अथुलाप्रभा मूर्ति

एक नए अध्ययन से पता चला है कि जीन्स की विविधता की वजह से कुछ लोगों को मलेरिया होने का खतरा ज़्यादा होता है।

भारत में हर साल करीब 20 लाख लोगों को मलेरिया संक्रमण होता है, जिनमें से लगभग 1000 की मृत्यु हो जाती है। हालाँकि, जन स्वास्थ्य नीतियों और बेहतर चिकित्सा सेवा की बदौलत मलेरिया के मामलों में कमी आई है, किन्तु फिर भी दक्षिण एशिया में होने वाले मलेरिया के कुल मामलों में से 77 प्रतिशत भारत में पाए जाते हैं।

यह तो जाना-माना तथ्य है कि मलेरिया का प्रसार मादा एनॉफिलीज़ मच्छर द्वारा होता है; अलबत्ता, जो बात पता नहीं है, वह है कि मलेरिया परजीवी के खून में पहुँच जाने के बाद व्यक्ति के जेनेटिक संघटन से तय होता है कि वह व्यक्ति मलेरिया संक्रमण के प्रति कितना संवेदी है। इंफेक्शन एंड इम्यूनिटी नामक शोध पत्रिका में हाल में ए.एन. झा और उनके साथियों के आलेख में बताया गया है कि मैनोस बाइंडिंग लेक्टिन-2 (MBL2) नामक जीन के विविध रूप मलेरिया के प्रति संवेदनशीलता का निर्धारण कर सकते हैं।

इस जीन द्वारा बनाया जाने वाला प्रोटीन MBL2 उस पूरक प्रणाली का हिस्सा है, जो संक्रामक जीवों के खिलाफ सुरक्षा की प्रथम पंक्ति है। ये प्रोटीन बैक्टीरिया, वायरस या प्रोटोज़ोआ जीव से जुड़ जाते हैं और ऐसे शरीर से इनका सफाया करने हेतु एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को सक्रिय कर देते हैं। पूर्व में किए गए अध्ययनों में MBL2 जीन में 6 ऐसे परिवर्तन देखे जा चुके हैं जिन्हें   सिंगल   न्यूक्लियोटाइड पॉलीमॉर्फिज़्म (एसएलपी, इकलौते क्षार में विविधता) कहते हैं। इनमें से तीन परिवर्तन डीएनए के उस क्षेत्र में पाए गए थे जो प्रमोटर की भूमिका निभाता है मगर किसी प्रोटीन में तबदील नहीं होता। अन्य तीन परिवर्तन प्रोटीन कोड करने वाले क्षेत्र में पाए गए थे। किसी भी आबादी में इन 6 एसएनपी का अलग-अलग सम्मिश्रण पाया जाता है जिससे यह तय होता है कि रक्त सीरम में प्रोटीन की सान्द्रता कितनी होगी। कुछ एसएनपी MBL2 की सान्द्रता को नगण्य स्तर तक कम कर देते हैं जबकि अन्य उसकी मात्रा को 1000 गुना तक बढ़ा देते हैं। सम्भावना यह है कि कमतर MBL2 प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को कम कर देगा और यह किसी संक्रमण से लड़ने में नाकाम रहेगी।

MBL2 और मलेरिया का सहसम्बन्ध समझने के लिए सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी) के कुमारस्वामी तंगराज के समूह ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों के अस्पतालों से 434 मलेरिया मरीज़ों को शामिल किया। इन मरीज़ों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों के अनुसार तीन समूहों में बाँट दिया गया:

  • गैर-लाक्षणिक (ऐसे मरीज़ जिनमें मलेरिया परजीवी तो उपस्थित था किन्तु बीमारी के कोई लक्षण नहीं थे)
  • हल्का मलेरिया
  • गम्भीर मलेरिया

इनके रक्त से जीनोमिक डीएनए निकाला गया और पीसीआर (पॉलीमरेज़ चेन रिएक्शन) की मदद से MBL2 जीन को संवर्धित किया गया और विविधता की जाँच के लिए उसका अनुक्रमण किया गया (यानी उसमें क्षारों के क्रम का पता लगाया गया)। गैर-लाक्षणिक मरीज़ों को तुलनात्मक समूह के रूप में रखा गया ताकि मलेरिया के हल्के व गम्भीर संक्रमणों में जीन विविधता की तुलना उनसे की जा सके। यह देखा गया कि गैर-लाक्षणिक समूह की तुलना में हल्के व गम्भीर संक्रमण के मरीज़ों में MBL2 की अल्प सान्द्रता वाले मरीज़ों का अनुपात दुगना था। यह असर तब और भी ज़्यादा दिखता है जब कोडिंग क्षेत्र वाले तीनों एसएनपी एक साथ मौजूद हों। ऐसे व्यक्ति को गम्भीर मलेरिया होने की सम्भावना अन्य की तुलना में चार गुना ज़्यादा होती है। अर्थात्, MBL2 में परिवर्तन वाकई मलेरिया के प्रति आपकी संवेदनशीलता का निर्धारण करते हैं।

चूँकि भारत मलेरिया प्रभावित क्षेत्र है, इसलिए सवाल यह उठता है कि क्या हमारा जीनोटाइप (जेनेटिक बनावट) हमें एक आबादी के रूप में मलेरिया के प्रति संवेदनशील बना रहा है। इसे समझने के लिए उक्त अध्ययन को देश भर के 830 व्यक्तियों के साथ किया गया। देश के सभी क्षेत्रों की 32 अलग-अलग आबादियों के खून के नमूने लिए गए और MBL2 के एसएनपी का मानचित्रण किया गया। अचरज की बात थी कि कोई अकेला एसएनपी पूरे भारत में हावी नहीं था। इसके अलावा, कम या अधिक सीरम MBL2 वाले हैप्लोटाइप (एक ही गुणसूत्र पर स्थित आनुवंशिक निर्धारकों का जोड़ा) देश के किसी क्षेत्र में सीमित नहीं थे और इनकी उपस्थिति का मलेरिया के प्रकोप से कुछ लेना-देना नहीं था। दरअसल, विभिन्न परिवर्तित जीन्स एक ही क्षेत्र में साथ-साथ पाए जाते हैं। इससे पता चलता है कि मलेरियाप्रभावित क्षेत्रों में भी MBL2 के अलग-अलग रूपों का होना मलेरिया से बचाव में कोई अज्ञात लाभ प्रदान करता है।

मलेरिया  के  प्रति  जेनेटिक संवेदनशीलता को दर्शाने वाला यह पहला अध्ययन है। यह अध्ययन सम्भावित  उपचारों  में  MBL2 के उपयोग से सम्बन्धित वर्तमान अध्ययनों को प्रोत्साहन भी प्रदान कर सकता है।
वैसे तंगराज इस अध्ययन के ज़्यादा व्यापक नतीजों के बारे में अटकलें लगाने से इन्कार करते हैं, मगर उम्मीद करते हैं कि जेनेटिक संवेदनशीलता सम्बन्धी जानकारी सार्वजनिक स्वास्थ्य और रोकथाम में मददगार हो सकती है। वे संवेदनशील आबादी को चेतावनी देते हैं कि खुद को संक्रमण से बचाने के प्रति ज़्यादा सचेत रहें।


अथुलाप्रभा मूर्ति: येशिवा कॉलेज, पेन्नसिलवेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी चिकित्सा कॉलेज में क्लिनिकल असिस्टेंट प्रोफेसर। इंडिया बायोसाइंस, बंगलूरू की पूर्व डायरेक्टर। विज्ञान लेखन में गहन रुचि।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।