अमृता सक्सेना, ऋचा रघुवंशी और एच.बी. सिंह     [Hindi PDF, 304 kB]
अनुवाद: सुशील जोशी

जीवन के रंग-बिरंगे और विविध रूपों के चलते प्रकृति सदा से ही मनुष्य के कौतूहल का विषय रही है। अधिकांश लोग इसकी अनन्त विविधता से वाकिफ हैं - चन्द माइक्रोमीटर लम्बे सूक्ष्मजीवों से लेकर विशालकाय डायनासौर तक जो कभी धरती पर विचरते थे। प्रकृति में पाई जाने वाली कई रचनाओं ने वैज्ञानिक समुदाय में भी हलचल पैदा की है और आज भी वैज्ञानिक ऐसे कई सजीव रूपों को समझने और व्याख्या करने की कोशिश कर रहे हैं जो लीक से हटकर हैं। ऐसी ही एक अनसुलझी गुत्थी है वनस्पतियों के एक समूह की जो रुढ़िगत अर्थों में पौधे नहीं हैं। ये हैं कीटभक्षी पौधे। यह पौधों का एक अनोखा समूह है जो अन्य पौधों से न सिर्फ अपने पोषण की दृष्टि से बल्कि प्राकृतवास की दृष्टि से भी भिन्न है। इनका रूप-रंग भी काफी अलग होता है।
आइए वनस्पति जगत के इन निहायत अजीब व आकर्षक सदस्यों पर नज़र डालें।

जन्तुओं से पोषण
इन विचित्र पौधों को कई बार मांसाहारी पौधों की संज्ञा भी दी जाती है क्योंकि ये जन्तुओं को खाते हैं। बहुत समय पहले से ही कीटों को पकड़ने वाले ये पौधे लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं, कौतूहल जगाते रहे हैं। पौधों के इस समूह ने ‘ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़’ के लेखक चार्ल्स डारविन को भी मोहित किया था। 1790 में थॉमस जेफरसन ने अध्ययन के लिए दक्षिणी कैरोलिना में चार्ल्सटन के नज़दीक वीनस फ्लाईट्रैप नामक पौधे का संग्रह किया था। उन्होंने कहा था कि वीनस फ्लाईट्रैप दुनिया के सबसे आश्चर्यजनक पौधों में से एक है। हल्के-से उद्दीपन के जवाब में इस पौधे की गतियों को समझने के लिए उन्होंने कई प्रयोग किए थे, जैसे मनुष्य के बाल का स्पर्श। वे तब अचरज में पड़ गए थे जब इस पौधे की पत्तियों ने बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उन्होंने कीटभक्षी पौधों की कई प्रजातियों का विस्तृत अध्ययन किया और अपने अवलोकन व प्रयोग 1875 में प्रकाशित पुस्तक ‘इन्सेक्टिवोरस प्लांट्स’ में शामिल किए। उनकी एक रोचक खोज थी कि वीनस फ्लाईट्रैप में रोमों पर मिले उद्दीपन से पत्तियाँ सेकंड के मात्र दसवें भाग में बन्द हो जाती हैं। यह रफ्तार लगभग जन्तुओं में मांसपेशियों के संकुचन की गति के बराबर है। पौधों का यह व्यवहार इसलिए अचरज पैदा करता है क्योंकि उनमें न तो मांसपेशियाँ होती हैं और न ही तंत्रिकाएँ। इसके चलते यह सवाल स्वाभाविक है कि ‘फिर ये पौधे जन्तुओं के समान क्रिया कैसे करते हैं?’
अलबत्ता, वनस्पति जगत के इन विचित्र सदस्यों को लेकर सब लोग रोमांचित और उत्साहित नहीं थे। जब महान स्वीडिश प्रकृति विज्ञानी कार्ल लीनियस को पता चला कि वीनस फ्लाईट्रैप कीटों को फँसाता है तो उन्होंने इसे ‘ईश्वर द्वारा बनाई प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध’ घोषित किया था।

अक्सर कीटभक्षी पौधे काफी छोटे होते हैं। ये आम तौर पर पोषण-रहित मिट्टी में पाए जाते हैं। निश्चित रूप से ये अन्धकारमय दलदलों और जंगलों में नहीं पाए जाते, जैसा कि फिल्मों में दिखाया जाता है। जो पौधे जन्तुओं को आकर्षित करें, पकड़ें, पचाएँ और उनका रस सोख लें, उन्हें मांसाहारी पौधे कहते हैं। वीनस फ्लाईट्रैप (जिसका चित्र पहले पृष्ठ पर दिया गया है) जैसे पौधों में कीटों के प्रति ज़्यादा लगाव दिखता है। इन्हें कीटभक्षी पौधे कहते हैं।

मांसाहारी पौधों के शिकार
मज़ेदार बात यह है कि इस श्रेणी के कई पौधे अपनी रंग-बिरंगी पंखुड़ियों की मदद से कीटों को आकर्षित करते हैं और ये कीट उनके लिए पराग-कणों का परिवहन करते हैं। परन्तु कीटभक्षी पौधे अपनी पंखुड़ियों से परागण में मदद लेने की बजाय उनकी मदद से भोजन प्राप्त करते हैं। कीटभक्षी पौधों में सनड्यू, पिचर प्लांट (कुम्भी पादप), बटरवार्टस, ब्लैडरवॉर्टस और वीनस फ्लाईट्रैप जैसे तमाम पौधे शामिल हैं। इन पौधों के शिकार भी बहुत विविध होते हैं - इनमें कीट, मकड़ियों समेत विभिन्न एरेक्निड्स, दीमकें, घोंघे व स्लग्स जैसे मोलस्क, कभी-कभी केंचुए और छोटे-मोटे रीढ़धारी जन्तु (छोटी-छोटी मछलियाँ, मेंढक, सरीसृप, कुतरने वाले जन्तु और पक्षी) भी होते हैं। लगभग 150 प्रजातियों के जन्तु इनके शिकार बनते हैं। आज तक जिस सबसे बड़े जीव के पकड़े जाने की खबर है, वह है एक चूहा।
यदि इन पौधों के प्राकृतवास और पोषण की बात करें, तो ये पौधे ऐसे इलाकों में उगते हैं जहाँ नाइट्रोजन, फॉसफोरस और पोटेशियम की कमी होती है। इसके अलावा, एक तथ्य यह भी है कि यदि उर्वरक (जैसे एनपीके) की खुराक मिले तो भी ये पौधे मर जाते हैं। पौधों के आम रिवाज़ के विपरीत ये पौधे अपना पोषण जन्तुओं के रस से हासिल करते हैं जो इनके लिए नाइट्रोजन और फॉसफोरस का स्रोत होता है।

मांसाहारी पौधों की विविधता
मांसाहारी पौधों ने वैकासिक इकोलॉजीवेत्ताओं, वनस्पति-शास्त्रियों और फलोद्यान विशेषज्ञों को सदियों से आकर्षित किया है। दुनिया भर में पाई जाने वाली करीब 10 लाख वनस्पति प्रजातियों में से 400 मांसाहारी हैं। वनस्पतियों के विकास के इतिहास में मांसाहार काफी देर से प्रकट हुआ है। सवाल है कि पेड़-पौधों के मांसाहार की ओर प्रवृत्त होने के कारण क्या हो सकते हैं। इकोलॉजीविद् मांसाहार के विकास में पोषण - पर्यावरणीय तनाव और संसाधनों के अभाव - की भूमिका मानते हैं। अध्ययन से पता चला है कि ये पौधे कम-से-कम 6 बार स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं। ये एकबीजपत्री और द्विबीजपत्री, दोनों तरह के फूलधारी पेड़-पौधों में मिलते हैं। कीटों से रासायनिक ऊर्जा प्राप्त करने का एक नया कारोबार शु डिग्री करके इन पौधों ने एक नवीन ऊर्जा स्रोत पर टिके एक नए ठीये (Niche) का सृजन किया है।
एक-समान जीवों के समूह की स्थापना में विविधता सदा एक प्रमुख कारक साबित हुई है। इसी प्रकार से कीटभक्षी पौधे भी कई वर्गों में बँटे हैं। इस बात को नीचे दी गई तालिका के रूप में देखने से मदद मिलेगी।

भारत में मांसाहारी पौधे
इस तालिका से हिसाब लगाया जा सकता है कि पृथ्वी पर कीटभक्षी पौधों की लगभग 460 प्रजातियाँ हैं जो मुख्य रूप से कटिबन्धीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं। इनमें उत्तरी अमेरिका, दक्षिण एशिया और ऑस्ट्रेलिया प्रमुख हैं। भारत में मांसाहारी पौधों की जो प्रजातियाँ पाई जाती हैं वे ड्रोसेरा (सनड्यू), पिंगुइकुला (बटरवर्ट्स), नपेंथिस (कुम्भी पादप), तथा अर्टिकुलेरिया (ब्लैडरवर्ट्स) जीनस की हैं। प्रकाशित रिकॉर्ड्स से पता चलता है कि ड्रोसेरा की कम-से-कम तीन प्रजातियाँ, पिंगुइकुला की एक प्रजाति, नपेंथिस की एक प्रजाति और अर्टिकुलेरिया की 34 प्रजातियाँ हमारे देश में मिलती हैं। ये कई तरह के प्राकृत-वासों में उगते हैं - ड्रोसेरा मैदानी क्षेत्रों के फसली मैदानों में तो पिंगुइकुला हिमालय की ऊँचाइयों पर पाया जाता है।

क्लास ज्ञात प्रजातियों की संख्या वितरण 

सरासेनिया (ट्रम्पेट पिचर प्लांट)

लगभग 10

आम तौर पर दक्षिण पूर्वी अमेरिका में पाया जाता है, एक प्रजाति कनाडा में भी पाई जाती है। 

डालिंगटोनिया (केलिफोर्निया पिचर प्लांट)

एक उत्तरी केलिफोर्निया और पड़ोस के ओरेगन राज्य में पाई जाती है। 

हेलिएम्फोरा (दक्षिण अमरीकी पिचर प्लांट)

करीब पाँच आम तौर पर वेनेज़ुएला, गयाना, ब्राज़ील में पाई जाती है।  

नपेंथिस (कटिबन्धीय पिचर प्लांट)

करीब 75 करीब 75

सेफेलोटस (ऑस्ट्रेलियाई पिचर प्लांट)

एक

पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में पाई जाती है। 

डेरोसेरा (सनड्यू)

करीब 100 दुनिया भर में पाई जाती है, खास कर दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में।

डायोनिया (वीनस फ्लाईट्रैप)

एक उत्तरी कैरोलिना के दक्षिण पूर्वी भाग में और पड़ोस के दक्षिण कैरोलिना में पाई जाती है। 


जीनस नपेंथिस

चलिए नपेंथिस जीनस के बारे में थोड़ा और पता करते हैं। इस जीनस के पौधों में विशाल घड़ेनुमा शिकंजा (ट्रैप) पाया जाता है जो मांसाहारी पौधों की हमारी तस्वीर में एकदम फिट बैठता है। इनके शिकंजे 25 से 30 से.मी. तक के हो सकते हैं। यह नपेंथिस कुल का एकमात्र जीनस है। नपेंथिस सम्बन्धी प्रथम अवलोकन एक फ्रांसीसी उपनिवेश के गवर्नर एटिएन डी फ्लाकोर्ट ने रिकॉर्ड किए थे। जीनस को यह नाम लीनियस ने दिया था। उन्होंने यह नाम हेलन ऑफ ट्रॉय द्वारा अपने मेहमानों को नशे में धुत करने के लिए उपयोग किए गए नशीले पदार्थ नपेंथ के नाम पर दिया था। इस जीनस के पौधे लताओं के रूप में पाए जाते हैं। शिकंजे के आकार के आधार पर इन्हें ‘कटिबन्धीय पिचर प्लांट’ के नाम से भी जाना जाता है। कभी-कभी इन्हें ‘मंकी कप’ भी कहते हैं क्योंकि कुछ लोगों का अवलोकन है कि बन्दर इनमें से बारिश का पानी पीते हैं।
नपेंथिस का भौगोलिक वितरण दक्षिण-पूर्व एशिया से लेकर पश्चिम में सेशेल्स और पूर्वी मैडागास्कर तथा दक्षिण में ऑस्ट्रेलिया तक है। वैसे इसकी विविधता का केन्द्र तो दक्षिण पूर्व एशिया ही है। इस जीनस में 100 से ज़्यादा प्रजातियाँ हैं। इनमें घड़े (पिचर) की रचना, पौधे पर घड़े के लगने की स्थिति (ऊपरी घट, निचला घट) में विविधता पाई जाती है। इसके अलावा इस बात में भी काफी विविधता है कि कोई प्रजाति किस ऊँचाई पर पाई जाती है (निचली भूमि की प्रजातियाँ और ऊँचाई की प्रजातियाँ)।
कुछ प्रजातियों की विशेषताओं का विवरण नीचे दिया जा रहा है।

दक्षिण पूर्वी एशिया में नपेंथिस
नपेंथिस खासियाना - यह एक जोखिम-ग्रस्त प्रजाति है। यह मांसाहारी पौधों की एकमात्र प्रजाति है जो सिर्फ भारत में ही पाई जाती है। दूसरे शब्दों में यह भारत में एंडेमिक है। ऐसा माना जाता है कि ये पौधे अपने शिकार को नीली प्रतिदीप्ति (luorescence) से आकर्षित करते हैं। इनके कलश से नीली रोशनी निकलती है जो उन जन्तुओं को दिखाई देती है जो पराबैंगनी प्रकाश देख सकते हैं। इनमें कई कीट भी शामिल हैं। मेघालय के खासी पर्वतों में पाए जाने वाले इस पौधे को स्थानीय लोग ‘तिएव-राकोट’ कहते हैं। इसका अर्थ है - भक्षी पौधे का शैतानी फूल। भारत में पिचर पौधों की यही एकमात्र प्रजाति है और इस पर विलुप्ति का खतरा मण्डरा रहा है।

नपेंथिस एल्बोमार्जिनेटा - इस प्रजाति के कलश के मुँह पर एक सफेद पट्टी होती है जिस पर रोमनुमा रचनाएँ होती हैं। दीमकें भोजन के लालच में इन रचनाओं पर चढ़ जाती हैं और कलश में गिर जाती हैं। इस तरह से यह प्रजाति एक खास किस्म के शिकार की विशेषज्ञ है।
नपेंथिस एम्पुलेरिया - यह प्रजाति अपनी जीनस की अन्य प्रजातियों से बहुत अलग ढंग से विकसित हुई है। इस पौधे के घड़े का मुँह बन्द नहीं होता बल्कि सूखी पत्तियों व टहनियों के लिए खुला रहता है। यह प्रजाति इस मायने में विशिष्ट है कि कीटों की दावत उड़ाने के अलावा यह कचरा-भक्षी भी है - यह पौधों के झड़ते-गिरते पदार्थों से भी पोषण प्राप्त करती है।

नपेंथिस मिराबिलिस - इस प्रजाति का भौगोलिक फैलाव सबसे ज़्यादा है। इसकी पत्तियाँ बहुत बारीक होती हैं। मुँह के आसपास चौड़ा व चपटा पेरिस्टोम (मुँह को घेरे एक संरचना) इसकी विशेषता है।
नपेंथिस डिस्टिलेटोरिया - इस जीनस की यह पहली प्रजाति थी जिसका नामकरण लीनियस के वर्गीकरण के मुताबिक किया गया था। लिहाज़ा, यह इस जीनस की प्रारूपिक प्रजाति है। यह श्रीलंका की स्थानीय प्रजाति है।

खुले व धूपदार नम परिवेश कीटक्षभी पौधों के लिए अनुकूल होते हैं, खास तौर से ऐसे इलाकों में जहाँ मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो और पीएच अम्लीय हो। यह इस समूह की विशेषता है कि ये पोषण के अभाव में फल-फूल सकते हैं। नम चरागाह (meadows) और पीट बॉग (दलदली इलाके) इन पौधों के लिए बढ़िया प्राकृतवास उपलब्ध कराते हैं। अलबत्ता, कुछ प्रजातियाँ मीठे पानी के तालाबों में पाई जाती हैं जबकि कुछ प्रजातियाँ नम, रिसती हुई खड़ी चट्टानों पर चिपकी पाई जाती हैं। इसके अलावा कुछ प्रजातियाँ नम रेत और ऐसी जगहों पर भी पाई गई हैं जहाँ बार-बार आग लगती रहती है।

सक्रिय शिकंजे   निष्क्रिय शिकंजे

सक्रिय शिकंजे
* संवेदनशील ट्रिगर रोम
* चिपचिपे गोंद लगे सिरों वाले रोम (सनड्यू)
* पत्तियों में जुड़वाँ फलक
(वीनस फ्लाईट्रैप)
* फूली हुई थैलियाँ
(ब्लैडरवॉर्ट)

* चिपचिपी सतह वाली चपटी पत्तियाँ (बटरवॉर्ट्स)
* पिटफॉल शिकंजा
(पिचर प्लांट)


अब, जैसे इन्सानों को उनके हुनर के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है, उसी तरह मांसाहारी पौधों को भी इस आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है कि वे अपने शिकार को पकड़ने के लिए किस तरह केशिकंजे यानी ट्रैप का उपयोग करते हैं। कभी-कभी इनके नाम से ही सुराग मिल जाता है जैसे ब्लैडरवॉर्ट नाम से ही पता चल जाता है कि इनमें फूली हुई थैलियाँ (ब्लैडर) होती हैं जो सूक्ष्मजीवों और कीटों को फँसाने का काम करती हैं। फिर भी यह देखना दिलचस्प होगा कि ये कीटभक्षी पौधे कितनी तरह के शिकंजों का इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, ये सारी रचनाएँ पत्तियों के रूपान्तरण हैं। इसके अलावा, शिकार पर प्रभाव की दृष्टि से दो तरह के शिकंजे देखे गए हैं - सक्रिय और निष्क्रिय। इस तरह के वर्गीकरण के लिए नीचे दी गई तालिका देखिए।

पोषण की इस शैली को लेकर वैज्ञानिकों में काफी जिज्ञासा रही है। यही तो उनके शिकंजों और प्राकृतवास के मूल में है। कई प्रयोगों के बाद चार्ल्स डारविन का मत था कि इन पौधों में जन्तुओं के समान तंत्रिका तंत्र होता है जो शिकार की हरकत को भाँप लेता है और इसकी वजह से कोशिका से कोशिका तक आवेगों की एक  ाृंखला शु डिग्री हो जाती है। इसका अंजाम पत्तियों के पूरी तरह बन्द होने और फड़फड़ाते कीट के उनमें कैद हो जाने के रूप में सामने आता है। एक पादप-कार्यिकी विशेषज्ञ एलेक्ज़ेंडर वोल्कोव ने तो वीनस फ्लाईट्रैप को एक ‘विद्युतीय पौधे’ की संज्ञा तक दे डाली। प्रयोगों से यह भी पता चला कि किसी मृत कीट की बजाय किसी जीवित कीट के रोम पत्तियों को बन्द करवाने के आवेग को शु डिग्री करवाने में ज़्यादा कारगर होते हैं। वोल्कोव के प्रयोग से यह भी पता चला कि जब एक बार पत्ती किसी कीट को भाँप लेती है, तो वह बन्द इसलिए होती है क्योंकि पत्तियों की द्रवभरी नलिकाओं में आवेश या आवेग प्रवाहित होता है। यह आवेग कोशिका झिल्लियों पर उपस्थित छिद्रों को खोल देता है। कोशिकाओं के अन्दर से बाहर की ओर पानी के प्रवाह के कारण पत्तियाँ ऐंठकर घुँघराली बन जाती हैं और कीट को अपने अन्दर कैद कर लेती हैं।

कई मांसाहारी पौधों में विशेष ग्रन्थियाँ होती हैं जो कीटों के कठोर बाह्य कंकाल को पचाने में समर्थ एंज़ाइम्स का स्राव करती हैं। विशेष रूप से सज्जित कलश में एंज़ाइम्स का एक मिश्रण और मकरन्द होता है। मकरन्द कीट को आकर्षित करता है और फिर पत्ती/कलश की फिसलनभरी सतह के कारण कीट अन्दर की ओर मौत के शिकंजे में फिसल जाता है। कुछ प्रजातियों में कीट के अन्दर गिरने के बाद कलश का ढक्कन बन्द हो जाता है और साथ ही बन्द हो जाती है कीट की नियति। तदुपरान्त पौधे कीटों के शरीर से नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व अन्य पोषक पदार्थ प्राप्त करते हैं। इसके लिए ये पौधे एक जटिल क्रियाविधि का इस्तेमाल करते हैं जो उन पौधों से अलग होती है जो सौर-ऊर्जा की मदद से अपना भोजन तैयार करते हैं। यह सही है कि नाइट्रोजन व फॉसफोरस की कमी वाले प्रतिकूल पर्यावरण में जीने के लिए इन पौधों में वैकल्पिक पोषण का कार्यक्षम तरीका विकसित हुआ है मगर इसके लिए इस कार्यविधि में खर्च होने वाली ऊर्जा की दृष्टि से यह तरीका काफी महँगा है।

यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि ट्रैप में फँसने वाले कीटों को पचाकर पोषण प्राप्त करने के अलावा ये पौधे प्रकाश-संश्लेषण करने में भी समर्थ होते हैं। मगर सौर-ऊर्जा को कारगर ढंग से सोखने के लिए इनके पास अन्य पौधों के समान चपटी पत्तियाँ नहीं होतीं। लिहाज़ा, यह कहा जा सकता है कि कीटभक्षी पौधे सौर-ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में तब्दील करने में उतने कार्यक्षम नहीं होते। वे अपनी अधिकांश ऊर्जा कीटों को पकड़ने, उन्हें पकड़ने के लिए चिपचिपे रोम, पाचक एंज़ाइम बनाने वगैरह की व्यवस्था के निर्माण में खर्च कर देते हैं। इसका मतलब है कि उनके पास प्रकाश-संश्लेषण हेतु सौर-ऊर्जा के संग्रह की व्यवस्था बनाने के लिए कम ऊर्जा बचती है। फिर भी पोषक तत्वों की कमी वाली मिट्टी में ये पौधे पोषण प्राप्त करने की दृष्टि से सामान्य पौधों की तुलना में फायदे में रहते हैं। इसके अलावा, दलदली बॉग्स में धूप प्रचुर मात्रा में होती है। इसलिए थोड़ी कम क्षमता वाले मांसाहारी पौधे भी प्रकाश-संश्लेषण करके व शिकार पकड़कर मज़े में जी सकते हैं। दरअसल, ये पौधे अपने प्राकृतवास में पोषण की कमी की पूर्ति कीड़े पकड़कर और पचाकर कर लेते हैं जो इनके लिए पूरक आहार का काम करते हैं।

मांसाहारी पौधों में प्रजनन
इन मांसाहारी पौधों में से कुछ अलैंगिक प्रजनन करते हैं, कुछ लैंगिक। एक स्वाभाविक सवाल उभरता है कि उन मांसाहारी पौधों का क्या होता है जो लैंगिक प्रजनन करते हैं और जिनका परागण कीटों के द्वारा होता है। और वास्तव में अधिकांश मांसाहारी पौधों के फूलों को देखकर लगता है कि इनका परागण कीटों द्वारा ही होता होगा। तो ऐसे में वे परागण में मददगार कीटों और भोजन मुहैया करवाने वाले कीटों के बीच भेद कैसे करते हैं? लगता तो यह है कि वे हमेशा यह भेद कर पाने में सफल नहीं होते। कुछ प्रजातियों में परागण-कर्ता कीट भोजन के रूप में पकड़े जाते हैं।

हाँ, कुछ पौधों में ज़रूर इस समस्या से निपटने का अपना तरीका है - फूल और कीट पकड़ने के शिकंजे पौधे के अलग-अलग भागों पर स्थित होते हैं ताकि फूलों पर आने वाले कीटों (जो सम्भावित परागणकर्ता हैं) पर यह खतरा नहीं रहता कि वे पौधे का भोजन बन जाएँगे। ऐसी अटकलें भी लगाई गई हैं कि कुछ मांसाहारी पौधे शिकार को आकर्षित करने और परागणकर्ताओं को आकर्षित करने के लिए अलग-अलग समय पर गन्ध छोड़ते हैं। फूल और ट्रैप एक ही समय पर मोहक गन्ध नहीं छोड़ते। यह भी सम्भव है कि परागणकर्ताओं को पकड़ने वाले पौधों को भोजन के रूप में जो फायदा मिलता है वह परागण में हुए थोड़े नुकसान से ज़्यादा होता है।

आजकल कई जगह मांसाहारी पौधों को सजावटी पौधों की तरह बढ़ावा दिया जा रहा है। इनके समुचित विकास के लिए विशेष रूप से तैयार मिट्टी का उपयोग किया जाता है और तापमान व नमी का खास ध्यान रखना होता है। रोचक बात है कि भारत में अजीबोगरीब पौधों की बागवानी में बढ़ती रुचि के चलते ऐसी विशेष नर्सरियाँ अस्तित्व में आई हैं जो घरों व दफ्तरों को सजाने के लिए मांसाहारी पौधे उपलब्ध करवाती हैं। अब भारत में नपेंथिस खासियाना को ऊतक संवर्धन (टिशू कल्चर) के ज़रिए तैयार किया जा सकता है। देश के उत्तर-पूर्वी इलाकों में इसे एक सजावटी पौधे के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है।

मेघालय में खासी, जैन्तिया और गारो पहाड़ियों (जहाँ यह प्रजाति एंडेमिक है) के आसपास रहने वाली जनजातियाँ इस पौधे को अपने घर के आसपास लगाना पसन्द करती हैं। इससे कीटों पर नियंत्रण रहता है। इसे ‘जैविक कीट नियंत्रण’ कहना अतिशयोक्ति न होगी जिसके तहत परिवेश में कीटों के नियंत्रण के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया जाता है। आम तौर पर हम इस शब्द का उपयोग खेतों में नाशक कीटों के नियंत्रण के सन्दर्भ में करते हैं। क्या यह दिलचस्प नहीं होगा कि कीटभक्षी पौधों का उपयोग उन इलाकों में रोगजनक कीटों के नियंत्रण हेतु किया जाए, जहाँ तापमान व नमी इनकी वृद्धि के लिए अनुकूल हैं? घर की खिड़कियों में, गमलों में या बगीचे में लगे कीटभक्षी पौधे कीटों के लिए जानलेवा साबित होंगे।

भले ही ये पौधे अपने आप में अजूबा हैं या कीट नियंत्रण में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, मगर कई मांसाहारी पौधे संकट में हैं। पर्यावरण में हो रहे बदलावों ने इन पौधों को भी नहीं बख्शा है। दलदली बॉग्स में औद्योगिक अपशिष्ट छोड़े जाने की वजह से वहाँ नाइट्रोजन की मात्रा में तेज़ी से वृद्धि हुई है जो मांसाहारी पौधों के जीवन के लिए जानलेवा साबित हो रही है। इसके अलावा, व्यापारिक मकसद से चोरी भी इनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है। हालात इतने बदतर हैं कि वनस्पति वैज्ञानिक आजकल किसी बिरली प्रजाति के पाए जाने की जगह को गोपनीय रखने लगे हैं। रिहायशी इलाकों के विकास के लिए बॉग्स व चरागाहों को हटाना या भर देना भी मांसाहारी पौधों की संख्या में गिरावट का कारण बन रहा है।


हरिकेश बहादुर सिंह: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान संस्थान के कवक विज्ञान व पादप रोग विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हैं। This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.
ऋचा रघुवंशी: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय में वनस्पति विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.
अमृता सक्सेना: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में शोध छात्र हैं।This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
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