अनिल सिंह  [Hindi PDF, 408 kB]

शिक्षण में थिएटर (नाट्य संयोजन) कोई नया विषय नहीं है, बल्कि इसे शिक्षण का अभिन्न और अनिवार्य विषय कहा जाए तो अतिश्योक्तिनहीं होगी। द अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ स्कूल एडमिनि-स्ट्रेटर्स, द अलाइंस फॉर एजुकेशन, और जॉन एफ कैनेडी सेंेटर फॉर द परफॉर्मिंग आर्ट्स ने 1985 में एक पेपर प्रकाशित किया था, जिसमें कहा गया है कि “हमारे देश का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि हम मौलिक सृजन करने और सृजनशील बनने में कितने सक्षम हैं।” थिएटर किसी भी व्यक्तिको क्रिएटिव बनाने का सबसे अच्छा माध्यम है।

भोपाल में अतिवंचित समुदाय के बच्चों की शिक्षा के लिए काम करने वाली संस्था ‘मुस्कान’ के साथ काम करते हुए, बच्चों के एक आवासीय शैक्षणिक शिविर में थिएटर की गतिविधियों के माध्यम से मैंने काफी कुछ सीखा। शिविर में 8 से 14 साल की उम्र के 25 लड़के-लड़कियाँ थे और यह तकरीबन 15 दिन चला।

आवासीय शिविर में हमने थिएटर की गतिविधियों के लिए सामान्य चर्चा से लेकर संवाद और अभिनय तक का एक सहज क्रम बनाया और चरणबद्ध तरीके से काम किया। आइए उन चरणों की बात करते हैं।

तरह-तरह की आवाज़ें
तरह-तरह की आवाज़ें निकालने से आवाज़ें सुनने, उन पर ध्यान देने और उनका सम्बन्ध अन्य क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से जोड़ पाने का हुनर विकसित हो पाता है। प्रतिभागियों ने रेल, बारिश, हवा, कुत्ता, गाय, कोयल की आवाज़ों के साथ ही विभिन्न फेरीवालों (सब्ज़ी, आईस्क्रीम, रद्दी वालों), ट्रैफिक पुलिस, क्लास टीचर की आवाज़ व उनकी शैली अपनाने की कोशिश की। ब्रजेश ने बताया कि उसके गाँव में बर्तनों पर कलई करने वाला आता था जो बिलकुल अलग तरह की आवाज़ करता था, ई ईईईईईई कलई ईईई करवालो ओओओ...
इस सत्र की शुरुआत मैंने अपने अनुभव के साथ ही की - एक बार कक्षा-3 में शनिवार की बालसभा में सुनाने के लिए ‘बडे़ सबेरे मुर्गा बोला’ कविता तैयार की। पर जब सुनाने की बारी आई और सबके सामने खड़ा हुआ तो मुँह से बोल ही नहीं फूटे। मुर्गा अन्दर ही अटक गया, फँस गया। वह बाहर ही नहीं निकला। बड़ी बेचैनी हुई। बाद में बहुत अभ्यास और कोशिशें कर दो महीने बाद की बाल सभा में कविता सुना पाया। इस उदाहरण के बाद तो हिचक, झिझक, अभिव्यक्ति पर चर्चा के साथ-साथ, अपनी बात कह पाने के लिए, ‘मुर्गे को बाहर निकालना’ का मुहावरे की तरह प्रयोग होने लगा।

इसके अलावा निरर्थक आवाज़ों का भी अभ्यास किया जो उनके मन के अलग-अलग भावों व हिचक के स्तरों से प्रभावित रहीं। इस तरह के अभ्यास ने उन्हें भीतर से बाहर की ओर आने में मदद की। जैसे एक गतिविधि में सबको बारी-बारी से कोई एक आवाज़ निकालते हुए घेरे का एक पूरा चक्कर लगाकर वापस अपनी जगह पर आना था। कोई ‘ऊ’ तो कोई सिर्फ ‘ई’ की आवाज़ को लम्बा खींचते हुए दम साधे गोल चक्कर काटता रहा। इससे उन्हें अपनी ही आवाज़ सुनकर खुलने में मदद मिली।

शारीरिक मुद्रा
शरीर अभिव्यक्ति में जितना सहायक है उतनी ही बाधा भी बनता है। शरीर सामान्यतया जिन स्थितियों और मुद्राओं के प्रति अनुकूल नहीं होता उनको करना कठिन मान लेता है। जैसे, सीधे खड़े रहने, सामान्य रूप से बैठने, लेटने या चलने से इतर मुद्राओं के लिए शरीर को तैयार करना हो तो वह संकुचित होना चाहता है और इससे अभिव्यक्तिका संकट पैदा हो जाता है।
शारीरिक मुद्राओं के अभ्यास के दौरान शरीर को गेंद की तरह गोल लुढ़काने की बारी आई तो ज़्यादातर लोग अड़ गए। न गोल हुए, न लुढ़के। लेकिन धीरे-धीरे शरीर का संकुचन खत्म हुआ। कई बार हमें ही नहीं मालूम होता कि हम अपने शरीर को कितनी तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं, कितनी मुद्राएँ गढ़ सकते हैं और इससे क्या-क्या अभिव्यक्तकर सकते हैं। अन्दर और बाहर, दोनों तरफ की बाधाएँ टूटती हैं। शरीर की लय के साथ अभिव्यक्ति भी प्रखर हो जाती है।

सभी को पर्ची में मिले नाम के अनुसार खुद को प्रस्तुत करना था। कोढ़ी, अपाहिज, साँप, स्कूटर, कुर्सी, घर, दरवाज़े की अभिव्यक्ति में शरीर को ढाल कर प्रतिभागियों ने अपने ही भीतर नई सम्भावनाओं को तलाशा और पाया।
जब एक कुत्ता ठण्ड के मारे यहाँ-वहाँ छुपने की जगह ढूँढ़ता है और सब कहीं से भगाया जाता है तो किसी कोने में दुबक जाता है और पेशाब लगने पर दीवार के कोने में ही टांग उठाकर पेशाब करता है। उस कुत्ते की तरह शरीर को ढालने पर कुत्ते की हालत पर और तरस आया। अब तो कुछ भी बन सकता हूँ।
-राजा (गंगा नगर)

कोई लाठियाँ बरसा रहा हो और आपको बस बचना है किसी तरह। डर भी है, फुर्ती भी है। आप कैसे-कैसे अपने शरीर को मोड़ते, दुबकते, भागते, पलटते हैं। यह एक्ट करके मुझे बड़ा मज़ा आया। मैंने अपने से इसे बनाया और उसके बाद से लगता है कि बस नाटक ही नाटक करूँ।
- मोनू (बापू नगर)

भावमुद्रा
शरीर की ही तरह चेहरे पर भी भावों की एक मर्यादा-सी बन जाती है। अक्सर हम चेहरे के माध्यम से भावों को उच्चतम बिन्दु तक व्यक्त नहीं करते। कई बार सिर्फ काम चलाते हैं। चेहरे के भावों को हम साधे रखते हैं। यह हमारी अभिव्यक्ति सहित, हमारे पूरे व्यक्तित्व में परिलक्षित होता है।
अलग-अलग चेहरे बनाना, चेहरों पर अलग-अलग भावों की अभिव्यक्ति लाना, उनमें तीव्रता-गहराई और नाटकीयता पैदा करना - हमारे सम्पूर्ण प्रस्तुतिकरण और प्रकटीकरण को प्रभावशाली बनाता है।
बच्चों ने दुख, डर, खुशी, आश्चर्य, नफरत, प्रेम, चोरी-चालाकी के भावों को अनायास चेहरे पर लाने के लिए खुद को एक काल्पनिक परिस्थिति में डालने और अपने भीतर उससे सम्बन्धित पात्र गढ़ने का अभ्यास किया।

दृश्य संयोजन
थिएटर की गतिविधियों में वैसे तो कई तरह के अभ्यासों का महत्व है, लेकिन दृश्य संयोजन एक विशिष्ट कौशल है। यह तार्किकता, तत्परता, आपसी सहकार व समायोजन, स्थान, प्रकाश और गति की समझ व सन्तुलन को सुदृढ़ करने वाला अभ्यास है। इसे समूह-कार्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जाता है।

प्रदर्शन कला में थिएटर ही है जो दर्शकों के समक्ष जीवन्त रूप में आता है और दर्शकों से प्रभावित भी होता है, साझेदारी में रहता है।
इस अभ्यास में विभिन्न समूहों को काल्पनिक स्थितियाँ बताई गईं। प्रत्येक स्थिति को थोड़ा विस्तार में प्रस्तुत किया गया ताकि उसके विभिन्न पहलुओं के बारे में सोच-विचार किया जा सके। यह कहा गया कि स्थिति के अनुसार पात्र चुनने हैं, दृश्य तैयार करना है और संवाद भी रचने हैं।

रात में बस स्टैण्ड में खाने की होटल तलाशते परदेशी मुसाफिर और अकड़ू पुलिसवाले के बीच मतभेद का दृश्य प्रतिभागियों ने ज़बरदस्त कल्पना- शीलता और व्यवहारिक समझ से गढ़ा और विकसित किया।

वीरेन्द्र ने होटल वाले की भूमिका अख्तियार की और अपने पड़ोसी दुकानदार से जो संवाद किए वे उसकी व्यवहारिक समझ का बेजोड़ नमूना था। उसने पुलिस, रात की दिक्कत, कर्मचारियों की परेशानी, महँगाई जैसे मसलों पर चुटीले संवाद बनाए। उसने संवाद गढ़ते हुए कहा, “लोग समझते हैं कि होटल के काम में बड़ा मुनाफा है, पर कितनी दिक्कते हैं यह हमें ही मालूम है। अभी वो मुफत में खाने वाला ठुल्ला सिपाही आता होगा। भरपेट खाके बोलेगा रात के 10 बज गए हैं, चलो दुकान बन्द करो। अब कैसे धन्धा करें?”

साथ ही पड़ोसी दुकानदार से बात करते हुए पूरे बाज़ार का दृश्य और प्रभाव स्थापित कर दिया। प्रीति, रानी, गोपी और ब्रजेश ने मुसाफिरों के अजनबीपन, रात के डर, होटल की तलाश को बखूबी पेश किया। बंटी ने पुलिसवाले की भूमिका निभाते हुए अपने अनुभव और समझ का इस्तेमाल किया। देर रात तक होटल खुला रखने के लिए होटल वाले को घुड़की देते और परदेशी मुसाफिरों पर रौब जमाते समय बंटी, बंटी था ही नहीं, शायद किसी देखे हुए अकड़ू और गुस्सैल पुलिसवाले का चरित्र उसने आत्मसात कर लिया था। उसने कहा, “इतनी रात गए कहाँ घूम रहे हो तुम लोग? पुलिस से होटल का पता पूछते हो, मैं कोई रिक्शा वाला हूँ क्या? साले चोर-उचक्के लगते हो। बन्द कर दूँगा थाने में।”
पड़ोसी दुकानदार दयाशंकर और परदेशी मुसाफिरों ने पुलिसवाले के लिए जिस तरह जगह बनाई वह एक अच्छे ग्रुप-वर्क और समायोजन का उदाहरण रहा।

दृश्य संयोजन में एक-दूसरे को जगह देना, सवालों के जवाब देना, घटना को आगे बढ़ाना, दृश्य को नाटकीय दृष्टि से खड़ा करना आदि कौशल विकसित होता है, जो आम जीवन में, लोक व्यवहार में भी देखने को मिलता है ।
‘लड़की पढ़ना चाहती है और उसने शादी से इन्कार कर दिया है’ वाले दृश्य में भी कमाल का संयोजन दिखा। राजा, माधव, निर्मला, अजय, वर्षा, रानी, गोपी ने खुद में ही रोल का बँटवारा किया और पहला दृश्य बनाया। फिर तो बस बढ़ाते ही चले गए और सबको उनके हिस्से का अभिनय करने का पर्याप्त मौका मिला। जब लड़की को देखने वाले घर आए तो लड़की बनी वर्षा ने माँ से कहा, “माँ, मैं अभी शादी नहीं करना चाहती। मेरे साथ की सभी लड़कियाँ आगे की पढ़ाई कर रही हैं। चाहे कुछ भी हो जाए, मुझे भी पढ़ना है।”

लड़की की माँ की भूमिका को निर्मला ने अपनी गम्भीरता से जीवन्त बनाया और लड़की की पढ़ने की चाहत को पूरी तरजीह दी। पति बने अजय ने उसकी वकालत की और लड़के पक्ष को अपनी तरफ से मना किया कि अभी लड़की पढ़ना चाहती है, शादी नहीं करना चाहती। घर में बैठकर शादी-ब्याह की बातचीत करने, बातोंे में तथ्य डालने और दृश्य को प्रभावशाली बनाने में सबने अपनी-अपनी समझ का इस्तेमाल किया। राजा ने पत्नी को मोटर साईकिल पर बैठाकर लड़की वालों के यहाँ जाने का बढ़िया स्वांग किया और दृश्यों की बारीकियों का भी बखूबी ध्यान रखा। माधव ने राजा की पत्नी की भूमिका अदा की। उसने दुपट्टे का प्रयोग कर पात्र गढ़ा। राजा ने परिवार के मुखिया का रोल लिया और परिपक्व संवाद रचे।

उसने कहा, “वो तो ठीक है निर्मला जी लेकिन इतना अच्छा रिश्ता दोबारा नहीं मिलेगा। फिर भी आप कहती हैं तो मैं लड़के से दो-तीन साल और इन्तज़ार करने के लिए कहता हूँ, शायद मान जाए।”
प्रतिभागियों के साथ दृश्य संयोजन के अभ्यास ने उन्हें स्थितियों के विश्लेषण, अपनी-अपनी दक्षताओं के आधार पर ज़िम्मेदारियों का वितरण और दृश्य की प्रभावकारिता की दृष्टि से अपनी स्थिति का निर्धारण करने का कौशल सिखाया।

वस्तुओं का रचनात्मक इस्तेमाल
थिएटर गतिविधि में यह अभ्यास एक बँधे हुए ढाँचे को तोड़ने एवं कल्पनाशीलता व रचनाशीलता को बढ़ाने की क्षमता विकसित करने में मदद करता है। एक डण्डी को, उसकी रूढ़ छवि तोड़कर, नई दृष्टि एवं उपयोगिता से देखना और उसे अभिनय करके दिखाना, जड़ता को तोड़ने वाला और रचनात्मकता को बढ़ाने वाला रहा। माँग के अनुरूप उसे कभी छाता, कभी कलम, कभी मोटर साईकिल का हैंडल, कभी टॉर्च, तो कभी खुरपी की तरह इस्तेमाल करके प्रतिभागियों ने अपनी दृष्टि को विस्तार दिया।
नाटक के दौरान एक ही सामग्री को अलग-अलग तरह से इस्तेमाल करना, उसे उसी रूप में महसूस करना और उसका प्रभाव पैदा करना एक विशिष्ट कौशल है और यह अभ्यास से आता है। इससे परिस्थिति के अनुरूप, समायोजन और शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है। कल्पना को भी विस्तार मिलता है। हर बार समूह के बीच गोले में एक नई वस्तु रखी गई। कभी डण्डी, तो कभी चप्पल, कभी किताब, कभी गमछा और कभी थाली। बारी-बारी से सभी को बीच में आकर उस वस्तु के साथ एक अभिनय करना था जिसमें उसे उसके पारम्परिक उपयोग से इतर रूप देना था। थाली को कार का स्टीयरिंग व्हील मानकर उसे उसी अन्दाज़ में घुमाते हुए गुड़िया ने अपनी कल्पनाशीलता का ज़बरदस्त परिचय दिया।

गवली ने गमछे को स्टेथोस्कोप बनाकर ज़बरदस्त प्रयोग किया। उसने गमछे को गले में डालकर धड़कन सुनने की जो भाव मुद्रा बनाई, उससे गमछे जैसी बेढब चीज़ में उपयोग किए जाने की नई सम्भावनाएँ पैदा हुईं।

त्वरित संवाद रचना
जब किसी परिस्थिति के तहत तुरन्त संवाद रचने की ज़रूरत पड़ती है तो आप अपनी संकलित जानकारी, अनुभव और समझ के आधार पर प्रतिक्रिया देते हैं। उस थोड़े-से समय में भी स्थिति का विश्लेषण करते हुए यह विचार करते हैं कि यह स्थिति क्यों और कैसे बनी, ऐसे में मुझसे क्या प्रतिक्रिया अपेक्षित है। इस पूरी कवायद से आपमें स्थिति को समझने और तार्किक रूप से सोच पाने का पैनापन आता है। परिस्थिति और ज़रुरत के अनुरूप संवाद गढ़ना आपको सबके समक्ष अपना मत और अपनी बात रखने का बल देता है।

उदाहरण के लिए एक काल्पनिक स्थिति बनाई गई कि निर्मला और गुड़िया अपने बच्चों को लेकर शिक्षा अधिकार कानून के तहत 25 प्रतिशत के आरक्षण वाले प्रावधान में एक बड़े निजी स्कूल में बच्चे का दाखिला कराने जा रही हैं। वीरेन्द्र को अचानक उनसे बात करने के लिए त्वरित संवाद रचने को कहा गया। वीरेन्द्र ने कहा, “अरे कहाँ जा रही हो बहन? ये सब छलावा है। मैंने भी पिछले साल अपने दोनों बच्चों का दाखिला कॉन्वेंट में कराया था, पर क्या हुआ? वही रोज़-रोज़ की परेशानी। कभी ये लाओ, तो कभी वो लाओ। हर दिन के लिए अलग-अलग जूते, मोजे़, डे्रस, स्वेटर, खेल के कपडे़। कभी ये फीस, तो कभी वो फीस। मैं तो तंग आ गया। बच्चे भी रोज़-रोज़ के तानों से परेशान हो गए। वहाँ टीचर उन्हें झुग्गीवाले कहकर बुलाते हैं। बच्चों ने भी कह दिया कि हम उस स्कूल नहीं जाएँगे। अपनी बस्ती के पास वाले सरकारी स्कूल में जाएँगे। बाकी साथी भी वहीं पढ़ते हैं। हमें तो सरकार से अपने इसी स्कूल को ठीक करने की माँग करनी चाहिए।”
इस मुद्दे पर समूह में अच्छी चर्चा हुई थी। पर त्वरित संवाद बनाने में वीरेन्द्र ने अपनी राजनीतिक समझ का पूरा इस्तेमाल किया और अपनी बात रखी।

ऐसे ही एक अभ्यास में बच्चों का एक समूह स्कूल बन्द होने पर पास ही में रहने वाली शिक्षिका के घर चाबी लेने जाता है। शिक्षिका के पति कहते हैं कि मैडम तो काफी देर की गई हुई हैं। बच्चों को त्वरित संवाद रचने थे। धर्मेन्द्र ने कहा, “पर हम तो स्कूल से ही आ रहे हैं। वहाँ तो ताला है।” दूसरा बच्चा गोपी वहाँ से निकलते ही कहता है, “मैडम स्कूल की छुट्टी मारके डीबी मॉल घूमने गई होंगी।” प्रीति कहती है, “9 बजे का स्कूल 11 बजे तक भी नहीं खुला है तो अब क्या खुलेगा।”
बच्चे अपने मन की बात तो कह ही पा रहे हैं, साथ ही उस खास स्थिति का विश्लेषण भी कर रहे हैं।

डॉयलाग डिलिवरी
शब्दों का शुद्ध उच्चारण और वाक्यों को व्याकरण-सम्मत ढंग से बोलना एक ऐसा अभ्यास है जो हमें साहित्य से जोड़ता है और उसका रस ले पाने की राह सुगम बनाता है। बोली को मातृभाषा के रूप में इस्तेमाल करना और खड़ी बोली का माहौल आस-पास न होना, इनका लिखित हिन्दी स्वरूप से फासला बढ़ाता है। ऐसे में इन बच्चों के बीच यह अभ्यास थोड़ा कठिन और अरुचिकर हो सकता था लेकिन गतिविधियों से उसे जीवन्त बनाने का प्रयास किया गया।

‘स’ और ‘श’ में भेद, अनुस्वार का अनुपालन, आधे एवं संयुक्ताक्षरों की प्रकृति को समझना और बोल पाना, कम प्रयोग होने वाले शब्दों को ठीक तरह से प्रस्तुत करना आदि।
बोर्ड पर लिखकर इन अक्षरों के प्रयोग और शब्दों की रचना पर सामूहिक गतिविधि के साथ काम किया गया। बच्चों को इन अक्षरों वाले नाम और शब्द ढूँढ़ने थे, फिर बारी-बारी से उन्हें बोलकर एक-दूसरे की मदद से उन्हें सुधारना था। वाक्यों में प्रयोग कर उसे पक्का करना था। लम्बे संवादों के ज़रिए इसका अभ्यास किया गया। लिखित सामग्री को ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने वाला अभ्यास भी काफी असरकारी रहा। हालाँकि, काफी सारे बच्चे ऐसे थे जो प्रवाह में नहीं पढ़ पा रहे थे पर अन्दाज़ लगाने और वाक्य संरचना की दृष्टि से सही तुक भिड़ाने में उन्हें महारत हासिल थी।

इस पूरे क्रम में हर बच्चे के पास करने के लिए काफी काम रहा। गतिविधियों ने हर बच्चे को छुआ। किसी को बोलना, किसी को मुँह बनाना, किसी को समूह में काम करना, किसी को नकल करना, किसी को अभिनय करना, किसी को शरीर की लोचशीलता का इस्तेमाल करना, किसी को गीत गाना, तो किसी को चुप रहकर सबका साथ देना भाया।
इन सभी नाट्य गतिविधियों की सीख और अभ्यास ने नाटक की तैयारी में खूब मदद की और सभी ने उसका आनन्द भी लिया।

शिक्षा के माध्यम से हम जिस सर्वांगीण विकास और जीवन कौशल की अपेक्षा करते हैं उसके तमाम तरीके और साधन हो सकते हैं। उनमें थिएटर एक ऐसा जीवन्त माध्यम है जिसमें ये सब सम्भावनाएँ मौजूद हैं। शरीर की लय-ताल, मुखमुद्रा, आवाज़ और भाव - यही सब संसाधन होते हैं और उनके संयोजन से ही अभिव्यक्तिकी स्पष्टता और प्रखरता बनती है। यह कौशल जीवन के अनगिनत अवसरों पर काम आता है और आत्मविश्वास को एक मज़बूत धरातल व ऊँचाई देता है। थिएटर गतिविधियों में प्रतिभागी बहुत-से कौशल विकसित कर पाते हैं और मनुष्य की प्रदर्शन की सहज भूख को भी सन्तुष्ट कर पाते हैं।

अभी हाल ही में खबर आई है कि सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकण्डरी एजुकेशन (सीबीएसई) इसी सत्र से 11वीं और 12वीं क्लास में ऐच्छिक विषय के रूप में थिएटर स्टडीज़ शु डिग्री करने जा रहा है। 11वीं में अधिकांश ज़ोर थ्योरी पर होगा और 12वीं में प्रैक्टिकल पर ध्यान दिया जाएगा, जिसके अन्तर्गत विद्यार्थियों को स्टेज-नाटक और नुक्कड़-नाटक करने होंगे। इसके लिए बनी विशेषज्ञों की कमेटी पाठ्यक्रम तैयार कर रही है।

अब देखना यही है कि पाठ्यक्रम के औपचारिक रूप से जोड़े जाने पर इस विधा की सम्भावनाएँ भी कहीं रटे-रटाए सवाल-जवाब और करने के लिए चन्द प्रायोगिक अभ्यास में तब्दील होकर न रह जाएँ। यह सदैव एक चर्चा का विषय रहा है कि औपचारिक ढाँचों में जुड़ने पर सम्भावनाएँ बढ़ती हैं या फिर सीमित हो जाती हैं।


अनिल सिंह: वंचित तबके के बच्चों के साथ काम करने वाली संस्था ‘मुस्कान’ के साथ लम्बे समय तक काम किया है। वर्तमान में आनन्द निकेतन डेमोक्रेटिक स्कूल, भोपाल से जुड़े हैं। कहानी प्रस्तुति में विशेष रुचि।
सभी चित्र: हीरा धुर्वे: भोपाल की गंगा नगर बस्ती में रहते हैं। चित्रकला में गहरी रुचि। साथ ही ‘अदर थिएटर’ रंगमंच समूह से जुड़े हुए हैं।