कमलेश उप्रेती [Hindi PDF, 189 kB]

संदर्भ के अंक-81 में मैंने मानचित्रों पर एक लेख पढ़ा था जिसमें कई मूलभूत तथ्य दिए गए थे और मानचित्रों के प्रति किस प्रकार हमारा एक परम्परागत रूढ़ दृष्टिकोण रहता है उस पर बड़ी रोचक बातों का ज़िक्र था।। मैंने इसे जाँचने का मन बनाया। मैं शिक्षण के द्विवर्षीय सेवापूर्व प्रशिक्षण में स्रोतदल के रूप में भाग ले रहा था जिसका पाठ्यक्रम अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के सहयोग से बनाया गया था। फलस्वरूप कुछ नई व रोचक शिक्षण विधियाँ अपनाई जा रही थीं। प्रशिक्षुओं के सम्मुख कोई समस्या रखी जाती थी, फिर उस पर परिचर्चा द्वारा विभिन्न समूहों से या व्यक्तिगत विचार लिए जाते थे। प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर समस्या या विषय की गहराई में उतरने का प्रयास किया जाता था। यहाँ एक सर्वमान्य व सटीक हल निकालने पर ज़ोर देने की बजाए विचार-विमर्श द्वारा तर्कपूर्ण ढंग से समाधान करने की प्रवृति के विकास को महत्व देना अधिक होता था। अध्यापकों और प्रशिक्षुओं, दोनों के लिए निरन्तर नए व रोचक विषय चर्चा के लिए लाने की चुनौती रहती।

इसी क्रम में एक दिन मैंने मानचित्रों पर हमारी व्यापक सोच पर बहस करवाने की सोची। इसके लिए सबसे पहले मैंने, कक्षा हॉल में जब कोई उपस्थित नहीं था, चार्ट पेपर पर हाथ से बनाया भारत का मानचित्र बोर्ड पर टाँग दिया जो कि प्रथम दृष्ट्या उल्टा था। मतलब कश्मीर नीचे और कन्याकुमारी ऊपर जबकि दिशाएँ भूगोल के हिसाब से ही दर्शायी गई थीं। मैंने इसे जानबूझकर ही ऐसा बनाया था।

अब मैं चुपचाप बैठकर लोगों की प्रतिक्रियाएँ नोट करने लगा ताकि बाद में उन पर चर्चा की जा सके। इस प्रक्रिया में हमारा मानचित्रों के प्रति एक रूढ़ व पूर्वाग्रहों से भरपूर दृष्टिकोण सामने आया। ये प्रतिक्रियाएँ हमारे मस्तिष्क पर बचपन से बनी उन स्थाई छवियों को प्रदर्शित कर रही थीं जो स्कूली पाठ्यपुस्तकों ने बड़ी गहराई से निर्मित कर दी थीं। ये छवियाँ इतनी गहरी थीं कि लोग किसी दूसरे परिप्रेक्ष्य और नज़रिए से देखना ही नहीं चाहते थे। अध्यापकों की भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ थीं। इन प्रतिक्रियाओं पर चर्चा के दौरान मानचित्रों की जो छवियाँ अधिक प्रभावशाली रहीं उन्हें मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ और उनका निर्माण कैसे होता है इस पर भी अपनी राय देना चाहूँगा।

उल्टा-पुल्टा
एक प्रशिक्षु ने कक्षा में प्रवेश करते ही बोर्ड पर टंगा मानचित्र देखा। उसने चुपचाप उसे सीधा कर दिया। उसके बाहर जाते ही मैंने मानचित्र पूर्ववत् टाँग दिया। जब कक्षा भरने लगी तब किसी और ने उसे सीधा तो नहीं किया मगर उस पर बातचीत करने लगे कि इसे उल्टा क्यों और किसने लगाया होगा।
ज़ाहिर था कि प्रशिक्षुओं के मन में मानचित्र की एक परम्परागत छवि थी जिसमें उत्तर दिशा सदैव ऊपर और दक्षिण सदैव नीचे रहती है। भारत के मानचित्र में यह छवि अधिक गहरी है क्योंकि यह हमारा सबसे परिचित मानचित्र है। यह छवि देशगीत की इन पंक्तियों से भी लोकप्रिय हुई है ‘ऊपर खड़ा हिमालय आकाश चूमता है, नीचे चरण तले नित सिन्धु झूमता है।

मानचित्र की यह छवि भौगोलिक तथ्यों के साथ गड्डमड्ड होकर कई विरोधाभास रचती है जैसे बचपन में मैं हैरान हो जाता था कि चम्बल और सोन नदियाँ नीचे से ऊपर को कैसे बहती होंगी। या अमेरिका और अंटार्कटिका पर लोग सिर के बल खड़े होकर कैसे चलते होंगे। ऊपर-नीचे की इस रूढ़ छवि को तोड़ना बहुत कठिन होता है। मानचित्र किसी भू-भाग का एक क्षैतिज सतह पर चित्रण है जिसमें ऊपर-नीचे की दिशाएँ पृथ्वी की त्रिज्य रेखा में क्रमश: आकाश और धरती के केन्द्र की ओर होती हैं। मगर हमें बचपन से ही मानचित्रों को लटकाई अवस्था में देखने की आदत होती है जिससे सापेक्ष धारणा बनाने में समस्या आती है।
मानचित्र में दिशाओं को सही आँकना ज़रूरी है, क्योंकि कश्मीर को ऊपर रखें या नीचे उसकी दिशा भारत के उत्तर में ही रहेगी। परम्परागत रूप से भारत के मानचित्र में बाएँ हाथ की ओर गुजरात, दाएँ हाथ की ओर असम-नागालेंड एवं ऊपर-नीचे क्रमश: कश्मीर और कन्याकुमारी चित्रित होते हैं।

मगर यह परिदृश्य बदल जाता है जब कोई प्रेक्षक सेटेलाइट कश्मीर की ओर से भारत में प्रवेश करते हुए उसके भू-भाग को देखता है। अब उसकी देखी तस्वीर में बाएँ हाथ की ओर असम-नागालेंड तो दाएँ पर गुजरात व ऊपर कन्याकुमारी तो नीचे कश्मीर ही तो होगा। ऐसे ही हम प्रेक्षक को गुजरात और फिर असम की ओर से प्रवेश करा के भारत भूमि का प्रेक्षण कर प्राप्त तस्वीरों का अनुमान लगा सकते हैं। गूगल-अर्थ में विशेष टूल के माध्यम से किसी भू-भाग का किसी भी दिशा से अवलोकन करने की सुविधा दी हुई है जिससे ऊपर-नीचे की हमारी अवधारणा काफी स्पष्ट हो सकती है।

मानचित्र और राष्ट्रवाद
कई लोगों ने मानचित्र को उल्टा टाँगने को राष्ट्र की अस्मिता से भी जोड़ कर देखा। उनका मानना था कि मानचित्र को सदैव परम्परागत तरीके से दिखाना ही सही है। मेरे विचार से ऐसी धारणा मानचित्र को राष्ट्रध्वज की तरह समझने के फलस्वरूप पैदा हुई होगी जिसमें सदैव केसरिया रंग ऊपर रहता है। यह उल्लेखनीय है कि ध्वज को लम्बवत् फहराया जाता है। जबकि भारत के मानचित्र में उसके किसी भी भू-भाग की सीमा से किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की गई थी, उसके बावजूद भूगोल के बारे में बचपन की रूढ़ धारणा के कारण इस प्रकार के विचार बने।इस धारणा को हाल के दशकों में कुछ राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा भारत के मानचित्र को मानवीकृत करके प्रचारित करने से अधिक बल मिला है। इस तस्वीर में भारत माँ के नारी स्वरूप के मुकुट पर हिमालय तो चरणों पर सागर लहरा रहा है। गौरतलब है कि भौगोलिक तथ्यों से इस तस्वीर का कोई मेल नहीं बैठता।

उपरोक्त वर्णित दोनों छवियों की निर्मिति के कारण हमारे विद्यालयों में मानचित्रों की समझ बनाने के अपर्याप्त मौके मिलते हैं और अधिकांश गलत तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं। क्षैतिज रखकर मानचित्रों का अध्ययन करने की कहीं कोशिश नहीं होती क्योंकि दीवार पर नक्शा टाँगकर अध्यापक बैठे-बैठे सारी कक्षा को पढ़ा सकता है; जबकि क्षैतिज रखकर तो अध्यापक को झुकना पड़ता है, कक्षा की व्यवस्था गड़बड़ाती है जो किसी विरले अध्यापक को ही गवारा होता है। इस ज़रा-से आलस से एक पूरी पीढ़ी रूढ़िवादी सोच पाल लेती है। त्रिआयामी या उभारदार मानचित्र जो क्षैतिज रखकर देखे जा सकें, सभी बच्चों तक पहुँचने चाहिए। सबसे बढ़कर यह सोच विकसित करने की ज़रूरत है कि हमारे से भिन्न नज़रिया भी हो सकता है और वह भी उतना ही सही हो सकता है जितना कि हमारा। तभी हम एक सहिष्णु समाज बना सकते हैं।


कमलेश उप्रेती: शासकीय प्राथमिक विद्यालय, पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड में शिक्षक। आधुनिक सुविधाओं के बगैर एक सुदूर गाँव में ‘वनराजी’ नामक हाशियाकृत आदिवासी समुदाय के बच्चों को पढ़ाते हैं।

सभी चित्र: कनक शशि: स्वतंत्र कलाकार के रूप में पिछले एक दशक से बच्चों की किताबों के लिए चित्रांकन कर रही हैं। एकलव्य के डिज़ाइन समूह से सम्बद्ध। भोपाल में निवास।