अलका तिवारी [Hindi PDF, 267 kB]

राजकीय शिक्षकों के साथ प्रशिक्षण कार्यशालाएँ प्रभावी रूप से आयोजित करना हमेशा से ही चुनौतीपूर्ण रहा है। मुझे शिक्षक साथियों के साथ इस तरह की एक कार्यशाला से जुड़ने का अवसर मिला जिसमें ‘पेड़-पौधों के भाग और उनकी पहचान’ को लेकर समझ बनाने का प्रयास किया गया। इस कार्यशाला में मेरे अनुभव यह सोचने को प्रेरित करते हैं कि शिक्षकों के साथ अकादमिक मुद्दों पर विमर्श के अवसर सृजित करना सम्भव हैं ताकि वे इन कार्यशालाओं में पूरे उत्साह के साथ भागीदारी करें और स्वयं की समझ में कुछ बढ़ोत्तरी का एहसास लेकर कार्यशाला से उठें। इस कार्यशाला के अनुभव के कुछ अंशों को साझा कर रही हूँ। 

शिक्षकों के साथ काम के उद्देश्य

* वनस्पतियों पर बातचीत करते हुए, इस दिशा में एक साझा समझ विकसित करने की कोशिश करना कि कैसे वनस्पतियों के संरचनात्मक विभेद (यानी उनकी बनावट में पाए जाने वाले अन्तर) को वर्गीकरण के आधार के रूप में शामिल किया जा सकता है।
* यह अनुभव देने का प्रयास करना कि कोई एक ही हिस्सा या अंग अलग-अलग वनस्पतियों में कितने तरह के संरचनात्मक विभेदों के साथ अपनी उपस्थिति दर्शाता है।
* यह समझ स्थापित करने का प्रयास करना कि आसपास की वनस्पतियों को संसाधनों के रूप में उपयोग करते हुए शिक्षण को परिवेश से जोड़कर जीवन्त एवं प्रभावी बनाया जा सकता है।
* वनस्पतियों में पाए जाने वाले पैटर्न खोजने के लिए जिज्ञासा और चिन्तन पैदा करना।
* साथ ही यह प्रयास करना कि शिक्षक विज्ञान में अवलोकन से जुड़ी मान्यताओं पर पुनर्विचार कर पाएँ।


पौधों के भागों की पहचान
सत्र की शुरुआत पेड़-पौधों के बारे में बातचीत से की गई। सहभागियों से चर्चा करते हुए पेड़ व पौधों में नज़र आने वाले अन्तरों को चिन्हित करते हुए कुछ सामान्य पैटर्न पहचानने का प्रयास किया गया। सहभागियों द्वारा बताया गया कि पेड़ व पौधों के तने व जड़ों में तो यह पैटर्न साफ-साफ देख पाते हैं कि पेड़ोंें में जड़ें व तने ज़्यादा मज़बूत, लम्बे, ज़्यादा शाखित, ज़मीन के अन्दर या ऊपर पाए जाते हैं, जबकि पौधों में इसके विपरीत लक्षण नज़र आते हैं। लेकिन फूल, फल व पत्तियों के सन्दर्भ में इस तरह का कोई तय पैटर्न दिखाई नहीं देता कि कहा जा सके कि कुछ खास तरह की पत्तियाँ व फूल केवल पौधों में ही मिलेंगे या फिर केवल पेड़ों में ही। इसी क्रम में यह बातचीत की गई कि पेड़ व पौधों में किस भाग को जड़, तना या पत्ती के रूप में पहचानें, यह हम कैसे तय कर रहे होते हैं। इस पर सहभागियों ने आम तौर पर पाए जाने वाले लक्षणों के बारे में बताया जैसे:
* जड़: भूरे रंग की व ज़मीन के नीचे होती हैं। इसके ऊपर बारीक-बारीक रोम पाए जाते हैं।
* तना: शाकीय पौधों में सामान्यत: हरे रंग के और कभी-कभी गहरे भूरे रंग के व सदैव ज़मीन के ऊपर ही पाए जाते हैं।
* पत्ती: तने पर उपस्थित, सामान्यत: हरे रंग की संरचनाएँ और कभी-कभी लाल, पीली और जामुनी संरचनाएँ भी।

इन लक्षणों की मदद से, सहभागियों के साथ मूली, आलू, प्याज़, गाजर, शलगम, अदरक, हल्दी जैसे उदाहरण लेकर भी विस्तार से बात की गई। सभी सहभागी गाजर, मूली व आलू को लेकर काफी असमंजस में नज़र आए कि इन्हें जड़ माना जाए या फिर तना। इसी तरह सूखी प्याज़ व हरी प्याज़ का अवलोकन करते हुए यह विमर्श रहा कि इसे जड़, तना, पत्ती में से क्या माना जाए। हरी प्याज़ में हरे हिस्से को समूह ने पत्ती माना पर सूखी प्याज़ पर काफी मतभेद रहा। इसी तरह पालक के गुच्छे से एक पालक का पत्ता तोड़कर देखा तो पत्ती के नीचे वाले हिस्से को तना मानने लगे। पेड़-पौधों के भागों की पहचान के लिए पहले चिन्हित किए सामान्य लक्षणों से तुलना करने पर सहभागियों ने अनुभव किया कि यहाँ तो असमंजस की स्थिति बन गई है। हमने पहले जो कुछ पहचाना था वह अब कुछ और ही लग रहा है।

यहाँ पर मैंने थोड़ा ठहर कर इस असमंजस की स्थिति में सहभागियों के मन में पैदा हो रहे सवालों को हल करने के सूत्र खोजने की अपेक्षा के साथ उन्हें मनीप्लांट, घास, गेंदा आदि पौधे दिए व इन्हें छूकर देखने को कहा। मनीप्लांट को ठीक से छूने पर पाया कि जहाँ-जहाँ से पत्तियाँ निकल रही हैं वहाँ गाँठ-सी महसूस होती है। इस अनुभव को पर्व और पर्व-सन्धि की उपस्थिति से जोड़ते हुए जड़ से तने की अलग पहचान करवाई गई। अब समूह सहमत था कि जड़ व तने में विभेद के लिए यही प्रमुख आधार है।

कार्य योजना

शिक्षकों के साथ मेरे काम की कार्य योजना के तौर पर मैंने कुछ विशिष्ट सवाल और चरण निर्धारित किए:
* किसी संरचना को पेड़ या पौधा मानने के लिए हम क्या मापदण्ड चुनते हैं?
* पेड़ व पौधे में विभेद के लिए किन-किन आधारों को चिन्हित किया जा सकता है?
* सामूहिक विमर्श करते हुए यह जानने की कोशिश करना कि क्या पौधे के सभी हिस्से इस तरह के वर्गीकरण का आधार हो सकते हैं?
* जब हम पौधे के किसी खास हिस्से को तना, पत्ती, जड़, फूल या फल के रूप में पहचानते हैं, तब इन भागों के कुछ खास नाम देने के हमारे क्या-क्या मापदण्ड हैं?
* पादप के किसी हिस्से को किसी भाग-विशेष के रूप में हम कैसे पहचान पाते हैं? पौधे के किसी एक भाग को देखकर अन्य भागों के बारे में क्या कोई अनुमान लगाया जा सकता है?


पत्तियाँ

इसके बाद पत्तियों व जड़ों की संरचना की पहचान पर चर्चा की गई। इस सत्र के दौरान सबसे पहले यह बातचीत की गई कि पौधे के किसी भाग को पत्ती के रूप में पहचानने के लिए क्या शर्तें आवश्यक प्रतीत होती हैं या ऐसे क्या सामान्य हिस्से हो सकते हैं जिनके बारे में देखकर लगता है कि ये तो किसी भी पत्ती में होने ही चाहिए; इनके बिना तो शायद ही कोई पत्ती, पत्ती कही जा सकती है। इस पर सहभागियों की मदद से पत्ती की संरचना को चित्रित करते हुए सामान्य लक्षणों को चिन्हित किया गया, व सहमति बनाई गई कि सामान्यतया पत्ती में पर्ण-वृन्त (डण्ठल), फलक, कोर, शिराएँ, शिखाग्र आदि भाग पाए जाते हैं। इस पर यह प्रश्न उठा कि क्या ये सभी भाग सभी पत्तियों में दिखाई देते हैं?
इस पर ज़्यादातर सहभागियों की असहमति रही, व कुछ असमंजस की स्थिति में भी रहे। मैंने सुझाव रखा कि क्यों न हम अपने आसपास मिलने वाले पौधों का अवलोकन करें और फिर कुछ साझा समझ बनाने की कोशिश करें। सहभागियों के पाँच उप-समूह बनाए गए और अगला एक घण्टा पेड़-पौधों की पत्तियों का सूक्ष्म अवलोकन करने में गुज़रा। इसके बाद सभी उप-समूहों ने अपने विचार रखे जिनसे ये बातें निकलीं:
* एक विभेद तो पत्ती व इसके भागों की उपस्थिति होने व न होने के आधार पर नज़र आता है। दूसरा अन्तर यदि पत्ती उपस्थित है तो उसकी बनावट के आधार पर दिखाई देता है।
* मनीप्लांट, पालक, आकड़ा, अनार, नींबू, बोगिनविलिया, धतूरा, पपीता आदि को देखते हुए सहभागियों ने अनुभव किया कि पर्ण-वृन्त (डण्ठल) की लम्बाई अलग-अलग है।

* ऐसे ही जेट्रोपा, नींबू, गुड़हल आदि में पत्तियों में अनुपत्र दिखाई देते हैं। जबकि कनेर, अनार, आम, फाइकस आदि में ये नज़र नहीं आते।
* फलक के छोटे व बड़े होने के अलावा इनमें अण्डाकार, गोल, हृदयाकार, भालाकर, बेलनाकार व इस तरह की कई आकृतियाँ मिलती हैं।
* पर्ण शिखाग्र कमल, मेथी, सदाबहार, गुलफा, ब्रायोफायलम, अल्सटोनिया व अन्य कई प्रकार के पौधों की पत्तियों में नहीं पाया जाता।
* तने पर पत्तियों की जमावट सम्मुख, एकान्तर, चक्रीय, क्रम में पाई जाती है।
विभिन्न प्रकार के पौधों में पत्तियों व इनके विन्यास का अवलोकन करके पैटर्न पहचानने का प्रयास किया गया। इसमें साथियों का अवलोकन रहा कि कुछ पौधों में प्राथमिक व द्वितीयक या केवल एक ही तरह की शिराएँ ही मिलती हैं, व ये एक-दूसरे के समान्तर व्यवस्थित होती हैं। सहभागी अवलोकन करने पर चिन्हित कर पाए कि ऐसे सभी पौधों की जड़ों में एक-सा पैटर्न है। इन सब में जड़ें रेशों के समान पाई जाती हैं।

जबकि वे पौधे जिनकी पत्तियों में त्रतीयक शिराएँ पाई जाती हैं, उनमें शिराओं की व्यवस्था जाली के समान देखने को मिलती है व इनकी जड़ों में एक मुख्य जड़ नज़र आती है जो आगे जाकर शाखित हो जाती है।
इसी क्रम में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों का अवलोकन किया गया। सहभागियों ने अनुभव किया कि वे आम, अशोक, जेट्रोफा, सदाबहार, जंगली घास, कनेर, पपीता, गुड़हल, चाँदनी, आदि में पत्तियों को सहजता से पहचान पा रहे हैं। जबकि आड़ू, नीम, आंवला, गुलमोहर, इमली आदि की पत्तियों को पहचानने में काफी असमंजस की स्थिति बनती नज़र आई कि आखिर एक पत्ती किसे माना जाए -- सबसे छोटे भाग को, मध्यम भाग को या फिर पूरी बड़ी-सी संरचना यानी टहनी को। इस पर सहभागियों ने यह ढूँढ़ने की कोशिश की कि जिस भी भाग को हम पत्ती मान रहे हैं, उसके पीछे क्या आधार देखा जाना चाहिए। यूँ ही तो किसी भी संरचना को पत्ती कहना ठीक नहीं। साथ ही सहभागियों से यह प्रश्न भी किया गया कि कोई एक विशेष हिस्सा ढूँढ़कर क्या किसी पत्ती को पहचाना जा सकता है? कैसे तय कर सकते हैं कि हम पत्ती के किसी एक भाग को ही देख रहे हैं, या फिर पूरी पत्ती को? इस पर सहभागी अनुभव कर पाए कि इसके लिए तो पत्ती तने के साथ कैसे जुड़ी हुई है, उस पूरे हिस्से को ही देखने की आवश्यकता होगी, तभी पहचान पाना सम्भव होगा। इसके लिए समूह में बातचीत करते हुए पुन: विश्लेषण करने का प्रयास किया गया कि पेड़ पर लगी पत्तियों कीस्थिति किस-किस तरह से नज़र आती है; साथ ही नई शाखाएँ, फूल व पत्तियाँ कहाँ-कहाँ से निकलती/उगती हुई पाई जाती हैं। अवलोकन करते हुए सहभागियों द्वारा अनुभव किया गया कि नीम, गुलमोहर, आंवला, आड़ू, बबूल, ढाढून (जंगली पौधा) आदि में कक्षस्थ कलिका की स्थिति बहुत अलग-अलग होती है। इस कलिका का जन्म तना व पत्ती के कक्ष से होता है। कलिका की स्थिति के आधार पर किस छोटे या बड़े हिस्से को पत्ती माना जाए यह चिन्हित किया जा सकता है।

सभी सहभागियों ने काफी उत्साह व रुचि के साथ इस विचार-विमर्श में भागीदारी की।
सत्र के बाद जब सहभागियों से उनकी राय जानी गई तो निम्न विचार आए:
* पत्तियों में प्राथमिक, द्वितीयक, त्रतीयक शिराओं की पहचान कर पाए। सभी पत्तियों में त्रतीयक शिराएँ नहीं पाई जाती हैं।
* बहुत ध्यान से देखने पर महसूस होता है कि सभी पत्तियों में इन शिराओं की जमावट में भिन्नता होती है।
* इन शिराओं के आधार पर विन्यास व्यवस्था को समान्तर व जालिकावत में विभेदित किया जाता है। जालिकावत व्यवस्था में भी हर पौधे की पत्ती में अलग तरह की जाली नज़र आती है।
* इस अभ्यास से पत्तियों के बारे में ठीक से समझ बनाने का मौका मिला। पहले तो जिस भाग में शिरा विन्यास नज़र आए, हर उस भाग को पत्ती मान लिया करते थे, चाहे वह छोटा हो या बड़ा।

प्याज़, लहसुन में जिसे हम बेकार समझकर काट कर फेंक देते हैं, उस हिस्से का अवलोकन करने पर पाया कि प्याज़ की सभी सफेद परतें यहीं पर तो जुड़ी होती हैं, और नई पत्ती भी यहीं से निकल रही हैं। अत: सूखी प्याज़, व लहसुन में खाए जाने वाले हिस्से भी हरे न होने के बाद भी पत्तियाँ ही तो हैं। और जिसे फेंक देते हैं वो हुआ तना।

उप-समूहों द्वारा आम, जामुन, चना, मटर, धनिया, कद्दू, तिल, बादाम, नीम आदि की पत्तियों, जड़ व बीजों को खोलकर देखा गया। अन्य दो उप-समूहों द्वारा मक्का, गेहूँ , बाजरा, लहसुन, प्याज़ आदि की पत्तियों, जड़ों व बीजों को देखा गया। पहले समूह का प्रस्तुतिकरण रहा कि सभी पत्तियों में जालिका जैसी शिराएँ हैं, इनमें एक मुख्य मोटी जड़ है व इनकी जड़ों में बारीक-से रेशे हैं, और बीजों में एक से अधिक बीजपत्र हैं। दूसरे समूह का प्रस्तुतीकरण रहा कि सभी पत्तियों में समान्तर शिराएँ हैं, इनकी सभी जड़ें पतले रेशों की तरह हैं और जिसमें कोई मोटी मुख्य जड़ नहीं है व बीजों में 1 ही बीजपत्र है। अत: इन पैटर्न के आधार पर सहभागियों की राय रही कि पत्तियों को देखकर एकबीजपत्री व द्विबीजपत्री पौधों की पहचान की जा सकती है व इनके आधार पर जड़ें कैसी होंगी, यह भी बताया जा सकता है।
पत्तियाँ तो हमेशा ही देखते थे, पर इस तरह से पहली बार देखीं। पहले तो लगता था कि जीव-विज्ञान कितना उबाऊ है, पर अब लगता है इसमें भी हमारे पास काफी कुछ है करने के लिए।


इस पूरे काम में शिक्षकों की ऊर्जा व सृजनात्मक भागीदारी को देखने और समझने के बाद मैंने यह महसूस किया कि राजकीय शिक्षकों के साथ बेहतर कार्यशालाएँ सम्भव हैं यदि उन पर विश्वास रखें कि वे अपने सवालों के जवाब ढूँढ़ने में सक्षम होंगे। इसके लिए ज़रूरी यह हो जाता है कि हम उन्हें ऐसी प्रक्रियाओं से गुज़रने का मौका दें जिसमें उनके मन में अपनी समझ के बारे में सवाल पैदा हों और जहाँ तक हो सके उन्हें स्वयं के प्रयासों से सवालों के जवाब खोजने के मौके दें।


अलका तिवारी: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, टोंक (राजस्थान) में कार्यरत हैं। विज्ञान से जुड़े मुद्दों पर अध्ययन व विमर्श में विशेष रुचि।