी औरत हो। वे इस बात को तभी देख सकेंगे जब तुम मुझे छिपा दोगी और अपना बेटा दिखाओगी, तो ठीक है, यही सही।”
अम्मा की आँखों में आँसू देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था। वो क्यों रो रही थी? ये बातें तो अच्छी लग रही थीं, जो बातें भोला कह रहा था।

और पूरी दुनिया अम्मा के अच्छेपन पर चर्चा क्यों कर रही है? इसमें शक की क्या बात है? सारी माँएँ देवी होती हैं, मास्साब ने यह लाइन बोर्ड पर लिखी थी और हमसे दस बार नकल करने को कहा था। हमें नकल करना पड़ती थी क्योंकि हम अपने से लिख नहीं सकते थे। ज़्यादातर समय वे लिखते थे और हम उतारते थे। वे खुद भी अक्सर एक किताब से उतारते थे।
खैर, अम्मा की बात करें, सारी कुदरती अच्छी माँओं में भी वह सबसे अच्छी थी। वह सबसे बढ़िया कपड़े पहनती थी और मज़दूरी पर जाते समय भी बालों में फूल लगाती थी। और जब मेरे काका लोगों ने हमें घर से निकाल दिया था, तब अम्मा ने घास के मैदान के किनारे अपना मकान भी बना लिया था। यह उस समय की बात है जब सब लोगों ने उसे विधवा कहना शु डिग्री ही किया था। उसकी नई पहचान से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा था, वह अब भी अम्मा ही थी और मैं मैं था। मैंने अपने पिता को कभी नहीं देखा था। सिर्फ सुना था कि मेरा जन्म होने से पहले वे शहर चले गए थे।

अम्मा के बारे में एक और बात थी कि वह कभी अँधेरे से या गुस्सैल मर्दों से डरती नहीं थी। कई बार गाँव की औरतें अक्सर रोते-रोते रात को सोने के लिए आया करती थीं। एक थी जो अपने साथ घासलेट की गन्ध लेकर आती थी। वह सुबक रही थी, अम्मा ने उसे छाती से लगा लिया था और रात भर उसका सिर दबाती रही थी, सोने को मनाती रही थी। भोला पिछले दरवाज़े से निकल गया था।

एक बार गाँव की एक नई-नवेली दुल्हन हमारे घर आई थी सोने को। देर रात दरवाज़ा भड़भड़ाने की आवाज़ से हमारी नींद खुल गई थी। दरवाज़े पर हर चोट के साथ पूरा कमरा काँप उठता था। पूरी रात वह आदमी घर के चक्कर काटते हुए खूब चीखा-चिल्लाया। अम्मा हाथ में चाकू लिए बैठी रही थी। बीच में बैठकर उसने एक तरफ लड़की को सुला लिया और मेरा सिर थपथपाती रही थी। “सुबह सब ठीक हो जाएगा,” उन्होंने लड़की से कहा था, “एक बार शराब उतर जाए तो वह ठीक हो जाएगा।” बताओ कितनी माँएँ इतनी बहादुर होंगी। सबरी की माँ तो इतनी डरपोक है कि जब भी उसे रात में पेशाब करने जाना होता है, वह सबरी या उसकी बहन को उठा देती है। जब लड़की सुबह जाने लगी तो अम्मा ने उसे कुछ खिलाकर भेजा। लड़की सुबह की बस से अपने मायके चली गई, बस के पैसे अम्मा ने दिए थे।

बाद में बूटी काकी तमाम कहानियाँ लेकर आई थीं। उन्होंने अम्मा को बताया कि लड़की का पति अम्मा की शिकायत करने के लिए गाँव की बैठक बुलवाएगा। वह सबसे कह रहा था कि अम्मा उनकी औरतों को अपने जैसा बेहया बना रही है। अपना खुद का घर बरबाद करके और बलात्कार के मामले के बाद से वह दूसरों के घरों में टाँग अड़ा रही है, ईश्वर जानता है कि वह झूठ बोल रही है। अम्मा हँस पड़ी थी, उसकी हँसी चाय में घुल गई थी। नीम का काढ़ा नहीं, गर्मी की बरसात नहीं, दोनों के बीच कहीं। “मरने से तो बेहया अच्छे,” उसने कहा।
उबलते पानी में चाय पत्ती डालते हुए उसने जोड़ा, “वह मेरे दरवाज़े आई थी, मैं कैसे उसे अन्दर न आने देती?”
चाय उफनने लगी और पतीले से निकलने को थी। अम्मा ने आग कम करने के लिए चूल्हे में से मोटी लकड़ी खींच ली और चाय को फूँका।
“मैं क्या उसे मरने को छोड़ देती? मुझसे नहीं होता।”

पतीले में चाय धीरे-धीरे उबल रही थी। “मैं जाकर दूसरों के मामले में टाँग नहीं उलझाती। परन्तु कोई मेरे पास आए, तो जो बन सकता है करती हूँ।” अम्मा ने साड़ी के पल्लू से पतीले को आग से उठाया और चाय गिलासों में डाली।
भाप उनके मुँह पर आ रही थी। “गाँव वालों को जो कहना है कहते रहें।”
वह चाय देने को बूटी काकी की ओर मुड़ी, “और यदि मैं इतनी ही बुरी हूँ, तो उनकी औरतें मेरे पास क्यों आती हैं? और मर्द? वे आसपास मण्डराते क्यों करते रहते हैं? शेर की जूठन खाने को? उनकी औरतों के लिए तो बुरा है मगर खुद के लिए अच्छा है...?” अम्मा ने मेरी ओर देखा, और अपनी बात रोक ली। मगर वह रोक नहीं पाई, “कोई उनके अन्दर की कालिख को देखे। सबके सब एक मौके का रास्ता देख रहे हैं,” उन्होंने बात पूरी की।

जाने से पहले बूटी काकी ने अम्मा से उनकी पीठ की मालिश करने को कहा था। वे फर्श पर लेटी थीं, साड़ी आधी खुली। ब्लाउज़ उतार दिया था। अम्मा ने उनकी पीठ पर तेल लगाया तो उन्होंने सिसकी भरी थी।
“तुमसे अच्छा कोई नहीं करता। इसी कारण मैं यहाँ आने का खतरा मोल लेती हूँ,” उनींदी-सी वे बुदबुदाई थीं।
“तुम रास्ते भर सोच रही होगी कि कोई देख न ले,” अम्मा ने कहा।
“हाँ, पर इसके लिए मैं डाँट तो क्या मार भी सह जाऊँगी,” बूटी काकी ने साँस छोड़ी।

अम्मा हँस पड़ी थी, “कम-से-कम कुछ तो है जो यह बुरी औरत उन औरतों को दे सकती है जो अभी भी अच्छी हैं। आज जब तुम्हारा मर्द बिस्तर में तुम्हारी लोच का कायल हो, तो मेरा शुक्रिया करना।”
बूटी काकी तमतमाकर लाल हो गई थीं, उनकी खिसियानी हँसी आधी बाहर, आधी अन्दर रह गई। मगर मुझे पता है उन्हें ऐसी बातें अच्छी लगती थीं, लगता था कि वे एक-दूसरे को गंदी बातें कह रही हैं। ऐसी बातें जो वे लोगों के सामने नहीं कहेंगी मगर कहने में रस आता है। जैसे गुपचुप कैरी खाना।
जब अम्मा मुझे पहली बार शहर लेकर गई थी, तो बस में मैंने पूछा था कि वह कचहरी क्यों जा रही है।
“न्याय के लिए,” उसने कहा।
“न्याय क्या होता है? मदद?” मैंने पूछा।
“हाँ।”

“तो फिर गाँव के सयानों के पास क्यों न जाएँ? सब लोग हमेशा उनसे ही तो शिकायत करते हैं। अजनबी लोग हमारी मदद क्यों करेंगे?” मैंने जानना चाहा। “और फिर न्याय के लिए भगवान के पास क्यों न जाएँ?”
अम्मा ने अपनी हँसी बिखेर दी। वह हवा को चीरते हुए खिड़की में से उड़ गई। नीम का काढ़ा। “तुम शिकारी से शिकायत थोड़े ही करते हो।”
फिर उन्होंने अपने बालों को सहेजा, “वे नहीं सुनेंगे। वे सबके सब एक जैसे हैं। एक ने मेरे साथ यह किया, मगर लकड़बग्घे तो जूठन पर टूटने को बैठे हैं। वे तो खुद ही चाहते थे कि ऐसा हो, फिर वे क्यों इसके खिलाफ कदम उठाएँगे। सब अपनी बारी का इन्तज़ार कर रहे हैं।” अम्मा ने यह वाक्य तो लगभग मन ही मन बोले थे। मगर मैंने सुने।

अम्मा जहाँ भी ले जाती, मुझे उसके साथ जाना अच्छा लगता था। वैसे अब भी भोला हमारे साथ शहर तो जाता था पर कचहरी नहीं आता था। मगर ऐसे तीन चक्करों के बाद मुझे बरामदों की बेंचों पर बीता समय उबाऊ लगने लगा है। और कमरे के अन्दर तो मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि ठीक से साँस नहीं ले पा रहा हूँ, परन्तु काले कोट ने मुझे चेता दिया है कि एकदम चुप रहना है। जब वह हमें इशारा करेगा, तब अम्मा और मुझे खड़े हो जाना है और जज की ओर देखना है। “मुस्कुराना मत, सीधे देखना और गम्भीर नज़र आना,” उसने सौवीं बार दोहराया। उसे लगता था कि जब वे सब लोग मेरी तरफ घूर रहे हों तब मैं मुस्कुरा सकता हूँ। यदि मेरा बस चलता तो मैं उस कमरे से ही भाग खड़ा होता।

मैंने इतना बड़ा कमरा पहले कभी नहीं देखा था। मोटी-मोटी, चिकनी-चिकनी दीवारें, गर्मियों में ठण्डी और खूब ऊँची छत। लकड़ी काली और चिकनी थी। और जैसा कि मैंने पहले कहा था, यहाँ साँस लेना मुश्किल लगता था जबकि यह इतना बड़ा था। हो सकता है काले कोट और उसके ‘माय लॉर्ड’ ज़्यादा हवा खींचते हों और हमारे लिए बचती ही न हो। उस कमरे के बारे में एक बात और थी - जब भी मैं उस कमरे में होता और दो काले कोट मेज़ के इस पार से कुर्सी पर बैठे अपने लॉर्ड से बात करते, तो पता नहीं क्यों मुझे रुलाई आती थी। वे हमसे कभी नहीं बोलते थे और न ही अम्मा कभी मुँह खोलती थी। सिर्फ एक बार लॉर्ड लोगों ने अम्मा की ओर देखा था, फिर सारे कौओं ने अपनी गर्दनें पीछे घुमा ली थीं। अम्मा और मैं खड़े हो गए थे।

मुझे कभी समझ नहीं आया कि वे एक-दूसरे से क्या कहते थे, कौए और उनके लॉर्ड। मगर हमेशा मेरा गला दुखने लगता था, आधा गुस्सा और आधा दर्द। मगर किस चीज़ पर? यह दर्द वैसा नहीं था जैसे कीरता गुरुजी मेरे हाथ पर बेंत से मारें, थोड़ा वैसा जैसा अम्मा नाराज़ होने पर मुझसे बात करने से इन्कार कर दे। और आजकल तो जब भी काला कोट मुझसे बात करता है, जब भी अम्मा को सवालों के जवाब देने पड़ते हैं, मुझे कमरे के बाहर भी रुलाई आती है। मुझे यह जगह अच्छी नहीं लगती। मगर मैंने अम्मा को यह बात कभी नहीं बताई। एक बार जब हम बस-स्टैण्ड पर मिले थे, तब भोला को बताई थी। वह मुस्कुराया तो नहीं था मगर मेरी चाय के साथ बिस्कुट खरीद दिए थे।

गाँव लौटते हुए बस में अम्मा गुस्से में बड़बड़ा रही थी और भोला भी उनसे नरम लहज़े में कुछ कह रहा था। हमेशा ऐसा ही होता था, अम्मा गुस्से में, भोला नरम। गुस्सा भोला पर नहीं था, इतना तो मैं समझता था, मगर किस पर? काले कोट पर? कमरे में बैठे लोगों पर? तो फिर हम बार-बार वहाँ क्यों आते रहते थे?
आज शहर जाते हुए बस में अम्मा भी चुप थी, भोला भी चुपचाप बैठा रहा। मैं पूरे समय सोता रहा। बस जब शहर में घुसी तो अम्मा ने मुझे धीरे-से जगाया। मैं और अम्मा घण्टाघर पर उतर गए, और भोला बैठा रहा, वह बस स्टॉप पर उतरेगा, जहाँ हर बार की तरह वह चाय पीएगा और हमारे लौटने का इन्तज़ार करेगा।

कचहरी के अहाते में छोटी-छोटी टेबलों से भरा एक बड़ा हॉल है, जिसकी झड़ती दीवारों पर टीन के बोर्ड टँगे हैं और आदमी लोग टाइपराइटरों के आसपास बैठे हैं, मैं और अम्मा काले कोट की टेबल की तरफ बढ़े। अम्मा उसे वकील साहब कहती है। अब मैं मन ही मन उसे छोटा कौआ कहने लगा हूँ, क्योंकि काले कोट तो यहाँ सभी हैं। टेबल पर टाइपराइटर पर झुके आदमी को कुछ लिखवाते हुए उसने अम्मा को देखा और लिखवाना जारी रखा। अम्मा और मैं बेंच पर बैठ गए। हमारे नीचे का फर्श उखड़ा हुआ था। दाईं ओर दूसरे छोर की टेबल पर मेरा मनपसन्द कौआ बैठा है, मैं उसे गंजा कौआ कहता हूँ। उसकी बड़ी-सी चांद है और उसका कोट तोंद के कारण फूला-फूला लगता है। वह बहुत हँसता है, उसके कोट के बटन तोंद के साथ-साथ नाचते हैं। हर बार ऐसा लगता है कि बटन खुल जाएँगे और उसका पेट गिर जाएगा, सुबह का खाया-पिया फर्श पर बिखर जाएगा। मुझे उस पल का इन्तज़ार है। उसका तंग काला कोट और चमकता ललाट, फर्श पर पान मसाला थूकने का उसका ढंग, सब कुछ मुझे आकर्षित करता है। मैं उसे ध्यान से देखता हूँ ताकि उसके सारे तौर-तरीके याद रहें और मैं सबरी और शंकर के सामने उनकी नकल उतार सकूँ। वे हमेशा मुझसे शहर और इस जगह की कहानियाँ सुनना चाहते हैं। और यहाँ जो कुछ दिखे उसे याद रखना ही बेहतर है क्योंकि मैं जो महसूस करता हूँ, वह तो मैं बयान नहीं कर सकता, और न ही वह बातचीत बता सकता हूँ जो उस कमरे में चलती है। भोला और अम्मा जो बातें करते हैं वे भी नहीं बता सकता क्योंकि किसी के बताए बगैर ही मैं यह समझता हूँ कि कुछ बातें मुझ तक ही रहनी चाहिए। तो मैं कुछ चीज़ें छिपाता हूँ, हालाँकि सबरी और शंकर मेरे सबसे अच्छे दोस्त हैं। हम सब कुछ साथ-साथ करते हैं। मगर आजकल मेरे दिन यहाँ बीतते हैं, इसलिए उनसे थोड़ा दूर हो गया हूँ। इसलिए छोटे कौए और अम्मा की बातें सुनने की बजाय मैं दूसरी चीज़ें देखता रहता हूँ, चीज़ें जो मैं समझ सकूँ, चीज़ें जो मैं शंकर और सबरी के सामने दोहरा सकूँ। मैं उन्हें बसों के बारे में, बड़ी-बड़ी सड़कों के बारे में, इमारतों के बारे में, और काले कोटों के इस विशाल समुद्र और गंजे कौए की हरकतों के बारे में बताता हूँ।

अब वकील साब अम्मा से बात कर रहा है। “रिवीज़न में ज़्यादा दम नहीं है, मगर हमने कोशिश पूरी की है। यह आखरी दलील है। आज यदि यह खारिज हो गई तो तुम्हें सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ेगा। मगर उसमें खर्च होगा, और कोई अँग्रेज़ी वकील भी लगेगा।”
अम्मा खामोश है।
“मगर तुम्हें यह तो मानना होगा कि मैंने बहुत मेहनत की है। अपनी तरफ से हमने जितना बन पड़ा किया है। और तुमने मेरी फीस भी नहीं दी। सब वकील पहले ही फीस ले लेते हैं, मगर मैंने तुम्हें छूट दी कि जब चाहो दे देना”, उसने अपनी बात पूरी की। अम्मा नीचे देखने लगी। वकील साब अब टाइपराइटर वाले आदमी से बात करने लगा था, “अब क्या करें, सब कुछ जज पर है। आजकल नाबालिग और गम्भीर चोट वाले मामलों को छोड़कर बलात्कार के सारे मामलों को वे रज़ामन्दी से हुए, कहते हैं।”

टाइपिस्ट ने मुस्कुराते हुए कहा, “अब से हमें सब औरतों को बता देना चाहिए कि वे गम्भीर रूप से घायल ज़रूर हो जाएँ।” दोनों हँसने लगे।
अम्मा के हाथ ने मुझे थोड़ा और करीब खींच लिया, कमर पर लिपटे हाथ की उनकी पकड़ और कस गई। “मैं अपनी सच्चाई कैसे साबित करूँ, यदि मैं मर्ज़ी से उसके साथ सोई होती तो यहाँ क्यों आती?”
“हम तुम्हारी बात थोड़ी ही कर रहे हैं बाई। तुम इसे इस तरह क्यों ले रही हो?” छोटे कौए ने कहा। “अरे सच वह नहीं होता जो हुआ, बल्कि वह होता है जिसे साबित किया जा सके। अदालत ऐसे ही चलती है। और यही हमारा काम है, हमें क्यों बुरा-भला कहती हो?” दोनों आदमियों ने अम्मा के आरोप से आहत होकर सिर हिलाया।

“अरे चाय लेके आ ना जल्दी, या फिर मार खानी है?” छोटा कौआ कमरे के पार चाय वाले लड़के पर चिल्लाया। लड़का मुझसे थोड़ा ही बड़ा होगा। उसकी चौड़ी-सी हँसी ने मुझे शंकर की याद दिला दी। हो सकता है शंकर के समान वह भी ज़िन्दगी को लतीफों की नज़र से देखता हो। ऐसा लगता था कि अगर उसे कोई मारे तो वह क्यों पूछने या डरने की बजाय गच्चा देकर बच जाएगा या फिर बदले में चाय लाने से पहले उसमें थूक देगा।
हम सीढ़ियाँ चढ़कर बड़े कमरे में पहुँच गए और आखरी बेंच पर बैठ गए, वही एक बेंच थी जिस पर बगैर काले कोट वाले बैठ सकते थे। अम्मा अपनी सबसे बढ़िया साड़ी, हरे और नारंगी रंग वाली साड़ी पहनकर आई थी। पर इन काले कौओं के बीच वह एक रंग-बिरंगी चिड़िया जैसी लग रही थी और मैं उसकी छोटी-सी पूँछ।
कमरे में वे मेज़ पर जो कुछ बोलते हैं, मुझे सुनाई नहीं देता, मगर लगता है अम्मा ने अपने कान एकदम आगे वाली बेंच पर जड़ दिए थे। हर वाक्य के साथ उसकी पीठ ऐसे झटका खाती है जैसे चिमटी काटी हो। वे लोग क्या बातें कर रहे हैं। “परित्यक्त... कुलटा...कथन में कोई सच्चाई नहीं ...वेश्या...पैसे का लालच...कोई सबूत नहीं...परिस्थितियों से स्वीकृति का पता चलता है। आपराधिक पुनर्विचार याचिका खारिज की जाती है।”
अम्मा तुम इतने ध्यान से क्यों सुन रही हो, उन शब्दों का कोई अर्थ नहीं है, हम तो यह भाषा भी नहीं समझते।

लौटते हुए अम्मा बुदबुदा रही थी, “ये जो न्याय के भगवान हैं, हमारे लिए नहीं हैं, ये उन्हीं के हैं जिन्होंने इन्हें बनाया है, ये लोग उनका ही काम करते हैं जो इन्हें बनाते हैं और खिलाते-पिलाते हैं।” भोला खामोश रहा। थोड़ी देर बाद वह सुबक-सुबक कर रोने लगी, भोला ने दूसरी तरफ से उसे ज़ोर से पकड़ रखा था। सब लोग हमें देख रहे थे, मुझे समझ नहीं आया मैं क्या करूँ, तो मैं भी उससे लिपट गया।
थोड़ी देर बाद जब वो चुप हो गई तो पूरे रास्ते खिड़की से बाहर देखती रही। जब हम बस से उतरे तो ऐसा लगा कि उसमें कुछ बदल गया है। हम चुपचाप घर की ओर चल दिए।
घर पहुँचकर अम्मा ने अपने पैर धोए, चुल्लू में पानी लेकर पीछे की ओर फेंका, मुझसे भी ऐसा ही करवाया। जब हम दादा की अंत्येष्टि से लौटे थे, तब भी उसने ऐसा ही किया था। उसकी नकल करते हुए मुझे लगा कि मैं बड़ा हो गया हँू, ऐसा लगा कि अम्मा और मैं साथ-साथ कुछ पीछे छोड़ आए हैं।

अम्मा मुझे रसोई में ले गई और पर्दे के पीछे ले जाकर मेरे कपड़े उतारने लगी। फिर कुछ भी कहे बगैर मुझे नहलाया। उसने मुझसे पूछा तक नहीं कि मैं नहाना चाहता हूँ या नहीं। वैसे भी आजकल मैं खुद अपने हाथों से नहाता हूँ। पर मैंने भी ज़्यादा चूँ-चपड़ नहीं की। चुप-चाप नहा लिया। वह बोली नहीं मगर बहुत कोमल थी। नहलाने के बाद उसने मुझे एक गमछे में लपेटकर चूल्हे के सामने बिछी चटाई पर बैठा दिया। मैं गुड़ी-मुड़ी होकर करवट लेकर लेट गया। पर्दे के पीछे अम्मा कपड़े उतार रही थी। मैं लेटे-लेटे सो गया।

जब मैं जागा तो खाने की खुशबू आ रही थी। उनींदी आँखों से मैंने अम्मा और भोला को देखा। वह कब आया? और वह भी दिन के समय? वह शाम को तो कभी नहीं आता था, सिर्फ देर रात में आता था। भोला की बाँह अम्मा को लपेटे हुए थी, अम्मा का सिर उसके कन्धे पर टिका था। उनका मुँह मेरी तरफ था मगर उन्हें यह समझने में समय लगा कि मैं उन्हें देख रहा हूँ। अम्मा और भोला, दोनों ने एक साथ मुझे देखा, जैसे मैं उन्हें देख रहा हूँ, दो अलग-अलग व्यक्तियों की तरह नहीं बल्कि एक साथ। वे हिले नहीं। भोला के कन्धे पर से ही अम्मा मेरी ओर मुस्कुराई। लगा वह रो रही थी मगर वह मायूस नहीं थी। भोला अम्मा से अलग हुआ और मुझे उठाकर अम्मा के पास ले गया। मैं अम्मा की गोद में घुस गया, उन दोनों के बीच में।

“भूख लगी है?” अम्मा ने पूछा।
“हाँ,” मैंने जवाब दिया।
उसने धीरे-से मुझे हटाया और चूल्हे के पास जाकर पतीलियों के ढक्कन उठाए।
“तुमने गुड़ की खीर बनाई है!”
“हाँ,” वह मुस्कराई।
“और मटन भी, किसके लिए?” मैंने खुशी से पूछा।
“तुम्हारे लिए, हमारे लिए, तुम, मैं और भोला के लिए।”
उसने मेरी ओर देखते हुए भोला का हाथ अपने हाथ में ले लिया, उसका चेहरा कोमल था। “भोला अब हमारे घर में रहेगा। तुम्हारे दोस्त लोग पूछें तो तुम उन्हें बता सकते हो, कहना भोला हमारे परिवार का सदस्य है।”

मैं इसके बारे में और पूछना चाहता था, मगर सिर्फ सिर हिला दिया। मुझे भोला अच्छा लगता है, मैं भी चाहता हूँ कि वह हमारे साथ रहे। वह आसपास होता है तो अम्मा खुश लगती है। वे साथ-साथ खूब हँसते हैं। मैंने किन्हीं और बड़े लोगों को एक-दूसरे के साथ इस तरह हँसते और मज़ाक करते नहीं देखा है। इस व्यवस्था के बारे में मेरे कुछ दूसरे सवाल हैं, मगर वे बाद में हो सकते हैं।
अम्मा खाना निकालने लगी मगर मेरी थाली में रखने से पहले वह हर चीज़ में से थोड़ा-थोड़ा निकालकर एक दूसरी थाली में रखती गई।
“वह किसके लिए है, भोला के लिए?” मैंने हैरत से पूछा।
“नहीं, भोला तो मेरे साथ खाएगा... यह कौओं के लिए है,” अम्मा ने कहा, “कौए एक बार खा लेंगे तो ज़िन्दा लोगों को शान्ति से जीने देंगे।”


रिनचिन: बच्चों व बड़ों के लिए कहानी लिखती हैं। भोपाल में रहती हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
सभी चित्र व सज्जा: कनक शशि: स्वतंत्र कलाकार के रूप में पिछले एक दशक से बच्चों की किताबों के लिए चित्रांकन कर रही हैं। भोपाल में निवास।