लेखक:   राजश्री राजगोपाल                                                                                                                 [Hindi PDF, 256 kB]
अनुवाद: सुशील जोशी

इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया                                                                                                                                                             भाग-2
यदि आपको नट-बोल्ट के बारे में सब कुछ पता न हो, कि वे कितनी तरह के मिलते हैं या उनका उपयोग कैसे किया जाता है, तो आप एक अच्छी मशीन नहीं बना पाएंगे। इसी प्रकार से इलेक्ट्रॉनिक परिपथ बनाने के लिए ज़रूरी है कि आपको विभिन्न बुनियादी घटकों की जानकारी हो। तो, आइए दो सबसे महत्वपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक नट-बोल्ट के बारे में बात करते हैं। इस बातचीत में अंक-53 में की गई चर्चा को भी ध्यान में रखना होगा।

कामकाजी डायोड - सायकिल की सवारी और ट्रांज़िस्टर
n-टाइप और p-टाइप अर्धचालक उपकरणों के उपयोग से सबसे बुनियादी बनावट एक p-n जंक्शन बनती है जिसे आमतौर पर डायोड कहते हैं। डायोड मूलत: एक ऐसा उपकरण है जिसमें n-टाइप और p-टाइप दोनों तरह के अर्धचालक मौजूद होते हैं। जैसा कि चित्र-1 में दिखाया गया है। इन दो पदार्थों के बीच के जोड़ को p-n जोड़ कहते हैं। इसलिए अर्धचालक डायोड को p-n जंक्शन डायोड भी कहते हैं। इसके अलावा दोनों प्रकार के पदार्थ एक-एक इलेक्ट्रोड का काम भी करते हैं। दरअसल, डायोड शब्द का मतलब ही ‘दो इलेक्ट्रोड’ है; ड्डत् मतलब दो। आप सिर्फ डायोड के सिरों (टर्मिनल्स) पर विद्युत विभव आरोपित कीजिए और आप देखेंगे कि यह ठीक उस तरह काम करता है (यानी विद्युत धारा को प्रवाहित करता है) जैसे सायकिल या किसी अन्य दुपहिया वाहन की सवारी की जाती है। कैसे? व्याख्या के लिए आगे पढ़िए।

पी-एन जंक्शन डायोड: धन और ऋण अर्धचालकों को आपस में जोड़ने पर पी-एन जंक्शन तैयार हो जाता है। अर्धचालकों का यह सबसे आसान और सरलतम पुर्ज़ा है। जंक्शन के दोनों ओर मौजूद अलग-अलग अर्धचालक दो इलेक्ट्रोड की तरह काम करते हैं। जब इनके बीच उचित दिशा में विभवांतर दिया जाए तो डायोड विद्युत का चालक बन जाता है।

जब हम कहते हैं कि कोई इलेक्ट्रिक या इलेक्ट्रॉनिक उपकरण चालू है, तो हम जानते हैं कि उसमें विद्युत धारा बह रही है। इसी तरह डायोड भी चालू तब होता है जब वह विद्युत का चालक हो यानी बिजली को बहने दे। यहां मज़ेदार बात यह है कि डायोड के चालू होने में विद्युत धारा की दिशा अहम भूमिका निभाती है। तभी तो इलेक्ट्रॉन और सुराखों के प्रवाह की जिस क्रियाविधि की बात हमने पहले की थी उसके माध्यम से p-n जंक्शन पर वांछित धारा प्रवाहित होगी। ऐसा तब होता है जब किसी बैटरी का धन सिरा, p-इलेक्ट्रोड से जोड़ा जाता है। इसे डायोड की क्रिया का फॉरवर्ड बायस्ड मोड कहते हैं। यदि बैटरी को उल्टी तरह जोड़ दिया जाए तो डायोड विद्युत प्रवाह नहीं करता और बंद रहता है। यह रिवर्स बायस्ड मोड है। तो यदि आप ध्यान से देखें तो पाएंगे कि दोनों सिरों पर लगाए गए विभव की दिशा बदलकर डायोड का उपयोग एक स्विच के रूप में किया जा सकता है। और कई उपकरणों में इसका इस तरह उपयोग किया भी जाता है। प्रतिरोधक या पारंपरिक स्विच तो धारा को दोनों दिशा में बहने देते हैं मगर डायोड एक ही दिशा में विद्युत प्रवाह की अनुमति देता है - फॉरवर्ड बायस्ड मोड में p-इलेक्ट्रोड से n-इलेक्ट्रोड की ओर। यह सायकिल जैसा ही है। सायकिल को आप आगे की दिशा में ही चला सकते हैं, पीछे नहीं। इस तरह से इस्तेमाल किए गए डायोड को ‘रेक्टिफायर डायोड’ भी कहते हैं।

बल्ब जलाओ
डायोड के काम की अपनी समझ को परखने का एक मज़ेदार तरीका बताते हैं। साथ में दिया गया चित्र देखिए। इसमें डायोड्स और बल्बों की एक व्यवस्था दर्शाई गई है जिसे अंतत: एक विभव स्रोत (बैटरी) से जोड़ा गया है। डायोड को बंद और चालू करने वाले विभव की दिशा को दिमाग में रखकर क्या आप बता सकते हैं कि कौन-से बल्ब जलेंगे? (सुराग: पहले सिर्फ एक डायोड टर्मिनल पर विभव की दिशा पर ध्यान दीजिए, और प्रत्येक डायोड को स्विच मानकर विचार कीजिए। इसके अनुसार प्रत्येक चालू डायोड को एक चालू स्विच या सतत तार माना जा सकता है, जबकि हरेक बंद डायोड को बंद स्विच या तार में टूटन माना जा सकता है।)

एक बार इतना कर लेने के बाद आप डायोड की दिशा या आरोपित विभव की दिशा को बदलकर मनचाहे बल्ब जला सकते हैं।

निश्चित दिशा में विभव लगाए जाने पर डायोड बंद या चालू क्यों हो जाता है? इसके p-n जंक्शन पर आवेश के साथ जो कुछ होता है उसी की वजह से बंद-चालू होने की क्रिया होती है (चित्र-2)। जब हम डायोड जैसे किसी अर्ध-चालक उपकरण में विभव आरोपित करते हैं तो मूलत: हम उसके द्र-द जंक्शन के व्यवहार को बदलते हैं। इस उपकरण को बनाते समय घटने वाली एक घटना के कारण ऐसा होता है - जंक्शन पर ‘अभाव क्षेत्र’ यानी ‘डिप्लीशन रीजन’ बन जाते हैं। जब पहली बार n-टाइप, p-टाइप हिस्से के संपर्क में आता है, तो द-क्षेत्र के इलेक्ट्रॉन p-हिस्से के सुराखों की ओर आकर्षित होते हैं। स्वाभाविक है कि कुछ इलेक्ट्रॉन जंक्शन के निकट द्र-हिस्से में उपलब्ध सुराखों (खाली ऊर्जा स्तर) को भरने के लिए चल पड़ते हैं। नतीजा यह होता है कि जल्दी ही p-n जंक्शन के आसपास एक ऐसा क्षेत्र बन जाता है जहां n-हिस्से में कोई मुक्त इलेक्ट्रॉन नहीं बचते और p-हिस्से में कोई सुराख नहीं बच जाते (चूंकि उनमें ये इलेक्ट्रॉन भर चुके हैं)। इस क्षेत्र को ‘अभाव क्षेत्र’ कहते हैं क्योंकि यहां मुक्त आवेश वाहकों का अभाव है। यदि अभाव क्षेत्र p-n जंक्शन के आसपास काफी बड़े क्षेत्र में फैल जाए तो इलेक्ट्रॉन्स के लिए इसे पार करके मुक्त सुराखों तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है। एक निर्धारित सीमा के बाद कोई आवेश वाहक जंक्शन को पार नहीं कर पाता और उनका स्थानांतरण रुक जाता है। इससे p-n जंक्शन का निर्माण पूर्ण हो जाता है और डायोड एक स्थिर अवस्था में आ जाता है - वाहक प्रचुर n व p क्षेत्र जो अभाव क्षेत्र के द्वारा अलग-अलग हैं। कुल मिलाकर अभाव क्षेत्र, n और p हिस्सों की ऊर्जा पट्टियों के बीच एक विशाल ऊर्जा दीवार की तरह खड़ा हो जाता है। अब जब हम ऐसे डायोड को चालू करने के लिए फॉरवर्ड बायस मोड में रखते हैं, तब क्या होता है?

उपरोक्त चर्चा से आपने अंदाज़ लगा ही लिया होगा कि डायोड को चालू करने के लिए हमें आवेश वाहकों को एक बार फिर गतिशील करना पड़ेगा। फॉरवर्ड बायस व्यवस्था में n-हिस्से के इलेक्ट्रॉन काफी ताकत से बैटरी के धन छोर की ओर आकर्षित होते हैं जो p-हिस्से से जुड़ा है। यदि बैटरी का विभव पर्याप्त हो तो उन्हें इतनी ऊर्जा मिल जाती है कि वे अभाव क्षेत्र की ‘दीवार’ को पार कर जाते हैं और उपकरण में से आवेश वाहकों का प्रवाह शुरू हो जाता है। यदि ऊर्जा रेखाचित्र में इन घटनाओं को देखें (चित्र-3) तो नज़र आता है कि n-हिस्से की चालक पट्टी के इलेक्ट्रॉन्स को p-हिस्से की चालक पट्टी में छलांग लगाने के लिए पर्याप्त ऊर्जा मिल जाती है, जिसके बाद वे संयोजी पट्टी (वेलेंस बैण्ड) में गिरकर वहां उपलब्ध अनगिनत सुराखों को भर देते हैं और उनमें फुदकते हुए बैटरी के धन छोर की ओर बढ़ते हैं। आवेशों के इस प्रवाह के कारण उपकरण में से विद्युत धारा का प्रवाह होता है और डायोड चालू हो जाता है।
क्या अब आप इसी तरह के तर्क का उपयोग करके यह पता लगा सकते हैं कि डायोड रिवर्स मोड में होने पर क्या होगा?

अब ट्रांज़िस्टर की बारी

चलिए अब ट्रांज़िस्टर पर चलते हैं - यह सबसे ज़्यादा उपयोग किया जाने वाला और महत्वपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है। यह अर्ध-चालक पदार्थों की तीन परतों से बना होता है (डायोड की तरह दो से नहीं)। इन तीन परतों को उत्सर्जक, आधार और संग्राहक कहते हैं - या तो n-p-n या p-n-p जमावट में (चित्र-4)। प्रत्येक परत की मोटाई और डोपिंग स्तर अलग-अलग होता है। बीच में फंसी परत अर्थात आधार सबसे पतली होती है और सबसे कम डोपिंग युक्त होती है। उत्सर्जक सबसे अधिक डोप-युक्त होता है जबकि संग्राहक सबसे मोटी परत होती है। मोटाई और डोपिंग में इस विविधता के चलते उपकरण के दो p-n जंक्शन (उत्सर्जक-आधार और आधार-संग्राहक) में अभाव परत की मोटाई अलग-अलग हो जाती है। इस बात को यों समझा जा सकता है कि अभाव परत की मोटाई इस बात पर निर्भर करती है कि जब दो असमान अर्ध-चालक पदार्थ पहले-पहल एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं, तो शु डिग्री में उपलब्ध मुक्त आवेशों की संख्या कितनी है। ट्रांज़िस्टर के तीन छोरों (टर्मिनल) का इस्तेमाल करके दो p-n जंक्शन पर धारा के प्रवाह को विभिन्न ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है। इसके कारण ट्रांज़िस्टर के कामकाज को समझना कहीं अधिक कठिन व पेचीदा है। यह देखा गया है कि विभिन्न विभव से जोड़कर ट्रांज़िस्टर से बहुत अलग-अलग ढंग से काम करवाया जा सकता है। यह आपके द्वारा आरोपित विद्युत संकेत की शक्ति को घटा या बढ़ा सकता है, जंक्शन के पार दोनों दिशाओं में चालन कर सकता है, और एक स्विच की तरह (यानी एक डायोड के समान) भी काम कर सकता है। इसके काम की तुलना ट्रक से लेकर सायकिल तक किसी भी मशीन से की जा सकती है!

मात्र ये दो घटक (डायोड और ट्रांज़िस्टर) के साथ चंद प्रतिरोधक और संधारित्र यानी केपेसिटर को जोड़कर हज़ारों इलेक्ट्रॉनिक परिपथ बनाए जा सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक परिपथ क्या होता है? आगे पढ़िए...

इलेक्ट्रॉनिक परिपथ
रोलर्स, पहिए, पट्टे, चेनें, नट, बोल्ट वगैरह अपने आप में ज़्यादा उपयोगी नहीं होते। इन्हें आपस में सही तरीके से जोड़कर ही मनचाही मशीन बनती है। क्या कभी आपने ध्यान दिया है कि पेडल मारने से सायकिल आगे कैसे बढ़ती है? आप देखेंगे कि पेडल और पहिए से जुड़ी चेन और रोलर की व्यवस्था की बदौलत सायकिल आगे बढ़ती है। यदि आप बड़ा व ज़्यादा सुगमता से चलने वाला रोलर ले लें और उस पर चेन की बजाय एक पट्टा चढ़ा दें, तो कन्वेयर बेल्ट बन जाएगा, जिस पर आप सामान को यहां से वहां पहुंचा सकेंगे। तो घटकों का चयन करके और उन्हें अलग-अलग ढंग से जोड़कर अलग-अलग उपयोगी यांत्रिक व्यवस्थाएं बनाई जा सकती हैं। इसी प्रकार से इलेक्ट्रॉनिक्स में विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक घटकों को लेकर जो व्यवस्थाएं बनाई जाती हैं उन्हें इलेक्ट्रॉनिक परिपथ कहते हैं।

बेतार

मुद्रित परिपथ पटिए पर कोई तार नहीं होते। तो स्विच चालू करने पर इलेक्ट्रॉनिक घटक एक-दूसरे से जुड़कर विद्युत का चालन कैसे करते हैं? उनमें विद्युत प्रवाहित होती है पटिए पर खिंची रेखाओं के ज़रिए, जो वास्तव में तांबे की बनी होती हैं। इसे मुद्रित परिपथ पटिया इसीलिए कहते हैं कि तांबे की ये रेखाएं इतनी बारीक होती हैं कि लगभग छपी हुई दिखती हैं। पटिए पर इन्हें बनाने के लिए रासायनिक तराशी (केमिकल एचिंग) नामक तकनीक का उपयोग किया जाता है। पारंपरिक तौर पर तांबा चढ़े लकड़ी के पटिए पर से चुनी हुई जगहों से तांबे को फेरिक क्लोराइड की मदद से खुरच दिया जाता है। इस प्रकार से सिर्फ जोड़ने वाली रेखाएं बच जाती हैं। इस तरह से खुरचना आसान है और आपकी प्रयोगशाला में किया जा सकता है। मुश्किल काम तो पटिए पर परिपथ के घटकों की स्थिति निर्धारित करना और उनके जोड़ इस तरह अंकित करने का होता है कि कोई भी जोड़ एक-दूसरे पर चढ़ा न हो।

पसंदीदा इलेक्ट्रॉनिक घटकों को मनचाहे ढंग से जोड़कर इलेक्ट्रॉनिक परिपथ बनते हैं। ये इलेक्ट्रॉनिक परिपथ ही हमारे लिए उपयोगी उत्पाद बनाने में काम आते हैं। कोई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण कई सारे परिपथों से मिलकर बना हो सकता है या एक परिपथ से बना भी हो सकता है। घिरनी का उपयोग कुएं से पानी खींचने में भी हो सकता है और क्रेन से चीज़ें उठाने या सरकाने में भी किया जा सकता है। इसी प्रकार से कई इलेक्ट्रॉनिक परिपथों का उपयोग एक से अधिक वस्तुएं बनाने में होता है। इसके कुछ उदाहरण हैं - रेक्टिफायर परिपथ, बाएसिंग परिपथ, एम्पलीफायर परिपथ, स्विचिंग परिपथ और पॉवर परिपथ। तो जब आप कंप्यूटर या टेप रिकॉर्डर या टीवी का डिब्बा खोलें तो सैकड़ों छोटे-छोटे घटक देखकर चकराइगा नहीं। इन्हें कुछ प्रकार के परिपथों में वर्गीकृत किया जा सकता है जो एक-दूसरे से जुड़े हैं और प्रत्येक परिपथ एक विशेष काम करता है।

यदि आप इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अंदर के परिपथों को ध्यान से देखें तो एक सामान्य चीज़ नज़र आएगी - सारे अर्ध-चालक घटक एक पटिए पर जड़े होते हैं और उनके बीच रेखाएं खिंची होती हैं। इन्हें मुद्रित परिपथ पटिए (पिं्रटेड सर्किट बोर्ड या पी.सी.बी.) कहते हैं। देखिए चित्र 5 एवं 6
इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के अंदर अधिकांश पी.सी.बी. में निहायत पेचीदा परिपथ होते हैं, जिनमें एक-दूसरे से जुड़े कई सारे घटक होते हैं। पहले कुछ सरल सर्किट देखते हैं जो अन्य जटिल पी.सी.बी. में घटक बनते हैं। आपको एक बेहतर एहसास देने के लिए हम सिर्फ उन परिपथों को देखेंगे जिनमें मूलत: डायोड का उपयोग होता है।

डायोड-आधारित घटक

रेक्टिफायर परिपथ, क्लिपिंग और क्लैम्पिंग परिपथ जैसे कुछ आम बुनियादी परिपथों का प्रमुख घटक डायोड होता है। मेन सप्लाई पर चलने वाले लगभग सारे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में रेक्टिफायर परिपथ ज़रूर होता है।
सारे इलेक्ट्रॉनिक परिपथों को वांछित काम करने के लिए सदिश विद्युत धारा (डी.सी. करंट) की ज़रूरत होती है। मगर घरों में बिजली सप्लाई अदिश (ए.सी.) होती है। तो जब हम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को ए.सी. धारा मुहैया करते हैं तो वे डी.सी. धारा कहां से प्राप्त करते हैं? यह उन्हें मिलती है उन्हीं के अंदर बने हुए रेक्टिफायर परिपथ से।

धारा और विभव : एसी या डीसी

हम पहले ही देख चुके हैं कि धारा वास्तव में आवेशों का सदिश प्रवाह होती है। इस परिभाषा को ध्यान में रखकर हमने अर्ध-चालक पदार्थों और उपकरणों के व्यवहार का पता लगाया था। व्यावहारिक रूप में जब हम उपकरणों और यंत्रों को उपयोग करते हैं तो हमें मनचाहा विभव मिल जाता है - चाहे मेन सप्लाई से या शुष्क सेल से। क्या इन दोनों में कोई अंतर है?
है क्यों नहीं? विद्युत मंडल से जो विभव हमें मिलता है वह अदिश (आल्टर्नेटिंग) होता है यानी विभव का मान धनात्मक व ऋणात्मक दोनों तरफ बदलता रहता है, जैसा कि सामने के चित्र में दिखाया गया है। अत: इस विभव से जो धारा पैदा होगी वह भी अदिश होगी। इस तरह के विभव को एसी विभव कहते हैं। यहां एसी का मतलब है आल्टर्नेटिंग करंट। दूसरी ओर, शुष्क सेल से एक निश्चित मान का विभव मिलता है जिससे धारा एक ही दिशा में बहती है। ऐसे विभव को डीसी विभव कहते हैं; डीसी का मतलब डायरेक्ट करंट।
आपने ध्यान दिया होगा कि कई सारे उपकरण (जैसे टेप रिकॉर्डर) जिन्हें हम घर पर सीधे प्लग में जोड़ देते हैं, वे सेल से भी चल जाते हैं। अब शायद आप सोच रहे होंगे कि एक ही उपकरण दोनों तरह के विभव पर कैसे काम कर सकता है। इसका उत्तर लेख में दिया गया है।

रेक्टिफिकेशन का मतलब होता है ए.सी. को डी.सी. में बदलना। इस काम को करने वाले परिपथों को रेक्टिफायर परिपथ कहते हैं। एक सरल अर्धतरंग (हाफ वेव) रेक्टिफायर परिपथ चित्र-7 में दिखाया गया है। साथ में परिपथ के विभिन्न बिंदुओं पर तरंग-आकृति भी दिखाई गई है। यह तो साफ है कि जब बिंदु ॠ पर विभव ऋणात्मक हो जाता है तो डायोड रिवर्स बायस्ड मोड में आ जाता है और बंद हो जाता है। इसलिए उस अवधि में कोई आउटपुट नज़र नहीं आता। अलबत्ता, जब डायोड फॉरवर्ड बायस होता है वह चालू हो जाता है और इनपुट विभव को आउटपुट में बदल देता है। नतीजतन, हमें इनपुट विभव का मात्र धनात्मक हिस्सा ही आउटपुट में मिलता है। दूसरे शब्दों में दो दिशा वाले इनपुट से हमें सिर्फ एक ही दिशा का विभव मिल जाता है जो हम चाहते भी हैं। इसमें घट-बढ़ के कारण बिंदु झ् पर प्रेक्षित विभव को ‘पल्स्ड डी.सी. वोल्टेज’ कहते हैं (डी.सी. इसलिए कि यह एक ही दिशा में होता है और पल्स्ड इसलिए कि यह एक धड़कन के रूप में होता है)।

रेक्टिफिकेशन की तकनीक से चाहे इनपुट ए.सी. विभव को एकदिश विभव में बदला जा चुका है मगर अभी इसका परिमाण स्थिर नहीं है, जैसा कि इलेक्ट्रॉनिक परिपथों के लिए चाहिए। पल्स्ड डी.सी. आउटपुट में इस विविधता को रिपल यानी तरंग कहते हैं। रेक्टिफायर के आगे एक संधारित्र यानी केपेसिटर इस्तेमाल करके तरंगों को काफी हद तक कम कर दिया जाता है (चित्र-8)। इन घटकों को उपयुक्त ढंग से एक पी.सी.बी. पर जड़ दिया जाता है ताकि उनके बीच चित्र-8 में दिखाए अनुसार जोड़ हों। इस रेक्टिफायर से प्राप्त डी.सी. आउटपुट का उपयोग संधारित्र को आवेशित करने में किया जाता है। यह जानी-मानी बात है कि संधारित्र आवेश को संग्रहित कर सकता है और ज़रूरत पड़ने पर मुक्त कर सकता है - संधारित्र धातुओं की दो चादरों को प्लास्टिक जैसे किसी कुचालक पदार्थ से अलग-अलग रखकर बनाए जाते हैं। चित्र से पता चलता है कि संधारित्र रेक्टिफायर आउटपुट के अधिकतम परिमाण तक आवेशित होता है और उसके बाद अनावेशित होने लगता है। संधारित्र में निर्मित विभव के धीमे अनावेशन के कारण उसके आउटपुट में तरंगें (उतार-चढ़ाव) बहुत कम होते हैं। तरंगों को और कम करने के लिए टेक्नॉलॉजिस्ट ने एक बेहतर जुगाड़ किया है - एक ऐसा रेक्टिफायर बनाया जाए जो मेन सप्लाई के धनात्मक व ऋणात्मक दोनों हिस्सों को रेक्टिफाइ करे। यानी एक फुल वेव रेक्टिफायर बनाया जाए। और वे सचमुच इसकी डिज़ाइन बनाने में सफल हो गए और इसमें तरंगें हाफ वेव रेक्टिफायर व्यवस्था से काफी कम होती हैं (देखिए चित्र-9)। फुल वेव रेक्टिफायर का काम समझना आसान है - आपको सिर्फ डायोड के काम के उसी तर्क को लागू करना होगा जिसके आधार पर हाफ-वेव रेक्टिफायर काम करता है। इसे करके ज़रूर देखिए।

इन सारे प्रयासों के बावजूद आउटपुट में तरंगें पूरी तरह खत्म नहीं हुईं। कुछ और करना ज़रूरी था। इसका समाधान ‘रेग्युलेटर’ की डिज़ाइन से मिला। यह एक परिपथ होता है जो ट्रांज़िस्टर्स, डायोड और प्रतिरोधकों का एक पेचीदा सम्मिश्रण होता है। यह आउटपुट विभव को एक निश्चित मान पर स्थिर रखता है, चाहे इसके इनपुट में थोड़ी-बहुत घट-बढ़ होती रहे। दूसरे शब्दों में यह आउटपुट का नियमन करता है और उसेे मनचाहे स्तर पर स्थिर रखता है। इसलिए एसी से डीसी पॉवर सप्लाई में रेग्युलेटर को संधारित्र के बाद लगाया जाता है। रेग्युलेटर से विशुद्ध डीसी आउटपुट ज़रूरत के अनुसार विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक घटकों को दिया जाता है।

अब यदि हम यह पूरा रेक्टिफिकेशन परिपथ बनाना चाहें तो रेग्युलेटर कार्य के लिए कनेक्शन कैसे बनाएं? इंजीनियरों ने इस काम को हमारे लिए काफी आसान बना दिया है। हमें सिर्फ इतना करना है कि एक फुल-वेव रेक्टिफायर तैयार कर लें और वांछित आउटपुट के हिसाब से संधारित्र लगा दें। रेग्युलेटर परिपथ बाज़ार में इलेक्ट्रॉनिक ‘चिप’ या एकीकृत परिपथ (इंटीग्रेटेड सर्किट - आई.सी.) के रूप में मिलता है। तो हमें सही किस्म का रेग्युलेटर खरीदकर उसे एक संधारित्र से जोड़ना होता है। बाज़ार में उपलब्ध रेग्युलेटर आई.सी. के अंदर झांकने के लिए चित्र-10 ज़रूर देख लें।

इलेक्ट्रॉनिक चिप्स
पीसीबी की मदद से पूरी की पूरी इलेक्ट्रॉनिक डिज़ाइन एक पटिए पर समा जाती है और इस तरह से परिपथ की साइज़ बहुत कम हो जाती है। मगर जिस टेक्नॉलॉजी ने इलेक्ट्रॉनिक परिपथ को इतना छोटा बना दिया कि उन्हें एक मोबाइल फोन के अंदर रखा जा सके, वह है एकीकृत परिपथ या इंटीग्रेटेड सर्किट यानी आई.सी.। इसे आम तौर पर इलेक्ट्रॉनिक चिप कहते हैं (चित्र-11)। दरअसल आई.सी. टेक्नॉलॉजी ने ही छोटे-छोटे निजी कंप्यूटर (पी.सी.) को संभव बनाया है।

एकीकृत (एक में अनेक) परिपथ वही काम करते हैं जो अलग-अलग इलेक्ट्रॉनिक घटकों से बने परिपथ करते हैं। अंतर यह होता है कि एकीकृत परिपथ में पूरा परिपथ सिलिकॉन की एक स्लाइस पर बना होता है। इसी चिप पर सारे ज़रूरी इलेक्ट्रॉनिक घटक और उनके कनेक्शन होते हैं; और एक नन्हें से सिलिकॉन की स्लाइस पर हज़ारों ऐसे घटक होते हैं। आजकल कई पीसीबी (खासकर पेचीदा बनावट वाले पीसीबी) में भी अलग-अलग घटकों के अलावा आई.सी. का भी उपयोग होता है। चिप्स ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को छोटा बनाने के अलावा उन्हें कहीं अधिक भरोसेमंद भी बना दिया है। इसका कारण यह है कि चिप्स को बहुत सावधानी से तैयार किया जाता है और सिरेमिक आवरण के अंदर पैक कर दिया जाता है ताकि परिपथ बाहरी पर्यावरण से सुरक्षित रहे और कारगर ढंग से काम करे।

वास्तव में एकीकृत परिपथ छोटे आकार में पूरा परिपथ होता है। मानक परिपथ, जिनमें बदलाव की ज़रूरत नहीं होती, के मामले में यह बहुत बढ़िया होता है। जैसे रेग्युलेटर परिपथ। रेग्युलेटर आई.सी. में एक सिलिकॉन चिप पर ट्रांज़िस्टरों और प्रतिरोधकों की पूरी व्यवस्था बनी होती है। कोई आई.सी. कितना छोटा हो सकता है, इस बात को देखने का सबसे बढ़िया तरीका तो यह होगा कि आप किसी कंप्यूटर का सी.पी.यू. खोलकर देखें। आपको एक बड़ा-सा पटिया नज़र आएगा जिसे मदरबोर्ड कहते हैं। इस पर तमाम अर्धचालक उपकरण लगे होते हैं और कई सारे काले रंग के वर्गाकार या आयताकार मंचनुमा उभार होते हैं। ये आई.सी. या इलेक्ट्रॉनिक चिप्स हैं। कितनी तरह के आई.सी. दिखाई देते हैं? (ध्यान रखें कि जो काले रंग की डिबिया आप देख रहे हैं, वह आई.सी. का गिलाफ है। इसके अंदर मौजूद आई.सी. तो इस गिलाफ से एक-चौथाई साइज़ की होगी।)

इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग अंतिम उत्पाद की साइज़ को और कम करने का सपना देखते हैं। इस सपने को साकार करने के लिए वे नट और बोल्ट के स्तर पर परिवर्तन करने का प्रयास कर रहे हैं। कल्पना कीजिए कि यदि आप बुनियादी घटकों की साइज़ को और कम कर सकें...परमाणु की साइज़ तक ले जाएं!

रोमांचक भविष्य
बड़े-बड़े विशालकाय वैज्ञानिक कंप्यूटरों से आपकी हथेली में समा जाने वाले ‘पामटॉप’ निजी कंप्यूटरों तक इलेक्ट्रॉनिक्स के विकास ने हमें अद्भुत वस्तुएं उपलब्ध कराई हैं। और क्या उम्मीद करते हैं हम?
हमारे जीवन को बेहतर बनाने के नए-नए तरीके खोजने की कोशिशें चल रही हैं। जैसे, कल्पना कीजिए एक किताब की जिसके पन्ने जादुई स्लेट के समान हों...आपको सिर्फ इतना करना होगा कि इसे उस कंप्यूटर से जोड़ दें जिसमें इच्छित पाठ्य सामग्री है और एक बटन दबाकर उस सामग्री को इन पन्नों पर उड़ेल लें। महत्वपूर्ण बात यह होगी कि अगली बार इस जानकारी को मिटाकर इन्हीं पन्नों का उपयोग आप कोई नई जानकारी ‘लिखने’ के लिए कर सकेंगे, जैसे जादुई स्लेट में करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक कागज़ से यह संभव हो जाएगा। हर दिन की खबरें हम उसी इलेक्ट्रॉनिक कागज़ पर प्राप्त कर सकेंगे, कागज़ की बर्बादी बंद हो जाएगी।

एक और चीज़ जो क्षितिज पर नज़र आ रही है वह वेफर जैसा पतला टीवी है। यह टीवी कॉर्ड शीट जितना पतला होगा और पोंगली बनाकर जेब में रखा जा सकेगा। इसी प्रकार से चतुर झरोखे भी बनाए जा रहे हैं - ये बाहरी मौसम की हालत और कमरे के अंदर का तापमान भांपकर उसके अनुसार धूप को अंदर आने देंगे।
कई शोधकर्ता अलग-अलग पदार्थों व तकनीकों का उपयोग करके इन प्रयासों को परवान चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। इस काम के लिए आपको बुनियादी विज्ञान की गहरी समझ के अलावा टेक्नॉलॉजी में हो रही नई-नई खोजों की जानकारी भी होना चाहिए।
और सबसे बड़ी बात तो यह है कि नई-नई चीज़ों का आविष्कार काफी हद तक आपकी कल्पना शक्ति पर भी निर्भर होगा... इलेक्ट्रॉनिक तो मात्र एक धरातल देता है जिस पर आप ‘हाईटेक’ दुनिया के अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।


राजश्री राजगोपाल: इलेक्ट्रॉनिक्स एवं टेलिकम्यूनिकेशन में बी. ई. किया है। पुणे में निवास एवं संदर्भ (हिन्दी) के संपादन में मदद करती हैं।
हिन्दी अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा प्रकाशित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं।
अकादमिक सहयोग: प्रियदर्शिनी कर्वे: पुणे के श्रीमती काशीबाई नवले कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में पढ़ाती है। तथा शैक्षणिक संदर्भ (मराठी) के संपादन समूह की सदस्य हैं।
चित्रांकन: कुछ रेखाचित्र कैलाश दुबे ने बनाए हैं। वे शौकिया चित्रकार हैं, भोपाल में निवास।