बी शूमिनकहानी                                                                                                                                            [Hindi PDF, 301 kB]

बी शूमिन का जन्म चीन के शन्डांग प्रांत में हुआ। मिडिल स्कूल तक शिक्षा लेने के बाद कुछ समय तक चीनी सेना में सेवाएं दीं। तदुपरांत विधिवत लेखन प्रारम्भ करने के पूर्व कुछ समय तक भौतिकीविद के रूप में भी कार्य किया।

“मम्मा, चलो भी, मुझे रोबो नहीं चाहिए,” मेरे दस वर्षीय बेटे ने कहा।हम एक बड़े-से डिपार्टमेंटल स्टोर में खड़े थे। निम्न आय वाले परिवार की मां होने के नाते अपने बेटे को खिलौने के काउंटर के सामने से कुछ रुखाई और कुछ कड़ाई के साथ आगे खींचकर ले जाने की आदत होने के बावजूद इस स्टोर ने मुझे अपने जाल में फंसा लिया था। उसके मैनेजर ने आकर्षित करने के लिए पहले ही हॉल को, धुंधले कॉस्मेटिक्स की जगह, चटकदार रंगों वाले खिलौनों से ठसा-ठस भर दिया था।

रुकने और आगे बढ़ जाने के द्वंद्व में फंसी मैं उस डिपार्टमेंटल स्टोर के दरवाज़े की चौखट पर खड़ी थी। गेट के बाहर ऊन बेचने के बोर्ड को मैंने पहले ही देख लिया था और अपने लिए नया टोपा और स्कार्फ बुनने के लिए ऊन खरीदना मेरी मजबूरी थी। हालांकि ऊन तो कहीं से भी खरीदी जा सकती थी।

मैंने अपने बेटे का हाथ कुछ कसकर पकड़, उसे अपने पास यह सोचकर खींचा कि उसे किसी बहाने से स्टोर के बाहर ले जाऊं और इस प्रकार उसे आकर्षण से बचाऊं। दस बरस की उम्र ही आखिर ऐसी होती है, जब बचपन की मासूमियत क्रमश: प्रश्नों को जन्म देने लगती है और मैं यह कतई नहीं चाहती थी कि वह इतनी-सी उम्र में रुपए की ताकत को समझे और हमारी सीमाओं को भी। साथ ही मुझे इस विचार मात्र से ही घृणा थी कि वह अपने प्रिय खिलौने के न मिलने से निराशा के गर्त में चला जाए - एक ऐसा खिलौना जिसे वह दिल से चाहता है। मुझे तो बस यही सूझ रहा था कि मैं उसकी आंखों को अपनी हथेलियों से ढंक दूं।
यह तो अंतिम बात थी, जो मैं उससे सुनने की आशा करती थी, “मम्मा, चलो भी, मुझे रोबो नहीं चाहिए।” मेरे पास शब्द ही नहीं बचे थे, उससे कुछ भी कहने के लिए।

उस राक्षसी कार्टून परिवार से मैं बेइंतहा नफरत करती थी, जिसे मेरा बेटा शनिवार और इतवार को टी.वी. से चिपककर देखता रहता था। न केवल इससे मैं समाचार देखने से वंचित रह जाती थी, बल्कि हज़ारों बच्चों की कल्पना को पर लग गए थे; क्योंकि उन कार्टूनों के प्रतिरूप खिलौनों से दुकानें भरी पड़ी थीं और वे परिवारों की आमदनी को इस तरह से निगल रह थे, जैसे टिड्डियों के दल फसलों को बर्बाद करते हैं।
यदि मैं भीड़ भरे स्टोर में न होती, तो मैंने उसकी पसीने से भरी भौंहों को चूम लिया होता। लेकिन जैसे ही मैंने उसके स्थिर, जमे पैरों को देखा, मुझे तुरन्त समझ में आ गया कि मेरी निश्चिंतता सही नहीं थी। उसकी मुड़ी हुई गर्दन उस काउंटर पर एकटक स्थिर थी, जहां भांति-भांति के आकार के रंग-बिरंगे रोबो उसे तिरस्कार भरी निगाहों से देख रहे थे।

पेड़ की शाखा की तरह मुड़ी उसकी लंबी गर्दन को देख मेरा दिल जार-जार रोने लगा। क्या बात टोपी और स्कार्फ की ही थी?
बड़ी उम्र में विवाह और लंबे समय के बाद संतान के नए दौर का एक मानक उदाहरण, चालीस साल की मैं, और मेरा बेटा है केवल दस वर्षों का। ज़िन्दगी के इस लम्बे सफर में तरह-तरह की परेशानियों से मैं तो दो-चार हो चुकी हूं, जबकि उसे अभी उनका सामना करना था। कम से कम मेरी आज की परेशानियां तो केवल शारीरिक थीं। इन पहली उत्तरी बर्फीली कड़कड़ाती हवाओं ने मेरे सिर को जैसे सर्द-ठंड से जमा ही दिया है और ऊपर से मैंने अपने बालों को लगातार झड़ते और भूरे होते भी देखा है। यह तथ्य अपने आप में अरुचिकर तो था ही, साथ ही इसका अर्थ यह भी था कि मेरी प्रतिरोधी शक्तियाँ भी तेज़ी से दुर्बल होती जा रही हैं।

अपने आप को मैं हाथ के कामों में प्रवीण मानती हूं, लेथ मशीन पर काम करने के अलावा मैं सिलाई और बुनाई भी अच्छी-खासी कर लेती हूं। फिलहाल तो मैं स्वयं के लिए एक अच्छा-सा टोपा और स्कार्फ बुनना चाहती हूं और इस संबंध में मैंने अपने पतिदेव को बतला भी दिया है। उन्होंने इस योजना से सहमति प्रकट करने के लिए सिगरेट को रगड़ कर बुझा दिया था। यह तो मैं अच्छी तरह जानती हूं कि वह सिगरेट पीना छोड़ नहीं सकते, इस बात का अहसास तो हम दोनों की पहली मुलाकात में ही हो गया था, भले ही पैसे बचाने के लिए वे और कई रास्ते चुन लें। डिनर में गोश्त पर कम और चॉपस्टिक तथा सब्ज़ियों पर अधिक ज़ोर देकर हम बचत का प्रयास कर रहे थे और यह आशा करते थे कि हमारे बेटे का ध्यान इस तरफ नहीं जाएगा।

जबकि सच यह था कि बेटे के जन्म के बाद से ही सर्द-बर्फीली हवाएं मेरे सिर में असहनीय दर्द पैदा करती रही थीं। फिर भी बिना टोपी के मैं काम चला रही थी। मेरा पुराना स्कार्फ तो फिलहाल था ही मेरे पास, हालांकि उसे पहने मैं अजीब-सी लगती हूं जैसे कोई पवित्र-सी अरब स्त्री या फिर बच्चों के प्रिय कार्टून सिरीज़ की ‘मुर्गियों की अम्मा’ जैसी। पर इससे क्या फर्क पड़ता है, यदि मेरे बेटे को उसका प्यारा रोबो मिल जाए तो।
मैंने रोबो की कतार की ओर नज़र डाली। वे इतने महंगे थे कि टोपी और स्कार्फ के दाम बड़े रोबो की एक टांग के दाम के बराबर थे।

और इस पर मेरे पति की प्रतिक्रिया क्या होगी? उन्होंने तो बहुत पहले ही मुझे चेतावनी दे दी है कि मैं बेटे को अतिरिक्त लाड़-प्यार से बिगाड़ रही हूं, साथ ही सावधान भी किया था कि हमारा परिवार एक ‘सामान्य नीले कॉलर वाला’ परिवार है, जिसे सम्पन्न परिवारों की बराबरी के विषय में सोचना भी नहीं चाहिए।

लेकिन इसका क्या यह अर्थ होता है कि नीले कॉलर वाला परिवार रोबो जैसा महंगा खिलौना रख ही नहीं सकता?
अभी मेरे पास इतनी रकम तो है कि मैं उपलब्ध मॉडलों में से सबसे छोटा मॉडल खरीद सकूं और यह भी जानती हूं कि टोपी और स्कार्फ के बारे में कोई बहाना बनाकर अपने पति को संतुष्ट कर लूंगी कि फिलहाल मुझे उनकी कोई खास ज़रूरत नहीं है और मेरा काम उनके बिना आराम से चल जाएगा।
इसी उधेड़बुन में जब मैंने खरीदने का निश्चय कर ही लिया था, तभी एकाएक मेरा बेटा स्टोर के दरवाज़े की ओर दृढ़ता के साथ मुड़ते हुए बोला, “चलो मम्मा, घर चलें। अखबार कहते हैं कि रोबो वास्तव में विदेशी बच्चों के उपयोग किए हुए हैं। वे इन्हें चीन में हमारी दौलत पाने के लिए भेज रहे हैं।”

उसने अपने छोटे-छोटे गीले हाथों से मेरा हाथ पकड़कर खींचा और मुड़कर खिलौनों के ढेर को ऐसी आंखों से देखा, जैसे लोग मुर्दे को अंतिम बार देखते हैं। इसके बाद उसने अपने नन्हें-नन्हें पैरों से दरवाज़े की ओर जल्दी-जल्दी चलना शु डिग्री कर दिया जैसे वह डर रहा हो कि यदि उसने जल्दी नहीं की तो रोबो उसे दोबारा अपनी गिरफ्त में ले लेंगे।
उसकी आवाज़ में वयस्कता थी, उसकी तर्क-शक्ति मेरी बुद्धि के परे थी। साथ ही मुझे अहसास हुआ कि हमारा बेटा, जो अपने स्कूल का एक आदर्श छात्र है, उसकी तुलना में मैं और मेरे पति तो निरे स्वार्थी हैं।

इस सत्य के उजागर होते ही मैं तेज़ी से काउंटर पर लौटी और बिना सोचे-विचारे कि मेरी हरकत से विदेशियों का लाभ है या हांगकांग का, मेरे पास जो रुपए थे, उसमें जो भी रोबो मिला, उसे खरीद हाथ में ले लिया। अचानक ही मैं गर्दन और सिर में होने वाले दर्द को भी भूल गई। यह खरीदी मेरे बेटे की बुद्धिमानी की प्रशंसा के साथ ही हमारे साझे प्रेम का प्रतीक-चिन्ह भी थी।
उस शाम डिनर के बाद वह अपने रोबो के साथ ही खेलता रहा। उसने उस खिलौने के हाथ में बच्चों की एक काली पिस्तौल रख दी और रोबो मुड़कर, उछलकर अच्छे-खासे नट की तरह हरकतें करने लगा। रोबो पर लगा अमरीकी ट्रेडमार्क उसके छोटे-छोटे हाथों को रंगता रहा।
साथ ही यह परिवर्तनीय रोबो ‘न्याय और स्वतंत्रता के लिए लौह-दृढ़ इच्छा-शक्ति से युद्ध करते हैं,’ प्यारी आवाज़ में गाता भी रहा। यह एक मशहूर अमरीकी टी.वी. सीरियल का टाइटल गीत था।

हालांकि मेरे पतिदेव बड़बड़ाते-भुनभुनाते रहे, मुझे यही अहसास होता रहा कि यह खरीदी बुद्धिमानीपूर्ण है। सच है कि रोबो महंगे हैं, लेकिन वे जो सुख देते हैं, उसकी तो कोई कीमत ही नहीं है। यदि बड़ा होकर मेरा बेटा प्रसिद्ध जननेता हो जाता है तो मैं उसकी आत्मकथा में यह नहीं पढ़ना चाहती थी - “जब मैं छोटा था, मुझे खिलौने बहुत पसंद थे, लेकिन मेरा परिवार इतना निर्धन था कि उन्हें खरीद कर देने में असमर्थ था। इसलिए मैं केवल दूसरे बच्चों को उनके रोबो से खेलते देखता रहता था।”

संभावना तो इसकी भी थी कि वह एक साधारण नीला कॉलर वाला श्रमिक ही बने, फिर भी दोनों ही स्थितियों में मैं यह नहीं चाहती थी कि उसे अपने बचपन के संबंध में पछतावा हो। आप तो जानते ही हैं कि बच्चों को बहुत आसानी से बहलाया-फुसलाया और संतुष्ट भी किया जा सकता है, सबसे छोटे रोबो से भी उन्हें उतनी ही प्रसन्नता प्राप्त होती है।
“अपना होमवर्क करना कभी भी मत भूलना,” मैंने पर्याप्त गंभीर आवाज़ में उसे चेतावनी दे दी। उसने पूरी ईमानदारी से इस पर सहमति प्रकट की।

अगले कई दिनों में मैंने उसके होमवर्क की जांच की और पाया कि उसके ध्यान में और आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं आई है। वह सदैव अपना होमवर्क करने के बाद ही अपने खिलौने से खेलता है।
और फिर सर्दियां अपनी पूरी प्रखरता से आ गईं।
मेरे पति ने अपना सिगरेट-बहिष्कार अभी भी जारी रखा था, हालांकि मैंने उन्हें आश्वस्त करने की पूरी कोशिश की कि मेरा पुराना स्कार्फ फिलहाल काम चला रहा है। इस पर उनका उत्तर निराशा भरा था। “तुम्हारे पास कम-से-कम एक जोड़ी अच्छे-से चमड़े के जूते तो होने ही चाहिए,” उन्होंने कहा।

प्रत्युत्तर में मैंने आभार भरी मुस्कराहट के साथ उन्हें देखा और चेहरे से ऐसे भाव प्रकट किए कि बाहर ठंड कुछ ज़्यादा ही तकलीफ देती है।
एक शाम मैंने बेटे को एक दूसरे ही रोबो के साथ खेलते पाया। यह पीले रंग का था और आकार में बड़ा होने के साथ अधिक डरवाना भी था।
“ये क्या है?” मैंने पूरी गंभीरता से पूछा। माता-पिता को निर्देश देने वाली सभी पुस्तकों में इस बात को स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बच्चे की दिनचर्या के ज़रा से परिवर्तन पर भी तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए।

“राक्षस रोबो,” उसने कुछ ऐसे शांत भाव से कहा, जैसे अपने निकट के रिश्तेदार के बारे में बतला रहा हो।
टी.वी. प्रोग्रामों के कारण मैं रोबो के पूरे परिवार से परिचित थी। अत: मुझे पहले से ही पता था कि राक्षस एक प्रमुख पात्र है।
उसका नाम मेरे लिए कतई महत्वपूर्ण नहीं था, था तो उसका मालिक। अपनी आवाज़ को बिना नर्म किए मैंने उसके मालिक का नाम पूछा। उसका उत्तर स्पष्ट था, “मेरा एक सहपाठी।” उसके उत्तर में मेरी आशंका की छाया भी नहीं थी। “पूरी क्लास में सबके पास ये हैं और सभी अलग-अलग हैं, इसलिए हम एक-दूसरे से बदल लेते हैं।”

उसके उत्तर से अपनी आवाज़ की कठोरता पर मुझे अपराध-बोध हुआ, लेकिन भविष्य में फिर से वह वैसी नहीं होगी, इसकी कोई गारंटी मैं नहीं दे सकती थी। बच्चों में दूसरे गुणों की अपेक्षा, झूठ और बेईमानी की मुझे अधिक आशंका रहती है।
बच्चे थे तो चतुर, यह एक नया चलन था और मैं तय नहीं कर पा रही थी कि मैं इसका समर्थन करूं या विरोध। “राक्षस हो या कोई और,” मैंने नए खिलौने में मगन अपने बेटे से कहा, “बस स्कूल के काम में ढील नहीं होनी चाहिए, यह अच्छी तरह समझ लो और हां, दूसरों के खिलौनों से ज़रा ध्यान से खेलना।”

उसने सहमति में सिर हिलाया। वह ध्यान से सुनता है, इतना विश्वास तो मुझे पूरी तरह है।
कोई दरवाज़ा खटखटा रहा था।
मेरा बेटा दौड़कर गया और पूरी मेहमान-नवाज़ी के अंदाज़ में उसे पूरा खोल दिया। लेकिन आने वाले ने उसे बाहर से बंद कर दिया जैसे वह बाहर ही रहना चाहता हो। फिर धीरे से दरवाज़े के भीतर एक गोल सिर झांका। वह मेरे बेटे का सहपाठी था, जिसे मोटू कहकर बुलाते हैं और जो नियमित रूप से मेरे बेटे से गृहकार्य में सहायता लेने आता रहता है। लेकिन इस बार वह सहायता मांगने नहीं आया था। आज वह न तो भीतर ही आया, न ही वापस लौटा, बल्कि दहलीज़ पर मेरे बेटे के सामने खड़े हो भयग्रस्त चेहरे से मुझे देख रहा था। बमुश्किल किसी तरह डरते हुए वह बोला, “मुझे दुख है....... तुम्हारा खिलौना...... मुझसे टूट....”

सुनते ही मेरे बेटे के गालों का खून सूख गया। मैंने इसके पहले इतना दुखी होते उसे कभी नहीं देखा था। उसने मोटू से टूटा खिलौना ले लिया और उसे अपनी हथेली में रख धीरे से फूंका जैसे वह कोई घायल कबूतर हो।
शुरुआती धक्के के बाद मेरे बेटे ने मेरी ओर सहायता के लिए देखा। टोपी और स्कार्फ के त्याग का वह क्षण मेरे मस्तिष्क में कौंध गया, किंतु मात्र सच का सामना करने के अलावा हम कर ही क्या सकते हैं? अपने बेटे की आंखों से बचते हुए मैंने कहा, “अब यह तो तुम पर ही निर्भर करता है, आखिर वह खिलौना तो तुम्हारा ही था न, इसलिए तुम्हीं बतलाओ अब हमें क्या करना चाहिए।”
शायद मेरे वहां होने से वह चुप था, इसलिए धीरे से मैं भीतर चली गई और कान लगाकर सुनने लगी। मोटू को उस भयानक खामोशी और मानसिक संत्रास से बचाने के लिए मैं ‘मोटू, अब तुम जा सकते हो’ कहने को पूरी तरह तैयार थी, लेकिन जो कुछ भी दंड या न्याय दिया जाना था, वह मेरे बेटे को देना था।

“तुमने उसे तोड़ा कैसे?” मैंने उसे क्रोध में पूछते सुना।
“मैं लिए.... बस वह गिर गया......” मोटू ज़रूर ही हाथों से करके दिखला रहा होगा। उत्तर में मेरे बेटे के गले से घरघराने की आवाज़ निकली।
भला ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए। क्या मैं बाहर जाऊं और उन्हें बीच में रोक दूं। रोबो महंगे होते हैं, लेकिन उदारता एक ऐसा गुण है जिसे तो खरीदा ही नहीं जा सकता। मैं भलीभांति जानती हूं कि उसके लिए एक छोटा रोबो उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना किसी व्यस्क के लिए टी.वी. या कैमरा। वेदना और पीड़ा से भरा लंबा खिंचता मौन उसके लिए और मोटू के साथ मेरे लिए भी असहनीय हो रहा था।
लम्बे अंतराल के बाद वह बोला। उसने पर्याप्त मानसिक द्वंद्व और संताप झेलने के बाद कहा, हालांकि उसकी आवाज़ दुर्बल, लेकिन स्पष्ट थी, “कोई बात नहीं।”
मोटू ने इस अवसर को लपक लिया और तेज़ी से दौड़कर भागा जैसे उसे संदेह हो कि कहीं मेरा बेटा अपना विचार न बदल दे।
मैंने राहत की एक लंबी सांस ली, जैसे मैं अभी-अभी किसी लंबी चढ़ाई से लौटी हूं। जल्दी से बाहर निकल मैंने अपने बेटे के पसीने भरे माथे को चूम लिया।
“यह तो मर गया है,” वाक्य पूरा करते-करते उसकी आंखें डबडबा आईं।
“मैं गोंद से जोड़कर उसे सुधारने की कोशिश करूंगी,” मैंने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, हालांकि सफलता की कोई संभावना मुझे नहीं दिख रही थी।
मैं तुरन्त ही उसे जोड़कर सुधारने की कोशिश में जुट गई। अच्छी-खासी कोशिशों और टोपी बनाने में लगते समय से कहीं अधिक समय देने के बाद वह खिलौने जैसा कुछ-कुछ दिखने लगा। हालांकि वह देखने में तो ठीक ही था, लेकिन छूने लायक वह अभी भी नहीं था, साथ ही वह अपना आकार बदलने की क्षमता भी खो चुका था।

इस बीच मेरा बेटा राक्षस से खेलता रहा था। “एक रोबो को आकार तो बदलना ही चाहिए, नहीं तो वह सस्ता-सा खिलौना ही कहलाएगा,” उसने कहा। यह कहते हुए उसने हाथ में पकड़ खिलौने का आकार बदला। कुछ भी कहिए, आपको अमरीकियों की तारीफ तो करनी ही होगी। और किसी की बुद्धि में एक योद्धा के पेट से सिर बनाने और धीरे-धीरे पूरे आकार में परिवर्तन करने की बात आ सकती है भला?
एक अच्छा खिलौना बच्चों और बड़ों दोनों को ही आकर्षित करता है। मैं उसकी करामातें देखने उसके पास सरकी ही थी कि मैंने गिरकर टूटने की खनखनाहट सुनी।

आख़िर हुआ क्या? हम दोनों ने भय से आतंकित हो एक-दूसरे को देखा।
हमें विश्वास तो नहीं हो रहा था, लेकिन दुर्भाग्य से सच हमारी आंखों के सामने था - उसने राक्षस रोबो को तोड़ डाला था।
मेरा बेटा उसे सुधारने में तुरन्त जुट गया, लेकिन अपनी कोशिशों में उसने उसके और टुकड़े कर दिए। जब स्थिति को हाथ से निकलते देखा तो उसने सारे हिस्से इकट्ठे किए और उन्हें एक पेपर में रख पैकेट बनाया और घर से बाहर जाने की तैयारी करने लगा।
“तुम कहां जा रहे हो?” मैंने घबराकर उससे प्रश्न किया।
“खिलौना वापस करने और माफी मांगने,” उसने शांति से उत्तर दिया।
“क्या यह मोटू का है?” मैंने आशा की किरण को पकड़ते हुए कहा।
“नहीं,” यह कह उसने एक नाम लिया।
“उस लड़की का,” मेरा दिल ज़ोर से धड़ककर गले में आ अटका।
उस लड़की के बारे में मेरी राय यह थी कि वह फूल की तरह नाज़ुक और कोमल है और उसकी मां बेहद अकड़ू है। उसका परिवार पर्याप्त सम्पन्न था, जिसे मेरा पति धनवान कहकर पुकारेगा और इसलिए उन्होंने इतना बड़ा और डरावना खिलौना अपनी बेटी को खरीद दिया था।
“तुम...... ऐसे जाओगे?” मैंने कुछ हकलाकर पूछा।
“क्या मुझे कुछ साथ में ले जाना चाहिए?” उसने कुछ घबराहट के साथ पूछा।
मैंने उसकी निर्दोष आंखों को देखा और फिर कुछ कहने से अपने को सायास रोका।
“ठीक है मम्मा, मैं चलता हूं,” कह वह दरवाज़ा खोल गायब हो गया।
“बेटा जल्दी घर लौट आना,” मैंने संदेह भरे स्वर में उसके जाने के बाद ज़ोर से चिल्लाकर कहा।

मैं यह जानती थी कि वह व्यर्थ समय नष्ट नहीं करेगा, लेकिन वह जल्दी नहीं लौटा और जब उसके आने में बहुत देर हो गई तो मेरा दिल कांटे में फंसी मछली की तरह फड़फड़ाने लगा।
मुझे उसे यह तो समझा ही देना था कि सभी लोग एक से नहीं होते। उसे क्षमा किया ही जाए, यह ज़रूरी नहीं है। हालांकि स्वयं ऐसी ही स्थिति में हमने क्षमा कर दिया था। मुझे विपरीत संभावनाओं के बारे में उसे सावधान कर देना चाहिए था, मुझसे भयंकर भूल हो चुकी थी, हो सकता है, वह वहां रोने लगा हो।

दूसरी ओर यह भी तो हो सकता है कि यह मेरा भय हो और सब कुछ ठीक हो गया हो और मेरी सोच खामखयाली ही हो। उसकी सहेली ने उसे कुछ देर रुकने के लिए कहा हो और उसकी मम्मा ने उसे संतरा छीलकर खाने को दिया हो, जिसे स्वाभाविक ही उसने खाने से इंकार कर दिया होगा। वैसे भी वह बेहद प्यारा बच्चा है। वे लोग उसकी मासूमियत को देख उसे वैसे ही माफकर देंगे, जैसे हमने नन्हें मोटू को कर दिया था।

इस बारे में जितने कोणों से भी मैंने मंथन किया, मेरा विश्वास दृढ़ होता गया कि केवल इसी की प्रबल संभावना है। साथ ही मैंने स्वयं को बधाई दी कि मैंने उसे अपनी नकारात्मक सोच के संदेहों से बचाकर रखा।
लेकिन जैसे-जैसे समय गुज़रता जा रहा था, अपने को लाख आश्वस्त करने की कोशिश के बावजूद मेरे संदेह बढ़ते ही चले गए।
फिर वह लौट आया, वह इतने धीमे आया कि उसके पैरों की आहट मुझे सुनाई ही नहीं दी। शायद मैं अपनी उधेड़बुन में कुछ ज़्यादा ही मशगूल हो गई थी। जब वह ठीक मेरे सामने आकर खड़ा हो गया, तभी मुझे उसके लौट आने का अहसास हुआ।

बस, उसके चेहरे की एक झलक, और मैं समझ गई कि वह किस तूफान का सामना कर लौटा है। यह भी निश्चित था कि वह रोया है और उसने सर्द हवाओं से सूख गए आंसुओं को पोंछ लिया है, ताकि मैं उन्हें न देख सकूं। एक बच्चा उस समय कुछ अधिक ही बतला देता है, जब वह कुछ छिपाने की कोशिश करता है।

मेरा दिल इतना मज़बूत न था कि मैं विस्तार से जानूं कि क्या हुआ था, क्योंकि मैं जानती थी, वह असहनीय होगा।
“वे चाहते हैं कि .....हम उन्हें मुआवज़ा दें....” उसने सिर झुकाए बमुश्किल कहा। वाक्य पूरा होते-होते उसकी बड़ी-बड़ी आंखों से बहते ठंडे आंसू उसके गाल के साथ मेरे हाथों पर गिरने लगे।
अब मेरे सामने न केवल एक टूटा खिलौना था, वरन् टूटा दिल भी था।
“यह तो होना ही था,” मैंने उसके आंसुओं को पोंछते हुए कहा, “कि वे अपने नुकसान की भरपाई के लिए कहें।”
“फिर मुझे जाने दो। मोटू को खोजकर मैं उससे अपने खिलौने की भरपाई करने के लिए कहूंगा। उसने मात्र ‘खेद है’ ही तो कहा था और हां, अगली बार जब मैं बाज़ार चलूंगा तो पैसे नहीं ले जाऊंगा। मैं बस ‘मुझे खेद है’ कहूंगा। क्या इतना पर्याप्त होगा?” कहते वह कूदकर बाहर जाने को तैयार हो गया।

“नहीं, कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है,” मैंने उसे कंधे से पकड़ अपनी ओर खींचते हुए कहा। उसने मेरी गिरफ्त से अपने को छुड़ाने के लिए पूरी ताकत लगा दी। मुझे लगा जैसे उसमें अचानक बछड़े जैसी ताकत आ गई हो।
“क्यों मम्मा..... मुझे बतलाओ क्यों?” उसने अपना सिर उठाते हुए पूछा। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उसे कैसे समझाऊं। कभी-कभी नियम और सिद्धांत बेहद महत्वपूर्ण होते हैं और अच्छे भी लगते हैं, उन सुंदर वस्त्रों की तरह जो आकर्षक तो लगते हैं, लेकिन वे उनसे बने हुए नहीं होते जिनसे वास्तविक कपड़े बनते हैं।
मुझे उसे उत्तर तो देना ही था। एक बिल्ली की ही ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने नन्हें छौनों को चूहा पकड़ना सिखाए। मुझे अपने बेटे को समझाना तो था ही, भले ही वह कितना ही अस्वाभाविक क्यों न हो।

“मुझे दुख है या खेद है, इन शब्दों का अर्थ होता है कि तुम विनम्र हो। उन शब्दों का मूल्य रुपयों-पैसों में नहीं गिना जा सकता।”
उसने जल्दी से सिर हिला दिया। शायद मैं उसकी शिक्षिका जैसा बोल रही थी, इसलिए वह पूरे ध्यान से सुन रहा था।
“जब मोटू ने तुम्हारे रोबो को तोड़ा तो तुमने उसे क्षमा कर दिया था।” पूरे धीरज के साथ मैं उसे समझाने की कोशिश कर रही थी, “सुनकर उसे बहुत राहत मिली थी। तुम्हारा उसे क्षमा कर देना एक अच्छा काम था।”
“लेकिन मम्मा उसी गलती पर मुझे तो क्षमा नहीं किया गया,” उसने प्रतिवाद किया। उसकी शर्मिंदगी मेरे तर्कों पर भारी पड़ रही थी।
“ऐसा है बेटा, किसी भी समस्या को हल करने के कई रास्ते होते हैं। समस्याएं रोबो की तरह होती हैं, वे या तो रोबो होती हैं या हवाई जहाज़ या कार.. समझ रहे हो न?”

“हां...” उसने बेमन से सिर हिलाया। मुझे पता था कि उसे विश्वास हुआ नहीं है, लेकिन मेरा मन रखने के लिए हां कह रहा है।
मैंने थक कर उसका हाथ छोड़ दिया।
वह शांत हो गया और कुछ दूरी पर चुपचाप खड़ा हो गया। उस टूटे खिलौने में अच्छी-खासी रकम फंसनी थी। हालांकि अभी तक हम लोग उस स्थिति में नहीं पहुंचे थे कि हमें गिरवी रखने की दुकान तक जाना पड़े, फिर भी हमारी माली हालत खस्ता ही कही जाएगी।
इस दुखद कष्टदायक सूचना के बारे में सोचते हुए मैं अपने पति के घर लौटने की राह देख रही थी। मेरा बेटा मुझे लगातार दर्दभरी आंखों से देखे जा रहा था। क्या वह यह आशा कर रहा था कि मैं उनको कुछ भी नहीं बतलाऊंगी अथवा यह सोच रहा था कि मैं उन्हें आते ही झट से यह समाचार दे दूंगी।

यह सोचकर ही मैं डर के मारे मरी जा रही थी, लेकिन उनका सामना तो करना ही होगा। दंड भुगतने को स्थगित करने की तीव्र इच्छा के बावजूद मैं अच्छी तरह जानती थी कि दूरगामी परिणामों को ध्यान में रख पूरी बात जल्दी से सामने रखना ही बेहतर है।
घटना को विस्तार से सुनने के बाद मेरे पति कुछ देर तक अपने को संयमित रखे रहे।
“एक बात तो बतलाओ,” उन्होंने शांति से कहा, “तुमने उस वस्तु को भला तोड़ा कैसे?” वे उसे कुछ नाम देने में असमर्थ थे।
“बस मैंने उसे घुमाया और फटाक् कर वह टूट गया....” हकलाते हुए मेरे बेटे ने मेरी ओर सहायता मांगती आंखों से देखते हुए कहा। यह सच था कि मैंने उसे टूटते देखा था, किंतु यह बतलाना मेरे लिए संभव नहीं था कि वह कैसे टूट गया।
किंतु टूटने की घटना महत्वपूर्ण न थी। चिंताजनक था कि हमारा बेटा अब कभी भी इतने महंगे खिलौने से खेल नहीं पाएगा।
मेरे पतिदेव की भौहें चढ़ीं और फिर आपस में गुत्थम-गुत्था हो गईं और उनके चेहरे पर प्रकट रौद्र रूप को देख मेरा बेटा बचने के लिए जल्दी से मेरे पीछे छिप गया और वे फट पड़े।
“यह बतलाओ तुम,” वे गरजे, “क्या तुमने उसे जान-बूझकर तोड़ा अथवा किसी कारण से तोड़ा?”
सच तो यह था कि मेरी समझ में ही नहीं आया था कि जान-बूझकर तोड़ने और किसी कारण टूटने में भला अंतर क्या है, लेकिन टोकने का मैंने दुस्साहस नहीं किया।

“मैंने किसी कारण से.... तोड़ा नहीं डैडी, मैंने जान-बूझकर...” वो दोनों में से कम दंडनीय अभियोग को ढूंढते हुए एक से दूसरे का चुनाव कर अपने पापा की दृष्टि से बचने की कोशिश कर रहा था।
“नामाकूल, नालायक, शैतान की औलाद। पूरे महीने भर की कमाई भी इसकी भरपाई नहीं कर पाएगी और तुम्हारे विचार से तुम इसे हाथ में किसी ताजमहल की तरह उठाए दुनिया को दिखाते फिरते रहोगे। मैं तुम्हारी ऐसी पिटाई करने वाला हूं कि तुम ज़िंदगी भर कभी भूल नहीं पाओगे।”

यह कहते उन्होंने अपना हाथ उठाया और वह बेटे की देह पर पड़ने ही वाला था कि मैंने जल्दी से हाथ उठा उस वार को अपने हाथ से रोक लिया। अंधा कर देने वाली दर्द की लहर बिजली की तरह मेरी बांह से उंगलियों के पोरों तक दौड़ गई। वे अच्छे-खासे स्वस्थ पुरुष थे, एक मज़दूर और यह अच्छा ही हुआ कि मैंने उस वार को रोक लिया।
कुछ पलों तक मेरा बेटा ऐसे खड़ा रहा, जैसे सांप सूंघ गया हो और फिर इतनी ज़ोर से चीखा जैसे उसे ही मार पड़ी हो।

“तो तुम्हारे पास इतनी चीखने-चिल्लाने की ताकत है,” मेरे पति गुस्से से हांफते चिल्लाए। “वो बकवास खिलौना, जो तुम्हारी मम्मी ने तुम्हारे लिए खरीदा है, उसमें उसका ऊनी टोपा बिला गया है और ऊपर से अब यह। इसके साथ पूरी सर्दियों का कोयला और पत्ता गोभी भी स्वाहा हो जाएंगे।” इतना कह वे मेरी ओर मुड़े और आगे जोड़ा, “ये सब जो हो रहा है न, सब तुम्हारे लाड़ का नतीजा है, जो ये इतना बिगड़ गया है।”
मैंने उन्हें बकबकाने दिया। बस वो फिर से मारपीट पर उता डिग्री न हों, यह सब मैं बर्दाश्त कर लूंगी। मेरे बेटे की आज तक पिटाई नहीं हुई है।

सर्दियों के एक दिन जब सूरज गर्मी के स्थान पर शीत लहरों के ज्वार-पर-ज्वार झोंके जा रहा था, मैंने घर लौटकर स्टोव बमुश्किल किसी तरह जलते पाया। मेरा बेटा मेरी राह देख रहा था, उसका चेहरा लाल हो गया था और उसकी आंखें तालाब में चमकते तारों की परछाई जैसी चमक रही थीं। उसे देख मुझे आशंका हुई कि उसे अवश्य बुखार चढ़ा होगा।
“अपनी आंखें तो बंद करो मम्मा,” उसने कहा। उसकी मीठी प्यारी-सी आवाज़ ने मुझे आश्वस्त कर दिया कि वो बीमार नहीं है। मैंने धीरे से आंखें बंद कर लीं। मन में सोचा, वो ज़रूर चौंकाने वाली कोई भेंट देने वाला है। परीक्षा का कोई अच्छे अंकों वाला पेपर या कोई खिलौना, जिसे उसने अपने हाथों से कागज़ों और बोतलों से बनाया होगा।
“हां.... अब तुम आंखें खोल सकती हो मम्मा।”

मैंने आंखें बंद ही रखीं, एक ऐसे सुखद क्षण को बढ़ाते हुए जो केवल एक मां को ही नसीब होता हैे।
“जल्दी से मम्%%” उसने लड़ियाते हुए ज़ोर देते कहा।
मेरी आंखों के सामने जैसे बसंत में फैला हरी घास का मैदान खड़ा था। मुझे कुछ मिनट लगे यह समझने में कि मेरे बेटे को क्या हो गया है। सच यह था कि वो मेरे सामने बुनाई के लिए ऊन के हरे बंडल लिए खड़ा था।
“तुम्हें रंग पसंद आया न मम्मा,” उसने ढेरों उम्मीदों, आशाओं के साथ पूछा। हरा रंग मेरा प्रिय रंग था।

“हां, बहुत अधिक। तुम्हें कैसे पता चला कि मैं इसे पसंद करूंगी।”
“तुम शायद भूल गई हो मम्मा। तुमने मेरे लिए हमेशा हरे रंग में बुनाई की है, जब मैं छोटा था तभी से। इस रंग को मैं हज़ारों रंग के बीच से उठा लूंगा।” उसे वास्तव में आश्चर्य हो रहा होगा कि आखिर मैंने यह प्रश्न किया कैसे।
“क्या डैडी ले गए थे तुम्हें?”
“नहीं तो, मैं अकेले ही गया था,” उसने गर्व से कहा।
“तुम्हें रुपए कहां से मिले?” आश्चर्य करते मैंने पूछा।

वह चुप रहा, बस मुझे एकटक देखता रहा। चोरी तो वह कर नहीं सकता, यह तो तय बात थी। चोरी का विचार ही मेरे बेटे के मन में शाप की तरह था। उसने ज़रूर ही इस्तेमाल किए गए पेपर से कुछ-न-कुछ बेचने लायक बनाया होगा अथवा टूथपेस्ट ट्यूबों को इकट्ठा कर पैसे जोड़े होंगे, लेकिन मैंने उसे कभी देर से काली उंगलियों के साथ घर लौटते नहीं देखा था। हूं..%% तो लगता है मुझे फिर से पूछना पड़ेगा।
“अच्छा ये तो बतलाओ बेटे कि तुम्हें रुपए मिले कहां से?” मैंने उससे प्रेम से पूछा, एक प्रकार से घिघियाते हुए ताकि वो मुझे सच बतलाए।
“मैंने मोटू से मांगे थे,” उसने स्पष्ट शब्दों में कहा।

“किससे मांगे थे,” अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी मैं। वह ऐसा कुछ करेगा, यह तो असंभव ही था। वह तो शुरू से आज्ञाकारी रहा है।
“मोटू,” उसने मुझे एकटक देखते हुए कहा।
सुनते ही मेरे सिर में तेज़ भनभनाहट शु डिग्री हो गई। उसके चेहरे पर स्पष्ट झलकता निश्चय का भाव उस लड़के का था, जिससे मैं परिचित नहीं थी।
“अच्छा तुमने उससे कैसे मांगे,” मैंने दुर्बल-सी आवाज़ में कहा।
“ठीक वैसे, जैसे उन लोगों ने हमसे मांगे थे,” उसने निर्णयात्मक स्वर में कुछ इस अंदाज़ में कहा, जैसे मैं व्यर्थ में धजी का सांप बना रही हूं।

उसने मेरे हाथ को उठते देखा और सोचा कि शायद मैं उसके सिर को सहलाने जा रही हूं। यही सोच वह मेरे पास आने लगा, लेकिन मैंने उसे ज़ोर से चांटा मारा। मारने के लिए हाथ उठाने और हाथ नीचे गिरने के पहले मुझे उस लेख की याद आ गई, जिसमें मैंने पढ़ा था कि बच्चों के सिर में कभी भी नहीं मारना चाहिए। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मेरा हाथ कुछ तिरछा हो उसकी गर्दन पर पड़ा।
वह पीछे नहीं हटा, बस मुझे आश्चर्य से देखता रहा। मैंने इसके पहले उसे कभी नहीं मारा था, लेकिन अब मुझे पूरा विश्वास था कि यह अंतिम बार नहीं है।

तभी से जब भी हर बार सर्द हवा का झोंका दरवाज़े को धक्का दे भीतर आता है तो मैं आशा करती हूं, एक छोटे से सिर के भीतर झांकने का। लेकिन मोटू कभी वापस नहीं आया। उसने हमारे रोबो के रुपए दे दिए थे और उसने हमें उन्हीं के पास छोड़ दिया था।
मैंने उस बड़े रोबो को गोंद से जोड़ दिया था। अपने बड़े आकार से उसने हमारे घर को संपन्नता का आभास दे दिया था।
अब हमारे यहां दो रोबो हैं, जो आकार नहीं बदलते।
और मेरे बेटे ने उन्हें एक बार भी छुआ तक नहीं है।


बी शूमिन: आपकी प्रमुख रचनाएं ‘ए रेड कार्पेट फॉर यू’ तथा ‘फ्लाइंग नॉर्थवर्ड’ हैं। यहां प्रस्तुत की जा रही कहानी ‘टूटे खिलौने’ (ब्रोकन ट्रांसफॉर्मर्स) का प्रथम प्रकाशन 1992 में हुआ था।

अनुवाद: इंद्रमणि उपाध्याय। महाविद्यालय से सेवानिवृत्ति के बाद जबलपुर में निवास व अनुवाद कार्य में संलग्न।
सभी चित्र: विवेक वर्मा। विवेक शौकिया चित्रकार हैं, भोपाल में निवास।
यह कहानी संवाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित विश्व साहित्य से स्त्री लेखिकाओं की चुनिंदा कहानियां, विश्व कथा संचयन, ‘उसका एकांत’ से ली गई है।