लेखक:   उमा सुधीर
अनुवाद: अनुराग शर्मा  [Hindi PDF, 239 kB]

परमाणु सिद्धान्त आधुनिक रसायन विज्ञान की बुनियाद है और इसीलिए बच्चे औपचारिक रूप से रसायन का पाठ्यक्रम पढ़ना शुरू करें उससे पहले ही उन्हें परमाणु सिद्धान्त पढ़ाया जाता है। लेकिन, न तो यह सिद्धान्त और न ही इससे जुड़ी अन्य अवधारणाएँ विस्तृत रूप से पढ़ाई जाती हैं और न ही पदार्थ की कण प्रकृति के प्रमाण की चर्चा की जाती है। इसके अलावा, बच्चे ये नहीं समझ पाते कि परमाणु सिद्धान्त कैसे रासायनिक परिवर्तन या फिर अवस्था परिवर्तन की व्याख्या करता है। मामला तब और पेचीदा हो जाता है जब बच्चों को शुरुआती चरण में ही चिन्हों से परिचित कराया जाता है। और बगैर किसी ब्यौरे के ये चिन्ह अलग-अलग समय पर अलग-अलग चीज़ों को दिखलाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। बहुत-से अध्ययनों से पता चला है कि बच्चों में कई वैकल्पिक अवधारणाएँ और भ्रम पाए जाते हैं जिन्हें भूलना या ‘अनसीखा’ करना खासा मुश्किल होता है।

बच्चों में (और कुछ बड़ों में भी) किस तरह के भ्रम पाए जाते हैं? शोधकर्ताओं ने पाया है कि बच्चे सतही स्तर पर ही पदार्थ की कण प्रकृति से सहमत होते हैं, जैसे कि वे अकसर मानते हैं कि कणों के गुण पदार्थ के स्थूल गुण जैसे ही होते हैं (ठोस पदार्थ फैलता है क्योंकि परमाणु फैलते हैं, कण पिघलते हैं और ठोस पदार्थ द्रव में बदल जाता है, आदि)।

एक बड़ी समस्या इसलिए भी आती है क्योंकि हम इन अवधारणाओं को बेहद अनियमित ढंग से पढ़ाते हैं। इसलिए बच्चों के लिए परमाणु एक रहस्यमय चीज़ ही रहता है, और वे दिखने वाली स्थूल घटनाओं और पदार्थ की परमाण्विक प्रकृति के बीच कभी सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते हैं। बच्चे गूढ़ चिन्हों से प्रदर्शित की गई वास्तविकता की एक मानसिक तस्वीर भी नहीं बना पाते।

उदाहरण के लिए, सीखने वाले को ये साफ-साफ बताए बगैर रसायनशास्त्री पदार्थ की बात करते समय अकसर अलग-अलग स्तरों की बात करने लगते हैं - स्थूलदर्शीय (‘मेक्रोस्कोपिक’ अभिक्रिया कर रहे पदार्थ), अतिसूक्ष्मदर्शी (‘सब-माइक्रोस्कोपिक’ परमाणु और अणु किसी क्रिया में भाग लेते हुए), और सांकेतिक (सूत्र और समीकरण) - उससे भी भ्रम पैदा होते हैं। चूँकि बच्चों को रासायनिक क्रियाओं को संचालित करने का पर्याप्त अनुभव नहीं मिलता और न ही वे कारकों और उत्पादकों के द्रव्यमान के बीच के सम्बन्ध को देख पाते हैं, यही वजह है कि उनके लिए स्थूल घटनाओं और परमाण्विक स्तर पर सूत्रों व समीकरणों के रूप में उनकी व्याख्या के बीच जुड़ाव कर पाना मुश्किल होता है।

यह भी सम्भव है कि हम शिक्षक अकसर आसान रास्ते अख्तियार करते हुए कुछ गलत वृत्तांत दे देते हैं। उदाहरण के लिए, हम कहते हैं कि पानी हाइड्रोजन और ऑॅक्सीजन से बना होता है। ये सही नहीं है, क्योंकि पानी तो पानी के अणुओं से बना होता है और उसमें हाइड्रोजन और ऑॅक्सीजन के कोई गुण नहीं दिखाई देते। पानी का अणु हाइड्रोजन के दो परमाणु और ऑॅक्सीजन के एक परमाणु से मिलकर बना होता है।

पदार्थ की कण प्रकृति के सीधे उपयोगों के अलावा बच्चों को गैस को पदार्थ समझने में भी मुश्किल होती है। इसीलिए, वे रासायनिक क्रियाओं में इस्तेमाल होने वाली या पैदा होने वाली गैसों को ध्यान में नहीं रखते। इससे ये भ्रम फैलता है कि एक रासायनिक क्रिया आखिर क्या है। उदाहरण के लिए, अगर लोहे में जंग लगने में ऑॅक्सीजन और वातावरण की नमी की भूमिका नहीं ज्ञात होती तो बच्चे यह समझेंगे कि कुछ समय बाद लाल और भुरभुरा होना लोहे का एक गुण होता है। उन्हें यह भी समझने में समस्या होती है कि गैसों के कणों के बीच काफी खाली जगह होती है।

बच्चों के बीच पाई जाने वाली वैकल्पिक अवधारणाएँ
यह जानने के लिए कई अध्ययन किए गए हैं कि बच्चे पदार्थ की प्रकृति के बारे में क्या समझते हैं और उनकी समझ वैज्ञानिकों के मतों के अनुरूप है या नहीं। बच्चे जिस तरह की अवधारणाएँ बनाते हैं वे काफी दिलचस्प हैं। ये अलग-अलग अवधारणाएँ निम्न-लिखित कारणों से पैदा हो सकती हैं:

1. बच्चों को पदार्थ की प्रकृति की धारणाओं का समावेश करने के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया जाता। ये ऐसी धारणाएँ हैं जो अकसर सामान्य समझ के विपरीत होती हैं।

भ्रम को बढ़ावा देते चित्रांकन

भ्रमों को बढ़ावा देने वाला एक कारण पाठ्यपुस्तकों में दिए गए भ्रामक चित्र भी हो सकते हैं (उदाहरण के लिए, एन.सी.ई.आर.टी. की वर्तमान कक्षा-9 की पाठ्यपुस्तक का यह चित्र देखें)। अगर यह चित्रांकन ठीक है तब, इस पदार्थ की ठोस अवस्था का घनत्व उसी पदार्थ की द्रव अवस्था के घनत्व से दोगुना होगा, और तरल पदार्थ का घनत्व इसी पदार्थ की गैसीय अवस्था के घनत्व का सिर्फ लगभग चार गुना होगा। निश्चित रूप से यह किसी भी ज्ञात पदार्थ के बारे में सही नहीं है।
रेखाचित्रों में अकसर नीली पृष्ठभूमि में तैरते ‘पानी के अणु’ दिखाए जाते हैं जिससे ऐसा लगता है कि पानी और उसके अणु दो स्वतंत्र चीज़ हैं।

2. शिक्षक और पाठ्यपुस्तक स्थूल गुणों, अति सूक्ष्मदर्शी गुणों और उन्हें प्रदर्शित करने वाले संकेतों की व्याख्या करते हैं बगैर बच्चों को ये साफ-साफ बताए कि किस के बारे में बात की जा रही है और ये सब आपस में किस तरह जुड़े हुए हैं।

बच्चे अकसर ऐसी बातें कहते हैं कि N2 और O2 से N2O5 नहीं बनाई जा सकती क्योंकि इसे बनाने के लिए ऑॅक्सीजन के तीन और परमाणुओं की ज़रूरत होगी। यहाँ पर उलझन की एक वजह यह है कि बच्चे तत्व और उन्हें प्रस्तुत करने वाले संकेत/सूत्र के सम्बन्ध को नहीं समझ पाते। चूँकि उन्हें ये पता नहीं होता कि किस तरह से सूत्र तैयार हुए और उनका अर्थ क्या है, बच्चे समीकरणों को सन्तुलित करने के लिए सूत्रों में मौजूद विभिन्न परमाणुओं की संख्याओं को भी बदल देते हैं (एक ऐसी गतिविधि जो किसी भी अभिक्रिया की सटीक मात्रात्मक प्रकृति को दर्शाती है, उसकी बजाय बच्चे उसे एक गणितीय गतिविधि के तौर पर देखते हैं)।

3. जो चित्र और मॉडल इस्तेमाल किए जाते हैं वे अकसर भ्रामक होते हैं। पाठ्यपुस्तकों में दिए गए रेखाचित्रों में इस तरह की कमियाँ पाई जाती हैं:

--- गर्म करने पर ठोस पदार्थों के फैलने को काफी बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है और जब (अधिकतर) ठोस पदार्थ पिघलते हैं तो उनके घनत्व में होने वाली कमी भी बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है।
--- तरल पदार्थों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जिससे लगता है कि वो आसानी से दबाए जा सकते हैं।
--- तरल पदार्थ के गैस में बदलने पर घनत्व में होने वाली कमी को कम कर के दिखाया जाता है।

--- ज़्यादातर रेखाचित्र में जितने अणु दिखाए जाते हैं उनसे यह पता नहीं चलता कि कितने कणों के बारे में बात की जा रही है - इसलिए बहुत बड़ी संख्या में कणों की सामूहिक क्रिया से पैदा होने वाले ‘स्थूल’ गुणों की धारणा अनुपस्थित रहती है।
-- चित्रों में अकसर कण के रंग को स्थूल पदार्थ के रंग से जोड़कर दिखाया जाता है। क्या कार्बन का परमाणु काले रंग का होगा?!

4. जहाँ बच्चों की पदार्थों के बारे में पहले से ही अवधारणाएँ बनी हुई हों, वे आसानी से वैज्ञानिक विचारों को नहीं मानते।
उदाहरण के लिए, यह पाया गया कि बच्चे पदार्थ की कण प्रकृति का इस्तेमाल गैसों की व्याख्या करने में करते हैं क्योंकि उन्हें गैसों की प्रकृति के बारे में पहले से कुछ पता नहीं होता, लेकिन वे इस बात का विरोध करते हैं कि ठोस और द्रव पदार्थ भी कणों से बने होते हैं। इसलिए वे यह मानते हैं कि ठोस और द्रव पदार्थों के कणों के गुण उनके स्थूल गुणों जैसे ही होंगे।

अवधारणा की स्पष्टता नहीं

यह बताना ज़रूरी है कि कुछ वयस्कों में भी, जिनमें शिक्षक भी शामिल हैं, इसी प्रकार की समस्याएँ पाई जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक छोटे-से अध्ययन में, कई शिक्षकों को एन.सी.ई.आर.टी. पाठ्य पुस्तक से चित्र दिखाकर उनसे पूछा गया: ‘गैसों के अणुओं के बीच की खाली जगह में क्या है?’ उनमें से कुछ ने कहा कि गैसों के अणुओं के बीच की खाली जगह में हवा है। कुछ शिक्षकों का मानना था कि अणुओं के बीच अन्तर-आणविक बल है, जबकि केवल कुछ शिक्षकों ने ही कहा कि अणुओं के बीच कुछ भी नहीं है।
इसी तरह से, कुछ शिक्षकों का मानना था कि पारे के परमाणु की तुलना में ताँबे का परमाणु बिजली और ऊष्मा का अच्छा चालक होगा। रोचक बात यह है कि, कई शिक्षकों ने यह भी कहा कि उचित उपकरण मिलें तो परमाणु का तापमान भी नापा जा सकता है।
ऐसा जान पड़ता है कि कई शिक्षक भी यह सोचते हैं कि तापमान और चालकता जैसे स्थूल गुण परमाणुओं और अणुओं के भी गुण होते हैं। (विस्तार से पढ़िए ‘परमाणु सिद्धान्त और शिक्षकों की भ्रान्तियाँ’, शैक्षणिक संदर्भ मूल क्रमांक - 60, में)।

5. बच्चे आम तौर पर मानते हैं कि पदार्थ के गुण सतत हैं, जैसे वे सोचते हैं कि क्लोरीन के परमाणुओं का रंग पीलापन लिए हरा है। ऐसा बच्चों को समझाने में इस्तेमाल किए चित्र और मॉडल की वजह से भी हो सकता है। और वे मानते हैं कि स्थूल (मेक्रोस्कोपिक) व्यवहार में आए परिवर्तन कणों में आए परिवर्तन की वजह से हैं। अर्थात् बच्चे सोचते हैं कि जब एक ठोस पदार्थ द्रव में बदलता है तो उसके कण भी ‘पिघल’ जाते हैं।

6. बच्चे पढ़ाने के लापरवाही भरे ढंग से अकसर नहीं जान पाते कि किसी तथ्य की व्याख्या करने में कौन-सी अवधारणा उपयोगी या प्रासंगिक है। जब किसी परिस्थिति की व्याख्या करने को कहा जाता है तो बच्चे अप्रासंगिक जानकारियों से प्रभावित रहते हैं।
उदाहरण के लिए, जिन बच्चों ने पानी के विद्युत अपघटन से हाइड्रोजन और ऑॅक्सीजन बनती देखी है सम्भावना है कि वे कहेंगे कि पानी को उबालने पर ये हाइड्रोजन और ऑॅक्सीजन (दोनों गैस) में बदल जाता है। यह भ्रम इसलिए भी हो सकता है क्योंकि ऐसा लगता है कि उबालने में बेहद ज़्यादा ऊर्जा लगती है जबकि विद्युत अपघटन में बैटरी के उपयोग से काफी कम ऊर्जा लगती है। इसका यह मतलब है कि, किसी वजह से, वो यह अनुमान नहीं लगा पाते कि कौन से अवलोकन व तर्क कहाँ लागू होंगे।

7. हम अक्सर कई घटनाओं को समझने के लिए समान घटनाओं का सहारा लेते हैं। ऐसा लगता है कि बच्चे भी कभी-कभी ऐसा करते हैं।
उदाहरण के लिए, बच्चे सोचते हैं कि लोहा ज़ंग लगने के बाद भी लोहा ही रहता है और ज़ंग लगना लोहे की प्रकृति में है जो धूसर भूरे पदार्थ में अपरिवर्तित रहती है। ये ऐसा ही है जैसे वे उम्रवृद्धी से इसकी तुलना कर रहे हैं - निर्जुली नाम की एक बच्ची बड़ी होती है, उसकी ऊँचाई, वज़न, आकार लगभग सब कुछ बदलता है, लेकिन वो है तो निर्जुली ही!!

इस प्रकार के वैकल्पिक विचारों की उपस्थिति जाँच करने पर ही पता चलती है क्योंकि बच्चे बगैर ठोस समझ के अपेक्षित उत्तर देना आसानी से सीख लेते हैं और हम उन्हें तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं। यह इसलिए भी होता है क्योंकि हम ये जानने की पर्याप्त कोशिश नहीं करते कि कुछ सीखा गया है या नहीं। उदाहरण के लिए, यह पाया गया कि बच्चे किसी घटना या परिघटना के साथ सही तकनीकी शब्दों को सही-सही ढंग से जोड़ सकते हैं लेकिन वो उस घटना का ठीक-ठीक विवरण नहीं दे पाते। जैसे जब कमरे के तापमान पर रखा एक बर्फ का टुकड़ा दिखाया गया तो बच्चों ने यह तो सही-सही बता दिया कि यह पिघल रहा है लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि पिघलने का आण्विक स्तर पर क्या मतलब होता है।

इसी वजह से, ऐसा महसूस किया गया कि अगर बच्चों को पदार्थ की कण प्रकृति को समझना है तो उन्हें यह समझना होगा कि ये विचार कैसे विकसित हुए। यही नहीं, इससे पहले कि वे सैद्धान्तिक विषयों तक पहुँचें, उनका परिचय नीचे दिए गए विचारों व ठोस अनुभवों से अवश्य होना चाहिए:

क) रासायनिक-भौतिक परिवर्तन
यह कैसे पता चलता है कि रासायनिक परिवर्तन हुआ है और एक नया पदार्थ बना है?अकसर, रासायनिक परिवर्तन का पता लगाने के लिए कुछ सीधे-सादे दिखने वाले संकेत दिए जाते हैं। लेकिन छात्रों को प्रयोग करने की आवश्यकता है ताकि वे रासायनिक परिवर्तन और भौतिक परिवर्तन में अन्तर बता सकें और जिन परिस्थितियों में ये परिवर्तन हुए, उन्हें भी पहचान सकें। इसके लिए, उन्हें सामान्य परीक्षण करने में सक्षम होना होगा, पदार्थों के गुणों को परखने के लिए और यह बताने के लिए कि शुरुआती पदार्थों व उत्पादों के गुण कैसे अलग हैं

ख) पदार्थों के विशिष्ट गुण
सामान्य परीक्षण जिनसे यह पता चलता है कि विभिन्न रासायनिक पदार्थों के भिन्न-भिन्न गुण होते हैं जिन्हें परखा जा सके और जिनका निरीक्षण किया जा सके।
उन्हें पदार्थों के रासायनिक गुणों के आधार पर उनमें अन्तर करने का थोड़ा अनुभव लेने की ज़रूरत है, उदाहरण के लिए, धातुएँ एक जैसी दिखाई दे सकती हैं लेकिन अम्लों के साथ उनकी क्रियाएँ स्पष्ट रूप से अलग-अलग होती हैं और इसका सरलता से अध्ययन किया जा सकता है।

ग) पदार्थ की विभिन्न अवस्थाएँ, उनके गुण और अवस्था परिवर्तन
जैसा कि पहले वर्णन किया गया है, छात्र किसी प्रक्रिया के साथ सही शब्द कैसे जोड़ना है, बहुत पहले सीख जाते हैं, लेकिन अवस्था परिवर्तन के दौरान अतिसूूक्ष्मदर्शी स्तर पर क्या हो रहा है और अवस्था परिवर्तन कैसे किया जा सकता है, इसकी उन्हें कोई समझ नहीं होती। पानी के उबलने की प्रक्रिया के दौरान ऊर्जा का खर्च बर्फ के पिघलने की तुलना में शायद ज़्यादा स्पष्टता से दिखता है। संघनन और जमने की उल्टी प्रक्रियाओं में ऊर्जा की बराबर मात्रा निकलती है, लेकिन न तो इस पर कभी ज़ोर दिया जाता है और न ही समझा जाता है। इसी तरह, वाष्पीकरण से होने वाले शीतलन की तरफ भी अकसर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।

ऐसा करने का एक उपाय हो सकता है अलग-अलग मौसमों में होने वाले परिवर्तनों का ध्यान से अवलोकन करना। ठण्डे प्रदेशों में यह लोकबुद्धि है कि बर्फ बारी के बाद ठण्ड कम हो जाती है और बर्फ जब पिघलती है तो ठण्ड बढ़ जाती है। गर्म प्रदेशों में रहने वाले लोग किन परिस्थितियों का उपयोग कर सकते हैं? पानी के भाप बनने के असर का अवलोकन कर सकते हैं परन्तु इसके साथ समस्या यह है कि बड़े पैमाने पर वाष्पीकरण होने पर हमें अकसर ‘गर्मी’ लगती है क्योंकि आर्द्रता की वजह से हमें अधिक पसीना आता है। इसी प्रक्रिया को उलटकर समझने के लिए शायद जल-वाष्प के संघनन का विस्तृत ढंग से अध्ययन किया जा सकता है।

घ) तत्व-यौगिक-मिश्रण में भेद
यहाँ, शुद्धता और पृथक्करण के जुड़वाँ प्रश्न की पड़ताल भी महत्वपूर्ण है। किसी पदार्थ को शुद्ध वर्गीकृत करना, हमारे पास उपलब्ध पृथक्करण की तकनीकों और सैम्पल की शुद्धता के परीक्षण की विधियों पर निर्भर करता है। जब तक समस्थानिकों का पता नहीं चला था, तब तक प्रकृति में पाए जाने वाले CI-35 और CI-37 का मिश्रण ‘शुद्ध’ माना जाता था (यह रासायनिक परिवर्तनों के अध्ययन के लिए अब भी शुद्ध ही माना जाता है)।

फिर इस तरह के बहुत ही पेचीदा सिद्धान्तों को बच्चों तक पहुँचाने का सबसे बेहतरीन तरीका क्या होगा? स्पष्टत:, जब तक वे विभिन्न पदार्थों के भौतिक गुणों और उनके आपस में अभिक्रिया करने के तरीके से परिचित नहीं होते, तब तक वे एक सम्मिलित सिद्धान्त की ज़रूरत महसूस नहीं करेंगे जो पदार्थ की प्रकृति के इन सारे पहलुओं की व्याख्या कर सकती है। एकलव्य में, हम इन अवधारणाओं को पढ़ाने के लिए सबसे अच्छा तरीका खोजने की कोशिश कर रहे हैं और हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मिडिल स्कूल (कक्षा-6, 7 और 8) में बच्चों को विभिन्न पदार्थों के भौतिक व रासायनिक गुणों से अवगत कराना चाहिए और अमूर्त सिद्धान्त को सिर्फ हाई स्कूल (कक्षा-9 और 10) में ही समाविष्ट करना चाहिए।

पर इस अमूर्त सिद्धान्त से कैसे अवगत करवाया जाए? सीधे डाल्टन के आधार तत्वों पर छलाँग लगाने की सामान्य परम्परा सही नहीं होगी। हम सोचते हैं कि विद्यार्थियों को उन घुमावदार रास्तों के ज़रिए ले जाने जो पदार्थ की प्रकृति के बारे में विभिन्न सिद्धान्तों को जन्म देते हैं और उनके बीच अंत में समाधान कैसे हुआ, इस सरल विचार को समझने में उनकी मदद करेगा। इन प्रक्रियाओं में न सिर्फ डाल्टन का, बल्कि बर्जीलियस, गे-लुज़ेक, एवोगेड्रो और केनीज़ारो जैसे अन्य की सम्मिलित कोशिशें शामिल हैं। इसी के साथ, वे बॉयल और लेवॉज़िए जैसे लोगों के योगदानों से भी अवगत हो जाएँगे। इसका मतलब यह नहीं है कि इतिहास को रसायन-शास्त्र के वेष में छुपाया जा रहा है। इतिहास के क्रम में रसायनशास्त्र के क्षेत्र में हुए विचारों के विकास से विद्यार्थियों को परिचित कराने से विज्ञान की प्रकृति और उसकी पद्धति जैसे पहलुओं को समझने में भी उनको मदद मिलेगी।

भौतिक वैज्ञानिक रिचर्ड फाइनमैन ने कहा है कि अगर सिर्फ ज्ञान का एक ही टुकड़ा आगे पहुँचना है तो यह विचार होगा कि पदार्थ कणमयहोते हैं। विज्ञान के सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचारों में से एक इस विचार को ऐसे समग्र रास्ते से समझाने की कोशिश, ‘पदार्थ की प्रकृति’ पर जल्द ही एकलव्य द्वारा प्रकाशित होने वाले मॉड्यूल में की गई है।


उमा सुधीर: एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी हैं। इन्दौर में निवास।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: अनुराग शर्मा: टीवी पत्रकार। लेखन और अनुवाद में गहरी रुचि। दिल्ली में निवास।