विनता विश्वनाथन [Hindi PDF, 203 kB]

छ: साल पहले की बात है।
अप्रैल-मई की गर्मी चल रही थी। मैं बोरी-सतपुड़ा के जंगलों में पक्षियों पर शोध कर रही थी। अनेक (मिश्रित) पक्षी प्रजातियों के समूह में उनके द्वारा कीड़े खोजने और पकड़ने के व्यवहार का अवलोकन कर रही थी।
देर सुबह का समय था शायद, जब मैं एक पेड़ से टिककर खड़ी सुस्ताते हुए पानी पी रही थी। अचानक एक फुहार-सी मुझ पर गिरी। मेरे चश्मे पर धब्बे लग गए और मैं देख नहीं पा रही थी। शर्ट की आस्तीन से चश्मे को साफ किया और ऊपर देखते हुए सोचा - किसी पंछी ने मुझे आशीर्वाद दिया है।

कुछ मिनटों बाद, दोबारा मुझ पर छींटे गिरे। एक दिन में दो बार मेरा सर पक्षियों का निशाना बने, इसकी सम्भावना तो बहुत ही कम थी। अपराधी की खोज में इधर-उधर नज़र दौड़ाने लगी। कुछ ही मिनटों बाद जब तीसरी बार सर पर पानी जैसी बूँदें गिरीं तब समझ में आया कि यह हरकत किसी पक्षी की नहीं है। इधर कई दिनों से जंगल में एक भिनभिनाहट-सी बढ़ती जा रही थी, और इस कदर बढ़ गई थी कि कानों में दर्द होने लगा था। यह शोर सिकाडा का था जो हज़ारों की संख्या में वहाँ मौजूद थे। और यही कीड़े मुझ पर मेहरबानी कर रहे थे।

इस घटना ने मुझे सिकाडा के बारे में पढ़ने को उकसाया। सिकाडा इस बात के लिए मशहूर हैं कि उनकी कुछ प्रजातियों का जीवन चक्र 13 या 17 साल का होता है।। किताबों और अन्य स्रोतों से पता चला कि ये प्रजातियाँ भारत में नहीं पाई जाती हैं। मैं पता नहीं कर पाई कि यहाँ सिकाडा का जीवन चक्र कितने सालों का होता है। यहाँ तो वे हर साल दिखाई और सुनाई दे जाते हैं। सिकाडा हेमिप्टरा वर्ग के सदस्य हैं, इनकी लम्बाई 0.5 से.मी.- 5 से.मी. होती है और ये अक्सर भूरे, हरे, काले रंग के होते हैं।

सिकाडा के निम्फ (बच्चे) अपने जीवन का ज़्यादातर समय ज़मीन के नीचे बिताते हैं और गर्मियों में अचानक प्रकट हो जाते हैं। और वो भी लाखों में। ज़मीन से निकलते ही सिकाडा के निम्फ का निर्मोचन (eclosion)  होता है और वे वयस्क रूप धारण कर लेते हैं (मुझे पेड़ों के तनों पर कई सारे भूरे कीड़े दिख रहे थेे)। नर सिकाडा कुछ ही घण्टों बाद भिनभिनाने लगते हैं।
टिड्डे, भृंग अपने शरीर के अंगों को एक-दूसरे से रगड़ते हैं (इसको स्ट्राइड्यूलेशन् भी कहते हैं) और आवाज़ें निकालते हैं। पैर एक-दूसरे से या फिर पंख से रगड़ते हैं, तो कुछ प्रजातियों में मुखाँगों को रगड़ते हैं। इन अंगों पर अक्सर बारीक धारियाँ होती हैं जो आवाज़ पैदा करने में मदद करती हैं।

पर सिकाडा इतना शोर कुछ अलग ढंग से पैदा करते हैं। पतंगों के समान सिकाडा में आवाज़ निकालने के लिए एक खास संरचना है - टिम्बल (बहुवचन ‘टिम्बल्स’) - जो नर के उदर के पहले खण्ड में शरीर के दोनों तरफ दिख जाते हैं। टिम्बल्स की मांस पेशियाँ जब सिकुड़़ती हैं तो एक ‘क्लिक’ जैसी आवाज़ निकलती है। और जब ये पेशियाँ वापिस शिथिल होती हैं, तो एक और आवाज़ निकलती है। साथ ही सिकाडा का उदर ध्वनि-विस्तारक का काम करता है। मादा सिकाडा के पास टिम्बल्स नहीं होते। टिम्बल्स और सम्बन्धित संरचनाओं के लयबद्ध सिकुड़ने और शिथिल होने से ही सिकाडा आवाज़ करते हैं। कुछ लोग इसको संगीत भी मानते हैं। इन्सानों कोयह आवाज़ एक मील की दूरी से सुनाई दे सकती है।

नर सिकाडा विभिन्न आवाज़ें निकालते हैं और कुछ आवाज़ों के ज़रिए वे अपनी प्रजाति की मादाओं को संसर्ग के लिए आकर्षित करते हैं। संसर्ग उपरान्त मादा सिकाडा पेड़ कीशाखाओं पर अण्डे देती हैं जिसमें से पंखहीन निम्फ सिकाडा निकलते हैं, और ज़मीन में उतर जाते हैं। वहाँ जड़ों से सैप/रस चूसकर जीते हैं, और उनका विकास होता है।
तो, पता चला कि सिकाडा इतना शोर कैसे और क्यों करते हैं। पर वो पानी के छींटे क्या थे? वयस्क सिकाडा भी पेड़ों के रस को चूसते हैं। इस रस में पोटैशियम, कैलशियम इत्यादी आयन्स के साथ सुक्रोज़ और अमीनो एसिड्स होते हैं, काफी सारा पानी भी। समय-समय पर ये इस पानी को कुछ पदार्थों सहित, पेशाब के रूप में अपने शरीर से निकालते हैं! अगले दिन से मैं सर पर टोपी और कानों में रूई लगा कर जंगल जाने लगी।


विनता विश्वनाथन: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।