यमुना सनी

कक्षा में ग्लोब तथा नक्शे का उपयोग करते समय क्या आपको ऐसा लगा कि नशा ठीक वैसा नहीं है जैसा ग्लोब में दिखाई देता है? क्या होता है जब ग्लोब से कागज़ पर नक्शा बनाया जाता है।

प्रागैतिहासिक काल में जब लिखने का चलन भी नहीं था, तब से ही मनुष्य अपने आसपास के दृश्यों के चित्र बनाने लगा था|अनेक प्रारम्भिक नक्काशियों में न केवल आसपास के भूभागों या नदी-नालों का चित्रण है। बल्कि दूर-दराज़ के भूभागों और समूची दुनिया की परिकल्पना का भी चित्रण है। ये परिकल्पनाएं आमतौर पर यह मानकर चलती थीं कि पृथ्वी तश्तरी जैसी चपटी है तथा चारों ओर समुद्र से घिरी हुई है।

चपटी धरती की यह धारणा पन्द्रहवीं सदी तक आते-आते टूटी। उन्हीं दिनों यूरोप के व्यापारी और नाविक पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों को खोजने व उनके बारे में सही जानकारी पाने के लिए यात्राएं करने लगे। जैसे-जैसे पृथ्वी और विभिन्न देशों की जानकारी बढ़ी वैसे-वैसे नक्शों का बहु आयामी उपयोग होने लगा। इनमें अनजाने देशों की खोज से प्राप्त जानकारी, आने-जाने के रास्ते आदि दर्शाए जाने लगे। इसी कारण जब पुर्तगाली नाविक समुद्री यात्राएं करके अपनी जानकारी बढ़ा रहे थे तब वेनिस जैसे उत्तरी इटली के अनेक राज्य अपने जासूसों को पुर्तगाली राजधानी लिस्बन भेजा करते थे ताकि वे वहाँ बन रहे नक्शों की प्रतियाँ चुराकर ला सके। नक्शा यूरोपीय साम्राज्य निर्माण का एक प्रमुख औज़ार साबित हुआ। आज हम जिस विश्व मानचित्र का बहुत ज्यादा उपयोग करते है, उससे साम्राज्यवादकालीन धारणाओं को बल मिलता है। विश्व के उस मानचित्र को देखें जिसका व्यापक उपयोग होता है। (चित्र 1)

इस मानचित्र का उपयोग पाठ्यपुस्तकों, दीवार-मानचित्र, टीवी, आदि में आमतौर पर होता है। इसका इतना ज्यादा प्रचलन हुआ है कि हमारी दुनिया की धारणा इसके अनुरूप ही ढल गई है।

यह नक्शा सन् 1569 में हॉलैण्ड के नक्शा-नवीस मर्केटर के प्रक्षेपण पर आधारित है। मर्केटर तत्कालीन समुद्री यात्राओं के उपयोग के लिए नक्शा बनाना चाहता था। समद्री मार्ग तय करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाते समय दिशा का सही-सही ज्ञान होना आवश्यक था। मर्केटर के नक्शे की खासियत यही थी कि उससे लोग जगहों की दिशा सही-सही मालूम कर सकते थे। लेकिन इस नक्शे में भूभागों के आकार सम्बन्धी अनेक विसंगतियाँ हैं।

उदाहरण के लिए - इस नक्शे में अफ्रीका उत्तरी अमेरिका से छोटा दिखता है, जबकि वास्तव में अफ्रीका सवा गुना बड़ा है। ऐसे कुछ विसंगतियों को अगले पृष्ठ पर आप देख सकते हैं।

परिणामस्वरूप सभी उत्तरी भूभाग अपने वास्तविक आकार से काफी बड़े दिखाई देते हैं। इत्तेफाक से यह गोरों के देश हैं। यहीं से निकलकर उन्होंने खोजी यात्राएं कीं, दूसरे देशों पर अपना आधिपत्य जमाया और अपना साम्राज्य फैलाया।

मर्केटर के नक्शे में जिन देशों को तुलनात्मक रूप से छोटा दर्शाया गया है (जैसे भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्वी एशिया, अफ्रीका,मध्य एवं दक्षिण अमेरिका आदि) वे यूरोपीय व अमरीकी साम्राज्य के अधीन रहे हैं। एक ओर इस नक्शे में साम्राज्यवादी देशों के आकार बढ़ा-चढ़ाकर दिखाए गए हैं और दूसरी ओर उपनिवेश के देशों के आकार छोटे

इस तरह मर्केटर जैसे नक्शे संसार की एक विकृत छवि छोड़ते हैं और इसके साथ-साथ उन विभिन्न देशों के लोगों के तुलनात्मक महत्व की एक खास धारणा भी बनाते हैं। हम मर्केटर के नक्शे के इतने आदी हो गए हैं कि दूसरे नक्शे चाहें वे ज्यादा सही हों, हमें सही नहीं लगते। उदाहरण के लिए 1973 में प्रस्तुत किया गया अर्नो पीटर्स का मानचित्र लें। (चित्र 2)

पीटर्स का प्रयास था कि हम विश्व के विभिन्न देशों व लोगों को ज्यादा सही संतुलित नज़रिए से देख पाएं। मर्केटर और पीटर्स के नक्शों की तुलना आप खुद करके इस अंतर को पहचान सकते है। इसमें अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, दक्षिण एशिया आदि के आकार पर गौर करें। इस (पीटर्स) मानचित्र में सभी महाद्वीपों के आकार (साइज़) उसी अनुपात में हैं जिस अनुपात में ग्लोब पर होते हैं। अतः अलग-अलग देशों के क्षेत्रफल की तुलना आप सही ढंग से कर सकते हैं। मर्केटर के नक्शे में इस तरह की तुलना करने पर गलत निष्कर्ष निकलेंगे। इस संदर्भ में यह प्रश्न स्वाभाविक होगा कि आखिर मर्केटर ने ऐसा विकृति युक्त नक्शा कैसे बनाया?

विश्व के नक्शे

नक्शा बनाने में प्रमुख समस्या यह है कि तीन आयामी गोलाकार ग्लोब को सपाट दो आयामी कागज़ पर कैसे उतारें। इसके लिए पुराने समय में कांच के ग्लोब की मदद ली जाती थी। इनकी सतह पर भूखंडों की आकृतियों को उकेर दिया जाता था। फिर ग्लोब के बीच में बत्ती जलाजाती थी। बाहर किसी सतह पर उसमें उकेरे हुए भू-भाग की परछाईं पड़ती। जिस सतह पर यह परछाई पड़ती वहां इन आकृतियों को उतारा जाता था। अलग-अलग आकृति के कागज़ को सतह के रूप में उपयोग किया जा सकता था - बेलनाकार, शंक्वाकार, समतल कागज़ आदि। (चित्र 3)।

भू-भाग की आकृतियों को बनाने के बाद इन कागज़ों को खोलकर फैलाया जा सकता थाताकि सपाट नक्शा बने। यही तरीका था गोलाकार पृथ्वी का नक्शा सपाट कागज़ पर बनाने का। नीचे तीनों तरह की सतों से प्राप्त नक्शे दिखाए गए हैं। आप देख सकते हैं कि प्रत्येक नक्शा दूसरे नक्शों से काफी भिन्नता लिए हुए है।

गोलाकार पृथ्वी की सतह पर बनी आकृतियों की छवि सपाट कागज़ पर उतारने को मानचित्र-प्रक्षेपण कहते हैं। आजकल इस काम के लिए काँच के बने ग्लोब का उपयोग नहीं होता। इसके बदले में ग्लोब पर बने संदर्भ जाल (रेफरेन्स ग्रिड) को सपाट कागज़ परे उतारा जाता है, जिसके आधार पर नक्शे बनाए जा सकते हैं।

‘संदर्भ ग्रिड'
हम सब ग्राफ कागज़ के ग्रिड (जाल) से तो परिचित होंगे; इसमें दो संदर्भ रेखाएं x तथा y होती हैं। जो एक ही बिन्दु'0' से शुरू होती हैं। ग्रिड के अंदर किसी बिन्दु की स्थिति को इन दो संदर्भ लाईनों से दूरी के हिसाब से बताया जाता है। (चित्र 4) जैसे इस चित्र में जगह ‘क’ की स्थिति आधार बिन्दु'0' से 30 इकाई पूर्व और 20 इकाई उत्तर पर है।नक्शों में इस प्रकार के ग्रिड बनाने से किसी स्थान की स्थिति आसानी से इन लकीरों की मदद से मालूम की जा सकती है।

ग्राफ पर सभी चौकोन समान क्षेत्रफल के होते हैं। यह केवल समतल कागज़ पर संभव है; गोलाकार ग्लोब पर नहीं। ग्लोब पर जगहों की स्थिति दर्शाने के लिए एक उचित विधि की जरूरत थी जो गोलाकार सतह पर खरी उतरे। इसके लिए दो तरह की घुमावदार लकीरें ग्लोब पर खींची जाती हैं। यही अक्षांश व देशान्तर रेखाएं हैं। ग्लोब पर किसी भी स्थान की स्थिति को इन लकीरों के संदर्भ में बताया जाता है। किसी भी स्थान की स्थिति को वहाँ से गुजरने वाली इन दो रेखाओं की मदद से दर्शाया जाता है।

नक्शा - नवीसी में
अक्षांश - देशांश रेखाएं

मानचित्र प्रक्षेपण का केंद्रीय मुद्दा यह है कि ग्लोब पर बनी अक्षांश देशांश रेखाओं के जाल को समतल कागज़ पर कैसे उतारा जाए। एक बार हम इस जाल को कागज़ पर उतार लें तो उसके आधार पर भूभागों को दर्शाया जा सकता है। नक्शे में उन्हें उतारने के तीन बुनियादी तरीक हैं - बेलनाकार, शंकु आकार और समतल। इनके बीच के अंतर आप चित्र 3 में देख सकते हैं। इनमें आप तीन अलग-अलग तरह के ग्रिड देख सकते हैं।अलग-अलग प्रक्षेपण से अलग-अलग तरह के नक्शे कैसे बन जाते हैं इनसे स्पष्ट हो जाता है।

चाहे वह बेलन हो या शंकु हो या समतल, तीनों ग्लोब के किसी एक खास हिस्से को ही छूते हैं (देखिए चित्र 3)। उसी वृत्त पर वह नक्शा ग्लोब के अनुरूप बनेगा। उस वृत्त से दूर जाने पर नक्शे में विकृतियां बढ़ती जाएंगीबेलन भूमध्य रेखा को छूता है तो इस प्रक्षेपण में भूमध्यरेखीय प्रदेश ही सही अनुपात में बनेंगे। ध्रुव के पास अधिक विकृति होगी। शंकु लगभग 40 डिग्री अक्षांश को छूता है तो वह हिस्सा ग्लोब के अनुरूप होगा। सपाट तह पर बनाया नक्शा ध्रुव पर ग्लोब को छूता है। उसमें ध्रुवीय हिस्सा सही बन सकेगा।

नक्शे में विकृतियां
आप इस बात को समझ रहे होंगे। कि समतल कागज़ पर बना नक्शा किसी न किसी रूप में विकृत होगा ही। अब सवाल है कि आप किस काम के लिए नक्शा बना रहे हैं और उसके लिए कौन-सी विकृति आपको स्वीकार्य है। अपनी-अपनी ज़रूरतों के अनुसार इन तीनों प्रक्षेपणों को तरह-तरह से संशोधित करके विश्व के नक्शे बनाए जाते हैं।

इनमें हर एक की अपनी उपयोगिता है और अपनी सीमाएं हैं। कुछ नक्शे सही क्षेत्रफल दर्शाते हैं, तो कुछ सही आकृति बताते हैं। कुछ सही दिशा बताते हैं, तो कुछ सही दूरियां बताते । हैं। इन सब गुणों को किसी एक ही नक्शे में समाहित कर पाना संभव नहीं हो पाया है। वस्तुस्थिति यह है कि गोले की बातों को समतल कागज़ पर सही-सही दर्शाना असंभव हैअतः पृथ्वी का सही-सही चित्रण ग्लोब पर ही देखा जा सकता है, नक्शों में नहीं।

संतरे के छिलके को एकदम सपाट बनाने की कोशिश करें तो आपको यह बात समझ में आएगी। आज 200 से भी अधिक मानचित्र प्रक्षेपण बनाए जा चुके है। इससे कम-से-कम यह तो स्पष्ट होता है कि प्रत्येक मानचित्र की कोई न कोई सीमा ज़रूर है।

मर्केटर नक्शे की विकृतियां
अब हम लौटते हैं मर्केटर के नक्शे पर यह नक्शा बेलनाकार प्रक्षेपण का ही बदला हुआ एक रूप है। हमने पहले ही बताया था कि मर्केटर समुद्री यात्रा के उपयोग के लिए नक्शा बना रहा था। वह एक जगह से दूसरी जगह जाने की सही दिशा बताना चाहता था। साथ ही वह चाहता था कि भूखण्डों की आकृतियां वैसी ही दिखें जैसी वे वास्तव में हैं।

समानान्तर देशांश
हम जानते हैं कि ग्लोब पर देशांश रेखाएं ध्रुवों पर जाकर मिलती हैं। यानी समानान्तर नहीं हैं। भूमध्य रेखा पर दो देशांश रेखाओं के बीच की दूरी सबसे अधिक होती है। बेलनाकार प्रक्षेपण में देशांश रेखाएं समानान्तर हो जाती हैं। मर्केटर ने भी अपने नक्शे में देशांश रेखाओं को समानान्तर दिखाया। (देखिए चित्र 1) इस प्रकार दो देशांशों के बीच की दूरी सभी स्थानों में एक सी हो गई। ध्रुव पर भी और भूमध्य रेखा पर भी। यानी उत्तरी ध्रुव जो वास्तव में मात्र एक बिन्दु है नक्शे में भूमध्य रेखा जितनी लंबाई वाली रेखा हो गया। इस तरह नक्शे में हम जैसे-जैसे भूमध्य रेखा से उत्तर या दक्षिण दिशा में बढ़ते हैं विकृति बढ़ती जाती है। लेकिन जैसे आप खुद जांच कर देख सकते हैं सारी जगहें अपनी सही दिशा में बनी हैं। मर्केटर के नक्शे में बने भारत से जापान की दिशा की तुलना चित्र-3 के शंकु आकार प्रक्षेपण (ख) और सपाट सतह नक्शे (ग) से कीजिए।

चूंकि ध्रुवों की ओर देशांश रेखाओं के बीच की दूरी बढ़ती जाती है। इसलिए वहां के भूखण्डों की आकृति पूरब-पश्चिम दिशा में खिंचकर बढ़ जाती है। इस कारण ध्रुवों के पास आकृतियां वैसी नहीं बनेंगी जैसी कि वे वास्तव में हैं। अब नक्शे में उत्तरी अक्षांशों में भूखण्ड बहुत ज्यादा चौड़े हो रहे थे।( देखिए चित्र5)चूंकि नक्शे में देशांशों के बीच की दूरी बढ़ रही थी इसलिए मर्केटर ने इस विकृति को ठीक करने के लिए उतनी ही मात्रा में अक्षांशों के बीच की दूरी भी बढ़ा दी।

वास्तव में ग्लोब पर सभी अक्षांश रेखाओं के बीच की दूरी एक सी होती है। लेकिन जैसे-जैसे मर्केटर नक्शे में हम भूमध्य रेखा से ध्रुवों की तरफ बढ़ते हैं अक्षांशों के बीच की दूरी भी बढ़ती जाती है (चित्र 6)| इस प्रकार प्रत्येक भूखंड की लंबाई चौड़ाई का अनुपात वही रहा जैसी ग्लोब पर है। भूखंडों की आकृतियां भी सही बनीं लेकिन ध्रुवों के पास उनका आकार (साईज़) खुब बढ़ गया। केवल भूमध्य रेखा के पास नक्शा सही रहा।

चित्र 5 : बेलनाकार प्रक्षेपण मैं देशांश रेखाएं समांतर बनाए जाते हैं। इस कारण ध्रुवों के पास आकृतियां पूरब और पश्चिम की ओर खिंच जाती हैं। इस बात पर गौर करें कि ग्लोब के अंदर की रोशनी एक बिंदु से नहीं बल्कि एक पूरी रेखा से निकलती है।

अर्ने पीटर्स जैसे नक्शा-नवीसों ने दुनिया के पारंपरिक नक्शों के क्षेत्रफल की विसंगतियों की ओर ध्यान खींचा है। आप देखेंगे की पीटर्स के नक्शे में भी देशांश रेखाएं समानान्तर बनी हैं। उसके कारण उत्तरी भूखंडों का क्षेत्रफल जो बढ़ा उसे ठीक करने के लिए पीटर्स ने उत्तरी अक्षांशों के बीच की दूरी को उसी अनुपात में कम किया। (मर्केटर ने आकृति ठीक करने के लिए अक्षांशों के बीच की दूरी बढ़ाई थी) इस प्रकार महाद्वीपों के क्षेत्रफल सही अनुपात में बने। अतः इस नक्शे में अलग-अलग देशों के क्षेत्रफल की सही तुलना की जा सकती है लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ दूसरी विकृतियां इस नक्शे में आ गईं। इस नक्शे में महाद्वीपों की आकृतियां विकृत हो गई। जो भी हो अर्नो पीटर्स जैसे नक्शा-नवीसों के प्रयास से हमें पारंपरिक नक्शों के द्वारा छोड़ी गई दुनिया की छवि पर पुनर्विचार करने का अवसर मिला।

(यमुना सनी - एकलव्य के सामाजिक अध्ययन कार्यक्रम से संबद्ध, होशंगाबाद फील सेंटर में कार्यरत)

दुनिया उल्टी सी . . .

हम बच्चों को लगातार यही बताते हैं कि नक्शे में हमेशा उत्तर दिशा ऊपर की ओर होती है। लेकिन ऐसा होना ज़रूरी तो नहीं है! यह भी एक परंपरा है जिसके पीछे राजनैतिक मतलब छिपे हैं। मध्यकालीन नक्शा-नवीस जब नक्शा बनाते थे तो वे दक्षिण को ऊपर की तरफ दिखाते थे! यहां अरब नक्शा-नवीस अल इदरिसी द्वारा सन् 1154 में बनाया गया नक्शा देखिए। इसमें दुनिया कुछ उल्टी सी दिखती है, है.. न