सवालीरम

सवाल: हवा दिखाई क्यों नहीं देती?

जवाब: आमतौर पर हमें कोई वस्तु तभी दिखाई देती है जब प्रकाश की किरणें उससे टकराकर (परावर्तित होकर) हमारी आंखों तक पहुंचती हैं। उदाहरण के लिए जब प्रकाश की किरणें किसी पत्ती पर पड़ती हैं तो वह लाल, बैंगनी आदि किरणों को सोख लेती है और हरे रंग की किरणें हमारी आंखों में प्रवेश करती हैं और हमें हरे रंग का अहसास होता है।

कुछ पदार्थ पारदर्शी होते हैं जैसे हवा, पानी, कांच - अर्थात प्रकाश उनमें से होकर गुज़र सकता है। इनमें से कुछ पदार्थ ऐसे हैं जो प्रकाश के कुछ अंश को या किन्हीं विशेष रंगों का सोख लेते है। ऐसे पदार्थों के उदाहरण हैं रंगीन कांच, गंगा का पानी आदि। इन्हें अगर प्रकाश-पथ में रख दें तो हमें इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि इनके ईद-गिर्द से आ रहे प्रकाश में और इनके अंदर से गुज़रकर आने वाले प्रकाश में अंतर होता है।

हवा पूरी तरह पारदर्शी होती है, यानी यह प्रकाश को न तो सोखती है न ही परावर्तित करती है। अत: यह दिखाई नहीं देती।

हवा के इस गुणधर्म को हम उसकी आणविक संरचना के आधार पर समझ सकते हैं। जैसा कि हम सब जानते हैं, हवा मुख्यत: दो गैसों नाइट्रोजन और ऑक्सीजन का मिश्रण है। इन दोनों गैसों के अणु दृश्य-प्रकाश (लाल रंग से बैंगनी रंग तक) को सोखने में अक्षम हैं। अत: प्रकाश की किरणें इनके मिश्रण अर्थात हवा में से होकर बेरोक-टोक निकल जाती हैं।

प्रकाश की किरणें वास्तव में एक प्रकार की तरंगें (विद्युत-चुम्बकीय तरंगें) होती हैं। अलग-अलग रंगों की तरंगों की लम्बाई भी अलग-अलग होती है। लाल रंग की तरंगें सबसे लम्बी और बैंगनी सबसे छोटी होती है। हर पदार्थ के अणुओं का यह गुणधर्म होता है कि वे केवल कुछ खास लम्बाई की तरंगों को सोख सकते हैं। नाइट्रोजन और ऑक्सीजन दोनों अणु लाला से बैंगनी तक किसी भी रंग की तरंग को नहीं सोखते।

लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि कोई भी गैस दृश्य-प्रकाश की किरणों को नहीं सोखती यानी सभी गैसें रंगहीन नहीं होती। उदाहरण के लिए क्लोरीन गैस हल्के हरे-पीले रंग की होती है तो ब्राोमीन गैस लाल-भूरे रंग की। प्रयोगशाला में ब्राोमीन गैस बनाते हुए भूरे रंग के गुबार आसानी से दिखाई देते हैं।

इस सवाल का एक और दिलचस्प पहलु है। दृश्य प्रकाश (visible light) विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के विस्तृत वर्णक्रम का एक छोटा-सा हिस्सा मात्र है। बैंगनी से छोटी तरंगे ‘पराबैंगनी‘ और लाल से बड़ी तरंगे ‘अवरक्त’ कहलाती है। हमारी आंखें पराबैंगनी और अवरक्त किरणों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। इनमें से कुछ किरणें नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अणुओं द्वारा सोख ली जाती हैं। यदि हमारी आंखें उन किरणों के प्रति संवेदनशील होती तो हमें हवा दिखाई देती। पर ऐसी स्थिति में क्या हमें और कुछ दिखाई देता? हम हवा के समुद्र में डूबे हुए हैं। एक पत्ती से हमारी आंखों तक पहुंचने के लिए प्रकाश की किरणों को कई मीटर मोटी हवा की तपरत में से होकर गुज़रना पड़ता है।

यदि हवा पारदर्शी नहीं होती तो ये किरणें हम तक नहीं पहुंचतीं। अत: हवा का पारदर्शी होना ज़रूरी है,ताकि हमें चीज़ें स्पष्ट रूप से दिखाई दें।

जीव विज्ञान की दृष्टि से कह सकते हैं कि हमारी आंखों का विकास इस प्रकार से हुआ है कि वे केवल उन किरणों के प्रति संवेदनशील हों जो हवा को पार कर सकती हैं। यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई प्राणी है जिसे हवा दिखाई देती है, तो उसे बाकी सब कुछ दिखाई नहीं देगा (या बहुत धुंधला और अस्पष्ट दिखेगा) अत: आंखें होते हुए भी वह शायद व्यावहारिक तौर पर अंधा होगा। हम कितने खुशकिस्मत हैं कि हमें हवा दिखाई नहीं देती! 

अनुवांशिक गड़बड़ी से जुड़वा सवाल

सवाल: केले में बीज क्यों नहीं होते?

जवाब: इस प्रश्न का जवाब समझते हुए सबसे पहले तो इसी बात पर गौर कर लेना चाहिए कि क्या यह सही है कि केले में बीज नहीं होते। यह सही है कि केले में बीज नहीं होते। यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि कई बार जब हम कहते हैं कि गन्ना, प्याज, आलू, आदि में बीच नहीं होते तो न कोई विरोध करते हुए बोल ही देता है कि “महाशय, यह सही नहीं है। इस सब में बकायदा बीज होते है।”  परन्तु हमारा ध्यान उनकी तरफ नहीं जाता क्योंकि इन सब पौधों में हमारी खुद की रुचि बीज वाले हिस्से में नहीं बल्कि किसी और ही हिस्से में होती है। गन्ने को तो फूल बनने से पहले ही काट लिया जाता है ताकि भरपूर रस मिल जाए हमें। कुछ पौधों के बीजों की तरफ इसलिए भी तबज्जो नहीं दी जाती क्योंकि उनकी फसल कलम या आंख से लगाई जाती है, न की बीज से। ताकि हमें जल्दी फसल मिल जाए।

परन्तु केले में ऐसा नहीं है। उसमें सचमुच ही बीज नहीं होते। आपको उलझाने के लिए कोई ज़रूर पूछ सकता है कि पके हुए केले के बीच वाले हिस्से में काले-काले दाने दिखाई देते हैं कहीं वे तो बीज नहीं। जी नहीं, वे बीज नहीं हैं। क्या हैं वे, इसकी बात बाद में करेंगे। उससे पहले फूल से फल और बीज बनने की प्रक्रिया को देख लेते हैं।

आमतौर पर फूल से फज बनने की प्रक्रिया में निषेचन ज़रूरी है। ‘पराग’ पुंकेसर से स्त्रीकेसर तक पहुंचते हैं। फिर परागनली बनात हुए, पराग में से निकलकर नर जनन कोशिका स्त्रीकेसर के अंदर धंसते हुए अंडाशय तक पहुंच जाती है। वहां पहुंचकर यह नर जनन कोशिका अंडाशय के अंदर के बीजांड को निषेचित करके बीच बना देती है। बीजांड निषेचित होने के साथ-साथ, फूल से फल बनने की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है यानी कि बीज बनने लगते हैं और अंडाशय बढ़ने लगता है।

बीज बनने की शुरुआत - परागण से निषेचन तक: पुंकेसर परागकरण आकर स्त्रीकेसर के अलग भाग पर टिक जाते हैं। पराग नली बनने लगती है। जो धीरे-धीरे अंडाशय की तरफ बढ़ती है। उसमें से होकर नर जनन कोशिका अंडाशय में पहुंच जाती है और वहां आकर किसी एक बीजांड को निषेचित कर देती है। इस तरह होती है बीज बनने की शुरुआत।

परन्तु कुछ पौधों में फूल से फल बनने के लिए परागण और निषेचन की ज़रूरत नहीं होती। बस, एक समय बाद अंडाशय खुद-व-खुद बड़ा होने लगता है और फल बन जाता है। अपने आसपास इसका सबसे बढ़िया उदाहरण वही है - केला! कुछ और फल जिनमें ही तरह बिना निषेचन के फूल से फल बन जाते हैं वे हैं - अनन्नास और आजकल बाज़ार में उपलब्ध अंगूर की कुछ बीजरहित किस्में।

ऐसे फलों में क्योंकि निषेचन ही नहीं हुआ है इसलिए बीजांउ वैसे के वैसे पड़े रहते हैं। पके हुए केले के बीच दिखाई देने वाले काले-काले दाने, यही अनिषेचित बीजांड हैं। भिंडी को खोलकर कभी गौर से देखा है? उसतके लाक पांच खाने होते हैं, उनमें हर-एक खाने में खूब सारे बीज होते हैं। परनतु कहीं-कहीं छोटे-छोटे सफेद दाने दिखाई देते हैं। ये भी ऐसे बीजांड हैं जो निषेचित नहीं हुए, इसलिए उनके बीज नहीं बन जाए। जबकि आसपास वाले बीजांड निषेचित होकर खूब मोटे-ताज़े बीजों में पराविर्तत हो गए। मटर की फली में भी ऐसे बीजांड बहुत साफ दिखाई देते हैं। फर्क यही है कि केले में सभी बीजांड अनिषेचित हैं फिर भी फल बना जाता है।

केले का गूदा: कुछ पौधों में फूल से फल बनने के लिए परागण और निषेचन की ज़रूरत नहीं होती, अपनी आप अंडाशय बड़ा होने लगता है और फल में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रक्रिया में बीजांड वैसे ही पड़े रहते हैं यानी अनिषेचित स्थिति में - केला ऐसा ही फल है। पक्का केला खाते समय फल के बीच में से जाती एक काली नली-सी दिखती है और उसमें चिपके हुए कुछ काले सफेद दाने। ये आने अनिषेचित बीजांड हैं। पके केले की आड़ी काट में यह स्थिति दिख रही है।

अब सवाल उठ सकता है कि कुछ पेड़-पौधों में ही ऐसा क्यों होता है। ऐसे सभी फलों में यह एक ही कारण से नहीं होता अगर केले की ही बात आगे बढ़ाएं तो समझ में आता है कि कारण केले के इतिहास से जुड़ा हुआ है। प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाए जाने वाले केलों में बीज होते थे। परन्तु ये केले खाने लायक नहीं थी क्योंकि उनका स्वाद अच्छा नहीं था और शायद गूदा भी बहुत ज़्यादा नहीं। किन्हीं आनुवांशिकी गड़बड़ियों की वजह से उनकी कुछ और किस्में बनीं जो बीजरहित थीं और इनमें से कुछ स्वादिष्टि भी, जिन्हें मनुष्य ने खाने के लिए पसंद किया और फसल के रूप में उगाना शुरू कर दिया।

क्या थीं ये अनुवांशिक गड़बबड़ियां जिनकी वजह से ये नई तरह की किस्में बनीं? शायद आपको मालूम होगा कि प्रत्येक जीव की कोशिकाओं में पाए जाने वाले गुणसूत्रों की संख्या निश्चित होती है जैसे मनुष्यों में 46(23 जोड़ी), मेंढ़क में 23, कुत्ते में 78 और केले में 22 गुणसूत्र होते हैं। आमतौर पर प्रत्येक जीव की अन्य सब कोशिकाओं में तो यह संख्या एक-सी होती है परन्तु जिन जीवों में लैंगिंक प्रजनन होता है उनकी नर और मादा जनन कोशिकाओं (यानी, जन्तुओं में अंडाणु और शुक्राणु, पौधों में पराग और बीजांड) में इन गुणसूत्रों की संख्या आधी होती है। निषेचन होने पर पराग और बीजांड मिलने से बीज/भ्रूण में गुणसूत्रों की संख्या फिर से उतनी ही हो जाती है।

कभी-कभी कोशिका विभाजन के वक्त गड़बड़ी हो जाने के कारण जनन कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या आधी नहीं हो पाती। केले में भी ऐसा हुआ - नई किस्मों के नर परागकणों में तो गुणसूत्रों की संख्या आधी, यानी 11 थी परन्तु मादा बीजांड में कोशिका विभाजन की गड़बड़ी के कारण गुणसूत्र। अर्थात इस तरह के पराग और बीजांड से बने नए बीज और उनसे उगे पौधे 11 + 22 = 33 गुणसूत्रों वाले थे।

देखा गया है कि गई बार इस तरह की अलग-अलग संख्या वाली नर और मादा जनन कोशिकाओं के मेलसे पौधे बनेते हैं वे अक्सर लैंगिक प्रजनन करने के काबिल नहीं होते। 33 गुणसूत्रों वाले केले की किस्में भी इस अर्थ में बांझ थीं, उनमें मादा फूल परागण और निषेचन करने में सक्षम नहीं थे। परन्तु फिर भी उनमें मादा अंडाशय में खुद-ब-खुद वृद्धि हो जाने से बीजरहित फल बन जाते थे - जो मनुष्य को स्वादिष्ट लगे। इसलिए उसने इनकी खेती शुरू कर दी, बीज के ज़रिए नहीं परन्तु जड़ों से निकालने वाले अंकुरों को इस्तेमाल करके।

यहां एक और बात का ज़िक्र कर देना चाहिए कि ये सब बदलाव आज से लगभग तीन हज़ार साल पहले मलेशिया और हिन्दुस्तान के इलाकों में हुए। और फिर वहां से 33 गुणसूत्रों वाली केले की अलग-अलग किस्में दुनिया भर में फैल गर्इं। परन्तु वे बीज वाले बेस्वाद (हमारे लिए!) जंगली केले आज भी कहीं-कहीं पाए जाते हैं, जिनके बीज बारीक काले कंकड़ों की तरह दिखाई देते है#ा।

‘केले में बीज वाला सवाल’ टिमरनी की नगरपालिका मा.शाला के छठवीं कक्षा के छात्र रविशंकर कोरकू ठाकुर ने और ‘हवा नहीं दिखने वाला सवाल’ ज़िला खरगोन की महेश् वर तहसील के सातवीं कक्षा के छात्र इददीश खान ने पूछा था।

इस बार के सवाल

सवाल - 1:  छिपकली दीवार पर कैसे चिपक जाती है और टूटने के बाद उसकी नई पूंछ कैसे आ जाती है?

रजनी भण्डारी, कक्षा 9वीं
शा.कन्या. हाईस्कूल, टोंक खुर्द, ज़िला देवास

सवाल - 2:  मकड़ी के जाले में दूसरे कीड़े मकोड़े क्यों फंस जाते हैं, मकड़ी खुद क्यों नहीं फंसती?

रीतेश रमेश, भावसागर
न्यू यार्ड, इटारसी, ज़िला होशंगाबाद