सवाल: हमें गुदगुदी क्यों होती हैै?

जवाब: गुदगुदी हमारी एक कुदरती प्रतिक्रिया है। लेकिन सवाल तो यह है कि हमें गुदगुदी होती क्यों है। कई वैज्ञानिकों ने इस सवाल की पड़ताल की है और उनके शोधकार्यों ने कई सुराग दिए हैं लेकिन काफी सारी बातें आज भी अनजानी हैं। शुरू करते हैं इस बात से कि गुदगुदी वास्तव में होती क्या है और कभी-कभी यह हमारे शरीर को इतना आल्हादित क्यों कर देती है।

गुदगुदी क्या है?  
गुदगुदी का शाब्दिक अर्थ है कि किसी को उंगलियों या किसी अन्य मुलायम चीज़ से स्पर्श किया जाए जिसकी वजह से वह व्यक्ति हँस पड़े या उसे शरीर के किसी भाग में असहज महसूस हो। गुदगुदी दो तरह की होती है। एक होती है जिसे निस्मेसिस (Knismesis) कहते हैं। यह तब होती है जब त्वचा पर हल्का-सा उद्दीपन मिलता है और उसकी वजह से थोड़ी खुजाल चलती है। इस तरह की गुदगुदी आप खुद को भी कर सकते हैं। गुदगुदी का दूसरा प्रकार गार्गलेसिस (garglesis) है। यह किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा प्राय: बगलों, पैर की उंगलियों वगैरह को छूने पर होती है और इसमें हँसी छूट जाती है।

गुदगुदी क्यों होती है और हँसाती क्यों है?
यदि कोई व्यक्ति आपके शरीर के संवेदनशील हिस्सों को छुए और आप हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएँ, तो कह सकते हैं कि आपको गुदगुदी हो रही है। ऐसा क्यों होता है, इसे लेकर कई धारणाएँ हैं, हालाँकि ठोस कारण आज भी पता नहीं है।

गुदगुदी को लेकर दो वैचारिक घराने हैं। एक परिकल्पना यह है कि गुदगुदी का एहसास एक रक्षात्मक प्रतिक्रिया है जो हमारे शरीर के कमज़ोर हिस्सों का बचाव करती है। दूसरी परिकल्पना है कि गुदगुदी से सामाजिक बन्धन मज़बूत होते हैं। गुदगुदी को माँ-बाप और बच्चे के बीच सम्प्रेषण का पहला-पहला तरीका माना जाता है। यह माना जाता है कि हँसी बचपन में सीखी गई एक प्रतिक्रिया होती है। यदि खुशनुमा माहौल में किसी बच्चे को गुदगुदी की जाए जिसके दौरान वह हँस पड़े, तो समय के साथ बच्चे गुदगुदी को हँसी के साथ जोड़कर देखने लगते हैं। यानी कि, हो सकता है कि गुदगुदी लोगों के साथ जुड़ाव बनाने का एक तरीका हो। (लेकिन यह कारण सब पर लागू नहीं होता क्योंकि कुछ लोगों को गुदगुदी तकलीफदायक लगती है।)

गुदगुदी शरीर के किसी भी हिस्से पर हो सकती है। आम तौर पर पेट, पेट के बाजू का हिस्सा, बगलें, पैर और गर्दन गुदगुदी के प्रति ज़्यादा संवेदी होते हैं। जो लोग यह मानते हैं कि गुदगुदी का विकास एक रक्षात्मक क्रिया के तौर पर हुआ है, वे कहेंगे कि यही तो वे हिस्से हैं जो आक्रमण होने पर सबसे अधिक जोखिम में होते हैं - ये वे हिस्से हैं जिनकी सुरक्षा के लिए हड्डियाँ वगैरह नहीं हैं, जैसे पेट। इसके अलावा ऐसे हिस्से भी हैं जहाँ तंत्रिकाओं का घनत्व बहुत अधिक होता है, जैसे पैर के तलवे। इन हिस्सों की बढ़ी हुई संवेदनशीलता के चलते कोई खतरा होने पर त्वरित प्रतिक्रिया होती है।

अनुसंधान से पता चला है कि त्वचा की बाह्य परत (एपिडर्मिस) की तंत्रिकाओं को उद्दीपन मिलने पर मस्तिष्क के दो हिस्सों में सक्रियता पैदा होती है। इनमें से एक हिस्सा वह है जो स्पर्श का विश्लेषण करता है और दूसरा आनन्ददायी अनुभवों का नियमन करता है। इसके अलावा, जब गुदगुदी के परिणामस्वरूप हम हँस पड़ते हैं, तो हायपो-थेलेमस सक्रिय हो जाता है और भागो-या-लड़ो वाली प्रतिक्रिया शुरू कर देता है। अर्थात् जब हमारे शरीर के संवेदनशील हिस्सों को किसी भी तरह से उत्तेजित किया जाता है तो अनुक्रिया के रूप में फूटने वाली हँसी हमलावर के समक्ष हथियार डाल देने के कुदरती संकेत के रूप में काम करती है और इस तरह से वह दुखदायी उद्दीपन समाप्त हो जाता है। गुदगुदी के साथ प्राय: शरीर में छटपटाहट और मरोड़/ऐंठन होती है। यह एक और तरीका है जिससे शरीर उन हिस्सों तक पहुँच को मुश्किल बना देता है और हमले से बचा लेता है।

और एक बात। ऐसा लगता है कि हमारे पूर्वजों ने हँसी को आत्म-समर्पण के एक तरीके के रूप में उपयोग करना सीख लिया था। इससे उन्हें जीवित बचने में मदद मिलती थी क्योंकि हँसी यह संकेत देती थी कि वह व्यक्ति लड़ना नहीं चाहता। वर्तमान समय में वह ज़रूरत तो रही नहीं मगर जैव-विकास की बदौलत गुदगुदी की हँसी बरकरार रह गई।

क्या जन्तुओं को गुदगुदी होती है?  
अध्ययनों से पता चला है कि मनुष्यों के अलावा, हाथी और चूहे भी गुदगुदी महसूस करते हैं। चिम्पैंज़ी, जिनके व्यवहार में कई चीज़ें हमारे जैसी ही होती हैं, भी खेलकूद में गुदगुदी करते हैं और जब वे खिलखिलाते हैं तो हाँफने जैसी आवाज़ें पैदा करते हैं। लगता है कि जैसे उनकी साँस फूल रही है। चूहे खुशी की लाक्षणिक उच्च आवृत्ति की आवाज़ें निकालते हैं (जो एक किस्म की खिलखिलाहट ही होती है)। चिम्पैंज़ी और चूहे जैसे प्राणियों को गुदगुदी में मज़ा आता है, लेकिन सारे जन्तु ऐसे नहीं हैं। वैसे चिम्पैंज़ी और चूहों के बारे में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे इसे पूरी तरह पसन्द करते हैं। इस मामले में गलतफहमी का एक त्रासद उदाहरण स्लो लोरिस नामक जन्तु है। इन्हें गुदगुदाया तो जा सकता है लेकिन यह उन्हें अच्छा नहीं लगता। हम जिसे आनन्द समझ बैठते हैं, वह दरअसल डर होता है।

खुद को गुदगुदी क्यों नहीं कर सकतेे?  
हाथ का काम छोड़ दीजिए और खुद को गुदगुदाने की कोशिश कीजिए। मुश्किल है, नहीं? यह थोड़ा विचित्र है क्योंकि कोई और, मान लीजिए आपकी भुजा के पिछले भाग में हल्के-से छुए तो आप हँस-हँसकर लोटपोट हो जाते हैं।

पहले किए गए अध्ययनों से पता चला था कि हमारा मस्तिष्क जानता है कि जब व्यक्ति हिले-डुले या कोई क्रिया करे तो क्या महसूस करना है। हमारी अपनी हलचल के कारण उत्पन्न होने वाली अनगिनत संवेदनाओं को लेकर हम सतर्क नहीं होते। उदाहरण के लिए, बोलते समय ध्वनि-यंत्र में जो कम्पन होते हैं, उनको हम कदापि महसूस नहीं करते। यही कारण है कि हम खुद को गुदगुदी नहीं कर पाते। यदि हम खुद को गुदगुदाने के लिए अपनी भुजा को स्पर्श करेंगे तो मस्तिष्क समझ जाता है कि वह संवेदना हमारे हाथ के स्पर्श के कारण है, और इसके लिए तैयार हो जाता है। यानी हड़बड़ी की भावना को खत्म करने के कारण शरीर उसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं देता है, जैसी किसी और के स्पर्श पर होती है। यह स्पष्ट हो चुका है कि आत्म-गुदगुदी से बचाने का काम हमारे मस्तिष्क के निचले हिस्से में स्थित सेरेबेलम नामक भाग करता है जो हमारी अपनी हरकतों की निगरानी करता है। यह अंग अपेक्षित उद्दीपनों और अनपेक्षित उद्दीपनों में भेद कर सकता है।

जैसे टायपिंग करते समय आपकी उंगली कितना दबाव डालेगी, यह एक अपेक्षित उद्दीपन है। लेकिन यदि कोई पीछे से आकर आपके कन्धे को थपथपाए तो वह एक अनपेक्षित उद्दीपन होगा। मस्तिष्क टायपिंग की क्रिया से उत्पन्न होने वाली संवेदनाओं पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता जबकि कन्धे पर थपथपाहट पर वह काफी ध्यान देता है। अपेक्षित और अनपेक्षित के बीच भेद करने की क्षमता मानव इतिहास में काफी जल्दी विकसित हो गई थी और यह स्वयं को अवांछित खतरों से बचाने का एक तरीका है।

अनुसंधान दर्शाते हैं कि लोगों का एक समूह है जो खुद को गुदगुदा सकता है: स्किज़ोफ्रेनिया (खण्डित मानसिकता) से ग्रस्त लोग। हालाँकि, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुआ है कि ऐसा क्यों होता है लेकिन अध्ययनों से पता चलता है कि ऐसे लोगों के मस्तिष्क स्व-जनित और बाह्य-जनित स्पर्र्शों के बीच भेद नहीं कर पाते हैं। हो सकता है कि इसी वजह से वे स्वयं अपने स्पर्श के प्रति भी अति-संवेदी हो जाते हैं।

गुदगुदी पर शोध कैसे-कैसे?  
गुदगुदी पर काफी अनुसंधान हुआ है। कुछ मज़ेदार अनुसंधान देखिए।

1) 1872 में गुदगुदी के बारे में लिखते हुए डार्विन ने यह तुलना की थी कि लोग गुदगुदी और चुटकुलों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। उनका कहना था कि गुदगुदाए जाने के लिए ज़रूरी है कि आप अच्छे मूड में हों, चौक जाएँ और स्पर्श हल्का-सा हो।

2) 1940 के दशक में एक शोधकर्ता ने अपने दो बच्चों को लेकर गुदगुदी का अध्ययन किया था। ओहायो के एंटीओक कॉलेज के वैज्ञानिक क्लेरेंस ल्यूबा ने अपने दो छोटे-छोटे बच्चों को गुदगुदाया। इस दौरान वे नकाब पहने हुए थे ताकि बच्चे यह न देख सकें कि वे हँस रहे हैं या नहीं। बच्चे फिर भी खिलखिलाए और ल्यूबा ने निष्कर्ष निकाला कि हँसी गुदगुदाने के प्रति सीखी हुई नहीं बल्कि एक नैसर्गिक प्रतिक्रिया है।

3) 1999 में किए गए एक अध्ययन में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डिएगो के शोधकर्ताओं ने 32 स्नातक छात्रों की आँखों पर पट्टी बाँधकर कहा कि पहले एक रोबोटिक हाथ और फिर एक व्यक्ति उनके पैर पर गुदगुदी करेगा। फिर उन्हें बगैर बताए दोनों बार एक व्यक्ति ने ही उन्हें गुदगुदाया। छात्रों की प्रतिक्रिया पर इस बात का कोई असर नहीं पड़ा कि उनके विचार में मशीन उन्हें गुदगुदी कर रही थी या कोई हाड़-मांस का इन्सान। शोधकर्ताओं का निष्कर्ष था कि गुदगुदी एक नैसर्गिक अनुक्रिया है, न कि कोई सामाजिक प्रतिक्रिया जो लोगों के बीच आपसी मेलजोल से सीखी जाती है।


कोकिल चौधरी: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।