महेश झरबड़े      [Hindi PDF, 288 kB]

जन शिक्षा केन्द्र सूखीसेवनियाँ के साथ मिलकर काम करने की वजह से मेरा क्लस्टर की शासकीय शालाओं में अक्सर आना-जाना होता रहता है। इसके चलते शाला शिक्षकों और बच्चों के साथ मेरा अच्छा तालमेल बन गया है। काफी दिनों से मैं किसी एक स्कूल में पहली, दूसरी और तीसरी कक्षा के बच्चों के साथ, उनकी समझ को समझते हुए, कुछ शब्दों कोे पढ़ने और लिखने का अभ्यास करना चाहता था। मगर मैं समझ नहीं पा रहा था कि वे शब्द क्या होंगे। ऐसे शब्द जिनसे बच्चे लगाव रख सकें और जिन्हें सीखने की वे ज़रूरत महसूस करें। साथ ही, शाला शिक्षक को भी यह लगे कि इन शब्दों से स्कूली पाठयक्रम को भी कुछ मदद मिलेगी।

काफी सोचने के बाद मुझे लगा कि क्यों न ये शब्द बच्चों से ही निकलवाए जाएँ। अगले दिन मैंने कुछ पर्चियाँ बनाईं और बारी-बारी से सूखीसेवनियाँ, भदभदा चौकी, गढ़मूर्रा और आमोनी के स्कूलों में पहुँचा। सूखीसेवनियाँ पहुँच मैंने पहली से पाँचवीं तक के जो भी बच्चे उपस्थित थे उनमें से लगभग आधे से ज़्यादा बच्चों को पर्चियाँ दीं और कहा जो मन करे लिखो और फिर पर्ची मुझे लौटा दो। मैंने जब पर्चियाँ बाँटी तो बच्चों ने पूछा, “कुछ भी चलेगा?” मैंने कहा, “हाँ बिलकुल, कुछ भी चलेगा।” बच्चों ने कुछ लिखा और पर्चियाँ मुझे लौटा दीं। मैंने देखा कुछ बच्चों ने इ ब क म और कुछेक ने गिनती और पहाड़े की लाइनें लिख दी थीं। पर ये वे शब्द नहीं हैं जिनकी तलाश में मैं निकला था।
अगले स्कूल में पर्चियाँँ बाँटने के बाद मैंने अपनी गलती सुधारकर कहा, “गिनती, पहाड़े और ...इ ब क म... को छोड़कर जो मन करे लिखो।”

यह काम मैंने चारों ही स्कूल के बच्चों के साथ किया। बाद में इन पर्चियों का अवलोकन करने पर पाया कि कक्षा 4 व 5 के ज़्यादातर बड़े बच्चों ने छोटे-छोटे वाक्य या स्कूली पाठयक्रम की कोई कविता लिखने की कोशिश की है। कुछ बच्चों ने चित्र बनाए और नीचे चित्र का नाम लिख दिया था। कुछेक ने कुछ अजीब-सी आकृतियाँ बना दी थीं और कुछ बच्चों ने बिना कुछ लिखे ही खाली पर्चियाँ मुझे लौटा दीं। मैंने पाया कि कुल प्राप्त 70 पर्चियों में से 46 पर्चियों पर बच्चों ने अपने नाम लिखे हैं या नाम लिखने की कोशिश की है। यह देखकर मुझे अहसास हुआ कि बच्चों के नाम के साथ काम किया जा सकता है।

अपने इस अन्दाज़े को मैं और पुख्ता कर लेना चाहता था इसलिए अगले दिन आमोनी में फिर से कक्षा 1, 2 और 3 के बच्चों को एक-एक पर्ची दी और वही बात दोहराई। जब मैं पर्चियाँ इकट्ठी कर रहा था तब पहली क्लास की एक बच्ची ने अपनी पर्ची मुझे दी। उसने पर्ची में आकृतिनुमा कुछ बनाया था। मैंने पूछा, “क्या लिखा है?” तो वह बोली, “पूनम।” मुझे आश्चर्य हुआ लेकिन उसकी नज़र में वे आकृतियाँ पूनम थीं। मैंने उसकी पर्ची ले ली और पेन से उसकी हथेली पर उसका नाम लिखकर कहा, “ये ‘पूनम’ लिखा है।” उसने अपनी हथेली को गौर से देखा और अपनी जगह लौट गई। कुछ देर बाद जब वह पानी पीने हैण्डपम्प पर गई तो अपने हाथ पर लिखा नाम देखती जा रही थी। जब वह पानी पीने लगी तो उसने अपना बायाँ हाथ, जिसमें उसका नाम लिखा था, ऊपर कर लिया और सिर्फ एक हाथ का इस्तेमाल कर पानी पिया। मैंने पूछा, “ये हाथ गीला क्यों नहीं किया?” थोड़ी देर मेरी तरफ देखकर वह बोली, “नाम मिट नहीं जाएगा।”

इस घटना में मेरे लगभग सभी सवालों के जवाब मौजूद थे। मुझे लगा बच्चों के अपने खुद के नाम ही शायद ऐसे शब्द हैं जिसमें बच्चों के लिए अपनापन है और बच्चे इन्हें सीखने की आवश्यकता महसूस करते हैं और आतुर भी होते हैं। चूँकि हर बच्चे को कॉपी-किताब के साथ-साथ परीक्षा और दक्षता-संवर्धन टेस्ट में भी अपना नाम लिखना ही होता है इसलिए शाला शिक्षक के भी नाखुश होने की दिक्कत नहीं थी। इस तरह बच्चों के नाम के साथ काम करने का मेरा इरादा पक्का हुआ।

फिर शुरू हुआ सफर
थोड़ी खोजबीन के बाद क्लस्टर की एक प्राथमिक शाला में मैंने अपना काम शु डिग्री किया। अपनी तयशुदा मंशा के साथ जब पहली बार मैंने इस शाला में बच्चों के लिए चित्रकला का आयेाजन किया, तो बच्चों ने खूब मन लगाकर अपनी मर्ज़ी के चित्र बनाए। चित्र एकत्रित करने के पहले मैंने बच्चों से कहा, “जिसे अपना नाम लिखना आता है वह कागज़ पर अपना नाम ज़रूर लिख दे।”

वास्तव में मेरा उद्देश्य यह जानना था कि कितने बच्चे अपना नाम ठीक से लिख पाते हैं और कितने इसकी कोशिश में हैं। मैंने पाया कि चित्र बनाने वाले 24 बच्चों में से मात्र 7 ने ही अपना नाम लिखा है। चूँकि सभी बच्चों को अपना नाम अच्छा लगता है और हर बच्चा निश्चित तौर पर अपना नाम लिखकर खुश होता ही है इस अनुभव की चर्चा के आधार पर शाला शिक्षक प्रदीप यादव के साथ मिलकर तय किया कि हम सबसे पहले बच्चों को अपना नाम लिखना सिखाएँगे, वो भी बिना किसी डाँट-डपट के और मज़े के साथ।

अगले दिन हमने बारी-बारी से सभी बच्चों को खड़ा करते हुए उनके नाम पूछे और बोर्ड पर उनके नाम लिखते गए। जब सभी बच्चों के नाम बोर्ड पर लिख लिए गए तो मैंने कहा, “किसका नाम कहाँ लिखा है सभी देख लें फिर आगे काम करेंगे।” कुछ समयान्तराल के बाद मैंने पूछा, “राजकुमार, तुम्हें पता है तुम्हारा नाम कहाँ लिखा है?”

“हाँ,” वह बोला। उसने बोर्ड पर उँगली रखकर बताया, यह रहा। उस समय वह अपना नाम लिखना नहीं जानता था इसलिए मैंने पूछा, “तुम्हें कैसे पता कि यह नाम तुम्हारा ही है?”
“आपने मिथुन का नाम लिखा था तब मैंने उसका नाम याद रखा था और उसके नीचे मेरा नाम लिखा है, ऐसे मुझे पता चल गया।” क्या किसी और को राजकुमार का नाम पता था, के जवाब में रुकमणी ने अपना हाथ उठाया (रुकमणी भी अभी लिखना-पढ़ना सीखने की प्रक्रिया में है)।
मैंने पूछा, “कैसे?”
वह बोली, “बोर्ड पर जो सबसे लम्बा लिखा है, वही तो राजकुमार है।”
लिखना-पढ़ना ठीक से न आने के बाद भी राजकुमार और रुकमणी का सही नाम तलाशने का यह अन्दाज़ मुझे नया लगा। यह जानने की जिज्ञासा हुई कि क्या बच्चों के पास इसके और भी कोई तरीके हो सकते हैं। इसे परखने के लिए मैंने पूछा, “राजकुमार का नाम और कैसे याद रख सकते हैं?”
“ऊपर के तीन नाम छोड़कर जो नाम लिखा है वह राजकुमार है।”
“चार नम्बर की लाइन में आखिरी वाला राजकुमार है।”
“मेरे नाम (कविता) के आगे वाला राजकुमार का नाम है।”
“नीचे से दूसरी लाइन के आखिरी वाला नाम राजकुमार है।”
मिथुन ने कहा, “लिखा तब से उसका ही नाम देख रहा हूँ क्योंकि राजकुमार मेरा दोस्त है और मैंने तो उसका नाम कॉपी में भी लिख लिया है।”
किसी एक शब्द को याद रखने के लिए बच्चों के पास इतने सारे तरीके होते हैं यह मैंने आज ही समझा। मुझे यह भी लगा कि किसी शब्द को सीखते समय बच्चे (और शायद बड़े भी) उस शब्द में निहित अक्षर एवं मात्राओं पर ध्यान के साथ-साथ शब्द के आकार और स्थान के साथ खुद से सम्बन्ध के आधार पर उसे याद रखने की कोशिश करते हैं, जैसा कि मिथुन ने बताया। दूसरी बात यह कि सीखने में दोस्ती की भी अहम भूमिका होती है। इन दोनों ही बातों का हमने आगे की कक्षाओं में भरपूर लाभ लिया।

चर्चा के बाद
सभी बच्चों को अपना नाम बोर्ड पर लिखा देख खुशी हो रही थी लेकिन यह खुशी तब दोगुनी हो गई जब यह कहा गया कि “जिसके नाम पर मैं उँगली रखूँ उसे खड़े होना है और बाकी बच्चों को बताना है कि जहाँ उँगली रखी है वह किसका नाम है।” मैं बोर्ड पर चिन्हित करता रहा, बच्चे खड़े होते रहे और शेष बच्चे खड़े हुए बच्चे व बोर्ड पर लिखे के बीच सम्बन्ध बिठाकर नाम पढ़ते रहे।
आज हमने नाम के साथ तीन अन्य अभ्यास भी करवाए।
* बोर्ड पर लिखे अपने नाम पर गोला लगाना।
* अपने नाम से दोस्त के नाम तक लाइन खींचना।
* अपनी पसन्द के कोई दो नाम सोचना और उँगली रखकर पढ़कर बताना।
सम्पन्न हुई चारों ही गतिविधियों में बच्चे बहुत खुश थे। आज की खास बात यह कि हमने किसी भी बच्चे से लिखने के लिए नहीं कहा था तब भी सबने अपने-अपने नाम बोर्ड पर से अपनी कॉपी पर उतार लिए।
अगले दिन हमने बच्चों के नाम के साथ दो नए काम किए।
* सभी बच्चों के नाम एक कार्डशीट पर लिखकर उन्हें दीवार पर लगाया।
* सभी बच्चों के नाम-कार्ड हिन्दी-अँग्रेज़ी में बनाए और बच्चों को दिए।
जैसे ही नाम लिखी हुई कार्डशीट दीवार पर लगाई गई, बच्चों में इशारे और खुसुर-फुसुर शु डिग्री हो गई। बच्चे आपस मे बातचीत करते रहे और चर्चा में ही अपने सवालों के जवाब भी तलाशते रहे।
नाम लिखी कार्डशीट दीवार पर लगाने के बाद हमने बच्चों को अँग्रेज़ी और हिन्दी में लिखे नाम-कार्ड बाँटे। अपने-अपने नाम-कार्ड पाकर बच्चों की खुशी कई गुना बढ़ गई।

अब चूँकि हर बच्चे के हाथ में अपना नाम-कार्ड आ गया था और सब बच्चे उसे छूकर करीब से देख सकते थे, इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर हमने कुछ गतिविधियाँ कीं।

कौन आया, कौन गया?
छह बच्चों को खड़ा कर उनके नाम-कार्ड बीच में रखे गए। सभी बच्चों से पूछा किस-किस का नाम, कौन-सा है? बच्चों ने आसानी से नाम पहचान कर बता दिए। अब किसी एक बच्चे को क्लास से बाहर भेजा गया और इन छह नामों में से एक नाम हटाकर, उसकी जगह नया नाम रख दिया। बाहर गए बच्चे को अन्दर बुलाकर पूछा, “किस का नाम गायब है, और कौन-सा नया नाम आ गया है?” इस खेल में गायब नाम बच्चे आसानी से पहचान कर बोल पा रहे थे लेकिन जोड़े गए नए नाम को (बोलने) पढ़ने में उन्हें कुछ असुविधा हो रही थी। इसके बावजूद नहीं पढ़ पाने का डर बच्चों में बिलकुल नहीं था, बल्कि वे पूरे आत्मविश्वास के साथ अनुमान लगा रहे थे और मज़े कर रहे थे।
इस गतिविधि में बच्चों ने अनुमान लगाकर पढ़कर नए और पुराने नामों को पहचाना। बच्चों से चर्चा कर हमने इस गतिविधि का नाम रखा ‘कौन आया, कौन गया’।

बताओ किसका नाम छुआ था?
सभी बच्चों को एक गोले में बिठाकर कुछ नामों का परिचय कराते हुए नाम-कार्ड बीच में रखे गए। अब किसी एक बच्चे को बाहर भेजा गया। इसी दौरान भीतर बैठे बच्चों में से किसी एक बच्चे ने सर्वसम्मति से कोई एक नाम उठाया और रख दिया। भीतर बैठे सब बच्चों को वह नाम पता था। अब बाहर गए बच्चे को अन्दर आकर दस सवालों के ज़रिए पता करना था कि वह नाम किसका है। बैठे बच्चों को ‘हाँ’ या ‘ना’ में उसके सवालों के जवाब देना थे। ऐसी स्थिति में बाहर गए बच्चे के पास दो चुनौतियाँ थीं। पहली, कम-से-कम सवालों के ज़रिए छुए गए नाम तक पहुँचना और दूसरी ऐसे सवाल पूछना जिसका उत्तर ‘हाँ’ या ‘ना’ में दिया जा सके। धोखे से गलत सवाल पूछने पर बच्चे चुपचाप रहते और एक सवाल बर्बाद हो जाता और कई बच्चे एक साथ बोल पड़ते - सात सवाल हो गए। यह खेल कक्षा में कई बार खेला गया।

जब यह गतिविधि शुरू की गई थी तब बच्चों के सवाल एकदम सरल थे जैसे - क्या वह नाम रंजित है? क्या वह नाम मधु है? अर्थात् हर बार बच्चों के नाम बदल कर सवाल पूछे जा रहे थे। अगले ही दिन एक नया प्रश्न आया, क्या वह नाम लड़की का है? जवाब ‘हाँ’ आने पर सिर्फ लडकियों के बारे में पूछना था और ‘ना’ आने पर लड़कों से सम्बन्धित सवाल पूछने थे। मैंने बच्चों से पूछा, “ऐसे सवाल पूछने के क्या फायदे हैं?” इस पर चर्चा हुई और बच्चों ने महसूस किया कि थोड़े अलग सवाल पूछने पर बहुत सारे सवाल पूछने से बचा जा सकता है। इसके बाद बच्चों ने थोड़े अलग तरह से सोचकर सवाल पूछना शु डिग्री किया और फिर नए-नए सवाल आते गए। जैसे क्या वह चौथी में पढ़ता है? क्या वह तुतलाकर बोलता है? क्या उसका नाम सबसे लम्बा है? क्या वो रुकमणी की दोस्त है? कुछ बच्चों ने एक साथ दो सवाल भी पूछे जैसे क्या वह तीसरी क्लास की छोटी लड़की है? क्या वो गाना गाने वाली लड़की है? आदि। बच्चे अब खुद से समझ-बूझकर ऐसे सवाल गढ़ रहे थे जिनसे कम-से-कम सवालों के ज़रिए उस नाम तक पहुँचा जा सके। इसी दौर में एक नया सवाल आया, क्या उसके नाम में ‘रा’ की आवाज़ आती है? और इस एक सवाल से दो नई गतिविधियों की शुरुआत हुई।

अक्षर-ध्वनि से बनते नाम
मैंने बोर्ड पर लिखा ‘नी’ और बताया इसे ‘नी’ कहते हैं। अब जिस भी बच्चे के नाम में ‘नी’ लिखा हुआ है, खड़े हो जाओ। बच्चों ने झटपट अपने कार्ड टटोले और कुछ बच्चे खड़े हो गए, कुछ बैठे रहे।
रागिनी, शिवानी, मनीष, मनीषा, खड़े हुए और उन्होंने सबको अपने कार्ड में ‘नी’ दिखाया। बच्चों ने देखा और फिर इन बच्चों के नाम बोलते हुए महसूस भी किया। शि वा नी, म नी ष।

मैंने ‘ना’ लिखा तो हिना, रीना, अनामिका खड़े हुए और ‘ना’ दिखाया, पढ़कर सुनाया। बाकी बच्चों ने सुना और बोलकर ‘ना’ की आवाज़ महसूस की। यह गतिविधि काफी लम्बे समय तक चली और बच्चों ने अपने ही दोस्तों के नामों की मदद से अलग-अलग आकृतियों की आवाज़ों को समझा और मज़े के साथ महसूस भी किया।

नाम-कार्ड के साथ बच्चों का उत्साह और लगन निरन्तर बढ़ते जा रहे थे। साथ ही बच्चे खुशी-खुशी सीख भी रहे थे। नाम-कार्ड के साथ उपरोक्त गतिविधि के दौरान हमने यह भी पाया कि एक ही नाम में दो-तीन-चार तरह की ध्वनियाँ (आवाज़ें) होती हैं।
जैसे हिना में हि और ना।
राजकुमार में रा ज कु मा र।
लेकिन ज़्यादातर बच्चे अपने ही नाम के अलग-अलग अक्षरों को सही आवाज़ के साथ उच्चारित नहीं कर पाते। ऐसे में अपने नाम की अलग-अलग ध्वानियों से परिचय कराने के उद्देश्य से हमने एक दूसरा नामकार्ड-2 बनाया जो पहले से थोड़ा भिन्न था।

नामकार्ड-2 ने बच्चों को ध्वनि पहचान में बहुत मदद की, साथ ही अपने नाम में छुपी अलग-अलग आवाज़ों को भी उन्होंने समझा। अब ‘इसका साथी कौन’ गतिविधि और आसान हो गई थी और ‘बताओ किसका नाम छुआ है’ में ‘क्या उसके नाम में क की आवाज़ आती है?’ जैसे प्रश्नों को बच्चे अच्छे से समझकर उत्तर देने लगे थे।

हमने नामकार्ड-2 को कक्षा की सुन्दरता बढ़ाने के लिए भी उपयोग किया, दीवार पर 1 से लेकर 32 तक गिनती लिखी गई। इसी के सामने से एक रस्सी बाँधकर नामकार्ड लटकाने का सिलसिला शु डिग्री किया। शर्त यह भी रखी गई कि जो पहले आएगा उसका नाम-कार्ड एक नम्बर पर लटकाया जाएगा। कुछ बच्चों को ज़िम्मेदारी दी गई कि वे रोज़ बच्चों के नाम-कार्ड लटकाएँ और शाम को निकालकर रख दें और अगले दिन फिर लटका दें। इससे बच्चों की उपस्थिति पर तो असर हुआ लेकिन यह गतिविधि बहुत असरदार नहीं रही। हालाँकि, नामकार्ड-2 का एक बड़ा फायदा यह हुआ कि बहुत-से शब्दों को बच्चे ‘न’ में बड़ी ई की मात्रा ‘नी’ न कहकर सीधे नी, रा, वा, धु, थु पढ़ने लगे। बच्चों के नाम में आने वाले अन्य शब्द पहचानने की हमने एक नई गतिविधि भी शु डिग्री की। ‘इसका पूरा नाम बताओ’ जो ‘इसका साथी कौन’ से थोड़ी भिन्न थी।

इसका पूरा नाम बताओ
जब कोई बच्चा खड़ा होकर कहता ‘क’ तो बाकी बच्चों को वह नाम ढूँढ़कर बोलने होते जिनमें ‘क’ की आवाज़ आती हो जैसे रुकमणी, कनक। ऐसे ही अलग-अलग आवाज़ों के साथ खेलते हुए बच्चों ने कुछ अन्य आवाज़ों को भी पक्केपन से बोलना शु डिग्री किया। इस गतिविधि को हमने कक्षा में कई बार दोहराया और इससे काफी हद तक बारहखड़ी को रटने से निजात मिली। थोड़े लम्बे समय-अन्तराल के बाद, जब ज़्यादातर बच्चे अपने नाम में आने वाली सभी आवाज़ों को पहचानने लगे थे, हमने बच्चों के नाम के साथ एक और काम किया।

सभी बच्चों के नाम-कार्ड काटकर सभी आवाज़ों को अलग-अलग करके कहा, “तुम्हारे नाम में आई आवाज़ों को आगे-पीछे-बीच में जमाकर देखो, कौन-कौन-से नए शब्द बनते हैं।” यह सुविधा भी दी गई कि एक ही आवाज़ का दो-तीन बार भी उपयोग कर सकते हैं। शु डिग्री में बच्चों को थोड़ी असुविधा हुई लेकिन बाद में बच्चों ने इससे खूब नए शब्द बनाए, जैसे तीसरी क्लास की पलक ने बनाए - पल, पक, लप, कप, कल, कपल, लपक, ललक आदि। रमन ने बनाए - मर, रम, मन, नम, नरम, मरन आदि। इस गतिविधि ने बच्चों को शब्दों के साथ खेलने का एक नया मौका दिया। अब बच्चे किसी भी नाम को मौखिक या लिखित रूप में तोड़कर कोई नया शब्द गढ़ने की कोशिश करते।

एक नाम में कितने नाम?
एक दिन मधु ने मुझसे कहा, “सर मेरी मौसी के नाम में एक-दो लड़कियों के नाम हैं। मौसी का नाम संगीता है, ‘सं’ हटाने पर गीता बनता है जो एक लड़की का नाम है। ऐसे ही राजकुमार ने कहा मेरे नाम में भी तो राज और कुमार, दो लड़कों के नाम आते हैं। इसके बाद मैंने क्लस्टर की अलग-अलग शालाओं में नाम-कार्ड गतिविधि के अभ्यास किए, शाला शिक्षकों के साथ इसकी चर्चा की, जनशिक्षक को इसके बारे में बताया। जनशिक्षक के माध्यम से यह बात क्लस्टर मीटिंग तक पहुँची और कई शिक्षकों ने इसे आज़माकर देखा और माना कि बच्चों के सीखने में यह गतिविधि सहायक है।

बच्चों को अपना नाम सिखाने के उद्देश्य से बनाया जाने वाला नाम-कार्ड और उससे सम्बन्धित अन्य सहायक गतिविधियाँ, सीखने का एक ऐसा चरण है जो बच्चों को खुद करके सीखने के लिए प्रेरित करता है। नाम-कार्ड द्वारा नाम सीखने की प्रक्रिया बच्चों में उत्साह, खुशी और खुद से सीखने के प्रयास को बढ़ावा देती है। नाम लिखना सीखने की आवश्यकता हर बच्चा खुद-ब-खुद महसूस करता है। और इससे उसे जो आत्मसन्तोष मिलता है वह एक पन्ने की नकल लिखकर कभी भी नहीं मिल सकता।


महेश झरबड़े: भोपाल स्थित मुस्कान संस्था में काम करते हैं। मुस्कान, बस्तियों में रहने वाले बच्चों के लिए शिक्षा और शिक्षा से जुड़े अन्य मुद्दों जैसे स्वास्थ, रोज़गार आदि पर काम करने वाली संस्था है।
सभी चित्र: अजीजुर्रहमान शेख: शासकीय प्राथमिक विद्यालय, देवास के प्रधानाध्यापक हैं। चित्रकारी भी करते हैं। कथादेश और हंस जैसी पत्रिकाओं में चित्रकारी की है।