कहानी    भाग-2

ओमा शर्मा  [Hindi PDF, 355 kB]

हम दोनों मनोचिकित्सक डॉक्टर अशोक बैंकर के केबिन के बाहर इन्तज़ार में बैठे हैं। समीरा केबिन के अन्दर है। हम तीनों को साथ अन्दर देखकर शायद वे भाँप गए थे कि मामला क्या है। क्या सचमुच?

‘‘समीरा... आह, योर नेम इज़ सो लवली... लाइक यू... किसने रखा?” मुस्कान छिड़कते हुए वे चहके।
‘‘मम्मा ने,” समीरा सकुचाते हुए फुसफुसाती है।
“सिर्फ मम्मा ने... पापा ने नहीं?” जोश के साथ वह हाज़िर जवाबी दिखाते हैं। अस्पताल में घुसने और एपॉइंटमेंट के बावजूद इन्तज़ार करने से आ चिपकी उबासी को उन्होंने मिलते ही झाड़-पोंछ दिया... जैसे किसी छतनार वृक्ष के नीचे से गुज़रते हुए भी ठण्डक महसूस होती है। निमिष भर को मुझे इसकी पैदाइश के बाद का वह वक्त याद आता है जब हमने उन साझे मार्मिक पलों में अपने नामों, ‘सत्या’ और ‘मीरा’, की सहज सन्धि से इसका नाम ‘समीरा’ सृजित कर लिया था।
“दूसरे का अब क्या नाम रखेंगे?” मैंने मीरा की तरफ कौतुक प्रस्ताव रखा।
“ना बाबा, ना। एक बच्चा बहुत है।”
शायद सिज़ेरियन के टाँके अभी हरे थे।
लेकिन समीरा के तीन बरस का होते-होते हमने तय कर लिया था कि दूसरा बच्चा नहीं करेंगे। जो है उसी को अपना सब कुछ देंगे।
उस फैसले पर कभी पुनर्विचार नहीं किया।

हाँ, कभी इन दिनों ये ज़रूर लगता है कि एक बच्चा ही दूसरे बच्चे की कम्पनी होता है। एक भली-चंगी बच्ची अचानक घुन्ना हो जाए, पढ़ाई-लिखाई पर तवज्जो देने की बजाय इन तथाकथित सोशल नेटवर्किंग साइट्स की गिरफ्त में पड़ जाए और माँ-बाप कुछ कहें तो सीधे खुदकुशी का रास्ता पकड़े तो इससे ज़्यादा कम्युनिकेशन गैप और क्या होगा?

खैर, अब जो भी है, जैसा भी है, सम्भालना है।
एक अच्छे और नामी डॉक्टर की साख में खुशमिज़ाजी कम बड़ी भूमिका नहीं अदा करती होगी।
“ओके। तो समीरा, मुझे वे तीन कारण बताओ ताकि मैं तुम्हारे मम्मी-पापा को शूट कर सकूँ,” नाटकीय गम्भीरता से वह उससे पूछते हैं। साथ में तीन उंगलियों से संकेतार्थ पिस्तौल-सी चलाते हैं।
समीरा समेत हम सबके चेहरे खिल उठते हैं।

“तीन कारण, एक, दो और तीन। बताओ बताओ।” पहले समीरा कुछ हँसकर रह गई थी, जवाब नहीं दिया था इसलिए वह उससे बजिद उगलवाने-सा लगे।
“मेरा मोबाइल ले लिया।”
साहस और संजीदगी से वह पहला कारण बताती है।

“ये एक हो गया। जोशीजी यह आपको नहीं करना चाहिए था। मोबाइल तो इन दिनों ज़रूरी खिलौना है।”
शायद पेशेगत रणनीति के अन्तर्गत उन्होंने निशाना साधते हुए जोड़ा।
“लिया नहीं डॉकसाब, बस रात को अलग रखने को कहा है।” मैं बड़े ताव से अपनी बात कहता हूँ - जैसे कोई फैमिली कोर्ट लगी हो।
“मगर क्यों?” वह ज़ोर देकर कहते हैं, मानो समीरा के पेरोकार हों।

समीरा के चेहरे पर एक मीठी जीत उभर आई है।
“क्योंकि यह देर रात तक बीबीएम पर रहती है।”
“ब्लैकबेरी है इसके पास?” वह थोड़ा चौंककर पूछते हैं। उसके विज्ञापन ‘इट्स नॉट ए फोन, इट्स व्हाट यू आर’ का असर दिख रहा है।
“क्या करते? इसकी ज़िद थी... कि सारे फ्रेंड के पास है।”
मेरी मजबूरी को अनसुना करते हुए वह फिर समीरा की तरफ हो लिए।

“ये तो बड़ी अच्छी बात है। मैं भी बीबीएम पर हूँ। इट्स ए ग्रेट फैसिलिटी। मैं तुम्हें अपना पिन दे दूँगा समीरा। विल यू बीबीएम मी?”
मित्र होते जा रहे डॉक्टर की बात का वह हामी में गर्दन हिलाकर जवाब देती है।
“सो, दैट्स वन, समीरा... टेल मी टू अदर रीज़न्स टू शूट देम...”
इस पर समीरा की पुतलियाँ संकोच में हमारी तरफ घूमकर लौट जाती हैं।

डॉक्टर बैंकर ने बाकायदा लक्ष्य किया।
“मैं और समीरा ज़रा अकेले बतियाएँगे... इफ यू डोंट माइंड...” उन्होंने इरादतन हमें बाहर जाने का इशारा किया।
“ज़रूर, ज़रूर,” कहकर मीरा और मैं बाहर आ गए।

बाहर डॉक्टर बैंकर से मिलने वाले मरीज़ों की अच्छी खासी कतार है। साइकैट्रिक वॉर्ड रूप-रस-गन्ध, हर लिहाज़ से दूसरों से कितना अलग होता है। हमारे बाद नौ-दस लोग और होंगे। शाम के सात बज रहे हैं। चमकती आँखोंवाली जो अधेड़ औरत हमसे पहले अन्दर गई थी - वही जो साथ आए पुरुष के साथ तगड़ी बहस करने में लगी थी - पूरे पौने घण्टे के बाद बाहर निकली। इस हिसाब से तो डॉक्टर को घर जाने में ग्यारह बजेंगे। इस इलाके में जल्दी नहीं चलेगी। एक चालीस छूती गृहस्थिन है, थोड़ी थुलथुल, स्लीव-लेस में, खासी ग्लॉसी लिपिस्टिक पोते। चेहरे की हवाइयाँ-सी उड़ी हुई एक आधुनिक-सी युवती है... गोरी, पतली, थ्री-फोर्थ चिपकाए, कई जगह से कान छिदाए। एक अपेक्षाकृत निम्न मध्यवर्गीय जोड़ा है। इन्हें भी यहाँ आना पड़ गया? कतार में बच्चा सिर्फ एक और है, अपने पिता के साथ। होगा कोई चक्कर। पहले साइकैट्रिस्ट के पास जाने का मतलब था पागलपन का इलाज कराना। अब तो चीज़ें बदल रही हैं। हालाँकि, एक बेनाम पोशीदगी अभी भी खूब भटकती-फिरती है। उस दिन कोई बता रहा था कि मेडिसिन में इन दिनों साइकैट्री और न्यूरोलॉजी टॉप पर चल रही हैं। अमरीका में तो सबसे ज़्यादा माँग इन्हीं लोगों की है।

“तुमसे तो यह पहले काफी बातें कर लेती थी, अब नहीं करती है?” मैं थोड़ा ऊँघते हुए मीरा की तरफ एक बात-सी रखता हूँ।
वह ‘हूँ’-सा कुछ कहती है।
मतलब, किसी गैर-ज़रूरी-से सवाल का क्या जवाब देना!
हो सकता है उस माहौल को देखकर उसके भीतर कोई उधेड़बुन शु डिग्री हो गई हो।
“टीचर्स को हमें पहले बताना चाहिए था। मुझे लगता है पेज-थ्री वाले परिवारों के बच्चों की संगत का असर है। अपने बिगड़ैल माँ-बाप की तरह वे भी बड़े ऐबखोर होते हैं... गन्दगी को इतनी नज़दीकी से रोज़ जो देखते हैं... दोस्तों के बीच उनके बच्चे माँ-बाप को ‘दैट वूमन-दैट मैन’ जैसा कहकर बात करते ज़रा नहीं हिचकते हैं...”
वह फिर चुप रहती है।
“अरे, ऐसा क्या हो गया अभी?”

मक्खी मारता-सा मैं अपनी नज़र सामने टंगे टीवी पर लगाता हूँ जिस पर सत्तर के दशक की कोई हिन्दी फिल्म चल रही है... लॉकेट, कार रेस, बेलबॉटम और मल्टी हीरो-हीरोइनें। एक अन्तराल के बाद स्मृति के रास्ते साधारण चीज़ें भी कैसा चुम्बकीय आकर्षण फेंकने लगती हैं। क्या इसी को साधारणता का रोमांस कहेंगे... एक ऐसी साधारणता जिसमें ऐसी दुर्निवार जटिलताएँ नदारद कि अपने ज़रा-से बच्चे से आप खुलकर बात तक न कर पाएँ... उसे लेकर आप सोचते रहते हैं, रणनीति बनाते हैं, परेशान होते रहते हैं मगर कर कुछ नहीं पा रहे होते हैं। उसकी हर नाकाबिले-बरदाश्त चीज़ को सहनीय मान लेते हैं... किसी अपने के साथ एक लाचार दूरी के निर्वात में फँसना कैसा दमघोंटू होता है!
कुछ देर बाद मुस्कराते हुए समीरा बाहर निकली और हमें अन्दर जाने का इशारा किया। दरवाज़ा भेड़कर सम्भलते हुए हम डॉक्टर के सामने बैठे और धड़कती उतावली में वस्तुस्थिति जाननी चाही।

“इट्स प्रैटी बैड!” उन्होंने खासे रूखेपन के साथ कोई तमाचा-सा जड़ दिया।
“पता नहीं डॉकसाब। दो साल पहले तक तो सब ठीक-ठाक था। उसके बाद इसके रवैए में बहुत बदलाव आ गया...”
“अरे मैं कुछ पूछ रहा हूँ और आप कुछ और बता रहे हैं,” उन्होंने टोका।
लगा, जैसे ईशान अवस्थी (तारे ज़मीन पर) के पिता के बतौर मैं निकम सर से मुखातिब हो गया हूँ।
“ऐसा तो कुछ नहीं हुआ कि इसे वह सब करना पड़े जो यह करने की धमकी देती है,” मीरा ने शाइस्तगी से बात जोड़ी।
“देखिए मिसिज़ जोशी, यह तो सोचने-सोचने की बात है। जो बच्चे वैसा करते हैं, उनके माँ-बाप भी अपनी निगाह में वैसा कुछ नहीं करते-कहते कि बच्चे को वह कदम उठाना पड़े जो वह उठा लेता है...”

उनकी बात से हामी भरते हुए हम चुप बने रहे।
“कल के अलावा पहले भी यह तीन बार कोशिश कर चुकी है।”
“तीन!”
हम दोनों विस्मय-से काँप उठते हैं। एक सम्भावित त्रासदी से ज़्यादा उसके जीवन से बेदखल और फिज़ूल होते अपने जीवन की त्रासदी से। दिन-रात उसकी खुशी के लिए खाक होते हम जैसे कुछ नहीं...एक अनजान डॉक्टर ज़्यादा भरोसेमन्द हो गया। चलो, ये भी ठीक!
“हाँ, तीन बार। लेकिन आप लोग उससे इस बाबत कोई बात नहीं करेंगे - अगर उसका भला चाहते हैं तो।” उनके लहज़े में संगीन हिदायत है। ‘तो’ को उन्होंने ज़ोर देकर स्पष्ट किया।

“नहीं करेंगे... लेकिन डॉकसाब हम क्या करें? पूरी छूट दे रखी है। शायद थोड़ी कम देते तो यह नौबत न आती। इंग्लिश म्यूज़िक, रोडीज़ और फेसबुक की यह ऐसी एडिक्ट हो गई है कि पढ़ना-लिखना तो छोड़िए खाना-पीना तक निगलैक्ट करती है। एक बात नहीं सुनती।”
“नथिंग अनयुज़्अल इन दैट।” वह किसी परमज्ञानी की तरह मेरा मन्तव्य समझकर मुझे रोकते हैं और कहते हैं, “टेक्नोलॉजी ने हमारे समाज में इन दिनों बड़ा तहस-नहस मचाया हुआ है। आप और हम इस संक्रामक बीमारी से बचे हुए हैं तो अपनी नाकाबिलीयत के कारण। ये लोग जिन्हें हम यंग अडल्ट्स कहते हैं, बहुत सक्षम हैं... ये टेक्नोलॉजी की हर सम्भावना को छूना चाहते हैं... बिना ये जाने-समझे कि उससे क्या होगा। आपकी बच्ची अलग नहीं है। मेरे पास आने वाले दस टीनेज पेशेन्ट्स में से आठ इसी से मिले-जुले होते हैं...”
“क्या करें डॉकसाब? मिडिल क्लास लोग हैं हम... लड़की का अपने पैरों पर खड़े होना कितना ज़रूरी है...” एक तबील अनकही के बीच हाँफता-सा मैं जैसे अपनी चिन्ताओं का अर्क उन्हें सौंपने लगता हूँ।

“नॉट टू वरी जोशी जी। ये बिलकुल ठीक हो जाएगी। शी विल बी ऑॅलराइट शॉर्टली।” हमें उबारते हुए वह अपने लैटर हैड पर फ्लूडैक (फ्लैक्सोटिन) का प्रिस्क्रिप्शन लिखते हैं जिसे दोपहर खाने के बाद लेना है। थायोराइड सहित दो-चार टैस्ट कराने होंगे और एक काउंसलर, कोई तनाज़ पार्डीवाला, का मोबाइल नम्बर लिखते हैं। हमारे भीतर उगते शंकालु भावों को भाँपते हुए वह कहते हैं, “द सिरप इज़ जस्ट ए मूड एलिवेटर... आजकल इस उम्र के बच्चों में विटामिन डी-थ्री की कमी बहुत हो रही है... टीवी-कंप्यूटर पर लगे रहने से... आई जस्ट वांट टू रूल आउट दैट... पार्डीवाला बहुत अच्छी साइकोथेरेपिस्ट हैं।” उन्होंने बताया कि वह समीरा के फेसबुक फ्रेंड बनने वाले हैं... टू पीप इन्टू हर रीयल माइंडसेट... बीबीएम है ही...।
हमारा दिल अचानक आश्वस्त होने लगा है, मियाँ की जूती मियाँ के सिर वाले अन्दाज़ में। तभी उन्होंने बाहर बैठी समीरा को अन्दर बुलाया और बात का सन्दर्भ और लहज़ा बदल कर घोषणा-सी करते बोले, “एक्चुअली, समीरा बहुत टेलेंटड लड़की है, और बेहद स्वीट भी।” उन्होंने अपनी बात यूँ रखी मानो अभी तक की जा रही हमारी गुफ्तगू का वह लब्बोलुआब हो। मैं उनकी जादुई हौसला अफज़ाई का असर देख रहा हूँ।
“शी इज़ ए जैम डॉकसाब बट...,” बैंकर की राय के समर्थन में परन्तु खोंपते ही मीरा का गला भर्रा उठा और फौरन से पेश्तर वह फफक भी पड़ी। मैं हक्का-बक्का था मगर समीरा ने लपककर उसे पकड़ लिया और कातर मासूमियत से धीमे-से बोली, “मम्मा, क्या हुआ?”
गनीमत रही कि मीरा ने खुद को बिखरने नहीं दिया।

ये जो दुनिया है, वही जिसे हम रोज़ गाली देते हैं, दरअसल उतनी खराब है नहीं, जितनी हम कभी सोचने लगते हैं। पता लगा कि पार्डीवाला और डॉक्टर बैंकर, दोनों समीरा की फेसबुक पर हैं। आपस में बीबीएम करते रहते हैं। यानी वही सब जिसने एक बीमारी की तरह समीरा को घेर रखा था, उसके ओनों-कोनों में झाँकने की पगडण्डियाँ बने हुए हैं। किसी आम अविवाहित पारसी की तरह पार्डीवाला थोड़ी खब्ती लगती हैं लेकिन अपने काम में हैं बड़ी पेशेवर। पहले मीरा से एक के बाद एक ई-मेल लिखवाए, कुछ बिन्दुओं पर स्पष्टीकरण लिए। पूरी जन्मपत्री चाहिए थी उन्हें समीरा की... कब कहाँ कैसे पैदा हुई, नॉर्मल या सिज़ेरियन, गर्भकाल कैसा था, समीरा की पसन्द-नापसन्द, एनी हिस्ट्री ऑॅफ डिप्रेशन इन फैमिली, परिवार में किसके साथ अटैच्ड है, दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-मौसी के साथ कितनी घुली-मिली है, एनी नोन (known) एपिसोड ऑॅफ एब्यूज़, दोस्त कौन हैं, उनके परिवार और माँ-पिता की मुख्तसर जानकारी, हमारा किन लोगों के साथ उठना-बैठना रहता है, पिता के बिज़नेस की स्थिति और उसमें आते उतार-चढ़ाव। यानी उन्हें एक-से-एक ज़रूरी-गैर-ज़रूरी तफसील चाहिए थी। कभी तो लगा कि तफसीलों के अम्बार में कुछ इस्तेमाल भी होगा या यह सब उलझाने और टाइम-पास करने के लिए है। कहीं पढ़ा था मैंने कि समस्या के बारे में बोल-बतियाकर उससे आधी निजात तो आप वैसे ही पा लेते हैं।

यहाँ पता नहीं क्या चल रहा है।
खैर, कर भी क्या सकते हैं!
पार्डीवाला खूब बहुरूपनी हैं। समीरा के साथ छह-सात सैशन कर चुकी हैं। क्या होता है उन दोनों के बीच वह न समीरा हमें बताती है और न पार्डीवाला। समीरा उनके पास से लौटकर बड़ी खुश दिखती है। बीबीएम से ही एपॉइन्टमेंट होता है और समीरा को वहाँ छुड़वा दिया जाता है। होमवर्क के तौर पर समीरा को ई-मेल भेजने होते हैं जिनकी विषय-वस्तु से हमें कोई सरोकार नहीं रखना होता है। यहाँ तक तो ठीक है मगर अब यही बात मीरा और पार्डीवाला के बीच चल रहे संचारण पर भी लागू होने लगी है। डॉ. बैंकर और पार्डीवाला समीरा से जुड़ी बातों को लेकर तब्सरा करते रहते हैं। आखिर हम सबका मकसद तो वही है। समीरा की हालत में कथित तौर पर सुधार हो रहा है हालाँकि, आदत से मजबूर मैं रात को उठकर समीरा के कमरे में झाँक लेता हूँ कि ठीक-ठाक सो तो रही है या कुछ...। वैसे इसके मायने क्या समझे जाएँ कि मैं उसके साथ ज़्यादा क्या, बिलकुल भी टोका-टाकी न करूँ!
“बिगड़ने दूँ?” तक का भी जवाब सपाट ‘हाँ’ है।
मामला नाज़ुक है। सब्र से काम लेना पड़ेगा।
उतरती दोपहरी को कुछ अप्रवासी निवेशकों के साथ एक कम्पनी की विस्तार योजनाओं पर मशवरा कर रहा था कि डॉक्टर बैंकर के फोन को देखकर चौंक पड़ा।

दो महीने के वकफे में मेरा फोन शायद उन्होंने पहली बार बजाया था।
“सत्यपाल जी, आप शाम को छह बजे आ सकते हैं मेरे पास?” इधर-उधर की कोई बात किए बगैर उन्होंने पूछा।
“ज़रूर डॉकसाब ज़रूर... मगर आज छह बजे तो समीरा की डाँस क्लास है।”
“आई नो दैट। मगर सिर्फ आपको आना है। मीराजी की भी ज़रूरत नहीं है। ओके।”

डॉक्टरों की यह पेशेवर इन्सानियत वाली अदा मुझे अच्छी लगती है। उनके सुलूक में आपको कभी रूखेपन की बू आ सकती है मगर अमलन वह आपकी समस्या को सम्बोधित रहते हैं। यह नहीं कि किसी राहगीर की तरह ऊपर-ऊपर से हमदर्दी के आँसू बहा लो मगर करो कुछ नहीं और चलते बनो। कॉलेज में जब पढ़ता था तो इस थीम के आसपास किसी यूरोपियन लेखक की किताब भी पढ़ी थी। अब तो कम्पनियों के ट्रायल बैलेंस और फायनैंशियल्स ही पढ़ता हूँ। मुझे तो डॉक्टर बैंकर का काम बड़ा पसन्द है। समीरा भी उनके साथ ऐसी हिल-मिल गई है कि एक दिन अपनी मम्मी से पूछ रही थी कि साइकैट्रिस्ट बनने के लिए क्या करना पड़ता है। जब बताया तो उसने कहा कि इससे अच्छा तो फिर कांउसलर बनना है... काम वही और मेहनत कम। जो भी है, कम-से-कम कुछ तो अब वह सोचने लगी है... कि क्या करना है... या यह कि कुछ करना भी चाहिए... वरना अभी तो हमें उसके बारे में सोचना तक गुनाह था। हमारी किसी भी सीख-तज़वीज़ पर जब देखो तब ‘चिल’ कहकर पल्लू झाड़ लेती है।

यही सब सोचते हुए जब डॉक्टर बैंकर के यहाँ पहुँचा तो सुखद आश्चर्य यही लगा कि ज़्यादा भीड़ नहीं थी। उनकी रिसेप्शनिस्ट ने ‘अब’ और ‘अभी’ के बम्बइया गठजोड़ से बने ‘अबी’ का तड़का मारते हुए बताया कि डॉकसाब मुझे याद कर रहे थे।
उनके सामने पेश होते ही उनके मुस्कुराते चेहरे को देख मेरे भीतर किसी गुप्त ऊर्जा का संचरण हो गया।
“कैसे हैं जोशीजी?” प्लास्टिक की पतली-सी फाइल में पाँच-सात कागज़ों को रखते हुए उन्होंने पूछा।
“अच्छा हूँ डॉकसाब।”

“समीरा कैसी है?”
“कहीं बेहतर... वैसे आप ज़्यादा जानते होंगे,” मैं डरते-सकुचाते मामले को उन्हीं की तरफ बढ़ा देता हूँ।
“आई थिंक शी इज़ रिस्पोंडिंग वैल... बट व्हाट ए सेंसिटिव चाइल्ड शी इज़...”
मैं थोड़ा चकराया।
“दो साल पहले आपका बिज़नेस कैसा चल रहा था मिस्टर जोशी?” वह सशंकित भाव से लफ्ज़ों को चबा-चबाकर बोलने लगे।
“ठीक ही था... ग्लोबल मेल्टडाउन का दौर था, सो थोड़ी मन्दी तो सबकी तरह हमने भी झेली मगर टचवुड, ज़्यादा कुछ नहीं हुआ...”
“हाँ, ज़्यादा कुछ तो नहीं हुआ मगर जो हुआ वह क्या कम था...”
उनकी बातों के मानी कहाँ-से-कहाँ छलाँग मार गए। मैं जानता था वह मुझे कहाँ ज़ीरो-इन कर रहे हैं।
उनके तौर-तरीके में एक गरिमापूर्ण मिलावट ज़रूर थी मगर इरादे में एक बेहिचक साफगोई भी थी।
मुझसे कुछ कहते ही नहीं बन पड़ रहा था।

और वह आगे ज़रा भी कुरेदने की नीयत नहीं रखते थे।
उस लज्जास्पद खामोशी के बीच मुझे गहरी लम्बी साँस आई तो मैंने उनसे एक घूँट पानी की दरकार की।
पानी निगला।
“बट व्हाई, जोशीजी? यू हैव सच ए ब्यूटीफुल फैमिली...”
यह इंजेक्शन देने से पहले स्प्रिट लगाने से कुछ आगे की बात थी।
“मीरा ने कुछ कहा आपसे?”
मेरा अविश्वास किसी टुच्चे गुनाह की तरह बगलें झाँकने लगा।
“बिलकुल नहीं... नॉट ए श्रेड,” उन्होंने मुँह बिचकाकर कहा और फिर बोले, “और हाँ... आइंदा यह मत समझिए कि वह छोटी बच्ची है... मोबाइलों की कान-उमेठी करने में वह हम-आपसे कहीं आगे वाली जनरेशन की है... आपके उस चैप्टर ने उसे गहरे से झिंझोड़ा है...”
मैं उन्हें देखते हुए सुन रहा था या सुनते हुए देख रहा था, नहीं मालूम।
वह अन्तराल दे देकर बोल रहे थे।

मैं मंत्रविद्ध-सा था...कि कोई दाग कहाँ जाकर इन्तकाम ले बैठता है...?
“हैट्स ऑॅफ टू दैट एंजल... बहुत सम्भाला है उसने अपने आपको...” वह चबाते-सोचते पता नहीं क्या-क्या कहे जा रहे थे।
जैसा उन्होंने तभी बताया कि शाम सात बजे उन्हें टीन-एज डिप्रेशन पर होने वाले एक सेमिनार में जाना था... कुछ नए नतीजों को सम्बन्धित लोगों से साझा करने।
मुझे पस्त और बोझिल देख वह मेरे पास आए और किसी मसीहा की तरह कन्धे पर हाथ रखकर बोले, “यू हैव कम आउट ऑॅफ इट... दिस इज़ द बेस्ट पार्ट ऑॅफ इट। बट शी हैज़ नॉट!”
उनके जाने के बाद मैंने गौर किया कि मेरे आसपास कितना अँधेरा मण्डरा चुका था।
उस पल मैंने एक मुलायम छौने का यकायक बिल्ली हो जाना महसूस किया।
लुटा-निचुड़ा-सा मैं गाड़ी में आ बैठा हूँ। स्टार्ट करने की ऊर्जा नहीं बची है। बस सोचे जा रहा हूँ कि... बिल्ली को छौने की मुलायमियत कैसे लौटाई जा सकेगी?


ओमा शर्मा: कमिश्नर, आयकर विभाग। हिन्दी के युवा लेखक हैं। मुम्बई में रहते हैं। कथाकार को उनकी कहानी ‘दुश्मन मेमना’ के लिए वर्ष 2012 के ‘रमाकान्त स्मृति’ सम्मान से नवाज़ा गया है। अँग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद भी करते हैं।
सभी चित्र: अनुपम रॉय: अम्बेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली से चित्रकारी में एम.ए. कर रहे हैं। शौकिया चित्रकार हैं।