रिचर्ड पी. फाइनमेन

उनके पिता की इच्छा थी कि लड़का वैज्ञानिक बने और वे बचपन से ही उसे तराशने में जुट गए। उसके साथ बातें करते, अनुभवों को बांटते, पढ़ते, घूमते. कहीं कोई दबाव नहीं, सब कुछ सहज और सरल
प्रख्यात भौतिकशास्त्री रिचर्ड पी, फाइनमेन ने अपनी आत्मकथा के दूसरे खंड में अपने बचपन के इहिस्से के बारे में बताया है। यह अंश एक पिता के अपने बच्चे के साथ संबंध का एक अनुपम उदाहरण भी है।

मेरा एक कलाकार दोस्त है। कभी-कभी किन्हीं मामलों में वह जो विचार न व्यक्त करता है उससे मैं सहमत नहीं होता। जैसे कि वो हाथ में एक फूल लेगा और कहेगा, कितना सुन्दर है यह फूल, इससे तो मैं सहमत हूं। लेकिन इसके बाद वह कहेगा, “मैं कलाकार हैं इसलिए फूल की सुंदरता को देख सकता हूं, लेकिन तुम एक वैज्ञानिक हो जो इसे छिन्न-भिन्न कर देते हो, इससे इसकी सुंदरता कम हो जाती है। मुझे लगता है कि वो थोड़ा-सा सरकार को हुआ है।

जिस सुंदरता की वो बात कर रहा है उसे सभी देख सकते हैं- मुझे लगता है कि मैं भी। हो सकता है कि मेरा सौंदर्य बोध उतना स्पष्ट न हो लेकिन फिर भी मैं एक फूल की सुंदरता की कद्र कर सकता हूं।

लेकिन साथ ही मैं फूल में ऐसा बहुत कुछ देख सकता हूं जिसे मेरा वह कलाकार दोस्त नहीं देख सकता। जैसे कि मैं फूल के अंदर की कोशिकाओं के बारे में कल्पना कर सकता हूं जिसमें भी एक तरह की सुंदरता है। यानी सुंदरता सूक्ष्म स्तर पर भी मौजूद है। फूल में कोशिकाओं के बीच कई जटिल प्रक्रियाएं चल रही हैं। इसी तरह यह तथ्य भी काफी रोचक है कि फूलों में जो इतने तरह तरह के रंगों का विकास हुआ है उसकी वजह कीटों को आकर्षित करना है, ताकि परागण (Pollination) हो सके। यानी इस तथ्य का अर्थ यह हुआ कि कीट रंगों को देख सकते हैं। इससे एक और सवाल खड़ा होता है। कि हम जिस सौंदर्यबोध की बात करते रहे हैं क्या वो अन्य जीवों में भी मौजूद है? तो इस तरह विज्ञान की जानकारी होने से नुकसान कहां होता है! बल्कि इसकी वजह से तो जहन में कई तरह के सवाल उठते हैं, जो रोचकता और जिज्ञासा को और बढ़ाते ही हैं।

विज्ञान को लेकर मैं बिलकुल इकतरफा रहा हूं। जब मैं छोटा था तब मेरा सारा ध्यान, सारे प्रयास इसी को समझने-सीखने में लगे। उन दिनों न तो मेरे पास समय होता था न ही इतना धैर्य था कि मानवशास्त्र संबंधी विषय पढ़ पाऊं हालांकि विश्वविद्यालय से स्नातक होने के लिए आपको उनमें से एक विषय चुनना पड़ता था लेकिन मैंने इन विषयों को दरकिनार करने की पूरी कोशिश की।

जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ, और थोड़ा धैर्यवान भी -- तब मैंने अपना दायरा विस्तृत किया। मैंने चित्र बनाना सीखा और थोड़ा बहुत पढ़ा भी। फिर भी मैं अभी भी लगभग इकतरफा ही हूँ, और बहुत कुछ नहीं जानता। मेरे पास सीमित बुद्धि है और मैं एक विशेष दिशा में ही उसका इस्तेमाल करता हूँ।

मेरे पैदा होने से पहले ही मेरे पिता ने मेरी मां से कह दिया था कि यदि लड़का हुआ तो वो वैज्ञानिक बनेगा।*

मैं एकदम छोटा-सा बच्चा ही था जब एक दिन पिताजी बाथरूम में लगाई जाने वाली रंग बिरंगी छोटी छोटी टाइल्स लेकर आए। हम उनके साथ खेलने लगे; मेरे पिताजी इन्हें एक के ऊपर एक सीधा खड़ा करते और मैं एक कोने को धक्का देकर इन्हें गिरा देता।

वैसे फाइनमेन की छोटी बहन जोआन ने भी भौतिक शास्त्र में पीएचडी, की है; जबकि उनके पिता की यह धारणा थी कि केवल लड़के ही वैज्ञानिक बन सकते हैं।

थोड़ी देर के बाद मैंने टाइल्स को जमाने में पिताजी की मदद की। और जल्दी ही हम उन्हें कई प्रकार से जमाने लगे - जैसे कि दो सफेद टाइल और एक नीली टाइल, इसके बाद फिर से दो सफेद टाइल और एक नीली टाइल...। जब मेरी मां ने यह देखा तो उन्होंने पिताजी से कहा, “बच्चे को खुद खेलने के लिए क्यों नहीं छोड़ देते, यदि वो नीली टाइल्स रखना चाहता है तो उसे नीली ही रखने दो।'' पिताजी ने जवाब दिया, “नहीं मैं उसे दिखाना चाहता हूं कि उन्हें तरह-तरह से जमाया जा सकता है। और कितना मजेदार होता है ऐसे पैटर्न बनाना। वैसे एक तरह से तो यह प्रारंभिक गणित ही है।" तो पिताजी ने बहुत पहले ही मुझे दुनिया के बारे में बताना शुरू कर दिया था कि वो कितनी दिलचस्प है।

उस समय हमारे घर में ब्रिटेनिका एनसाइक्लोपीडिया (विश्वकोष) था। छुटपन में पिताजी मुझे गोद में बिठा लेते और ब्रिटेनिका में से पढ़ कर सुनाया करते थे। जैसे कि डाइनोसॉर के बारे में पढ़ रहे हैं जिसमें टॉयरेनोसॉरस रेक्स का जिक्र आता है और लिखा डाइनोसॉर 25 फीट ऊंचा था और इसका सिर छः फीट चौड़ा था।'

अब पिताजी पढ़ना रोक देते और कहते, “चलो देखते हैं कि इसका क्या मतलब है - अगर वो हमारे घर के बगीचे में खड़ा हो तो इतना ऊंचा होगा कि अपनी ऊपर वाली खिड़की तक पहुंच जाएगा। लेकिन उसका सिर काफी चौड़ा होगा और वह अपनी खिड़की में नहीं समाएगा।” तो पिताजी जो भी पढ़कर सुनाते उसे वास्तविकता के साथ जोड़कर बताने की कोशिश करते।

यह जानना बड़ा ही अद्भुत और रोचक था कि कभी दुनिया में इतने बड़े-बड़े जानवर भी थे और वे सभी खत्म हो गए - न जाने क्यूं? कोई भी नहीं जानता।

लेकिन पिताजी के समझाने का असर यह नहीं होता कि मैं भयभीत हो जाऊं कि डाइनोसॉर मेरी खिड़की से चला आएगा। बल्कि किसी कथन को वास्तविक अनुभवों में बदलना मैंने अपने पिताजी से ही सीखा - जो भी मैं पढ़ता, समझने की कोशिश करता कि उसका मतलब क्या है, वास्तव में क्या कहा जा रहा है।

हम आमतौर पर घूमने के लिए केटास्किल पहाड़ पर जाया करते थे। जहां न्यूयॉर्क शहर के लोग गर्मियों में घूमने जाते हैं। हफ्ते के अन्य दिनों में तो पिता लोग काम पर वापस न्यूयॉर्क लौट जाया करते और सप्ताहांत में वापस आतेतो सप्ताहांत में पिताजी मुझे जंगल ले जाते और और वहां की मजेदार बातें बताया करते। जब अन्य बच्चों की माताओं ने यह देखा तो उन्हें भी यह विचार पसंद आया। उन्होंने सोचा कि दूसरे पिताओं को भी अपने बच्चों को घुमाने ले जाना चाहिए। उन्होंने कोशिश तो की लेकिन अन्य पिता इसके लिए तैयार नहीं हुए। वे सब चाहते थे कि मेरे पिता ही सब बच्चों को ले जाएं। लेकिन मेरे पिता को यह बिलकुल भी ठीक नहीं लगा, क्योंकि उनका मेरे साथ एक विशेष प्रकार का संबंध था। तो कुल मिलाकर हुआ यह कि अगले सप्ताहांत पिताओं को अपने बच्चों को घुमाने के लिए ले जाना पड़ा।

अगले सोमवार को जब सभी पिता काम पर जा चुके थे हम बच्चे एक मैदान में खेल रहे थे। एक बच्चे ने मुझ से कहा, "उस चिड़िया को देखो तो ज़रा। कौन-सी चिड़िया है वह?"

मैंने जवाब दिया, “मुझे तो तनिक भी अंदाज नहीं है कि वो कौन-सी चिड़िया है।"

वह बच्चा बोला, "इसका नाम Brown Throated thrust है - तुम्हारे पिताजी तो तुम्हें कुछ भी नहीं सिखाते!''

लेकिन मामला इसके बिल्कुल विपरीत था। वे मुझे सिखा चुके थे - वे कहते, "उस चिड़िया को देखो? वो स्पेंसर वार्बलर है (मुझे मालूम था कि उन्हें उस चिड़िया का सही नाम नहीं मालूम)। इसे इटैलियन में ‘चुट्टो लेपिट्टिडा' कहते हैं, पुर्तगाली भाषा में 'बो डो पीडा', चीनी में यह ‘चुंग लोंग-ताह' है और जापानी में ‘कटन पाकेडा'। तो तुम दुनिया की सभी भाषाओं में इसका नाम जान सकते हो। लेकिन इससे तुम्हें इस चिड़िया के बारे में कुछ भी मालूम नहीं पड़ेगा। इससे बस तुम्हें दुनिया के अलग-अलग इलाकों के लोगों के बारे में कुछ अंदाज़ा मिलेगा और बस इतनी-सी जानकारी कि इस चिड़िया को वो किन-किन नामों से पुकारते हैं। इसलिए जब किसी चिड़िया को देखो, तो देखो कि वह क्या कर रही है। और यही बात कु छ मतलब रखती है।''(तो मैंने काफी पहले ही नाम जानने और वास्तव में कुछ जानने में जो फर्क है उसे समझ लिया था।) वे कहते, “उदाहरण के लिए देखो, चिड़िया हमेशा अपने पंखों पर चोंच मारती रहती है। ज़रा देखो तो उसे चोंच मारते हुए अपने पंखों पर?"।

फिर वे पूछते, तुम्हें क्या लगता है। इस बारे में कि यह पंखों पर चोंच क्यूं मारती रहती है?'' मैंने जवाब दिया, “शायद उड़ने के दौरान उनके पंख आपस में गुंथ जाते हों इसलिए वह चोंच मारकर फिर से उन्हें संवार रही है।''

पिताजी कहते, “ठीक है, अगर ऐसा है तो उड़ने के तुरंत बाद ही जब वे धरती पर उतरती हैं तो उस दौरान उन्हें सबसे अधिक चोंच मारनी चाहिए। फिर जमीन पर आने के थोड़ी देर बाद उनकी चोंच मारना कम हो जाना चाहिए? तुम समझ रहे हो न मेरा मतलब?'
“हूं।''
वे कहते, “अच्छा देखो तो ज़रा कि जमीन पर उतरने के तुरंत बाद क्या वे अधिक बार चोंच मारती हैं।''

यह बताना कोई खास मुश्किल नहीं था। पंख पर चोंच मारने के मामले में चाहे वे अभी ज़मीन पर उतरी हों या फिर थोड़ी देर से ज़मीन पर ही हों, कोई खास फर्क नहीं था। मैंने पिताजी से कहा, "मैंने तो हथियार डाल दिए, मुझे नहीं मालूम कि वे अपने पंखों पर चोंच क्यों मारती हैं।''

उन्होंने बताया कि क्योंकि वहां पिस्सू मौजूद होते हैं जो उसे परेशान करते रहते हैं। यह पिस्सू चिड़िया के पंखों से झरने वाले प्रोटीन को खाती है। उन्होंने आगे कहा कि हर पिस्सु के पैरों में एक चिपचिपा पदार्थ लगा होता है। इसे पदार्थ को और भी छोटे कीड़े खाते हैं -- लेकिन ये कीड़े इसे पूरी तरह पचा नहीं पाते, इसलिए वे शरीर से जो पदार्थ उत्सर्जित करते हैं उसमें शर्करा की काफी मात्रा होती है। इस शर्करा युक्त पदार्थ में बैक्टीरिया पनपते हैं।

और अंत में उन्होंने कहा, “तो तुमने देखा कि पोषण का कोई न कोई स्रोत हर जगह मौजूद है; जीवन उसे ढूंढ ही लेता है और उस पर पनपने लगता है।''

आज मैं जानता हूं कि हो सकता है कि वो पिस्सू न होकर कुछ और हो; या फिर पिस्सू के पैरों पर वही कीड़े भी न हों - तो तथ्यों के हिसाब से यह वर्णन शायद गलत ही हो लेकिन जो उन्होंने कहा वो सैद्धांतिक तौर से बिलकुल सही था।

एक अन्य वाकया है उस समय का जबकि मैं थोड़ा बड़ा हो चुका था - उन्होंने पेड़ से गिरी हुई एक पत्ती उठाई। इस जर्जर पत्ती में एक गड़बड़ थी - इसमें अंग्रेजी के अक्षर 'C' के आकार की एक भूरी लाईन बनी हुई थी, जो बीच पत्ती में कहीं से शुरू होकर किनारों पर खत्म होती थी।

पिताजी बोले - "देखो इस भूरी लाईन को, शुरुआत में तो यह पतली है लेकिन आगे बढ़ते हुए चौड़ी हो जाती है। क्या है यह?"

उन्होंने जारी रखा, “यह पीली आंखों और हरे पंखों वाली एक मक्खी है। इसने पत्ती पर अंडे दिए। ये अंडे फूटे और इल्ली बनी। उस इल्ली ने अपनी पूरी जिंदगी इस पत्ती को खाकर गुजार दी, इसी जगह से उसको भोजन मिला। जैसे-जैसे यह इल्ली पत्ती खाते हुए आगे बढ़ती गई, पत्ती का खाया हुआ हिस्सा एक भूरी लाईन के रूप में दिखने लगा। इसी तरह जैसे-जैसे इल्ली विकसित होकर बड़ी होती गई खाए हुए हिस्से की चौड़ाई बढ़ती गई - पत्ती के किनारे पहुंचते-पहुंचते यह इल्ली नीली मक्खी में बदल गई और उड़ गई जिसकी आंखें पीली थीं और पंख हरे थे। अब यह मक्खी फिर किसी पत्ते पर अंडे देगी।''

इस घटना में भी मुझे मालूम था कि हो सकता है कि तथ्य सही न हों। शायद मक्खी की जगह गुबरैला हो; लेकिन मूल बिन्दु था कि वो मुझे जीवन की रमणीयता के बारे में बताने की चेष्टा कर रहे थे कि कुल मिलाकर मुद्दा सिर्फ प्रजनन की है। प्रक्रिया चाहे कितनी भी जटिल क्यों न हो, प्रमुख बात है उसी को बार-बार दोहराना।*

क्योंकि और पिताओं के बारे में मुझे कुछ भी अनुभव नहीं है इसलिए मैं यह नहीं बता सकता कि मेरे पिता कितने विलक्षण थे। उन्होंने विज्ञान के गहन सिद्धांत कैसे सीखे? इसके पीछे क्या वजह थी? .... मैंने इनके बारे में उनसे कभी नहीं पूछा क्योंकि मैंने बस मान लिया था कि शायद पिताओं को तो इनकी जानकारी होती ही है।

पिताजी ने मुझे ची को गौर से देखना सिखाया- एक दिन मैं रेलगाड़ी नुमा एक खिलौने से खेल रहा था जिसमे ऊपर खुला हुआ एक डिब्बा था और इसमें एक गेंद पड़ी हुई थी - डिब्बे को आगे पीछे धकेलते हुए मेरा ध्यान उस गेंद की ओर गया। यह देखकर मैं पिताजी के पास गया और कहा - “पापा, जब मैं डिब्बे को आगे की ओर खींचता हूं तो गेंद पीछे की ओर खिसक जाती है, और जब मैं इस चलते हुए डिब्बे को अचानक रोक देता हूं तो वह आगे की ओर आ जाती है। ऐसा क्यों है?"

“कोई नहीं जानता कि क्यूं है। ऐसा," पिताजी बोले, “एक सामान्य सिद्धांत है कि जो वस्तु गति कर रही है वो गति में रहती है। और जो वस्तु स्थिर है वो स्थिर बनी रहती है जब तक कि तुम उस पर बल न लगाओ; और यह प्रवृति जड़त्व कहलाती हैलेकिन कोई भी नहीं जानता कि यह सत्य क्यूं है।'' है न यह एक गहन समझ! उन्होंने मुझे केवल उसका नाम भर नहीं बताया।

इस मुद्दे पर वे और आगे बढ़े और उन्होंने कहा, “यदि तुम बगल की तरफ से देखो तो पाओगे कि तुम डिब्बे के पिछले हिस्से को गेंद के विरुद्ध


*यहां आशय है - पोषण प्राप्त करना, बड़े होना, विकसित होना और फिर से प्रजनन के द्वारा बच्चे पैदा करना। और यह एक सतत् प्रक्रिया है।


आगे खींच रहे हो, गेंद तो स्थित बल्कि घर्षण की वजह से यह निचली सतह (ज़मीन) के सापेक्ष थोड़ा आगे बढ़ जाती है---पीछे नहीं जाती।

यह सब सुनने के बाद मैं अपने डिब्बे की तरफ दौड़ पड़ा। फिर से उसे जमाया और आगे खींचा और बगल की तरफ से देखा। पापा ने बिल्कुल सही कहा था - बगल के सापेक्ष गेंद आगे की ओर थोड़ा-सा बढ़ी।

तो यह तरीके थे जिनसे मेरे पिता ने मुझे सिखाया - उन उदाहरणों से और आपसी बातचीत से; बिलकुल भी कोई दबाव नहीं, बस हल्की-फुल्की और मनोरंजक बातचीत। बाद की जिंदगी में इस तरीके ने मुझे लगातार प्रेरित किया और विज्ञान के हर विषय को लेकर मेरी रुचि बनी रही। (यह तो बस संयोग है कि मैं भौतिक शास्त्र में बेहतर हूं।)

किसी दूसरे तरीके से कहूं तो मामला ऐसा है मानो बचपन में कोई मजेदार-सी चीज़ देकर बहला लिया गया हो और बाद में वह हमेशा उस चीज को तलाशती रहे। किसी बच्चे के समान मैं भी हमेशा चकित कर देने वाली चीज़ों की तलाश में लगा हुआ हूँ….।

उन दिनों मेरा चचेरा भाई हाई स्कूल में था। वह उम्र में मुझसे तीन साल बड़ा था। उसे बीजगणित में काफी मुश्किल होती थी सो एक व्यक्ति उसे ट्यूशन पढ़ाने आया करता था। मुझे यह छूट दी गई थी कि जब वह बीजगणित पढ़ा रहा हो मैं उसी कमरे में एक कोने में बैठ सकता हूं। मैं उसे X के बारे में बताते हुए सुनता।

एक दिन मैंने अपने भाई से कहो, "तुम क्या करने की कोशिश कर रहे हो?"
वह बोला, "मैं एक समीकरण 2x +7=15 में x का मान पता करने की कोशिश कर रहा हूं।"
मैंने कहा, “इसका मान तो 4 है।"
यह सुनकर वह बोला, “तुमने तो अंकगणित का सहारा लेकर यह सवाल हल किया है, इसे तो बीजगणित की विधि से हल करना पड़ेगा।''

सौभाग्यवश बीजगणित मैंने स्कूल में नहीं सीखी, बल्कि चौथी कक्षा की एक किताब से सीखी। यह मेरी चाची की किताब थी और यूं ही अटारी में पड़ी हुई थी। मुझे समझ आया कि कुल मामला x का मान पता करने का है, चाहे किसी भी तरीके से किया जाए। मेरे लिए तो बीजगणितीय विधि और अंकगणितीय विधि जैसी बात का कोई मतलब नहीं। बीजगणित विधि का मतलब है कि आप कुछ नियमों का पालन करते हुए आगे बढ़े जिससे आगे चलकर आपको उत्तर मिल जाएगा।

जैसे कि इस समीकरण में करना होगा -- "7 को दोनों तरफ से घटाइए, यदि कोई गुणक है तो दोनों तरफ इसका भाग दीजिए ... इसी तरह आगे बढ़िए।'' नियमों का एक ऐसा क्रम जिसे आजमाने पर आप उत्तर पा सकते हैं, बिना यह जाने कि हकीकत में आप क्या कर रहे हैं। नियम तो दरअसल इसलिए बनाए गए ताकि बीज गणित पढ़ने वाले सभी बच्चे इसमें पास हो जाएं। और इसी वजह से मेरा भाई कभी भी बीजगणित नहीं सीख सका

हमारे स्थानीय पुस्तकालय में गणित की किताबों की एक पूरी श्रृंखला थी, - Arithmetic for the practical man, Algebra for the practical man, Trignometry for the practical man. (मैंने त्रिकोणमिति इससे सीखी लेकिन जल्द ही भूल गया, क्योंकि यह बहुत अच्छी तरह समझ नहीं आई थी।) जब मैं 13 साल का था तो पता चला कि हमारी लाइब्रेरी में एक किताब आने वाली थी Calculus for the Practical man. इस समय तक विश्वकोष के माध्यम से मुझे मालूम पड़ चुका था कि केलकुलस एक काफी रोचक और महत्वपूर्ण विषय है, इसलिए लगता था कि मुझे इसे सीखना चाहिए।

तो जब केलकुलस की किताब लाइब्रेरी में दिखी तो मैं बड़ा खुश हुआ। जब लाइब्रेरियन के पास पहुंचा और किताब के बारे में पूछा तो उसने मेरी तरफ देखा और कहा, “तुम तो बिल्कुल बच्चे हो, किसलिए ले जा रहे हो इसे?"

यह मेरी जिंदगी के उन कुछ क्षणों में से है जबकि मैं असहज हुआ और मैंने झूठ बोला। मैंने कहा कि यह किताब पिताजी के लिए है।

घर लाकर इस किताब से मैंने केलकुलस सीखना शुरू किया। मुझे लगा कि यह तो काफी सरल और सीधा-साधा विषय है। पिताजी ने भी इसे पढ़ना शुरू किया, लेकिन उन्हें यह मुश्किल लगा और वे इसे समझ नहीं पाए। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की। मुझे पहले कभी उनकी सीमित क्षमता का अहसास नहीं हुआ था इसलिए इस बात ने मुझे थोड़ा सी परेशान किया। यह पहला मौका था जब मुझे अहसास हुआ कि कुछ मामलों में मैं उनसे अधिक सीख चुका हूं।

भौतिकी के अलावा पिताजी ने जो कुछ भी मुझे और सिखाया उनमें कुछ चीज़ों का अनादर करना भी शामिल था। जैसे कि बचपन में वो मुझे गोद में बैठाकर प्रायः न्यूयॉर्क टाइम्स (अमेरिका का एक अखबार) में छपने वाली फोटो दिखाया करते थे।

एक बार इसमें पोप की एक फोटो छपी थी जिसमें सभी लोग पोप के सामने सिर झुकाकर खड़े हुए थे। पिताजी ने इसे देखा और कहा, "देखो तो इन लोगों को, एक इंसान खड़ा है बाकी उसके आगे सर झुकाए हुए हैं। आखिर क्या फर्क है दोनों में? यह पोप है'' -- वे वैसे भी पोप से घृणा करते थे। वे आगे बोले, “फर्क सिर्फ इतना है कि वो खास टोपी पहने हुए है,' (अगर सेना को कोई जनरल हो तो वो कोई विशेष बिल्ला पहनेगा, यानी हर जगह मामला वर्दी का है)। उन्होंने आगे कहा, "लेकिन बाकी सब कुछ तो यह इंसानों की तरह ही करता है, खाना खाता है, पेशाब करने जाता है। वह भी एक इंसान है।'' (मेरे पिताजी वर्दी बनाने का व्यवसाय करते थे इसलिए वे जानते थे कि जब कोई इंसान वर्दी में हो और जब उसने वर्दी ने पहनी हो तो क्या फर्क है - उनके लिए तो दोनों एक ही इंसान थे।)

लगता है कि पिताजी मुझसे काफी खुश थे। एक बार जब मैं एम. आई. टी.* से वापस आया (वहां कुछ साल पढ़ने के बामैं लौटा था) तो उन्होंने कहा, “अब तो तुम काफी पढ़ लिख चुके हो, एक सवाल मेरे दिमाग में हमेशा से रहा है, लेकिन मैं उसे कभी नहीं समझ सका।'' मैंने उनसे उस सवाल के बारे में पूछा।

वे बोले, “जब एक परमाणु एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाता है तो एक कण उत्सर्जित करता है -- जिसे फोटॉन कहते हैं।"

मैंने कहा, “हां यह बात तो ठीक है।''
वो बोले, “तो क्या फोटॉन परमाणु में पहले से था?"

"नहीं", मैंने कहा, “यहां तो पहले से कहीं भी कोई भी फोटॉन नहीं था।''
"ठीक है," उन्होंने कहा, “तब यह आया कहां से? कैसे बाहर निकलता है यह?"
मैंने उन्हें समझाने की चेष्टा की - फोटॉन संख्या संरक्षित नहीं होती। फोटॉन तो इलेक्ट्रॉन की गति से पैदा


*अमेरिका की एक प्रमुख यूनिवर्सिटी, जो विज्ञान की शिक्षा के मामले में काफी प्रसिद्ध है।


हो जाते हैं। लेकिन मैं बहुत अच्छी तरह उन्हें समझा नहीं पाया। फिर भी मैंने कुछ कोशिश की, “जैसे कि जो मैं कह रहा हूं वो मेरे अंदर पहले से मौजूद नहीं था।'' (इसमें ऐसा कुछ नहीं है जैसा कि एक दिन मेरे बच्चे ने घोषणा की - तब वह बहुत छोटा था - वो अब एक खास शब्द नहीं बोल सकता। क्योंकि यह उसकी शब्द थैली में खत्म हो गया है। यह शब्द ‘कैट' था।....... ऐसी कोई शब्द-थैली नहीं है जिसमें से शब्द इस्तेमाल होते रहें - इसी तरह किसी परमाणु में भी कोई फोटॉन-बैग पहले से नहीं होता।)

इस संदर्भ में पिताजी मुझसे संतुष्ट नहीं हुए। और मैं उन्हें ऐसी किसी भी चीज के बारे में समझाने में कामयाब नहीं हुआ जो उनको समझ में नहीं आ रही थी। तो इस तरह से वो असफल रहे - उन्होंने उन चीजों को समझने के लिए मुझे इन सब विश्वविद्यालयों में भेजा लेकिन वे उन्हें कभी नहीं खोज पाए।

हालांकि विज्ञान के बारे में मेरी मां की जानकारी बिल्कुल नहीं के बराबर थी लेकिन फिर भी उनका भी मुझ पर काफी प्रभाव है। उनका विनोदी स्वभाव गजब का था। मैंने उनसे सीखा कि समझ का उच्चतम स्तर हंसना और दूसरों से सहानुभूति है।


यह लेख रिचर्ड पी. फाइनमेन की आत्मकथा के दूसरे भाग "What do you care What other people think" का एक अध्याय है। इस किताब को राल्फ लाइटेन ने लिपिबद्ध किया है।
मूल लेख अंग्रेजी में अनुवादः दीपक वर्मा; संदर्भ में काम करते हैं।