लेखक: अनीश मोकाशी [Hindi PDF, 368 kB]
अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी

मैं तीन महीने तक कोयम्बतूर के निकट आनैकट्टी में स्थित विद्या वनम् नाम के एक वैकल्पिक स्कूल में विज्ञान शिक्षक था। विद्या वनम् श्रीमती प्रेमा रंगाचारी द्वारा संचालित एक अँग्रेज़ी माध्यम स्कूल है जो एन.सी.ई.आर.टी. के पाठ्यक्रम का अनुसरण करता है। स्कूल का शिक्षण-दर्शन है कि कक्षाएँ प्रयोग-आधारित हों और साथ-साथ वह विद्यार्थियों को नैशनल ओपन स्कूलिंग (राष्ट्रीय मुक्त स्कूली शिक्षा) की बोर्ड परीक्षाओं के लिए तैयार करता है। आनैकट्टी से ऊटी के पहाड़ दिखाई देते हैं, और यह नीलगिरी पर्वत माला पर से गुज़रने वाले हाथियों के एक महत्वपूर्ण गलियारे में स्थित है। उसके पास में ही सालिम अली पक्षी-विज्ञान एवं प्रकृति विज्ञान केन्द्र तथा नीलगिरी बायोस्फीयर रिज़र्व हैं। स्कूल के बच्चे आसपास के गाँवों से हैं और अपने परिवार में औपचारिक शिक्षा पाने वालों की पहली पीढ़ी हैं। उनमें से अधिकांश इरूला जनजाति समुदाय के हैं। स्कूल का माहौल बच्चों और शिक्षकों के बीच मुक्त संवाद का है, और बच्चों का श्रीमती रंगाचारी से भी अत्यन्त अपनत्व भरा रिश्ता है (उनको वे ‘पाटी’ यानी दादी-नानी कह कर सम्बोधित करते हैं)। मैं यहाँ विद्या वनम् स्कूल के बच्चों के साथ हुए अपने कुछ ऐसे अनुभव साझा करना चाहता हूँ जिन्होंने मुझे बच्चों तथा विज्ञान के बारे में प्रचलित कुछ आम धारणाओं पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया।

भौतिकी का एक विद्यार्थी
आई.आई.टी. बॉम्बे में इंजीनियरिंग भौतिकी में बी.टैक. कर रहे एक विद्यार्थी के रूप में मुझे लगता था कि मेरी पढ़ाई टुकड़ों-टुकड़ों में हो रही थी। हमारे लिए एक ही सेमिस्टर में बहुत सारी सामग्री इकट्ठी कर दी गई थी, और विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों में परस्पर तालमेल नहीं दिखाई पड़ता था, जैसे कि उनमें से प्रत्येक किसी अलग संसार की बात कर रहा हो। हम विद्यार्थियों में तैयारी नहीं थी कि खुद ही उनके सम्बन्धों को खोज सकते और उन सबका व्यापक सन्दर्भ समझ सकते। हमें ऐसा लगता था कि ज्ञान के संचित किए गए समस्त भण्डार के पहाड़ के शिखर पर चढ़ चुकने के बाद ही हमें कुछ रोचक करने का, या उसकी झलक पाने का मौका मिलेगा। कुछ कोर्स छोड़ कर, हमें अन्वेषण-पूर्ण सीखने की प्रक्रिया के लिए अवसर तभी मिलता था जब हम प्रोजेक्ट पर काम कर रहे होते थे।

मैं एनवाईरन्मेंटल जस्टिस (पर्या-वरण से मिलने वाले लाभ और उसके भार को समाज में न्यायपूर्वक बाँटने) के आन्दोलन से भी सक्रिय रूप से जुड़ा हुआ था, और आदिवासी लोगों पर हो रहे सामाजिक तथा पर्यावरण सम्बन्धी अन्याय को, तथा मानवीय गरिमा से सर्वांग रूप से उन्हें वंचित किए जाने की प्रक्रिया को स्वयं अपनी आँखों से देखने के अनुभव, तथा अपने शिक्षा संस्थान के शान्त, सौम्य माहौल के बीच सामंजस्य बिठाना मेरे लिए कठिन था।

अमेरिका में स्नातकोत्तर अध्ययन के दौर - जिसमें अध्ययन की गहन तथा रोचक पाठ्यचर्या, वहाँ की लोकतांत्रिक व्यवस्था, यदा-कदा पढ़ाने, और बहुत निम्न तापक्रमों पर 2क़् इलेक्ट्रॉन तंत्रों पर प्रयोग करते हुए पूर्णकालिक शोधकार्य करने के अनुभव शामिल थे - ने मेरे जीवन को काफी समृद्ध बनाया। शोधकार्य व्यक्ति को सीखने की नई परिस्थितियों से जूझने का व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है - लगभग शून्य से प्रारम्भ करने का आत्मविश्वास, अपने अज्ञान का सामना करने और सहायता माँग कर प्राप्त करने का, समस्याओं की गुत्थियों को सुलझाने का, कभी-कभी नई तरकीबें निकालने का, और कभी कामों को करने के किसी खास तरीके को पूरी तरह त्याग देने का आत्मविश्वास देता है। व्यक्ति सीखता रहता है और नई अवधारणाओं और विचारों का उपयोग करता रहता है, तथा अन्तत: यह पूरी प्रक्रिया आपको भरपूर धैर्य की देन दे जाती है।

अपने शोध प्रबन्ध की सफल प्रस्तुति व वकालत के बाद, मैंने एक ऐसे विषय पर कार्य करने का निर्णय लिया जिसने मुझे लम्बे समय से परेशान कर रखा था - उन कारकों की पहचान करना जो लोगों को अपने अध्ययन में, विशेष रूप से विज्ञान में, जिसे आम तौर पर कठोर और निर्वैयक्तिक (impersonal) विषय की तरह देखा जाता है, अर्थ ढूँढ़ने में मदद करते हैं। साथ ही, जिस तरह से विज्ञान को सीखा और सिखाया जाता है उसमें मैं शोध करने की संस्कृति के तरीकों का समावेश करना चाहता था।

निर्भय 
मैंने स्नातकीय विद्यार्थियों को ज़रूर पढ़ाया था लेकिन मुझे बच्चों के साथ काम करने का कोई अनुभव नहीं था। विद्या वनम् में मैं 8 से 12 साल के ऐसे बच्चों का शिक्षक था जिन्हें उस स्कूल में पढ़ते हुए 4 से 5 साल हो गए थे। उनमें से अधिकांश को मुझसे बात करने में कोई संकोच नहीं था - उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं कौन था, क्या करता था, मेरे माता-पिता कहाँ रहते थे। और फिर, उन्होंने अपने बारे में मुझे ढेर सारी बातें बताईं - उन्हें क्या पसन्द था, उनका सबसे अच्छा दोस्त कौन था और उनके कितने भाई-बहिन थे। मेरी पहली कक्षा में, उस कक्षा के आठ साल के बच्चों ने एकदम अनायास ही मेरे लिए एक समूह नृत्य करने का निर्णय लिया। उन्होंने मुझे अपने बीच सहज महसूस कराने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उनके बोलने में या चेहरे पर भय का कोई आभास नहीं था। जब भी उन्हें कक्षा के लिए कोई रोचक या प्रासंगिक बात मिलती तो वे तुरन्त उसे बताते थे। उन्होंने सहज ही मेरा नाम अनीश अण्णा रख दिया।

ध्वनि से अच्छी शुरुआत  
मैंने ध्वनि से शुरुआत करने का निर्णय लिया क्योंकि ध्वनि एक ऐसा विषय है जिससे बच्चे आसानी से जुड़ सकते हैं और यह उनके विज्ञान के पाठ्यक्रम के निर्धारित विषय-प्रसंगों की सूची में भी था। मैंने उन्हें एन.सी.ई.आर.टी., एच.बी.सी.एस.ई. (स्मॉल साइंस सीरीज़), और एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम द्वारा तैयार की गई विज्ञान की गतिविधि-आधारित पाठ्यपुस्तकों (बाल वैज्ञानिक) के बारे में, तथा अरविन्द गुप्ता के कार्य के बारे में बताया। नई-नई युक्तियाँ निकाल कर तथा कभी-कभी इन स्रोतों से मिले विचारों को अपने तरीके से उपयोग करते हुए, हमने ध्वनि से सम्बन्धित अनेक अवधारणाओं की छानबीन की।

हमने शुरुआत स्कूल के वातावरण की ध्वनियों का अवलोकन और निरीक्षण करने से की - बहुत गहराई से सुनते हुए हमने उनकी दिशा पहचानी, उनके स्रोत को ढूँढ़ निकाला और फिर एक ध्वनि मानचित्र तैयार किया। कुछ बच्चों ने अवलोकन का यह अभ्यास अपने घर पर भी दोहराया और तस्वीरों सहित विस्तृत ध्वनि-मानचित्र तैयार किए। एक आठ साल के बच्चे, सबरीश ने अपनी सूची में ‘जब रात को सन्नाटा होता है, तब ट्यूब लाइट से आने वाली आवाज़’ तक को शामिल किया।

अगले दिन, हमने नारियल के कठोर बाहरी खोलों पर प्लास्टिक की थैलियाँ बाँध कर बजाने वाले ड्रम तैयार किए। कुछ बच्चों ने इनके भीतर कुछ बीज और छोटे कंकड़ डाल दिए और इस तरह झुनझने जैसे बजने वाले ड्रम बनाए। हम इस विचार तक पहुँच सके कि हर ध्वनि के पीछे कोई ऐसी चीज़ होती है जो कम्पन करती है, फिर चाहे वह हमारा गला हो या तबला, गिटार का तार, रबर का छल्ला, पत्ती या कागज़ की बनाई गई सीटी हो। हमने देखा कि किस तरह एक बोतल में अलग-अलग तल तक पानी भरने के बाद बोतल के मुँह पर से फूँकने पर निकलने वाली आवाज़ की पिच (उसका भारी या पतला होना जो उसकी आवृत्ति से जुड़ा हुआ है) बदलती है। एक बार, हमने पिच के बारे में बात करने के लिए एक बाँसुरी का इस्तेमाल करते हुए उससे अलग-अलग स्वर निकाले। उन्हें बहुत मज़ा आया और उन्होंने बार-बार गुज़ारिश करके मुझे काफी देर तक बाँसुरी बजाने के लिए मजबूर किया। मुझे यह अहसास हुआ कि जो चीज़ इन बच्चों को पसन्द आ जाती थी वे मन लगाकर उसके पीछे पड़ जाने वाले बच्चे थे।

बाल्टी कला
अगली कक्षा में मैं पानी से भरी एक बाल्टी लेकर आया, यह समझाने के लिए कि जिस तरह पानी में लहरें फैलती हुई यात्रा करती प्रतीत होती हैं।, उसी तरह किसी वस्तु से निकलने वाले कम्पन हवा में फैलते हुए यात्रा करते हैं और हमें ध्वनि सुनाई देती है।

उस दिन, सुबह की रोशनी बाल्टी में भरे पानी की सतह पर पड़ रही थी और उसका प्रतिबिम्ब कमरे की छत पर प्रोजेक्ट हो रहा था। बाल्टी को सिर्फ हल्का-सा धक्का देने से, या मेरे गीले हाथ से बूँदों के उसमें टपकने भर से छत पर झलकने वाले प्रतिबिम्ब में बहुत नाटकीय और चकित करने वाली संरचनाएँ पैदा हो रही थीं। प्रतिबिम्ब के प्रकाशित और छाया वाले हिस्सों में गति करती हुई पानी की लहरें/हिलकोरे बहुत साफ दिखाई देती थीं और उनको देखकर विस्मय से बच्चों की किल-कारियाँ निकल रही थीं। इस चमत्कारी दृश्य का अवलोकन करते हुए और उसको सराहते हुए हमने कुछ समय बिताया और मैंने इस तथ्य पर ज़ोर देने का प्रयास किया कि हम तरंगों को देख रहे थे1 (चित्र 1)।

स्वर पकड़ना
हमने एक ट्यूनिंग फॉर्क के कम्पनों को सुना और अनुभव किया, और उसके एकल स्वर वाले गुंजन को ध्यान से सुनते हुए पकड़ा। वह सभी बच्चों के बीच बड़ा लोकप्रिय खिलौना बन गया और हर कोई उसे किसी मित्र द्वारा कान के पास लाए जाने पर महसूस होने वाली गुदगुदी का मज़ा लेना चाहता था। उन्होंने उससे विभिन्न चीज़ों - जैसे कि एक प्लास्टिक की थैली, टिफिन का डिब्बा, नारियल की खोल का ड्रम, पेन्सिल बॉक्स, कपड़े, इत्यादि - को छुआ और इसके कारण उत्प्रेरित कम्पनों से पैदा होने वाली ध्वनि को सुना। एक बच्चे ने उत्प्रेरित कम्पनों का इस प्रकार वर्णन किया - “जब हम ट्यूनिंग फॉर्क को छूते हैं, तो कम्पन हमारे हाथों में प्रवेश कर जाते हैं।”
मैंने सोचा कि यदि हम ट्यूनिंग फॉर्क को पानी में लहरें पैदा करते हुए देख सकें तो इससे हवा में ध्वनि की तरंगों के विचार को जोड़ने में आसानी होगी। मैं उसे बाल्टी में भरे पानी की सतह के नज़दीक ले गया और हमने देखा कि उसके कारण निर्मित तरंगें एक-दूसरे के बहुत नज़दीक थीं। छत पर प्रक्षेपित प्रतिबिम्ब के कारण इसे देख पाना आसान था, पर फिर भी वह उतना स्पष्ट नहीं था जितनी मैंने अपेक्षा की थी। वास्तव में, जिस तरह ट्यूनिंग फॉर्क पानी उछाल रही थी बच्चे उससे अधिक आकर्षित थे।

एक 12 साल के बच्चे ने, जिसका नाम प्रसन्ना वेंकटेश था, ट्यूनिंग फॉर्क ले ली और जब बाकी कक्षा आगे की चर्चा में लग गई, वह फॉर्क से पानी छपछपाने में लगा रहा। लगभग आधे घण्टे बाद, प्रसन्ना ने मुझे पुकारकर कहा, “अण्णा, मैं आपको यह दिखाना चाहता हूँ।” वह बाल्टी के बगल में बैठा था और उसके चारों ओर पानी बिखरा हुआ था। उसने रबर की एक हथौड़ी से ट्यूनिंग फॉर्क पर चोट की और उसको पानी में डुबोने की बजाय, पानी को उसके ऊपर उँडेला! फिर जो देखा उस पर मैं यकीन नहीं कर पा रहा था। जब तक फॉर्क का कम्पन करना जारी रहा इस पानी पर अत्यन्त जटिल प्रतीत होने वाली संरचनाएँ दिखाई देती रहीं।

प्रसन्ना ट्यूनिंग फॉर्क पर गिरे पानी की सतह पर गुरुत्वाकर्षण तरंगों को देख रहा था। ट्यूनिंग फॉर्क में ही हो रहे कम्पन इन तरंगों को संचालित करते हैं। तीव्र शटर गति पर ली गई एक फोटो ने सतह की इन गुरुत्वाकर्षण तरंगों को प्रकट किया (चित्र-2)।

हर साल, अनेकों विद्यार्थी आंशिक रूप से भरे हुए पानी की एक नली/स्तम्भ के मुँह पर एक कम्पन करती हुई ट्यूनिंग फॉर्क पकड़े अनुकम्पन (resonance) खोजने का प्रयोग करते हैं। लेकिन अनुकम्पन की खोज के 300 वर्षों बाद तक, क्या किसी ने भी ट्यूनिंग फॉर्क की सतह पर पानी उड़ेलने के सीधे-सरल तरीके के बारे में नहीं सोचा था? या फिर विद्यार्थियों से यह अपेक्षा नहीं होती है?

क्या हम ध्वनि को देख सकते हैं?
एक दिन मैं कक्षा में ज़ोर से बोलते हुए सोच रहा था कि निश्चित रूप से हम ध्वनि को सुन तो सकते हैं पर क्या कोई ऐसा तरीका है कि हम उसे देख सकें? किसी को धुआँ पैदा करने का खयाल आया तो हमने कुछ कागज़ जलाए और उससे निकलने वाले धुएँ में कम्पन करती हुई ट्यूनिंग फॉर्क को रखा। लेकिन ट्यूनिंग फॉर्क के कम्पन शायद इतने ज़्यादा कमज़ोर थे कि वे कोई दर्शनीय प्रभाव नहीं पैदा कर सके। हमें धुएँ में गिटार के तार को छेड़ने का खयाल नहीं आया जिसका प्रभाव, हो सकता है कि देखा जा सकता। फिर अनायास ही 12 साल के ऋषिकेश को एक अद्भुत बात सूझी (उसका यूरेका क्षण!) और उसने चिल्लाकर कहा, “अण्णा, पाउडर! पाउडर!” हमने कुछ टैल्कम पाउडर मँगाया और उसे एक उल्टे रखे हुए गिलास पर फैलाया। फिर हमने कम्पन करती हुई ट्यूनिंग फॉर्क से उसे छुआ लेकिन गिलास बहुत वज़नी था और इसलिए कुछ नहीं हुआ। फिर हमने एक स्टील प्लेट ली और उस पर पाउडर फैला कर ऐसा ही किया। इस बार जब भी हम प्लेट से ट्यूनिंग फॉर्क को छुलाते तो हर बार पाउडर अपनी जगह से खिसकता था। लगातार ऐसे करने पर, पाउडर ने प्लेट की सतह पर छोटी और बड़ी ढेरियों में इकट्ठा होकर एक विशेष संरचना निर्मित कर ली, और 12 वर्ष के पवन कुमार ने गौर कर के कहा कि वह एक तितली जैसी दिखती थी।

यह क्लाडनी संरचनाओं - जिनमें हम गोल सीमा रेखा से परावर्तित होने के कारण बनने वाली दो-आयामी खड़ी तरंगों (standing waves) के ऐन्टी-नोड (!) को अलग-अलग आकारों की ढेरियों की स्थिति का निरीक्षण करके खोज सकते थे - को हासिल करने का आसान तरीका था। बाद में हमने एक तबले की जोड़ी (दायाँ एवं डिग्गा) पर पाउडर डाला और फिर उसकी झिल्ली में होने वाले कम्पनों से पाउडर की ढेरियों को बनते हुए देखा (चित्र-3)। वह आकृति भी तितली जैसी दिखती है!
इसके बाद कुछ दिन बीत गए, फिर प्रसन्ना ने ऋषिकेश की सूझ को अपनाते हुए एक कम्पन करती हुई ट्यूनिंग फॉर्क पर सीधे टैल्कम पाउडर डाला। पाउडर ढेरियों में इकट्ठा हो गया जो थरथराती हुई खिसक कर ट्यूनिंग फॉर्क की मध्य रेखा पर आ गईं। यहाँ इस बात पर गौर करना उल्लेखनीय है कि माइकल फैराडे ने इसी प्रयोग को लाइकोपोडियम पाउडर का उपयोग करते हुए 1830 के दशक में किया था और यह वर्तमान शोध का विषय भी है। जर्ल वॉकर के ‘द फ्लाइंग सर्कस ऑफ फिज़िक्स’से लिया गया यह अंश इस सन्दर्भ में बहुत शिक्षाप्रद है: धूल, रेत से भी हल्की होने की वहज से, उस हवा से प्रभावित होती है जो कम्पन के कारण प्लेट के ठीक ऊपर शु डिग्री हो जाती है। प्लेट के बिलकुल पास में हवा एक नोड से बगल के ऐन्टी-नोड तक चलकर फिर ऊपर, प्लेट से दूर हट जाती है। इस तरह, हवा ऊपर बहने से पहले, धूल को नोड से बगल के ऐन्टी-नोड तक ले जाकर जमा देती है।

गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ पाउडर के ढेरों की गति

इसका एक सम्भावित कारण यह हो सकता है कि ट्यूनिंग फॉर्क का खुला मुक्त हिस्सा, जो फॉर्क के बाकी हिस्से की तुलना में (प्राइमरी वाइब्रेशनल मोड में) अधिक आयाम से गति करता है, ऊर्जा की एक उच्चतर अवस्था को निरूपित करता है, और मुक्त छोर पर पाउडर की ऊर्जा तथा स्थिर छोर पर पाउडर की ऊर्जा का अन्तर उनकी गुरुत्वाकर्षण स्थितिज ऊर्जाओं के अन्तर से अधिक है (चित्र 4)।
दूसरी ओर, ट्यूनिंग फॉर्क की बाहरी सीमाओं पर हवा की प्रेरित धाराओं (ध्वनि के निरन्तर प्रवाह; acoustic streaming) की गति जो पाउडर की ढेरियों की गति के रूप में प्रकट होती है, वह स्वाभाविक रूप से, हो सकता है, कि झुकाव रेखा पर पड़ने वाले पाउडर के भार के क्षीण भाग की तुलना में कहीं ज़्यादा शक्तिशाली प्रभाव डालती हो, क्योंकि झुकाव का कोण खुद बहुत कम होता है।


गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ गति
प्रसन्ना ने पाया कि यदि हम ट्यूनिंग फॉर्क को थोड़ा-सा (छोटे-छोटे कोणों पर) झुकाएँ तब भी पाउडर की ढेरियाँ गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ धीरे-धीरे ट्यूनिंग फॉर्क पर ऊपर की ओर खिसकतीं रहती हैं3 (चित्र 4)!

रसायन शास्त्र और कविता
एक बार, जब एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारियाँ चल रही थीं तब जो बच्चे उसमें भाग नहीं ले रहे थे, वे पुस्तकालय में अपना समय बिता रहे थे। उनमें से कुछ विज्ञान के कक्ष में आए और रोमांचित भाव से मुझे एक किताब में कुछ दिखा कर बोले कि वे उस प्रयोग को करने की कोशिश करना चाहते थे।
बच्चे एक बीकर में कुछ पानी, बैटरियाँ, एक छोटा बिजली का बल्ब, कुछ नमक और तांबे के तार ले आए। वे यह प्रयोग करके देखना चाहते थे कि नमकीन पानी सामान्य पानी की तुलना में अधिक विद्युत सुचालक होता है। हम सोचते रहे कि पानी में इलेक्ट्रोड का काम करने के लिए क्या डुबोया जाए। फिर मैंने कुछ पेपर क्लिप्स को सीधा किया और तांबे के तारों को उन पर लपेट दिया और इस काम के लिए इस्तेमाल किया। पानी में कुछ नमक मिलाने के बाद, हमने एक इलेक्ट्रोड के पास कुछ छोटे-छोटे बुलबुले बनते हुए देखे लेकिन बल्ब नहीं जला। दो बच्चों ने दो बैटरियों को सीरीज़ क्रम में यह कारण बताते हुए जोड़ दिया कि टॉर्च में रोशनी पाने के लिए दो बैटरियों की ज़रूरत पड़ती है, और तब बल्ब बहुत धीमे-से टिमटिमाया। अब कुछ बच्चों ने पानी में और नमक मिलाया। बल्ब और तेज़ी से चमकने लगा तथा और अधिक बुलबुले भी दिखाई दिए। उसी समय पवन कुमार बोल पड़ा, “अण्णा, यह एक जलप्रपात जैसा दिखता है, लेकिन उल्टे जलप्रपात-सा!” (चित्र-5)।
जिस बात की जाँच करने के लिए प्रयोग शु डिग्री किया था, हम उसकी पुष्टि कर चुके थे, और मैं उम्मीद कर रहा था कि अब वे सब चीज़ें समेट कर उसे समाप्त करेंगे। लेकिन यह उनके लिए काफी नहीं था। वे अब उसमें पूरी तरह डूब गए थे। कोई रसोईघर से और नमक ले आया और उसे पानी में डालकर मिलाता रहा, और वे निरीक्षण करते रहे कि बुलबुले और ज़ोर से पैदा हो रहे थे। कुछ समय बाद नमक का वह घोल संतृप्त हो गया, और उन्होंने उसमें नमक डालना बन्द कर दिया। फिर वह घोल रंग बदलने लगा! ज़ोरदार किलकारियों, विस्मित आवाज़ों और ‘जादुई पानी’ की पुकारों के बीच, हमने देखा कि पानी पहले धुँधला पीला हुआ, फिर हल्का-सा जैतूनी हरे रंग का, और फिर गहरे हरे रंग का (वह एनोड से निकलने वाला अवक्षेप था जो धीरे-धीरे तली में बैठ गया, चित्र 6)। अगली सुबह हमने बीकर की तली में नारंगी-भूरी गाद जमी देखी जिसके ऊपर अपेक्षाकृत साफ पानी था, और एनोड काफी बुरी तरह गल चुका था4।
कैथोड पर बुलबुलों के रूप में हाइड्रोजन गैस मुक्त होती है (इसकी पुष्टि उसके ऊपर जलती हुई माचिस की तीली लाने पर होने वाली ‘फट’ की आवाज़ से हुई) और फैरस आयन पैदा होते हैं (जिनका ऑक्सीकरण होने से वे फैरिक में बदल जाते हैं)। यह क्रिया पेपर क्लिप एनोड के लौह परमाणुओं के नमक के पानी में प्रवेश करने के कारण होती है।

प्रकाश और आवेश
हमने यह दिखाने के लिए कि प्रकाश एक सीधी रेखा में गति करता है, एक पिनहोल (सूक्ष्म-छिद्र) कैमरा बनाया। उसके बाद, हमने एक कागज़ को पहले तेल में डुबो कर और फिर सुखाकर उसे एक पारभासी परदे की तरह इस्तेमाल करके, उस पर एक जलती हुई मोमबत्ती की उलटी छवि देखी। कुछ बच्चों ने इसे कागज़ में कई और छेद करके आज़माया और परदे पर एक मोमबत्ती की कई छवियाँ देखीं, जैसा कि फिल्मों में कभी-कभी विशेष प्रभाव पैदा करने के लिए किया जाता है। हमने (खाना लपेटने वाली) एल्यूमिनियम की फॉइल से एक छोटा-सा टुकड़ा लेकर एक इलेक्ट्रोस्कोप बनाया, उसके एक किनारे को तांबे के तार से बने एक हुक पर फँसा कर उसे एक बीकर में लटकाया, फिर जब हम तेज़ी से रगड़ी गई कंघी को उस काँटे के पास लाए तो हमने एल्यूमिनियम की पन्नी के टुकड़ों की तहों को खुल कर फैलते हुए देखा। पुरानी सीमेंट की थैलियों से निकाले गए रेशों का इस्तेमाल करते हुए (जो श्री राजीव वर्तक की सूझ थी) हम स्थितिज आवेशों (static charges) के बारे में काफी कुछ समझ सके। ऐसे कई रेशों को एक छोर पर इकट्ठा पकड़कर खींचने से रगड़ने पर वे एक-दूसरे से दूर हटते हुए दिखाई दिए - जो समान आवेशों का विकर्षण दर्शाता है। एक घिसा गया रेशा दूसरे ‘न घिसे गए’ रेशे के प्रति आकर्षित होगा क्योंकि वह उस पर आवेशों को प्रेरित करता है। हमारे हाथ भी घिसे गए रेशों के प्रति आकर्षित होते हैं और इसलिए वे रेशे हमारे शरीर से चिपक जाते हैं, जैसे कि हम कोई विशाल मकड़ी या ऑक्टोपस बन गए हों।

दैनिक जीवन में विज्ञान
इसी बीच, हम अन्य विषयों की ओर बढ़ गए थे। हमने पत्तियाँ, बीज, फूल, माचिस की डिब्बियों में रखे गए जुगनू एकत्रित किए, और एक बार एक नन्हीं छिपकली को एक काँच के गिलास में बन्द कर लिया। एक बच्चा ऐसे बीज ले आया जो ‘हैलीकॉप्टर’ कहलाते थे, और उसने मुझे दिखाया कि एक मुट्ठी भर बीजों को हवा में उछालने और फिर हैलीकॉप्टर की तरह उनके धीरे-धीरे नीचे आने का दृश्य कितना रोमांचक होता है। एक दूसरा बच्चा एक सूडकटी (जिसका तमिल में शाब्दिक अर्थ ‘गरम बीज’ होता है) नाम का चमकदार बीज ले आया जो फर्श पर घिसने पर वाकई में बहुत गर्म हो जाता है। सुधर्मा (उम्र-8 साल) ने मुझे दिखाया कि एक खास पौधे के तने से एक पत्ती तोड़कर, पत्ती और तने के बीच रिसने वाले रस पर फूँक मार कर कैसे एक बड़ा बुलबुला बनाया जाता है।

बच्चों के नज़रिए और विज्ञान
स्नातकोत्तर पढ़ाई और शोध कार्य के कठिन परिश्रम से गुज़र चुके होने के कारण, मुझे उम्मीद नहीं थी कि स्कूली बच्चों के पास मुझे सिखाने के लिए कुछ होगा। मैं यह धारणा लेकर आया था कि मैं विज्ञान पढ़ाने के ढंग में शोध करने के कुछ पहलुओं का समावेश करने का प्रयास करूँगा। पर यह देखकर कि वे अनायास असामान्य क्रियाकलापों से सामना होने पर उनकी छानबीन करने में समर्थ थे, मेरी सारी धारणाएँ उलट-पलट और ऊपर-नीचे हो गईं। अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो महसूस होता है कि यह सिर्फ सांयोगिक बात नहीं थी कि ऐसे अनेक ससम्मान सेवामुक्त प्रोफेसर, जिनके सुन्दर कार्य के कारण मैं उनका प्रशंसक रहा हूँ, में शोध करने के प्रति एक ‘बच्चों जैसा’ नटखट खेलप्रिय दृष्टिकोण दिखाई देता है।

शायद बच्चे अहंकार-शून्य सहज वैज्ञानिक होते हैं। हालाँकि वे अपनी हासिल की गई जानकारियों को वैज्ञानिक शब्दावली में नहीं बता सकते, पर तब भी उनमें अच्छा शोध-कार्य करने के लिए आवश्यक अनेक गुण होते हैं। वे पाÐश्वक तरीके से (थ्ठ्ठद्यड्ढद्धठ्ठथ्थ्न्र्) सोच सकते हैं (किसी समस्या को अनेक, अलग-अलग और रचनात्मक तरीकों से समझना व हल करने की कोशिश करना) और तथ्यों के बीच सम्बन्ध खोज सकते हैं, वे धैर्यवान और लगनशील होते हैं, वे न तो असफलता से हताश होते हैं और न ही उससे डरते हैं, वे चीज़ों को करते हुए भी सोचने का काम जारी रख सकते हैं और अगला तर्कसंगत कदम उठा सकते हैं, वे तरकीबें भिड़ा सकते हैं, और वे पूरी तरह सचेत होकर चीज़ों को उसी तरह देख सकते हैं जैसी वे होती हैं और मानो वे उनके बारे में सब कुछ जानते हों। उनके मन में ज्ञान के खण्डों में बँटी हुई धारणा नहीं होती, जिसके कारण वे विज्ञान और कविता तक का एकीकरण कर सकते हैं, जैसा कि पवन कुमार ने किया।

कभी-कभी बच्चे लगभग स्वतंत्र रूप से पेचीदा वैज्ञानिक परिघटनाओं का पता करते हैं, और ऐसा कभी-कभी संयोग से भी हो जाता है। इस कारण मैं सोचता हूँ कि क्या विज्ञान भी कला की तरह सीखना चाहिए जहाँ बच्चों से कुछ नया करने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि ‘कुछ नया’ हर बार एक खोज हो। यह भले ही एक नई समझ या नई व्याख्या हो, नया अवलोकन या किसी परिघटना को दूसरे कारकों से जोड़कर उसे समझने का अलग-सा नज़रिया हो।

अब मुझे अपनी मूल आधार-मान्यता पर ही सन्देह होता है। हो सकता है कि विज्ञान के शिक्षण का विज्ञान करने की वास्तविक प्रक्रिया (अर्थात् शोध करना) के साथ कृत्रिम रूप से तालमेल बनाने की कोई ज़रूरत ही न हो। एक तरह से, बच्चों में पहले से ही एक नैसर्गिक वैज्ञानिकता होती है, और उसे न पहचान पाना और न स्वीकार कर पाना वास्तव में वयस्क लोगों की समस्या होती है। दरअसल, उनके कभी-कभी संयोगवश और कभी जानबूझ-कर किए गए छानबीन के कार्य सीखने के नए अवसर उपलब्ध कराते हैं। हमें बच्चों और उनकी वैज्ञानिक क्षमताओं को तुच्छ समझते हुए उनके प्रति अपने कृपा करने वाले रवैए को छोड़ने की ज़रूरत है, और इसकी बजाय उन्हें संजीदगी से लेने और उनके खुलेपन को सराह सकने के लिए खुद अपने मन को खुला रखने की ज़रूरत है। विज्ञान की कक्षा में शिक्षकों तथा बच्चों के बीच एक खरा संवाद, सीखने को वैज्ञानिक चेतना के प्रति अधिक सच्चा और सभी के लिए अधिक सार्थक बना सकता है।

चुनौतियाँ और आशा
शिक्षकों के ऊपर दिए गए पाठ्यक्रम को निर्धारित समय में पूरा करने का जो ज़बरदस्त दबाव होता है, उसका मुझे अहसास है। ऊपर से, शहरी भारतीय समाज पढ़ाने के व्यवसाय को व्यावसायिक असफलता (अन्य किसी काम के लायक न होने) का संकेत मानते हुए, उसे नीची नज़र से देखता है। स्कूल के शिक्षकों को लगातार सीखते रहने का वातावरण मिलना दुर्लभ होता है क्योंकि उनके पेशेवर विकास और बौद्धिक विकास के अवसर बहुत ही कम होते हैं।

यह बात सभी मानते हैं कि विज्ञान की स्कूली शिक्षा में खामियाँ हैं। पारम्परिक दृष्टिकोण विज्ञान को पढ़ाई के ऐसे विषय के रूप में देखता है जो ठोस तथ्यों पर आधारित होता है, और इन तथ्यों का परीक्षण करने या उनका उपयोग करने की बात तो छोड़िए, उसमें यह खोजने की भी कोई सम्भावना नहीं होती कि पहले-पहल इन तथ्यों को किस तरह जाना गया। विज्ञान की कक्षाओं में वैज्ञानिक पद्धति एक अनाथ की तरह छोड़ दी गई धारणा होती है। यहाँ तक कि गतिविधि-आधारित विज्ञान भी एक चुनौती होती है क्योंकि उसमें इन गतिविधियों को लिखित परीक्षाओं में इस्तेमाल की जाने वाली विज्ञान की भाषा से निरन्तर जोड़ते रहने की ज़रूरत होती है।

ऐसी कठिन मौजूदा परिस्थिति में, सम्भव है कि बच्चे स्वयं ही हमें इससे बाहर निकलने का मार्ग ढूँढ़ने में मदद कर सकें, बशर्ते कि हम उनकी बातों पर ध्यान देने को तैयार हों।


मैं विद्या वनम् के अपने सहकर्मियों तथा वहाँ के बच्चों को उनके प्रेम के लिए, और जो उन्होंने मुझे सिखाया है, उस सब के लिए धन्यवाद देता हूँ।


अनीश मोकाशी: आई.आई.एस.सी., बेंगलूरु में भौतिकी के (स्नातक शिक्षा कार्यक्रम में) शिक्षक हैं। उनसे This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.पर सम्पर्क किया जा सकता है। 

अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी: विज्ञान, टेक्नोलॉजी और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की है। कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब गाज़ियाबाद में रहते हुए स्वतंत्र रूप से अनुवाद कार्य कर रहे हैं।
सन्दर्भों की सम्पूर्ण सूची के लिए आप लेखक से उपरोक्त ई-मेल पर सम्पर्क कर सकते हैं।