लेखक: कीर्ति जयराम  [Hindi PDF, 172 kB]
अनुवाद: योगेन्द्र दत्त   

भाग-2   
बच्चों को अर्थपूर्ण तरीकों से पढ़ने की प्रक्रिया से जोड़ने के लिए हमें यह समझना चाहिए कि पढ़ने से पहले, पढ़ने के दौरान और पढ़ने के बाद हम कई ऐसी चीज़ें कर सकते हैं जो बच्चों को सक्रिय, उद्देश्यपूर्वक और सार्थक ढंग से पढ़ने में मदद दे सकती हैं। इन्हें समझ से पढ़ने की रणनीतियाँ (comprehension strategies) कहा जाता है। इनके प्रयोग से बच्चों को सक्रिय रूप से समझ से पढ़ने की विविध रणनीतियों का इस्तेमाल करना सिखाया जाता है। शोधकार्य द्वारा यह साबित किया गया है कि ये रणनीतियाँ पठन सामग्री की समझ बढ़ाने के लिए बहुत फायदेमन्द हैं। हमारे देश में अधिकतर बच्चे यांत्रिक रूप से और बिना समझ के पढ़ते पाए गए हैं। इसलिए हमें चिन्तन करने की आवश्यकता है कि इन रणनीतियों का उपयोग हम अपने सन्दर्भ में कैसे करेंगे।

इन तरीकों से पाठकों को किसी पाठ के साथ ज़्यादा गहराई से और सोच-समझ कर जुड़ने में काफी मदद मिलती है। अध्यापक भी चाहें तो ऐसे तरीकों की तलाश कर सकते हैं जिनसे शब्दों के स्तर पर या पाठ के स्तर पर समझने की क्षमता विकसित करने में मदद मिलती है।

पढ़ने से पहले की रणनीतियाँ 

पढ़ने का उद्देश्य तय करें
बच्चे किसी पाठ या कहानी को पढ़ना शु डिग्री करें, इससे पहले उन्हें यह सोचने में मदद की जा सकती है कि वेे क्यों पढ़ रहे हैं। हर बच्चे को यह बात अच्छी तरह समझ में आनी चाहिए। इससे उन्हें उस पाठ को ज़्यादा दिलचस्पी के साथ और ध्यान से पढ़ने में मदद मिलती है। शुरुआत में अध्यापकों को खुद पढ़ने का एक उद्देश्य तय करना चाहिए और उसे स्पष्ट रूप से बच्चों को बताना चाहिए ताकि धीरे-धीरे वे स्वयं ही अपने पढ़ने के उद्देश्य तय करना सीख जाएँ। उसके लिए बच्चों से ऐसे कुछ सवाल पूछे जा सकते हैं:
* क्या तुम यह जानने के लिए पढ़ रहे हो कि इस कहानी में क्या होता है?
* क्या तुम यह देखने के लिए पढ़ रहे हो कि यह कहानी तुम्हारे अनुभवों या भावनाओं से जुड़ी हुई है या नहीं?
* क्या तुम खास जानकारियाँ हासिल करने के लिए पढ़ रहे हो?
* क्या तुम लेखक द्वारा दिए गए ब्यौरों का मज़ा लेेने के लिए पढ़ना चाहते हो?
* क्या तुम पढ़ने के बाद कोई अभ्यास या टास्क पूरा करने के लिए पढ़ना चाहते हो?
इसके अलावा भी पढ़ने की बहुत सारी वजहें हो सकती हैं।

पाठ (संरचना) पर नज़र डालना
बच्चे पढ़ना शुरू करें, उससे पहले उन्हें उस लेख के शीर्षक, तस्वीरों, विषय सूची, रेखाचित्रों, चित्रों के नीचे लिखे कैप्शन्स, शीर्षकों, गाढ़े अक्षरों, मुख्य शब्दों और अन्य चित्रात्मक चीज़ों को अच्छी तरह देखना चाहिए। विशेषतौर से जब बच्चे कोई जानकारी-युक्त पाठ पढ़ते हैं तो इन सब से बहुत मदद मिलती है। छोटे बच्चे तेज़ी से यह बात सीख लेते हैं कि पाठ संरचना का जायज़ा लेने से उन्हें उसकी विषयवस्तु को जानने में मदद मिलती है। इससे उन्हें यह पता लगाने में भी मदद मिलती है कि उस लेख में कौन-सी जानकारी कहाँ मिल सकती है। अगर वे कोई कहानी पढ़ रहे हैं तो उसकी बुनावट या तस्वीरों को देखने से उन्हें कहानी को सुनाने में काफी मदद मिलेगी।

अपने पूर्वज्ञान को सक्रिय करना
सामान्य पाठक लिखे हुए शब्दों को अपने अनुभवों और ज्ञान के साथ जोड़ कर ही उसका अर्थ गढ़ते हैं। सबसे पहले बच्चों को यह समझाना फायदेमन्द रहता है कि जब हम पढ़ी जा रही चीज़ को अपनी पहले की जानकारियों और समझ के साथ जोड़ते हैं तो इससे हमारी समझदारी में कितना इज़ाफा होता है। उन्हें इस बारे में सोचने के लिए प्रोत्साहित करें कि वे जो चीज़ पढ़ने जा रहे हैं, उसके बारे में या उससे मिलती-जुलती चीज़ों के बारे में वे पहले से क्या जानते हैं और उससे जुड़े विभिन्न प्रकार के शब्दों और अर्थों के बारे में उनकी जानकारी कितनी है। पृष्ठभूमि ज्ञान को सक्रिय करने के लिए अध्यापक बच्चों से इस तरह के सवाल पूछ सकते हैं: “तुम ... के बारे में क्या जानते हो?”, “यह तुम्हें किस चीज़ की याद दिलाता है?” या “क्या तुमने पहले भी कभी यह शब्द पढ़ा या सुना है?”, “तुम्हारे हिसाब से... का क्या मतलब है?”
पढ़ने से पहले इस तरह की चर्चा या सोच-विचार से ऐसे बच्चों को भी काफी मदद मिलती है जिनके पास उस विषय के बारे में पहले से कोई जानकारी नहीं है। इस चर्चा में उन्हें दूसरे बच्चों की बातें सुनकर नया ज्ञान मिलता है और इस तरह उनके लिए भी उस लेख को समझना आसान हो जाता है।

अन्दाज़ा लगाना
बच्चों से यह सोचने के लिए कहा जा सकता है कि आगे कहानी में क्या कुछ हो सकता है, कौन-से शब्दों का इस्तेमाल हो सकता है, या लेख के शीर्षक से उन्हें क्या लगता है कि उसमें किस तरह की जानकारियाँ होंगी आदि। बाद में जब वे पढ़ने लगें तो उन्हें यह जाँचने के लिए कहें कि उनका अन्दाज़ा सही निकला या नहीं। बच्चों को ध्यानपूर्वक पढ़ने की आदत सिखाने के लिए यह एक बहुत ही उपयोगी रणनीति है।

सवाल पूछना
बच्चों को किताब या कहानी के शीर्षक, कवर पेज और तस्वीरों को ध्यान से देखने के लिए कहा जा सकता है। इसके बाद इनसे जुड़े मन में उठ रहे सवाल पूछने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया जाता है। बेहतर यह है कि वे इन सवालों को या तो कहीं लिख लें या उन्हें अच्छी तरह दिमाग में सुरक्षित कर लें और फिर पढ़ते समय देखें कि उनके क्या जवाब मिलते हैं।

पढ़ते समय की रणनीतियाँ

शब्दों की बुनावट और अर्थ
बच्चों को अकेले या जोड़ों में पढ़ते समय अनजाने या कठिन शब्दों को पहचानने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। पढ़ने के साथ-साथ वे ऐसे शब्दों के नीचे लकीर खींच सकते हैं। अगले दिन उन्हें इन शब्दों को गौर से पढ़ने और समझने के लिए मदद दी जाती है। पहले उन्हें शब्द के अलग-अलग हिस्सों का उच्चारण सिखाया जाता है और फिर इन्हें आपस में जोड़कर पूरे शब्द को पढ़ना। शब्दों को समझते हुए पढ़ने के लिए प्रवाह बहुत आवश्यक होता है। फिर बच्चों को उनके द्वारा रेखांकित शब्द का अर्थ स्वयं खोजने में मदद दी जाती है। वे वाक्य में दिए गए दूसरे शब्दों के आधार पर अनजान शब्दों का अर्थ समझने की कोशिश करते हैं। उन्हें अपने दिमाग में सूझ रहे अर्थों को जाँचने में मदद देने के लिए शिक्षक कुछ इस तरह के सवाल पूछ सकते हैं: “क्या यह शब्द यहाँ सही लग रहा है? इससे वाक्य का क्या अर्थ स्पष्ट हो रहा है?” बच्चों के लिए अहम बात यह है कि वे अनजान शब्दों को पहचानने और उनका अर्थ जानने की पूरी समस्या-समाधान प्रक्रिया में सक्रिय हिस्सेदार बनें। यह ज़रूरी है कि इस तरह की शब्द अध्ययन की रणनीतियों का उपयोग पाठकों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए शिक्षिका द्वारा कराया जाए। हर बार कराने से यह एक नीरस, बेजान और यांत्रिक प्रक्रिया बन सकती है।

अन्दाज़ा लगाना और उसकी पुष्टि
पढ़ने के दौरान समय-समय पर ठहर कर बच्चों को इस तरह के सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है: “अब आगे क्या पढ़ने को मिलेगा?”, “मेरे खयाल से अब क्या होने वाला है?”, “ऐसा क्यों हुआ है?” या “क्या मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल रहे हैं?”
जब बच्चे पढ़ रहे हों तो उनके अब तक के अन्दाज़ों को वे जाँचते हैं जिससे यह पता लग सके कि कौन से अन्दाज़े सही निकले और कौन से सही नहीं रहे। वे एक-दूसरे के अन्दाज़ों को भी जाँचते हैं। इससे लिखित सामग्री में उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी; वे एक-दूसरे की अलग-अलग सोच से परिचित होते हैं और साथ में वे ज़्यादा गौर से पढ़ने लगते हैं।

कल्पना करना
बच्चों को कोई कहानी पढ़कर सुनाते समय बीच में किसी रोचक बात पर रुककर शिक्षक बच्चों से पूछ सकतेे हैं कि उस कहानी के बारे में उनके दिमाग में क्या चल रहा है या कौन-सी तस्वीरें बन रही हैं। पढ़ने के पश्चात् उनकी दिमाग की नज़र से दिखाई दे रही चीज़ों की तस्वीर बनाने और एक-दूसरे की तस्वीरों की तुलना करने के लिए भी कह सकते हैं। बच्चों से अपनी भावनाओं और सोच पर चर्चा करने के लिए भी कहा जा सकता है। इस तरह कल्पनाएँ करने से बच्चों को उन चीज़ों के साथ और गहरे सम्बन्ध बनाने में मदद मिलती है जिनके बारे में वे पढ़ रहे हैं। उनसे कल्पना करते हुए अपनी अलग-अलग इन्द्रियों का प्रयोग करने के लिए कहा जा सकता है -- आपको मन में क्या दिख रहा है? कैसा महसूस हो रहा है? किस तरह की खुशबू आ रही है? सही समय पर इस प्रकार के सवाल पूछकर कहानी, कविता या चित्र-पुस्तक आदि को पढ़ते समय बच्चों के लिए जीवन्त बनाया जाता है। कल्पनाशीलता का बहुत असरदार ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। परन्तु यह ध्यान में रखा जाए कि किसी भी रणनीति का उपयोग इतना बार-बार न किया जाए, जिससे वह बच्चों के लिए बोरियत पैदा करने लगे।

आगे बढ़ना, पढ़ते रहना, पीछे लौटना
बच्चों के समझते हुए पढ़ने के सामर्थ्य में सुधार लाने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें पढ़ते समय अपने ऊपर नज़र रखना सिखाया जाए ताकि वे रह-रहकर खुद पूछते रहें कि “मैं जो कुछ पढ़ रही हूँ, उसका कोई मतलब निकल रहा है या नहीं?” बच्चों को यह बात समझ में आनी चाहिए कि जब उन्हें कोई सामग्री बेतुकी दिखाई देती है तो वे क्या कर सकते हैं। अगर उन्हें कोई शब्द समझ में नहीं आ रहा है तो उसे ऊँची आवाज़ में बोल कर देख सकते हैं। या, जहाँ उन्हें भ्रम हो रहा है उस हिस्से को वे दोबारा पढ़ सकते हैं। इस तरह, जब वे समस्या को पहचान लें तो उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि अब उन्हें समस्या से निपटने के लिए क्या करना है (जैसे, समस्याप्रद शब्दों को दोबारा बोलने की कोशिश करना या दोबारा पढ़ना)।

अलीबाबा चालीस चौर

हमें अछी लगी जो सुरंग कि मंत्र से खुलती है छोटे भाई सुरंग कि बात बड़े भाई को बता देते है जिसे वो सुरंग के अदर चालीस चौर के हाथो मारा जाता है क्यों कि अली बाबा का बड़ा भाई लालची था उस बजे से मारा जाता है। इसलिए कहते है कि लालच बुरी बला है।

-- अनिल कहार, आठवीं, शुक्करवाड़ा फार्म


कभी-कभी जब समस्या पैदा होती है तो बच्चे उस अनजान शब्द को बिना समझे पढ़कर आगे भी निकल सकते हैं। उस वाक्य या पैराग्राफ के आखिर तक पढ़ते जाएँ और सोचते रहें कि उस वाक्य या पैराग्राफ का क्या मतलब निकल रहा है। इसके बाद वे दोबारा उस वाक्य या पैराग्राफ की शुरुआत में जाएँ और फिर से उसे पढ़कर उस शब्द को समझने की कोशिश करें जो पहली बार उन्हें समझ में नहीं आया था। अगर वे अभी भी उस हिस्से को नहीं समझ पाते हैं तो उन्हें अपने किसी संगी-साथी, अध्यापक-अध्यापिका से उसके बारे में पूछना चाहिए।
अपनी पढ़ाई पर नज़र रखने के लिए पाठकों को दोबारा पढ़ने के दौरान रुक-रुक कर यह सोचना चाहिए कि अभी तक कहानी में क्या हुआ है या अभी तक इस पाठ में क्या जानकारियाँ मिल रही हैं।

लिखित सामग्री से पूर्वज्ञान का जुड़ाव
पढ़ने के दौरान, खास तौर से अगर कोई लिखित सामग्री लम्बी है तो उसे पढ़ने के दौरान, अध्यापक कुछ बिन्दुओं पर रुक कर बच्चों से इस बारे में सोचने के लिए कह सकते हैं कि यह सामग्री उन्हें किन चीज़ों की याद दिला रही है। उनसे यह सोचने के लिए कहा जा सकता है कि उस विषय या कहानी के बारे में वे पहले से क्या जानते हैं या यह लेख उन चीज़ों से किस तरह मिलता-जुलता लग रहा है जिसे वे पहले से जानते हैं या, क्या इसमें उन्हें कोई फर्क दिखाई दे रहा है। व्यक्तिगत स्तर पर कहानी, कविता या कोई अन्य लेख को अपने अनुभव और ज्ञान के साथ जोड़ने से हर पाठक के लिए वह पाठ और अधिक अर्थ-भरा बन जाता है। धीरे-धीरे अभ्यास के ज़रिए बच्चे इस रणनीति को अपने आप भी इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं।

लेख में छुपे निष्कर्ष
बच्चों को यह सोचने के लिए भी मार्गदर्शन दिया जाता है कि वे जो कुछ पढ़ रहे हैं उनमें कौन-सी जानकारियाँ प्रत्यक्ष रूप से दी जा रही हैं। फिर उन्हें इस बारे में सोचने के लिए मदद दे सकते हैं कि इस चीज़ को पढ़ने से उनको जो जानकारी मिली है उनमें से कौन-सी बातें हैं जो सीधे-सीधे शब्दों में नहीं कही गई हैं। मिसाल के तौर पर, किसी पात्र की हरकतों से उसकी भावनाओं का क्या पता चलता है या लेखक द्वारा दिए गए संकेतों के आधार पर कौन-सी घटना की क्या वजह रही होगी। इस तरह की प्रक्रिया में जुड़ने से छोटे बच्चों को लिखे हुए शब्दों के पार जाने और सोचकर निष्कर्ष निकालने में मदद मिलती है जो उस लिखित सामग्री के अर्थ को और बढ़ा देते हैं। उदाहरण के लिए, निम्नलिखित दो वाक्यों को लीजिए:
“वहाँ बहुत कीचड़ था। बहुत सारे लोग छाता लेकर चल रहे थे।”
हालाँकि, सीधे-सीधे नहीं कहा गया है मगर समझदार पाठक इन वाक्यों के आधार पर आसानी से निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यहॉँ बारिश का ज़िक्र किया जा रहा है।

पढ़ने के बाद

अपने शब्दों में सुनाना
बच्चों से कहा जाए कि कहानी में जो कुछ हुआ है वे उसे किसी को सुनाएँ या अपने शब्दों में लिखकर देखें। इसमें उन्हें महत्वपूर्ण पात्रों, कहानी के प्लॉट और अहम घटनाओं, सबके बारे में बताना या लिखना चाहिए। अगर बच्चों ने कोई गैर-कथा साहित्य रचना पढ़ी है तो इस बात की समीक्षा करना फायदेमन्द रहता है कि उसमें क्या मुख्य जानकारियाँ पेश की गई हैं।

सार-संकलन करना
पाठकों को किसी पाठ में दिए गए सबसे महत्वपूर्ण विचारों को पहचानने और उन्हें अपने शब्दों में व्यक्त करने का हुनर सिखाना ज़रूरी है। सार-संकलन करते हुए बच्चों को गैर-ज़रूरी जानकारियों को छोड़कर सिर्फ प्रमुख बिन्दुओं को इकट्ठा करने का कौशल सिखाया जाता है।
चित्र संयोजक यानी ग्राफिक ऑर्गेनाइज़र
पढ़ाई खत्म करने के बाद बच्चों को एक कथा-मानचित्र (स्टोरी मैप), जीवनी चक्र (बायोग्राफी व्हील), वेन डायाग्राम, शब्दार्थ चित्र (सीमेंटिक मैप) या फ्लो चार्ट अथवा कोई और ऐसा डायग्राम दिया जा सकता है जिसमें बच्चे यह दिखा सकें कि अभी उन्होंने जो पढ़ा है उसमें क्या-क्या बातें शामिल थीं।

निष्कर्ष निकालना
बच्चों से इस बारे में सोचने के लिए कहा जा सकता है कि उन्होंने पढ़ने से पहले और पढ़ने के दौरान क्या अन्दाज़े लगाए थे। यहाँ वे इस बारे में विचार कर सकते हैं कि उनके सवालों के जवाब मिले या नहीं अथवा उनके अन्दाज़े सही निकले या नहीं। उनसे यह भी पूछा जा सकता है कि क्या उनके पास उस विषय में अभी और भी सवाल हैं।

दोबारा पढ़ना
किसी भी लिखित सामग्री, चाहे वह कहानी हो या जानकारी-युक्त लेख, उसको और अच्छी तरह से समझने के लिए बच्चों से उसे दोबारा पढ़ने के लिए भी कहा जा सकता है। अगर वे चाहें तो उस सामग्री के केवल किसी खास हिस्से को ही दोबारा पढ़ लें।

दुर्घटना

एक बार की बात है कि पिछले सप्ताह हमारे सर रामकरन के साले अमित उनके घर आए थे जब वह लौटकर उनके घर मालाखेड़ी जा रहे थे तब बीच तवापुल पर उनका एक्सीडेंट ट्रक से हो गया। वह दो आदमी थे उनका एक्सीडेंट ट्रक से टकराकर हो गया। और उनकी मृत्यु हो गई और दूसरा भाग गया, उसका अभी तक पता नही है, ट्रक बाला भी भाग गया उनकी सरकारी नौकरी थी तो उनको क्रिया-क्रम के लिए अस्सी हजार रुपए मिले।

— चंदन यादव, आठवीं, नसीराबाद


चर्चा करना और जवाब देना
बच्चों ने जो पढ़ा है, उसके बारे में उन्हें अपने आसपास किसी-न-किसी से बात करने के लिए कहें। उनको एक-दूसरे से सवाल पूछने और अपने जवाब या राय की हिमायत में किताब से मदद लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा सकता है।

पढ़ने के उपरान्त सोच-विचार
पाठक इस बारे में लिख सकते हैं कि उन्होंने क्या पढ़ा है। इस प्रक्रिया में वे अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं, यानी यह बता सकते हैं कि उस सामग्री से उनके दिमाग में क्या ख्याल आए; पढ़कर उन्हें कैसा महसूस हुआ; कौन से हिस्से थे जो उन्हें अपनी ज़िन्दगी जैसे लगे और कौन से हिस्से थे जो उन्हें पसन्द नहीं आए या जो उन्हें समझ में नहीं आए। जवाब देते समय पाठक जैसी चाहे राय दे सकते हैं। उन्हें उस सामग्री को अपनी सोच, विचारों और अनुभवों के साथ किसी भी तरह जोड़ने की आज़ादी दी जाती है। सूचना आधारित सामग्री के मामले में वे यह भी लिख सकते हैं कि उस सामग्री से उन्होंने क्या जाना या वह पाठ किन मायनों में उनकी अब तक की जानकारियों से अलग था। साहित्यिक और सूचना आधारित, दोनों तरह की सामग्रियों के मामले में पाठकों को अपने निजी अनुभवों, सोच और भावनाओं से जोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ताकि वे उस पाठ के साथ अपने ज़हन में कुछ सम्बन्ध बना सकें, और उसे अपनी सोच में उतार लें।
पढ़ने के बाद लिखकर या चित्र बनाकर प्रतिक्रियाएँ भी व्यक्त की जा सकती हैं।

बबूल का पेड़

हमारे घर के साम ने एक बहुत प्यारा बबूल का पेड़ है रात में सोजाता है और सुबह सब से पहले उठ जाता बबूल का पेड़ छाया देता ठंडी ठंडी हभा देता है।

-- संजू मीना, आठवीं, मुढ़ापार

दूसरो की भलाई

एक दिन बहुत ठंड थी तब हम को एक चिडिया ठंड से अकड़ी हुई पड़ी मिली हमने उस चिड़िया को घर पर ले आए हम ने चिड़िया को आग के पास बिठाल दिया उसकी धीर धीरे ठंड दूर होती गई फिर वह चिड़िया फुर से उड गई इस कहानी से हमे यह सींख है कि दूसरों की भलाई करना ही सच्चा धर्म है। 

-- अमित मीना, मुढ़ापार


कुछ महत्वपूर्ण अर्थ-ग्रहण रणनीतियाँ
नैशनल पैनल फॉर रीडिंग रिपोर्ट, 2000 में कुछ अर्थ ग्रहण रणनीतियाँ सुझाई गई हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण रणनीतियाँ इस प्रकार हैं:
* अन्दाज़ा लगाना/पूर्व ज्ञान को सक्रिय करना (जुड़ाव पैदा करना)
* खुल कर सोचना और अपनी सोच को प्रकट करना
* पाठ संरचना का प्रयोग करना
* ज़हन में छवि बनाना
* ग्राफिक आर्गेनाइज़र्स का प्रयोग करना
* सार-संकलन करना
* सवाल/पूछना
साथ ही यह समझना फायदेमन्द होगा कि इनमें से कोई भी रणनीति एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं चलती। जब हम पढ़ते हैं और किसी लिखित सामग्री के साथ गहरा सम्बन्ध विकसित कर रहे होते हैं तो इनमें से दो या तीन अलग-अलग रणनीतियाँ एक साथ काम करती हैं। इसका मतलब है कि पाठकों को किसी भी लेख या कहानी को देखकर पढ़ने से पहले उस पर सवाल पूछना या अन्दाज़ा लगाना सुझाया जा सकता है। पढ़ते समय उन्हें किसी सम्बन्धित अनुभव या मिलती-जुलती कहानी या पाठ के साथ जुड़ने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा सकता है जिसे वे पहले पढ़ चुके हैं। अन्त में, बच्चों को इस बात का एहसास कराया जाना चाहिए कि सवाल पूछने और उस सामग्री के साथ खुद को जोड़ने से उन्हें कहानी या पाठ की गहरी समझ हासिल करने में किस तरह की मदद मिलती है।

विकसित क्षमताएँ
अर्थ ग्रहण रणनीतियाँ सिखाने से पाठकों को कुशल और स्वनियमित पठन क्षमता विकसित करने में मदद मिलती है। इसका मतलब यह है कि वे अपनी अर्थ-ग्रहण प्रक्रिया पर नज़र रख सकते हैं। इससे उन्हें यह पता रहेगा कि कब उन्हें पढ़ा हुआ समझ में आ रहा है और कब पढ़ा हुआ समझ में नहीं आ रहा है। इस तरह के पाठक समझने की कोशिशों में समस्या पैदा होते ही समस्या को ‘हल’ करने की रणनीतियाँ ढूँढ़ने में भी सक्षम होते हैं। प्री-स्कूल या शुरुआती कक्षाओं के बहुत छोटे बच्चों को भी अपनी अर्थ-ग्रहण क्षमता पर नज़र रखने के लिए मदद दी जा सकती है।
जब बच्चे समझने की अपनी दक्षताओं पर नज़र रखना सीख जाते हैं तो उनके पास ये क्षमताएँ हो सकती हैं:
* जो समझ में आ रहा है, उसके प्रति सचेत रहना।
* यह पहचानना कि वे क्या नहीं समझ पा रहे हैं।
* कठिन वाक्यों या पाठों को अपने शब्दों में कह पाना।
* पाठ में पीछे लौट कर देखना।
* पाठ में आगे जाकर ऐसी जानकारियाँ ढूँढ़ना जो उनकी कठिनाई को दूर करने में मददगार हो सकती हैं।
*समझ से पढ़ने की समस्याओं को हल करने के लिए उपयुक्त रणनीतियों का प्रयोग करना।

अर्थ-ग्रहण रणनीतियाँ सिखाने से पाठकों को यह सोचने में मदद मिलती है कि वे किस तरह पढ़ते हैं और अपनी पढ़ने की प्रक्रिया को कैसे सम्भाल सकते हैं। पढ़ने के बारे में सोचना, पढ़ते समय सोचने से अलग क्रिया है। पढ़ने के बारे में सोचने के समय पाठक पढ़ी जा रही सामग्री के साथ अपने सम्बन्धों के प्रति सचेत होता है; वह सवाल पूछने और जवाब ढूँढ़ने तथा उस पाठ को और गहरे स्तर पर समझने के तरीके ढूँढ़ने की सचेत चेष्टा करता है। इससे पाठकों को अपनी पढ़ने की क्रिया पर नियंत्रण मिलता है। इस तरह ‘सोचने के बारे में सोचना’ मैटाकॉगनीशन या परा-संज्ञानात्मक क्रिया कहलाती है।

अर्थ-ग्रहण रणनीतियाँ कैसे पढ़ाना?
अर्थ-ग्रहण रणनीतियाँ पढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि अध्यापक उच्चारित पठन और अपनी देखरेख में पढ़ाने (गाईडड पठन) की गतिविधि के दौरान अलग रणनीतियों को स्वयं दर्शाएँ और समय-समय पर इन पर बच्चों से चर्चा करें और इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित करें। पढ़ने के एक ही सत्र के दौरान अर्थ-ग्रहण प्रक्रिया पर नज़र रखने की अलग-अलग रणनीतियों का सहारा लिया जा सकता है। पाठकों को पहले से ही कुछ सवाल खड़े करके पढ़ना और उसके बाद उन सवालों के जवाब ढूँढ़ने के लिए पढ़ने का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। पाठकों को बताया जा सकता है कि पढ़ने से पहले पाठ के बारे में सवाल खड़े करने के लिए क्यों, क्या, कहाँ आदि शब्दों का कैसे प्रयोग किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, कहानी को यही शीर्षक क्यों दिया गया? या, कहानी हमें कहाँ लेकर जा रही है? या, कवर के चित्र में कुत्ता क्यों खुश था? पढ़ने से पहले किताब में दी गई तस्वीरों को देखने यानी ‘पिक्चर वॉक’ से तस्वीरों के आधार पर भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं।

जिस समय पढ़ रहे हों, उस समय पाठकों को सक्रिय रूप से उन सवालों के जवाब ढूँढ़ने के लिए प्रेरित किया जा सकता है जो उन्होंने पढ़ने से पहले पूछे थे। पढ़ने के दौरान पाठकों को पाठ के कठिनाई स्तर के अनुरूप पढ़ने की रफ्तार को कम या ज़्यादा करके अपनी समझने की प्रक्रिया पर नज़र रखना भी सुझाया जा सकता है। उन्हें ये भी सलाह दी जा सकती है कि वे वापस जाकर उन हिस्सों को दोबारा पढ़ें जो उन्हें अच्छी तरह समझ में नहीं आ पाए हैं और उन्हें समझने में जो समस्याएँ रही हैं उन्हें ‘हल’ करने की कोशिश करें। पढ़ने के बाद पाठकों को अपने शब्दों में उस पाठ पर चर्चा करने या उसके अपने शब्दों में सुना कर अपनी समझ को जाँचने में भी मदद दी जा सकती है।

अन्त में  
हर बच्चे में सीखकर खिलने की सम्भावना छुपी रहती है। बच्चों के लिए लिखना-पढ़ना तब मायने रखता है, जब वह उनके लिए अर्थपूर्ण, उद्देश्यपूर्वक और रोचक हो। साथ में पढ़ने-लिखने की गतिविधियों को बच्चों की बोलने की भाषा और घरेलू जीवन की बातों से जोड़ने के कई प्रकार के सक्रिय मौके मिलें। जितना ज़्यादा बच्चे मन लगाकर और समझ से पढें और लिखें, उतना ज़्यादा उनकी पठन-लेखन की नींव मज़बूत बनती है। जिस तरह शुरुआती बालावस्था में नन्हे बच्चे अपने परिवार के सदस्यों से, और अपने आप से आदान-प्रदान करके खुद ही बोलना सीख जाते हैं, उसी तरह से यह देखा गया है कि बच्चों को जितने रोचक और उद्देश्यों से जुड़े लिखने-पढ़ने के मौके मिलते हैं, उतनी ही गहराई से वे इन प्रक्रियाओं से जुड़ जाते हैं। जिन बच्चों को शुरुआती बाल्यवस्था में घर पर लिखित माहौल नहीं मिलता है वे इस लाभ से वंचित रहते हैं। इस से उनके लिए स्कूल के लिखित माहौल से जुड़ना एक बहुत बड़ी चुनौती बन जाती है। इसके साथ इन बच्चों के घर और स्कूल के परिवेश और भाषा का अन्तर भी उनके लिए एक बहुत बड़ा फासला बन जाता है, जिसको पाटना काफी मुश्किल होता है। इन सब कारणों से उन्हें कक्षा के भीतर विशेष ध्यान की ज़रूरत रहती है।

इन सभी बातों को मद्देनज़र रखते हुए, राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में चलाई जा रही प्रारम्भिक साक्षरता की परियोजना के दौरान हमने पाया है कि इस प्रकार की अर्थ-ग्रहण रणनीतियाँ बहुत ही उपयोगी साबित हो रही हैं। हमारी सोच है कि आगे चलकर कुछ छोटी फिल्मों द्वारा हम अपने इन अनुभवों को आप सबसे बाँट सकें।


कीर्ति जयराम: ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर अर्ली लिट्रेसी प्रमोशन (ओईएलपी) की सचिव और अर्ली लिट्रेसी प्रोजेक्ट (ईएलपी) की डायरेक्टर हैं। प्राथमिक शिक्षा और प्रारम्भिक साक्षरता के क्षेत्र में शिक्षक, शिक्षक प्रशिक्षक के रूप में काफी लम्बा अनुभव है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद: योगेन्द्र दत्त।