अतुल चन्द्र

खजूर पौष्टिकता से भरपूर फल है जो हमारे देश में मुख्य रूप से पिण्ड खजूर एवं छुहारा के रूप में खाया जाता है। हाँलाकि, खजूर के फल ताज़े भी खाए जाते हैं जो कि बहुत स्वादिष्ट होते हैं। ये ऊर्जा के प्रचुर स्रोत हैं। एक किलोग्राम ताज़े खजूर के फलों से 3000 कैलोरी से ज़्यादा ऊर्जा प्राप्त होती है जबकि केले से 970, पके हुए चावल से 1800 एवं संतरे से मात्र 400 कैलोरी ऊर्जा प्रति किलोग्राम प्राप्त होती है। सूखे वज़न के आधार पर इसके गूदे में 80 प्रतिशत मात्रा कार्बोहाइडे्रट्स की होती है। शर्करा मुख्य रूप से ग्लूकोज़ एवं फ्रक्टोज़ के रूप में पाई जाती है। इसके फलों में कैल्शियम, आयरन, फॉस्फोरस,  सोडियम,  पोटेशियम, मैग्नीशियम और ज़िंक जैसे आवश्यक खनिज तत्व पाए जाते हैं। इसके फलों का नियमित सेवन गर्भवती महिलाओं एवं बच्चों में एनीमिया के खतरे को कम  करता  है।  इसमें  उपस्थित पोटेशियम की भरपूर एवं सोडियम की बहुत कम मात्रा हमारे नर्वस सिस्टम व हृदय को स्वस्थ्य रखने में सहायक होती है। फलों में उपस्थित फाइबर (लगभग 2.5%) पाचन क्रिया को सामान्य बनाए रखता है एवं कब्ज़ से मुक्ति दिलाता है। इसमें टैनिन्स के रूप में एंटी ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा के कारण यह कैंसर जैसी घातक बीमारियों के खतरे को कम करता है।

खजूर की खेती
भारत खजूर का विश्व में सबसे बड़ा आयातक देश है। विश्व के कुल आयात का लगभग 30 प्रतिशत भारत द्वारा किया जाता है। यह शुष्क जलवायु में उगाया जाने वाला प्राचीनतम फलदार वृक्ष है जिसकी खेती दक्षिण ईराक में 4000 वर्ष ईसा पूर्व प्रचलित मानी जाती है। जैसा कि मोहनजोदाड़ो की खुदाई से विदित होता है, भारत में शायद इसकी खेती 2000 ईसा वर्ष पूर्व शु डिग्री हुई होगी। इसकी उत्पत्ति फारस की खाड़ी का क्षेत्र है। विश्व में खजूर की खेती मुख्य रूप से मध्यपूर्वी देशों सहित भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, स्पेन इत्यादि देशों में भी की जाती है। भारत में खजूर उत्पादन हेतु सबसे उपयुक्त जलवायु पश्चिम राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर एवं जोधपुर ज़िलों में है, जबकि इसकी व्यवसायिक खेती गुजरात के कच्छ ज़िले में की जाती है। विगत एक दशक से खजूर के टिश्यू कल्चर जनित पौधों को गुजरात और पश्चिमी व उत्तरी राजस्थान में रोपित करने से देश में इसकी खेती को नए आयाम मिले हैं तथा राजस्थान में इसकी खेती तेज़ी-से लोकप्रिय हो रही है। तमिलनाडु में भी इसकी खेती प्रारम्भ की गई है।

खजूर की एक प्रजाति, फीनिक्स डेक्टीलीफेरा उत्पादन की दृष्टि से महत्वपूर्ण  है।  जबकि  फीनिक्स सिल्वेस्ट्रिस प्रजाति नीरा (खजूर का रस) एवं गुड़ बनाने के लिए उपयुक्त है। इसके फल आकार में छोटे एवं कम गुद्देदार होते हैं। फीनिक्स डेक्टीलीफेरा फीनिक्स प्रजाति का सबसे बड़ा पौधा है जो 30 मीटर तक ऊँचा होता है तथा इसका तना उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ पेचदार पत्तियों से घिरा रहता है। पत्तियाँ 4-6 मीटर लम्बी, एकान्तर व पिन्नेट (खजूर में पत्तों की व्यवस्था का प्रकार) होती हैं। वयस्क पौधे पर 100-125 हरी पत्तियाँ होती हैं। सूखी व पुरानी पत्तियाँ स्वयं पेड़ से नहीं गिरतीं अपितु इन्हें हटाना पड़ता है। फल वानस्पतिक रूप से ड्रप कहलाते हैं तथा गुच्छों में आते हैं जो कि सामान्यत: 10 किलोग्राम या उससे अधिक वज़न के होते हैं। खजूर का वृक्ष एकलिंगी (डायोसियस) होता है तथा इसमें नर एवं मादा पुष्प-क्रम अलग-अलग पेड़ों पर होते हैं। खजूर में प्राकृतिक रूप से परागण की प्रक्रिया कम होती है। अत: समुचित परागण हेतु खजूर में परागकणों को ताज़ा खिले मादा पुष्प-क्रमों पर कृत्रिम रूप से छिड़कने की आवश्यकता होती है।

खजूर के फलों की अवस्थाएँ
खजूर के फलों के विकास एवं पकने की निम्नलिखित पाँच अवस्थाएँ होती हैं:
1. हबाबुक: मादा पुष्प क्रम में परागण के पश्चात निषेचन, जिसके तत्पश्चात अनिषेचित मादा पुष्प नष्ट हो जाते हैं और फलों का विकास आरम्भ हो जाता है।
2. किमरी अथवा गण्डोरा: फल विकसित होकर पूर्ण रूप से हरे हो जाते हैं।
3. खलाल अथवा डोका: फलों का हरा रंग, पीले या लाल रंग में बदलने लगता है। यह फलों के पकने की पहली अवस्था होती है। इस अवस्था में जिन किस्मों में फल कसैले नहीं होते, वे ताज़ा खाने के प्रयोग में लाए जाते हैं।
4. रूताब  अथवा  डांग:  फल मुलायम होने प्रारम्भ हो जाते हैं। शुरुआत में फल आंशिक रूप से मुलायम होते हैं, यदि शुष्क वातावरण मिलता है तो धीरे-धीरे पूरा फल मुलायम हो जाता है जिसे पूर्ण रूताब/डांग अवस्था कहते हैं।
5. तमर अथवा पिण्ड: यह फलों के पकने की अन्तिम अवस्था है। इसमें मुलायम हुए फलों से अतिरिक्त नमी उड़ जाती है तथा इन फलों को सामान्य तापक्रम पर भी सुरक्षित रखा जा सकता है।

खजूर के फलों को उपयोगिता के आधार पर उच्च गुणवत्ता वाली किस्मों को ताज़े खाने (खलाल/डोका), पिण्ड खजूर  (तमर/पिण्ड)  एवं  छुहारा (खलाल/डोका) में वर्गीकृत किया गया है। छुहारा बनाने हेतु पूर्ण खलाल/डोका फलों को अच्छी तरह से पानी  में धोने के पश्चात 5-20 मिनट तक कपड़े की पोटली में बाँधकर उबलते पानी में डुबाते हैं। तत्पश्चात 48-52 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर इन्हें वायु संचारित इलैक्ट्रिक भट्टी (ओवन) में 70-95 घण्टों तक सुखाया जाता है। इन्हें सूर्य की धूप में भी सुखाया जा सकता है। ताज़ा खाने हेतु बरही, हलावी, खुनेनी, सेवी, जामली, खलास इत्यादि प्रमुख हैं जबकि छुहारा हेतु मेडजूल, सगाई, खदरावी, जाहिदी एवं शामरान तथा पिण्ड खजूर हेतु जाहिदी, खदरावी, हलावी, खलास, सगाई, जगलूल इत्यादि किस्में उपयुक्त पाई गई हैं।

खजूर की खेती के  लिए उपयुक्त वातावरण
खजूर की खेती हेतु बलुई अथवा बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है जिसका पी.एच. मान 7-8.5 हो और समुचित जल निकास की व्यवस्था हो। हाँलाकि, इसको क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में भी उगाया जा सकता है। यह 4 मिली मोहस/से.मी. (लवणता की इकाई) 25 डिग्री सेल्सियस तक की लवणीयता वाली मृदाओं में उगाया जा सकता है बशर्ते उनमें सोडियम अवशोषण दर 15 से कम हो। जड़ों की सामान्य कार्यशक्ति हेतु एक प्रतिशत से अधिक क्षारीयता नहीं होनी चाहिए। भूमि में कम-से-कम 2 मीटर गइराई तक कंकड़, पत्थर या कैल्शियम कार्बोनेट की सख्त परत नहीं होनी चाहिए। सिंचाई हेतु खारा जल (4000 टी.डी.एस.) उपयोग में लाया जा सकता है क्योंकि यह लवणीयता एवं क्षारीयता को सहन करने की क्षमता रखता है। हाँलाकि, उपरोक्त परिस्थितियों में पौधे की वृद्धि एवं फल उत्पादन प्रभावित होते हैं, इसके  लिए विशेष उत्पादन प्रौद्योगिकियों जैसे बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति (ड्रिप इरीगेशन) इत्यादि को अपनाना पड़ता है।

खजूर की खेती के  लिए विशेष जलवायु की आवश्यकता होती है जिसमें लम्बी एवं शुष्क गर्मी, मध्यम सर्दी एवं फल पकने की अवस्था में वर्षा रहित जलवायु प्रमुख हैं, बशर्ते कि पानी की समुचित उपलब्धता हो। इसकी खेती के लिए पेड़ों का ऊपरी हिस्सा तपती आगनुमा गर्मी में तथा जड़ें पानी में रहनी चाहिए। फल पकते समय वर्षा या अधिक वातावरणीय नमी होने पर फल पूर्ण रूप से नहीं पक पाते और सड़ जाते हैं। भारत में खजूर के फल जुलाई-अगस्त माह में पकते हैं। उस समय देश के अधिकांश हिस्सों में मॉनसून सक्रिय हो जाता है। फलों की वृद्धि की प्रारम्भिक अवस्था (किमरी और खलाल) में वर्षा कम नुकसान पहुँचाती है परन्तु उत्तरोत्तर अवस्थाओं (रूताब व तमर) में यह अधिक हानिकारक होती है। अधिक समय तक हल्की वर्षा अपेक्षाकृत कम अवधि तक भारी वर्षा से ज़्यादा हानिकारक है।

खजूर में पुष्पन और फलों के पकने के  लिए क्रमश: 25 डिग्री सेल्सियस व 40 डिग्री सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त होता है। यह गर्मियों में 50 डिग्री सेल्सियस और सर्दियों में 2-3 डिग्री सेल्सियस तापमान आसानी-से सहन कर लेता है। इसकी वानस्पतिक  वृद्धि  हेतु  7  डिग्री सेल्सियस से 32 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान उपयुक्त होता है। खजूर के फलों को पकने हेतु पुष्पन से फलों के पकने तक 3000-4000 संचयित ऊष्मा इकाइयों (हीट समेशन यूनिट) की आवश्यकता होती है।

भारत में खजूर की खेती
यही कारण है कि जैसलमेर व बीकानेर क्षेत्र में खजूर के फल प्राय: पेड़ पर ही रूताब अवस्था तक पक जाते हैं तथा किन्हीं वर्षों में वर्षा देरी से होने के कारण तमर (पिण्ड) अवस्था भी प्राप्त हो जाती है। जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर और कच्छ क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा क्रमश: 100-160 मि.मी., 305 मि.मी., 366 मि.मी. और 322 मि.मी. होती है तथा उपरोक्त ज़िलों में परागण से फलों की तुड़ाई के मध्य क्रमश: 170, 150, 145 तथा 150 वर्षाविहीन दिन उपलब्ध हो पाते हैं। जबकि उपरोक्त अवधि में क्रमश: 4088, 3844, 3500 और 2656 ऊष्मा इकाइयों का औसत संचयन हो पाता है। परिणाम स्वरूप जैसलमेर और बीकानेर देश में खजूर उत्पादन के लिए सबसे उपयुक्त क्षेत्र हैं।

उपलब्ध संचयित ऊष्म इकाइयाँ फलों की परिपक्वता एवं गुणवत्ता निर्धारित करती हैं। संचयित ऊष्म इकाइयों की गणना के  लिए प्रतिदिन औसत तापक्रम में से 10 डिग्री सेल्सियस (बढ़वार के लिए न्यूनतम आवश्यक तापक्रम) को घटाकर उस अवधि में प्राप्त सम्मिलित इकाइयों से की जाती है। संचयित ऊष्मा इकाई के लिए एक दिन की गणना निम्नलिखित फॉर्मूले से की जाती है।

संचयित ऊष्मा इकाई (एक दिन की) = [अधिकतम तापमान (डिग्री सेल्सियस) + न्यूनतम तापमान (डिग्री सेल्सियस)/2 - 10 डिग्री सेल्सियस

जोधपुर, कच्छ और देश के अन्य खजूर उत्पादक क्षेत्रों में खजूर के फल खलाल (डोका) अवस्था तक ही परिपक्व हो पाते हैं। देश के अन्य क्षेत्रों में अधिक वर्षा, वातावरणीय आर्द्रता और कम संचयित ऊष्मा इकाइयों के कारण खजूर की व्यवसायिक खेती सम्भव नहीं है।
खजूर की खेती शुष्क मरूस्थलीय क्षेत्रों के लिए वरदान है। यह किसानों को आय देने के साथ-साथ कुपोषण के उन्मूलन में भी सहायक हो सकती है। खजूर के वृक्ष 60-70 वर्षों तक फल देते हैं तथा शुष्क क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।


अतुल चन्द्र: सेवानिवृत्त प्राध्यापक (उद्यानिकी) एवं कार्यक्रम समन्वयक, स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर, राजस्थान। अखिल भारतीय शुष्क उद्यानिकी (खजूर) समन्वित परियोजना के अर्न्तगत खजूर उत्पादन प्रौद्योगिकी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान। राष्ट्रीय उद्यानिकी मिशन के अर्न्तगत उत्तक संवर्धित खजूर के पौधों का पश्चिम राजस्थान के कृषकों के खेतों में रोपण। खजूर उत्पादन पर पुस्तक एवं शोध पत्रों का प्रकाशन।