सुशील जोशी [Hindi PDF, 190 kB]

पाठ्य पुस्तक समीक्षा कक्षा 6, 7 और 8
पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा की हमारे यहां कोई परंपरा नहीं है। करोड़ों की संख्या में छपने वाली और हर साल लाखों बच्चों की मानसिकता को प्रभावित करने वाली पुस्तकें इस रुतबे के साथ आती हैं कि इनमें लिखी बात को प्रामाणिकता की कसौटी माना जाता है। देश के नागरिक इन पुस्तकों पर हर साल दो-एक अरब रुपए तो खर्च करते ही होंगे। सवाल यह है कि क्या हमारी पाठ्य पुस्तकें बच्चों के विकास में सही भूमिका निभा रही हैं। ‘सही भूमिका’ क्या है, इसे लेकर मतभेद हो सकते हैं मगर कम-से-कम इतनी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि इन पुस्तकों को तैयार करने वाली संस्थाएं जिसे घोषित तौर पर सही मानें, वह भूमिका तो ये किताबें अदा करें। यहां राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद (एन.सी.ई.आर.टी.) की कक्षा 6 से 8 की विज्ञान पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा प्रस्तुत है। यह समीक्षा किसी बाहरी मापदण्ड के आधार पर नहीं बल्कि स्वयं परिषद द्वारा प्रकाशित पाठ्यक्रम दिशा-निर्देशों के तहत की गई है।

यह सवाल वाजिब है कि अब जब एन.सी.ई.आर.टी. स्वयं इन पाठ्य पुस्तकों को छोड़कर नई पाठ्य पुस्तकें तैयार करने में जुट गया है, तब उन पुरानी किताबों की समीक्षा का क्या मतलब। यह सही है कि परिषद ने नया पाठ्यक्रम व विषय-वस्तु तैयार करके पाठ्य पुस्तक लेखन का काम शु डिग्री कर दिया है और संभवत: 2005-06 के सत्र में नई किताबें लागू हो जाएंगी। मगर साथ ही सवाल यह भी है कि क्या परिषद ने स्वयं अपनी पिछली किताबों की किसी व्यवस्थित व खुली समीक्षा के द्वारा उन किताबों को त्यागने का मन बनाया अथवा कतिपय अन्य कारणों से यह फैसला किया गया। क्योंकि यदि उन (व उनसे पहले की) किताबों की कोई समीक्षा नहीं की गई है तो पता नहीं कि परिषद ने कोई सबक सीखा या नहीं। क्या जिन शिक्षकों व छात्रों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन किताबों व इनको सहारा देने वाली विचारधारा का बोझ वहन करना पड़ता है, उनकी राय पूछी गई? और सबसे महत्व की बात तो यह है कि हमारे यहां आमतौर पर पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा की कोई परिपाटी नहीं है; पाठ्य पुस्तकें तो अंतिम सत्य के रूप में ही परोसी जाती हैं। उनकी ताकत इस बात में होती है कि परीक्षा में वही ज्ञान काम आता है जो इन किताबों के पन्नों पर छपा है, इसलिए शिक्षक व छात्र इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर हैं। अत: मुझे लगता है कि शिक्षकों व शिक्षा से सरोकार रखने वाले लोगों को पाठ्य पुस्तक समीक्षा को गंभीरता से लेना चाहिए। एक बात और कहकर मैं अपनी मूल बात पर आता हूं। आमतौर पर पाठ्यक्रम व विषय-वस्तु का निर्माण होने के समय तमाम शिक्षाविद, विषय विशेषज्ञ, राजनैतिक संस्थाएं, सरकारी विभाग वगैरह काफी सक्रिय रहते हैं और मीडिया भी हर छोटी-बड़ी बात को सुर्खियों में स्थान देता है। मगर तथ्य यह है कि पाठ्यक्रम व विषय-वस्तु तो स्कूलों, शिक्षकों व छात्रों तक पहुंचते नहीं, पहुंचती हैं तो पाठ्य पुस्तकें। अत: इन पर बहुत गहराई से सोच-विचार होना ज़रूरी है।

यहां प्रस्तुत समीक्षा दरअसल मैंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर की थी। हम लोगों ने मुख्यत: यह देखने का प्रयास किया है कि क्या ये पाठ्य पुस्तकें उस पाठ्यक्रम के लक्ष्यों को पूरा करती हैं जिनके तहत ये लिखी गई हैं। हमने आमतौर पर पाठ्यक्रम के लक्ष्यों को इस समीक्षा में छानबीन का मुद्दा नहीं बनाया है, जो अपने आप में एक गहरा विषय है। वैसे तो हम लोगों ने उपरोक्त तीनों किताबों के हर अध्याय की अलग-अलग विस्तृत समीक्षा की है (और वह अलग से अंग्रेज़ी में उपलब्ध है) मगर यहां कुछ उदाहरण ही पेश किए जाएंगे। दूसरी बात यह है कि हमने किताबों के अंग्रेज़ी संस्करण को देखा है, इसलिए हिंदी संस्करण थोड़ा फर्क भी हो सकता है।

पाठ्यक्रम के लक्ष्य
पाठ्यक्रम दस्तावेज़। में विज्ञान-शिक्षा के निम्नलिखित लक्ष्य बताए गए हैं:
1. विज्ञान की बुनियादी प्रक्रियाओं से संपर्क।
2. विज्ञान व टेक्नॉलॉजी की सरल प्रक्रियाओं को समझना।
3. कुछ सरल नियमों व दैनिक जीवन में उनके उपयोगों को समझना।
4. विज्ञान व टेक्नॉलॉजी के उपयोग की क्षमता विकसित करना।
5. मापन व हस्त-कौशल के हुनर विकसित करना।
6. जीव-विज्ञान और स्वास्थ्य की विविध अवधारणाओं से संपर्क।
7. टेक्नॉलॉजी से परिचय।
8. परिवेश के प्रति जागरूकता।
9. विज्ञान, टेक्नॉलॉजी व समाज का संबंध।
10. छात्रों के लिए विज्ञान और टेक्नॉलॉजी साक्षरता।
समीक्षा के दौरान हमने हरेक अध्याय को इन लक्ष्यों की कसौटी पर परखा। इसके अलावा कुल मिलाकर किताबों का एक जायज़ा भी लिया। आइए, इस कवायद से निकले निष्कर्षों पर नज़र डालें।

1. विज्ञान की बुनियादी प्रक्रियाओं से संपर्क।
2. विज्ञान व टेक्नॉलॉजी की सरल प्रक्रियाओं को समझना।
अवलोकन, मापन, प्रयोग करना, परिकल्पनाएं विकसित करना, नियंत्रित प्रयोग करना, आंकड़ों से निष्कर्ष निकालना, पैटर्न, नियम व सिद्धांत खोजना, जानकारी जुटाना, यथार्थ को मॉडल्स के ज़रिए समझने का प्रयास करना वगैरह चीज़ें विज्ञान की बुनियादी प्रक्रियाएं मानी जा सकती हैं।

अब यदि हम उपरोक्त पाठ्य पुस्तकों में गोते लगाकर ये चीज़ें खोजने की कोशिश करें तो विचित्र स्थिति उभरती है। किताबों में ये तत्व सिर्फ नदारद ही नहीं हैं, बल्कि हर जगह छात्रों को इनसे संपर्क करने से रोकने की कोशिश नज़र आती है। और यह इतने एकरूप ढंग से किया गया है कि लगभग इरादतन लगता है।
पन्ने पलटते जाइए, तीनों किताबें पूरी देख लेने के बाद आपको यकीन हो जाएगा कि भूल से भी बच्चों को अवलोकन का कोई मौका नहीं दिया गया है। वास्तव में यदि ऐसा कोई अवसर उपस्थित होने लगता है, तो किताब में वह अवलोकन फौरन उपलब्ध करा दिया जाता है ताकि बच्चे इधर-उधर न देखने लगें। हो सकता है कि कुछ अवलोकन ऐसे हों जिनको बच्चों पर नहीं छोड़ा जा सकता मगर किताबों में तो हद कर दी गई है। कुछ उदाहरणों से पता चलेगा कि आसान-सी चीज़ों में भी खुद देखने की गुंजाइश नहीं छोड़ी गई है।

जैसे, कक्षा-6 के अध्याय-3 (पदार्थ की प्रकृति) में निर्देश दिया गया है: ‘‘आइए देखें कि पानी अपारदर्शी है या पारदर्शी। एक सफेद कागज़ पर गुणा ‘ज्र्’ का एक चिन्ह बनाइए। इसके ऊपर कांच का एक साफ गिलास रख दीजिए। क्या आप गुणा के चिन्ह को देख सकते हैं? गिलास में थोड़ा पानी डालिए और उसे आधा भर दीजिए। आपको चिन्ह अभी भी दिखाई दे रहा है। साफ पानी भी पारदर्शी पदार्थ है।’’ यानी बच्चों पर इतना भी भरोसा नहीं किया जा सकता कि वे गुणा का निशान देख लेंगे। या शायद लेखकों को लगा होगा कि कहीं बच्चों ने कोई बड़ा बर्तन ले लिया जिसमें पानी डालने पर निशान छिप गया तो पानी अपारदर्शी न हो जाए। (वैसे भी इस विधि से नदी का पानी तो अपारदर्शी है ही!)

इसी प्रकार से कक्षा-7 के अध्याय-3 (पदार्थ की संरचना) में देखिए: ‘‘हम जानते हैं कि लोहा और गंधक तत्व हैं। लोहे की छीलन और गंधक लीजिए और इन्हें किसी भी अनुपात में एक पोरसलीन डिश में मिलाइए। इस मिश्रण के पास एक छड़ चुम्बक लाइए। आप देखेंगे कि....’’
कक्षा-7, अध्याय-4 (अम्ल, क्षार और लवण): ‘‘मेग्नीशियम के फीते के एक टुकड़े को चिमटी से पकड़कर एक मोमबत्ती या बर्नर की ज्वाला के ऊपर रखिए। आप क्या देखते हैं? धातु जल उठती है।’’

यह मात्र एक पैटर्न नहीं बल्कि एक सनक है। एक भी सवाल को अनुत्तरित न छोड़ो, एक भी अवलोकन को छात्रों की जिज्ञासा के भरोसे न छोड़ो और एक भी निष्कर्ष को उनकी तार्किक सोच या विवेक पर न छोड़ो।
एकाध अपवाद छोड़ दें, तो यही हाल समस्त क्रियाकलापों का है। क्रियाकलाप लिखा और सांस लेने की फुरसत दिए बगैर अवलोकन लिख दिए। इसके दो परिणाम हैं। पहला तो यह कि एक बार यदि आप इस पैटर्न को पकड़ लें (जो आप ज़रूर पकड़ लेंगे) तो क्रियाकलापों को करने की ज़रूरत और उत्साह दोनों जाते रहते हैं। दूसरा, यदि क्रियाकलाप किए भी जाएंगे, तो मकसद अपेक्षित परिणाम हासिल करना होगा। ये दोनों ही बातें विज्ञान शिक्षा के लक्ष्य को पछाड़ देती हैं। वैसे भी इन किताबों में जानकारी का बोझ (और बोझिलता) इतना अधिक है कि अधिकांश शिक्षक कक्षा में ‘पढ़ाने’ के अलावा कुछ भी करने से कतराते हैं। जहां अवलोकन तक जानकारी के पुलिंदों के रूप में परोसे जा रहे हों, वहां परिकल्पना विकसित करना, आंकड़ों का विश्लेषण करना, मॉडल विकसित करना वगैरह तो दूर की बातें हैं।

3. कुछ सरल नियमों व दैनिक जीवन में उनके उपयोगों को समझना
इन किताबों को देखकर ‘समझना’ शब्द की आपकी समझ बदल जाएगी; आपको यकीन हो जाएगा कि समझने का मतलब याद करना होता है। तीनों किताबें परिभाषाओं से भरी पड़ी हैं। लगभग हर चीज़ की एक परिभाषा है और परीक्षा में यही परिभाषाएं पूछी जाती हैं। इन किताबों के लेखकों को पारिभाषिक शब्दों से भी काफी लगाव है।

इस प्रवृत्ति का एक उदाहरण कक्षा-6 के अध्याय ‘हमारा पर्यावरण’ में मिलता है। पर्यावरण का विवरण देते हुए विभिन्न घटकों का वर्गीकरण किया जाता है। दो समूह हैं, सजीव और निर्जीव। मगर पुस्तक इतने से संतुष्ट नहीं होती; इन्हीं समूहों के लिए ‘animate’ और ‘inanimate’ शब्द जोड़ दिए जाते हैं। फिर यहां भी क्यों रुकें? तो यह भी बता दिया जाता है कि सजीव या animate चीज़ों कोbiotic component  भी कहते हैं और निर्जीव याinanimate चीज़ों को biotic component  भी कहते हैं। पारिभाषिक शब्दों से प्रेम कहें या ज्ञान बघारने का उतावलापन? और अध्याय में यह बताए बिना भी चैन नहीं पड़ा कि biotic community को biota  भी कहते हैं। तो सवाल यह है कि इतने सारे शब्दों के उपयोग से समझ में कितना फायदा हुआ।

Chapter ‘Nature of Matter’ goes into definitional extremes. A question is posed: “What is Matter?” Answer, according to the book, is “materials…that have mass and occupy space are made of matter. We say that matter is anything that has mass.” So, are material and matter one and the same thing or different? And, alas, the authors are not content with so much confusion and in the same section they go on to add, “All matter is made up of substances, which in turn, are made up of particles.” Read with the next sentence: “the word matter is used for all the substances and the materials from which universe is composed”, confusion is confounded.

इसे एक अलग-थलग उदाहरण न मानें, यह एक नियम-सा है इन किताबों में। कुल मिलाकर एन.सी.ई.आर.टी. की ये पाठ्य पुस्तकें कोई ज्ञानकोश लगती हैं या शायद किसी होटल का मेनू कहना ज़्यादा सही होगा।
जब हम कहते हैं कि इन किताबों में जानकारी का घनत्व बहुत अधिक है, तो वास्तव में यह पारिभाषिक शब्दों के घनत्व की बात है - हर 2-3 वाक्यों के बाद एकाध ऐसा शब्द आना ही है। दरअसल किताबें इस मान्यता पर टिकी हैं कि अवधारणा को समझने का मतलब शब्द जानना है। इस तरह से ‘समझकर’ नियमों को लागू करने की अपेक्षा रखना थोड़ी ज़्यादती होगी।

4. विज्ञान को टेक्नॉलॉजी में लागू करने की क्षमता विकसित करना
इस लक्ष्य को तो लेखकों ने अनछुआ ही छोड़ दिया है। वैसे इतना तो साफ है कि जब तक आप कोई बात समझ न जाएं तब तक उसे लागू करना असंभव नहीं, तो मुश्किल ज़रूर है। और समझने के बाद भी लागू करने की काबिलियत तो तब विकसित होगी जब आपको मौका मिलेगा। इस मामले में भी किताबें सब कुछ बता देने के चक्कर में ऐसे मौके गंवाती चली जाती हैं। जहां भी किसी अवधारणा को कहीं लागू करके देखने की बात आती है, किताब यह काम छात्रों पर छोड़ने की बजाए खुद ही कर देती है। लेखक यह भूल जाते हैं कि तमाशबीन लोग कभी खुद तमाशा करना नहीं सीखते - वे तमाशबीन ही बने रहते हैं।

जैसे, कक्षा-6 के अध्याय-3 ‘पदार्थ की प्रकृति’ को लीजिए। ऊष्मा के संचरण की बात करते हुए अध्याय में यह सवाल पूछा जाता है: ‘‘क्या आपने कभी सोचा है कि इन बर्तनों में लकड़ी या प्लास्टिक से बने हत्थे क्यों लगे होते हैं? आइए, इसका कारण ढूंढने का प्रयास करें।’’ कारण ढूंढने के लिए छात्रों से कहा जाता है कि वे दो चम्मच - एक धातु का और दूसरा लकड़ी या प्लास्टिक का - गर्म पानी में रख दें। फिर ‘‘दो मिनट बाद प्रत्येक चम्मच के दूसरे सिरे को छूकर देखिए। कौन-सा अधिक गर्म लगता है? धातु का चम्मच अधिक गर्म लगता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि धातु ऊष्मा का संचार तेज़ी से करती है।’’ अब विज्ञान को लागू करने की क्षमता के विकास का मौका कहां बचा? बच्चों को सोचने का मौका देना ही नहीं चाहती ये किताबें।


5. मापन व हस्त-कौशल के हुनर विकसित करना
हस्त-कौशल की बात तो जाने ही दें क्योंकि, जैसा कि ऊपर बताया गया, छात्रों को क्रियाकलाप करने से निरुत्साहित किया जाता है। दरअसल 2003 में केंद्रीय विद्यालय के शिक्षकों के एक प्रशिक्षण के दौरान सारे शिक्षक एकमत थे कि क्रियाकलाप करने के लिए समय नहीं रहता। सबका कहना था कि ‘लोड’ इतना अधिक है कि उसी में सारा समय निकल जाता है। कुछ शिक्षकों ने ज़रूर कहा कि वे प्रयोग करके दिखा देते हैं क्योंकि इस तरह से बच्चे बेहतर सीखते हैं। तो छात्र अधिक-से-अधिक प्रदर्शन की उम्मीद कर सकते हैं और प्रदर्शन से छात्रों में हस्त-कौशल का विकास होने से तो रहा।

समय के अलावा सामग्री की उपलब्धता भी एक समस्या है। कई प्रयोगों और क्रियाकलाप के लिए जो सामग्री चाहिए वह मिडिल स्कूलों में मिलना मुश्किल है। यदि हस्त-कौशल का विकास हमारा लक्ष्य है, तो प्रयोग ऐसे होने चाहिए, और सामग्री ऐसी होनी चाहिए जो हर छात्र को मुहैया कराई जा सके।
जहां तक मापन का सवाल है, इन तीन किताबों में इस बाबत दो अध्याय हैं। एक कक्षा-6 में और दूसरा कक्षा-7 में। आप भी मानेंगे की मापन एक क्रिया है जिसे करना चाहिए। अर्थात मापन का मतलब होगा एक स्केल उठाएं और नपाई करें। मगर एन.सी.ई.आर.टी. के अध्यायों में काफी सारा समय तो इकाइयों की परिभाषा देने, मानक माप रखने वगैरह में लगाया जाता है। दरअसल मापन आधुनिक विज्ञान की बुनियादी चीज़ है और हम उम्मीद करते हैं कि बच्चे इसे व्यावहारिक तौर पर सीखें और इससे जुड़ी समस्याओं से जूझें। ज़ाहिर है, इसमें समय लगेगा। कक्षा-6 के एक 20 पृष्ठों के अध्याय में 6 अलग-अलग राशियों (लंबाई, क्षेत्रफल, आयतन, संहति, समय और तापमान) के मापन को शामिल किया गया है जो एकदम अव्यावहारिक है। कक्षा-7 में इन्हीं राशियों के अप्रत्यक्ष मापन के तरीके बताए गए हैं। वैसे तो दोनों अध्यायों में कई सारी गतिविधियां हैं मगर सारे प्रश्न सैद्धांतिक पहलू से संबंधित हैं।

6. जीव विज्ञान और स्वास्थ्य
स्वास्थ्य संबंधी सारे अध्याय अत्यंत उपदेशात्मक हैं। इन्हें पढ़कर आपको लगेगा कि आप दुश्मनों के बीच खड़े हैं और किसी भी क्षण बीमार पड़ सकते हैं। तो ज़रा संभलकर।
वैसे मैं यहां कबूल करना चाहूंगा कि स्कूल के बच्चों को स्वास्थ्य और साफ-सफाई के बारे में क्या पढ़ाया जाए, इसे लेकर मुझे भी ज़्यादा पता नहीं है। मगर क्या यह अजीब नहीं है कि इतने वर्षों बाद भी हम स्वास्थ्य के नाम पर संतुलित आहार और निजी साफ-सफाई के उपदेशों से आगे नहीं बढ़ पाए हैं? हम कहीं भी निजी आचरण की सामाजिक व आर्थिक अड़चनों की बात ही नहीं करते। और तो और हमने इस सामग्री को परोसने के पठनीय तरीके तक नहीं खोजे हैं।
बहरहाल, ‘यह करो, यह ना करो’ की शैली को नज़रअंदाज़ कर दें तो भी ये पुस्तकें ऐसी-ऐसी बातें कहती हैं कि दांतों तले उंगली दबा लेने का मन करता है। पता नहीं कैसे ये बातें विज्ञान की पुस्तकों में स्थान पा सकती हैं।
1. आपने यह कहावत सुनी होगी, ‘‘जल्दी सोने और जल्दी जागने से व्यक्ति स्वस्थ, संपन्न और बुद्धिमान बनता है।’’ ‘‘जो व्यक्ति जल्दी उठता है वह प्रकृति का आनंद लेता है।’’
2. ‘‘क्या आप जानते हैं कि पारंपरिक भारतीय भोजन संतुलित आहार माना जाता है?’’ सवाल यह है कि ऐसा कौन मानता है और वैसे भी ‘पारंपरिक भारतीय भोजन’ किसे कहते हैं?
3. ‘‘ऐसा कहते हैं कि पालथी लगाकर बैठना भोजन करने का सबसे अच्छा तरीका है।’’ कौन कहता है?
4. ‘‘आजकल बच्चों में मोटापा एक सामान्य समस्या बनती जा रही है। इसका कारण नूडल्स, पिज़ा, आलू चिप्स, मिठाइयां, टॉफियां, आइसक्रीम और शीतल पेय जैसे फास्ट फूड या जंक फूड अत्याधिक मात्रा में खाया जाना है।’’ किन बच्चों की बात हो रही है, और वे सारे कुपोषित, दुबले-पतले बच्चे कहां गुम हो गए हैं?
5. ‘‘कमरे के तापमान पर रखा पीने का पानी स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है।’’ कहां और किस मौसम में?
ऐसे कथन लेखकों के पूर्वाग्रह ही ज़्यादा लगते हैं।
7. टेक्नॉलॉजी से परिचय
कुछ कहने को नहीं है इसमें, क्योंकि कुछ कहा ही नहीं गया है।
8. परिवेश के प्रति जागरूकता

आमतौर पर अध्यायों में परिवेश का प्रवेश वर्जित रखा गया है मगर एक अध्याय का तो नाम ही है ‘हमारा पर्यावरण’। सो यहां तो हम उम्मीद करते हैं कि हमारा परिवेश झलकेगा। निराश होने के लिए तैयार रहिए। यह अध्याय पूरी तरह एक ‘सामान्य’ पर्यावरण पर आधारित है। वैसे ‘सामान्य’ की इस अवधारणा ने जितना नुकसान जीव-विज्ञान शिक्षण का किया है उस पर एक अलग आलेख लिखा जा सकता है। यहां मैं इन किताबों की ही बात करूंगा।
अध्याय की शुरुआत एक चित्र से होती है। इस चित्र में एक गांव का दृश्य है जिसमें कबेलू वाली छत, एक कुआं, गाय, अन्य पालतू जानवर, बर्तन मांजती एक महिला वगैरह सब हैं। तो किसका परिवेश है यह? क्या यह बेहतर न होता कि शुरुआत विशिष्ट से होती? बच्चों को अपने परिवेश को देखकर वर्णन करने का मौका दिया जाता। इस विवरण के आधार पर पर्यावरण की विभिन्न श्रेणियों की बात हो सकती थी। मगर अध्याय तो एक ‘आदर्श’ पर्यावरण पर टिक जाता है।
वैसे तो ‘हमारे आसपास के परिवर्तन’, ‘मापन’, ‘कार्य और ऊर्जा’, ‘स्वास्थ्य व साफ-सफाई’, ‘हमारा भोजन’ वगैरह परिवेश के साथ संपर्क और अंतर्क्रिया के अच्छे अवसर प्रदान कर सकते थे, मगर शायद उससे ‘शिक्षा’ से ध्यान हटने का डर था।

निष्कर्ष
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ये किताबें शिक्षा के ज्ञानकोश नज़रिए पर आधारित हैं। ये इस मान्यता पर टिकी हैं कि बच्चों पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वे अवलोकन कर पाएंगे, सोच पाएंगे, पैटर्नस् देख पाएंगे, निष्कर्ष निकाल पाएंगे, अपनी बात को कह पाएंगे यानी संक्षेप में सीखने का काम ज़िम्मेदारी से कर पाएंगे।
शिक्षक पर भी ज़्यादा भरोसा नहीं किया गया है कि वे कक्षा की परिस्थिति को देखकर अध्यापन कार्य में जुगाड़ या नवाचार कर सकें। इन किताबों को लिखते हुए इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया गया है कि यह एक विशाल देश है जहां कई अलग-अलग सामाजिक, सांस्कृतिक व भौतिक पर्यावरण मौजूद हैं। किताबों में एक एकरूप नज़रिया अपनाया गया है। इसीलिए इनमें ‘हमारा पर्यावरण’ तक में बच्चों के पर्यावरण को स्थान नहीं मिला है।

ये किताबें विज्ञान की एक बहुत गलत धारणा पेश करती हैं कि वह एक प्रक्रिया नहीं बल्कि किन्हीं और लोगों द्वारा निर्मित परिभाषाओं और पारिभाषिक शब्दों का पुलिंदा है। ये किताबें छात्रों को अपने प्रायोगिक हुनर, अवलोकन के हुनर, पैटर्न खोजने की क्षमता, परिकल्पना व मॉडल विकसित करने, अपने अवलोकनों पर विचार करने, आपस में चर्चा करने, निष्कर्ष निकालने व उनका सत्यापन करने वगैरह से निरुत्साहित करती हैं।


सुशील जोशी: एकलव्य द्रारा प्रकाशित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन एवं शिक्षण में गहरी रुचि है। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से लंबा व गहन जुड़ाव रहा है।

इस लेख में दिए गए सभी चित्र एन.सी.ई.आर.टी. की समीक्षित पुस्तकों से लिए गए हैं।
समीक्षित पुस्तकें
1. सायंस एंड टेक्नॉलॉजी: ए टेक्सटबुक फॉर क्लास VI,, प्रकाशन वर्ष 2002
2. सायंस एंड टेक्नॉलॉजी: ए टेक्सटबुक फॉर क्लास VII, प्रकाशन वर्ष 2003
3. सायंस एंड टेक्नॉलॉजी: ए टेक्सटबुक फॉर क्लास VIII,, प्रकाशन वर्ष 2004
प्रकाशक: राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली।