किशोर पंवार                                                                                                                                      [Hindi PDF, 60.9 kB]

जीव-जगत में उड़ने की क्षमता केवल कीट-पतंगों और पक्षियों के पास ही है। पक्षियों की तरह ही कीटों की दुनिया भी बड़ी रोचक है। इनका भोजन करने व उड़ने का तरीका दोनों ही मज़ेदार हैं। अधिकांश कीट भुक्खड़ किस्म के होते हैं, जो पत्तियां, छाल, फूल-फल, पराग, बीज, फफूंद, पंख और यहां तक कि अपनी ही जाति के दूसरे कीट को खाने से नहीं चूकते। इनके लार्वा तो सारा समय सिर्फ खाते ही रहते हैं। वयस्क कीट फल-फूल का रस पीकर संतुष्ट रहते हैं।
परन्तु प्रेइंग मेंटिस की तो बात ही निराली है। यह किसी पौधे की हरी डाली पर शिकार की तलाश में बिना हिले-डुले ऐसे बैठा रहता है जैसे कोई भक्त अपने हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहा हो। जी हां, बगुला भगत जैसा।

प्रेइंग मेंटिस तीन से पंद्रह सेंटीमीटर लम्बा कीट है जो दुनिया में हर जगह मिलता है। घास के मैदान और आपके बगीचे में बरसात के दिनों में विशेषकर इसे आसानी से देखा जा सकता है। कुछ लोग इसे रामजी का घोड़ा कहते हैं, और कुछ कच्छी घोड़ा। कुछ कच्छी घोड़ों का रूप-रंग तो ऐसा होता है कि वे सामने ही पौधे की किसी शाखा पर बैठे हों और आपको पता तक न चले। कुछ बिल्कुल हरी-पीली पत्ती जैसे तो कुछ एकदम सूखे डंठल से।
प्रेइंग मेंटिस का शरीर लम्बा-पतला होता है। ये भूरे, हरे या चमकदार गुलाबी किसी भी तरह के हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसे सोफोडोमेंटिस लिनिएटा कहते हैं। इसके मुख्य शिकार जीवित कीड़े-मकोड़े होते हैं जिन्हें यह अपनी प्लायर जैसी कांटेदार मज़बूत अगली टांगों से पकड़ता है। कीटों की दुनिया में मेंटिस ही अकेले कीट हैं जो अपने सिर को किसी भी दिशा में घुमा सकते हैं - आगे, पीछे, ऊपर, नीचे।

प्रेइंग मेंटिस की आगे की टांगें बहुत शक्तिशाली और अपेक्षाकृत लम्बी होती हैं। तेज़ कांटेदार दांतों युक्त इन टांगों का उपयोग ये अपने शिकार को झपटने और पकड़े रखने के लिए करते हैं। जब यह इन्हें शिकार को पकड़ने के लिए जोड़ता है तो ऐसा शिकंजा बनता है जिससे छूट पाना असंभव ही होता है। अपने शिकार के इंतज़ार में जब यह किसी टहनी पर बैठा रहता है तो इसकी मुद्रा ऐसी लगती है मानो हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहा हो। इसी के चलते इसे प्रेइंग मेंटिस नाम मिला। जैसे ही कोई कीट इसे नज़र आता है यह बिजली की तेज़ी से उसे अगले पैरों से जकड़ लेता हैं। यह क्रिया मात्र 0.05 सेकेंड में हो जाती हैं। इसके पैरों पर बने दांते इसके शिकार में चुभ जाते हैं। अत: शिकार इसकी पकड़ से बच नहीं सकता हालांकि वो इसकी मज़बूत पकड़ से छूटने का असम्भव प्रयास ज़रूर करता है। और यह बगुला भगत इत्मीनान से उसके टुकड़े-टुकड़े करके तब तक भक्षण करता रहता है जब तक कि उसका नामो-निशान न मिट जाए।

इसका हरा रंग इसे पत्तियों में छिपने में भी मदद करता है। यह भी हरा और पत्तियां भी हरी, अत: यह एक प्रकार का अनुकूलन है, जिसे छद्मावरण (कैमोफ्लाज) कहते हैं। इस तरह यह अपने शिकार को नज़र भी नहीं आता और खुद शिकार होने से बचा रहता है। इसके शिकंजे में छिपकली और छोटे पक्षी तक फंसे देखे गए हैं। इसे हाथ जोड़े बैठा देख पानी में एक टांग खड़े बगुले की याद आती है। अत: इसे हम ज़मीन का बगुला भगत कह सकते हैं।


किशोर पंवार: होल्कर महाविद्यालय में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं। विज्ञान लेखन में रुचि।