अम्बरीष सोनी   [Hindi PDF, 158 kB]

आज के परिवेश में जहाँ शहरों में घर छोटे और रिहाइश फ्लैट कल्चर की ओर बढ़ते जा रहे हैं ऐसे में अपना बगीचा हो जहाँ आप बागवानी कर सकें, सबके बस की बात नहीं। ऐसे में बोन्साई आपको ऐसी सुविधा देता है कि आप अपने मनचाहे पेड़ों के बोन्साई घर की छत पर, बालकनी में या अन्दर भी लगा सकते हैं। ‘बोन्साई क्लब भोपाल’ की सचिव रेवा जैन के घर हमने देशी-विदेशी 200 पौधों के बोन्साई उनकी छत और छोटे-से बगीचे में देखे। कुछ 15 साल पुराने खास तौर पर वट वृक्ष और पीपल, तो कुछ माह भर पुराने मामे1 जो अभी लम्बाई में आधे फुट के भी नहीं थे। उनके घर हमने गुलाब, बोगनवेलिया की कई प्रजातियाँ देखीं तो दुर्लभ समी का बोन्साई भी। सजावटी फायकस की कई प्रजातियाँ, अर्जुन, सेंटपेपर, गूलर, चायनीज़ अमरूद, गुलमोहर, कप एंड सॉसर, भारतीय अमरूद, लीची और न जाने कितने देशी-विदेशी बोन्साई। इतनी प्रजातियों के पेड़ एक साथ मैंने कभी किसी बगीचे में नहीं देखे थे।

पेड़ों का बोन्साई रूप आजकल खास चलन में है। लोगों के बीच यह कौतूहल का विषय भी है कि आखिर बरगद, आम, नीम जैसे विशाल पेड़ों के बोन्साई बनते कैसे हैं। इनमें फल और बीज भी होंगे क्या? इसके पीछे का विज्ञान क्या है? इन सब बातों को हम थोड़े संक्षेप में जानेंगे इस लेख में।

इतिहास 
अगर हम बोन्साई के इतिहास की बात करें तो चीन में लगभग एक हज़ार साल से पहले इसकी शुरुआत मानी जाती है। इसे पुन-साई के नाम से पुकारा जाता था और उसी से निकला है नाम - बोन्साई। चीनी लोग इन बोन्साई को अलग-अलग पशुओं और जानवरों के आकार दिया करते थे। इसके पीछे उनके कुछ मिथक और किंवदन्तियाँ भी थीं। जापान में इसका प्रवेश ज़ेन बुद्धिज़्म के माध्यम से लगभग 12वीं शताब्दी में होता है। जल्दी ही यह बौद्ध भिक्षुओं की सीमा से बाहर निकलकर अभिजात्य वर्ग की प्रतिष्ठा और सम्मान का प्रतीक बन गया। 19वीं शताब्दी के मध्य तक जापान में यह कला अपने चरम पर थी और इसी समय वहाँ पहुँचने वाले विदेशी घुमक्कड़ों के ज़रिए बोन्साई का प्रचार जापान से बाहर होने लगा।

प्रक्रिया
पेड़ों के बोन्साई अवतार देखते ही सबसे पहला सवाल जो हमारे दिमाग में आता है, वह है कि आखिर पेड़ों का बोन्साईकरण होता कैसे है? आइए सबसे पहले हम सारांश में इसकी प्रक्रिया के बारे में समझ लेते हैं। वास्तव में बोन्साई विज्ञान, कला और बागवानी की विधा का संगम है।
यह थोड़ी मेहनत, थोड़े प्रयास और ज़्यादा धैर्य की माँग करता है। नए उगे पौधे को बोन्साई बनाने के लिए कोकोपिट2, रेत, और गोबर की खाद मिलाकर खास भुरभुरी बनाई गई मिट्टी और उथले बर्तन की ज़रूरत होती है। बोन्साई पेड़ के आकार पर मत जाइएगा, इनको पौधे से पेड़ बनने में सामान्य पेड़ों से तो कम पर बरसों लग जाते हैं।

पेड़ को सघन एवं मनचाहा विशेष आकार का बनाने के लिए उसकी शाखाओं को बढ़ते ही लगातार काटते जाना होगा। जितनी ऊँचाई का बोन्साई आप चाहते हैं वह प्राप्त कर लेने के बाद आप उस पर आने वाली नई कोपलों को काटते जाएँगे ताकि वह और ऊँचा न हो, बल्कि उसी ऊँचाई पर फैलता जाए और सघन दिखे। इस तरह पेड़ की लम्बाई में वृद्धि नहीं होती पर चौड़ाई में वह फैलता जाता है।

जड़ें और रिपॉटिंग
बोन्साईकरण की प्रक्रिया में पौधों को समय-समय पर नए बर्तन में स्थानान्तरित करना होता है जिसे रिपॉटिंग कहते हैं। यह रिपॉटिंग अलग-अलग पौधों के लिए 6 महीने से लेकर 1 साल, 2 साल, 3 साल या 4 साल तक में की जाती है। रिपॉटिंग की प्रक्रिया में पेड़ की जड़ों की कटाई भी की जाती है और उसे किसी बड़े पात्र में स्थानान्तरित किया जाता है। बड़े पात्र में जड़ें थोड़ा और वृद्धि कर पाएँगी। पेड़ के विकास में जड़ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि भोज्य पदार्थ और पोषक तत्वों के लिए पत्तियों के साथ-साथ जड़ भी अहम भूमिका निभाती हैं। जड़ में ऐसे रासायनिक तत्व ‘सायटोकिनिन’ का निर्माण होता है जो काफी हद तक तने की लम्बाई को बढ़ाने को उत्तेजित करते हैं। इसलिए बोन्साईकरण में शाखाओं को नियंत्रित और व्यवस्थित करने के साथ लगातार जड़ों पर भी काम करना होता है। जब पेड़ बढ़ रहा होता है तो उसकी जड़ें भी बढ़ती हैं। ऐसे में उनके पात्र बदलने के दौरान जड़ों की भी छँटाई करते जाते हैं। इस तरह जड़ें लम्बी होने की बजाय घनी और मांसल होती जाती हैं। कई पेड़ों जैसे वट और पीपल में इन मांसल जड़ों का कुछ हिस्सा मिट्टी से बाहर उभार देते हैं जो पेड़ के प्राचीन होने का आभास देता है। दोनों सिरों, यानी जड़ और तने के शिखर को लगातार काटते रहने से तना लम्बा होने की बजाय चौड़ा और मांसल होता जाता है। अब तक में आप जड़ों को छाँट-छाँट कर इतना छोटा कर चुके होते हैं कि उसे एक छोटे और उथले पात्र में लगाया जा सके। उथला बर्तन इसलिए ताकि गहराई में वो मनमाने रूप से न बढ़ सकें।

पोषण बनती प्रकृति
जब हम पेड़ को इन सीमित दायरों में बढ़ाते हैं तो उनके विकास का यह तरीका ही उनकी प्रकृति बन जाता है। जड़ें नए तरीके से पुनर्गठित होने लगती हैं। तने में बहुत कम अन्तर से नई शाखाएँ निकलने लगती हैं। शाखाओं की दूरियाँ कम होने से वह एक घना पेड़ बनता जाता है। और वह उन्हीं सीमाओं में एक सामान्य और सम्पूर्ण पेड़ के रूप में विकसित होने लगता है। लगातार पत्तियों को हटाते (defoliation) और छाँटते रहने के चलते जब बोन्साई थोड़ा बड़ा हो जाता है तो उसके आकार के अनुरूप पत्तियाँ भी थोड़ी छोटी आने लगती हैं। पत्तियाँ आकार में छोटी मगर संख्या में बढ़ जाती हैं और इससे पेड़ उसी आकार में घना दिखने लगता है। इस सब के बावजूद बोन्साई के फूलों के आकार में कोई फर्क नहीं पड़ता और ये सामान्य बड़े पेड़ में आने वाले फूलों के आकार के ही होते हैं। अगर कभी आपने बोन्साई पेड़ों को फल से लदे हुए देखा हो तो आप चौंके बिना नहीं रहे होंगे क्योंकि इनमें फल भी सामान्य आकार के ही आते हैं फिर चाहे लीची हो या आम। परिस्थितियाँ तो यहाँ तक बनती हैं कि फलों के चलते इनकी डालियाँ ही झुक जाती हैं। एक बात ज़रूर है, चूँकि इन पेड़ों के आकार सीमित होते हैं इसलिए इनमें फलों की संख्या सीमित ही होती है। किसी पेड़ के बोन्साई में फल और फूल का मौसम सामान्य पेड़ की तरह ही होता है।

बीज
अब चूँकि बोन्साई पौधों में फल हैं, फूल हैं तो बीज भी हैं, इन बीजों को रोपा भी जा सकता है और इनसे नए पौधे भी आएँगे पर वे सामान्य पौधे होंगे, न कि बोन्साई। मतलब हर बार हमें बोन्साई बनाने के लिए फिर से नए पौधे पर वही सब काम करना होगा। और उन्हीं सारी प्रक्रियाओं से गुज़रना होगा।

कला के रूप में खुद को प्रकृति से जोड़कर रखने का यह आकर्षक और आधुनिक माध्यम है। उचित देखभाल के ज़रिए बोन्साई को सैकड़ों वर्षों तक बचाए रखा जा सकता है।


अम्बरीष सोनी: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।