शुभ्रा मिश्रा

मेरे मन में एक स्वाभाविक सवाल था कि आखिर बच्चा पढ़ना कैसे सीखता है, इसलिए मैंने अपनी माँ से पूछा, “मैंने पढ़ना कैसे सीखा?” माँ ने कहा, “जैसे सब सीखते हैं, तुमने भी सीखा।” मैंने फिर से पूछा, “सब कैसे सीखते हैं?” इस पर माँ का सीधा और झुंझलाहट भरा जवाब था, “सब अपने आप सीखते हैं।” माँ को मेरे सवाल बिना सिर-पैर के लग रहे थे और उनको मेरा पढ़ना सीखना शायद इतना महत्वपूर्ण भी नहीं लगा कि उस पर ध्यान दिया जाए। माँ के साथ इस बातचीत ने ढेरों और सवाल खड़े कर दिए जैसे कि यदि सब एक जैसे पढ़ना सीखते हैं तो बहुतेरों के लिए पढ़ना बोझ क्यों, और पढ़ना अपने आप आता है तो स्कूल क्यों?

फिर, स्कूल में शिक्षकों के साथ इस विषय पर बातचीत की कि बच्चा पढ़ना कैसे सीखता है, बच्चों को पढ़ने में क्या मुश्किलें होती हैं। वे क्या तरीके हो सकते हैं जिससे बच्चे पढ़ना आसानी-से सीखें, कैसे पढ़ना सीखने की प्रक्रिया बोझिल न होकर रोचक हो? विभिन्न शिक्षण विधिओं और गतिविधिओं का ज़िक्र करते हुए एकलव्य ‘पिटारा’ के पाठ्य-संग्रह का उपयोग करने की पैरवी भी की। ‘पिटारा’ की पाठ्य सामग्री का विस्तृत प्रयोग करके कैसे शुरुआती पढ़ने की प्रक्रिया को सम्पोषित किया जा सकता है, यह मैंने पाँच वर्ष के अपने बच्चे के साथ करके देखा। एक बच्चा पढ़ने-लिखने की शुरुआत कैसे करता होगा, इसका अनुभव सबसे पहले मुझे एक माँ के रूप में हुआ। यह लेख एक बच्चे की शुरुआती पढ़ने की प्रक्रिया और इस अनुभव से बनी मेरी समझ को बयाँ करता है। वास्तव में, मेरा बच्चा एक बालक है फिर भी मैंने इस लेख में उसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग किया है क्योंकि सीखने की प्रक्रिया में किसी बच्चे के लिंग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

एक बार हम रेल्वे क्रॉसिंग से गुज़र रहे थे। तब तीन वर्ष की मेरी बच्ची ने फाटक पर लिखा हुआ ‘स्टॉप’ पढ़ा। उसने कहा, “स्टॉप! मम्मी रुको, ट्रेन निकलेगी।” यह पहला अवसर था जब मैंने उसको पढ़ने की प्रक्रिया में शामिल देखा। मुझे अपना अनुभव स्मरण हो चला जब मैं कलकत्ता शहर के होर्डिंग्स पर लगे विज्ञापनों को देखकर बांग्ला भाषा के शब्दों को पहचानने की उधेड़बुन में थी। बांग्ला के शब्दों को पढ़ने का आधार विज्ञापनों के चित्र थे जो मेरे लिए सन्दर्भ रच रहे थे। शब्दों की दुनिया में नए-नए चित्रों या आकृतिओं को देखना और उन्हें किसी सन्दर्भ से जोड़ते हुए इन चित्रों का मतलब गढ़ना, मेरे मस्तिष्क को प्रेरित कर रहा था और मैं ज़्यादा-से-ज़्यादा शब्दों के अर्थ खोजते हुए खुश हो रही थी। इसी तरह अब मेरी बच्ची भी ऐसी आकृतियों को देखकर उनके मतलब जानने की खोज में जुट रही होगी, वह ज़्यादा-से-ज़्यादा शब्दों को देखना चाहती होगी और उन्हें बोलना चाहती होगी। भाषाविद् रमाकान्त अग्निहोत्री कहते हैं कि ‘यह पढ़ने की शुरुआत है जहाँ आप शब्दों को अपने पूर्वज्ञान और सन्दर्भों से जोड़ते हुए अर्थ-निर्माण करते हैं’। अब उसके प्रति मेरे अवलोकन गहन हो चले थे। मैं यह जानने की कोशिश कर रही थी कि आखिर एक बच्ची पढ़ने की शुरुआत कैसे करती है। एक-दो दिन में उसने कुछ और शब्द पढ़े जैसे अमेज़ॉन, बिगबाज़ार, मॉल। वह इन शब्दों के मतलब सन्दर्भों के साथ जानती थी। बिगबाज़ार आने पर उसका घर आने वाला होता है।

बच्ची की शब्दों के साथ इस जान-पहचान को व्यापकता की ओर ले जाना था इसलिए मैंने ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रिंट-रिच वातावरण बनाने की कोशिश की। यानी कि ज़्यादा-से-ज़्यादा पढ़ने के मौके देना। वैसे तो घर में बहुत-सी किताबें हैं लेकिन वे कौन-सी किताबें हों जिनसे बच्चे का जुड़ाव बने, यह चुनाव करना महत्वपूर्ण था। सो उसके पापा ने एक दिन एकलव्य प्रकाशन से पोस्टर्स, शब्द कार्ड, चित्र कहानियाँ आदि मँगा लिए। सामग्री तो आ गई लेकिन इसका प्रयोग कैसे हो, यह एक सवाल था। क्या बच्ची को सीधे-सीधे पढ़ाया जाए या फिर कुछ और तरीके ईज़ाद किए जाएँ।

पोस्टर से शुरुआत
पिटारा के पोस्टर हिन्दी और अँग्रेज़ी की छोटी-छोटी कविताओं के थे। पोस्टर पर बच्चों के मुताबिक लुभावने (ब्लेक एंड व्हाइट) चित्रों के साथ कविताएँ लिखी थीं। अन्य बच्चों की तरह मेरी बच्ची को भी रंगों से खेलना बहुत पसन्द है। मैंने एक योजना बनाई कि सबसे पहले ब्लैक एंड व्हाइट पोस्टर को रंगीन बनाया जाए। इसलिए हम दोनों ने प्रत्येक रविवार को एक पोस्टर को रंगने और दीवार पर चिपकाने का सिलसिला शुरू किया। शुरुआत करते हुए बच्ची की पसन्द का पोस्टर लिया और उसमें उसके मन-माफिक रंग भरा। रंगते हुए हम पोस्टर पर लिखी हुई कविता के बारे में बात करते थे; जैसे कि ‘एक खबर दिल्ली से आई...मक्खी रानी उसको लाई...’ पढ़ते हुए उसने पूछा कि ‘खबर’ क्या होता है?, ‘मटका’ क्या होता है?, हाथी मटके के अन्दर कैसे घुसा, इतने बड़े हाथी को मच्छर ने मारा होगा तो मच्छर भी बड़ा बन गया होगा आदि। मैं कविता बोलते समय अपनी उंगली सम्बन्धित शब्दों पर रखते हुए उन पर ज़ोर देती थी। मेरा ऐसा करना कविता के मज़े को बाधित नहीं करता था। जल्द ही हमें पोस्टर पर लिखी हुई कविताएँ याद होने लगीं। साथ ही, नए पोस्टर के साथ नई कविता भी हर रविवार को चिपक जाती थी। अब तो एक होड़-सी मच गई थी कि कब इतवार आए और पोस्टर रंगें एवं लगाएँ। अभी मेरी बच्ची दिनों और सप्ताह को समझती नहीं थी इसलिए उसके लिए मम्मी की छुट्टी का दिन ही पोस्टर का दिन होता था। वह सप्ताह में एक-दो बार पूछ लेती थी, “मम्मी क्या कल है पोस्टर वाला दिन?” पोस्टर वाले दिन का उसे इन्तज़ार रहता था क्योंकि उस दिन उसे एक नई कविता मिलती थी।

वह अकेले भी इन कविताओं को मज़े-से गाती थी। मेरा अवलोकन था कि मेरे द्वारा उंगली रखने का उद्देश्य पूरा हो रहा था क्योंकि वह अनजान शब्दों पर अपनी उंगली रखकर अन्दाज़ लगाकर पढ़ने की कोशिश कर रही थी। बच्ची की ऊँचाई पर लगे ये पोस्टर घर पर आने-जाने वालों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र थे। जब कोई पोस्टर के विषय में बात करता था तो बच्ची की आँखों में आत्मविश्वास और आवाज़ में दम झलक उठते थे। मानो उसे लगता था कि उसके बारे में ही बात हो रही है। एक दिन वह अपने एक दोस्त (जो घर आया था) के साथ पोस्टर (पापा की चपाती) के बारे में बात कर रही थी, “तुम्हें पता है कि इस बच्चे के पापा रोटी बनाते हैं, हमारी तो मम्मी बनाती हैं।” दोस्त ने पूछा, “इसके पापा ऑफिस नहीं जाते क्या?” तो बच्ची ने उत्तर दिया, “जैसे हमारी मम्मी ऑफिस जाती हैं और रोटी बनाती हैं वैसे ही उसके पापा भी बनाते होंगे।” इस वार्तालाप को मैं दूर से सुन रही थी और सोच रही थी कि कैसे अँग्रेज़ी में लिखा हुआ टेक्स्ट भी बच्चों को अपने से जोड़ रहा है। वह अपने सन्दर्भ के साथ कविताओं के शब्दों को अदल-बदल कर भी बोल रही थी। पोस्टर को रंगना, उन पर बातचीत करना पाठ्य सामग्री के साथ बच्ची का रिश्ता बनाने में खूब काम आए। एक-एक करके सभी पोस्टर लगा दिए गए। यह बच्ची को कल्पनाशीलता, अनुमान लगाना, तर्क करना, शब्दों का प्रयोग, साहित्य में आनन्द जैसे मौलिक उद्देश्यों की तरफ ले जा रहा था। मुझे लगा कि यह पूरी प्रक्रिया एक तैयारी थी, साहित्य की दुनिया में बच्ची के पैर जमाने की।

शब्द कार्डों का प्रयोग
इसके बाद मैंने कार्डों का डिब्बा खोला। मैंने कार्डों का प्रयोग एक खेल की तरह किया जिसे मैं बच्ची को खाना खिलाते हुए खेलती थी क्योंकि वह बड़ी मुश्किल से खाना खाती थी। जब हम यह खेल खेलते तो वह आराम-से खाना खाती थी। खेल के लिए मैंने कुल दस (दो अक्षर वाले) शब्द कार्डों को लिया। प्रत्येक कार्ड के एक तरफ उनके चित्रों के साथ शब्द हिन्दी में लिखे हुए हैं और दूसरी तरफ सिर्फ शब्द लिखे हैं। मैं इन दस कार्डों को बच्ची के सामने चित्रों की तरफ से लगा देती थी जिन्हें उसे पढ़ना होता था। वह एक-एक करके चित्र देखते हुए शब्दों को पहचानती थी। जब वह सभी दस कार्ड पढ़ लेती थी तब मैं उन कार्डों को पलट देती थी। अब कार्ड पर सिर्फ शब्द लिखे दिखते थे। अब मैं अमुक शब्द का कार्ड देने के लिए उसे कहती थी। इस खेल को वह बहुत मज़े के साथ खेलती थी और मैं उसके साथ खाना खिलाने का काम भी आसानी-से खत्म कर पाती थी। यह खेल बच्ची को इतना अच्छा लगता था कि वह मेरी अनुपस्थिति में अपनी केयर टेकर के साथ खेलती थी और खाना खा लेती थी। दस-पन्द्रह दिनों के अन्दर बच्ची ने कार्डों पर लिखे सभी शब्दों को पहचानना शुरू कर दिया।

इस दौरान शब्दों के साथ सिर्फ जान-पहचान ही नहीं हुई बल्कि उनके साथ जुड़ी हुई ध्वनियाँ भी शामिल हो गईं। शब्दों के साथ बना यह रिश्ता इतना गहरा था कि वह जहाँ कहीं इन शब्दों को देखती तो पढ़ने लगती और उनके अर्थ निकालने की कोशिश करती। साथ ही, ध्वनियों के आधार पर नए शब्दों को भी पढ़ पा रही थी। अब बच्ची को तीन-चार शब्द-चित्र कार्ड दिए जाते थे और फिर उन कार्डों को पढ़कर बच्ची को कुछ बातें बोलनी होती थीं। वह कभी-कभी ऐसी बातें बोलती थी जो मुझे समझ ही नहीं आती थीं इसलिए मैं बात को और कुरेदती थी। एक दिन मेरी बात उसकी समझ में नहीं आई तो उसने भी मेरी तरह बातों को कुरेदा और कहा, “तुम्हें भी तो कभी-कभी मेरी बात समझ नहीं आती है।”

फिर वह अपने आसपास लिखे हुए वाक्यों के अर्थ निकालने और उनके निर्माण में जुट जाती थी। आनन्द और रोचकता के कारण पढ़ने की प्रक्रिया बहुत ही नैसर्गिक हो गई थी। धीरे-धीरे वह चार साल और चार-पाँच महीने की उम्र में अपने सन्दर्भ के वाक्यों को पढ़ने लगी थी। फिर उसने चित्र-कहानी की किताबों को पढ़ना शुरू किया। अखबार की हेडिंग्स पढ़ने में उसे मज़ा आता था क्योंकि उसे नए शब्द और नई बातें करने को मिलती थीं। मैंने देखा कि यह पाठ्य सामग्री बच्ची को अपनी कहानियाँ और कविताएँ बुनने के लिए ज़मीन तैयार करने का काम कर रही है। शब्द-चित्र कार्डों का महत्व मेरे सामने तब और स्पष्ट हुआ जब एक दिन बच्ची की केयर टेकर ने मुझसे पूछा कि मुझे ये कार्ड कहाँ से मिले और उसको भी ये लेने हैं। मुझे लगा कि वह अपने बच्चों के लिए लेना चाहती होगी किन्तु यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि उसने स्वयं पढ़ना सीखने के लिए कार्ड लेने चाहे। केयर टेकर को सिर्फ अक्षर ज्ञान ही था, वह ज़्यादा पढ़ना-लिखना नहीं जानती है। उसने मुझे बताया कि वह भी इन कार्डों से मेरी बच्ची के साथ पढ़ना सीख रही है।

अभी तक बच्ची को ठीक से पेंसिल पकड़ना नहीं आता था और एक शब्द लिखने में भी वह बहुत समय लेती थी। मुझे डर लगा कि लिखने पर ज़ोर देना अभी तक के मज़े को उबाऊ न बना दे, इसलिए लेखन को समय पर छोड़ दिया। किन्तु वह चित्रों और रंगों के माध्यम से अपनी कहानियों और कविताओं को अभिव्यक्त करती थी। छोटे बच्चे के लिए पढ़ने और साहित्य के साथ जुड़ने की प्रक्रिया का आनन्दमय होना मूलरूप से काफी महत्वपूर्ण है।

लगभग एक साल चली इस प्रक्रिया से मैंने एक बच्चे के पढ़ना सीखने के तरीके को समझा। इस प्रक्रिया में पाठक साक्षरता के उद्देश्यों के करीब पहुँच रहा है। इसमें उत्साह के साथ पढ़ने की आदत का विकास, संवेदनशीलता, अभिव्यक्ति और साहित्य में रुचि जैसी कुशलताएँ सम्मिलित हैं। साथ ही, प्रत्येक बच्चा अपने पढ़ने के तरीके स्वयं से विकसित करता है, और इसकी जड़ शिक्षा सिद्धान्तों में निहित है। जिन कुछ सिद्धातों को मैंने अपनाया था उनका यहाँ उल्लेख करना उचित होगा।

* प्रत्येक बच्चे के पास कहने और जानने के लिए बहुत कुछ होता है, साथ ही बच्चे बहुत ही संवेदनशील होते हैं। बच्चे अपनी बातों को तभी आपके साथ सहजरूप से साझा करेंगे जब आप उनकी बातों को समझेंगे और उन्हें महत्व देंगे। इसलिए, आपका बच्चे के प्रति स्नेहिल स्वभाव शुरुआती पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में उत्प्रेरक का कार्य करता है।

* बच्चों के पास ज़्यादा-से-ज़्यादा पढ़ने के मौके होने चाहिए यानी कि स्कूल, घर या आसपास का वातावरण पढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला हो।

* जब पाठ्य सामग्री के साथ पाठक का जुड़ाव होगा तब ही वह पाठ्य के मर्म को जिएगा, उस पर अपनी प्रतिक्रिया देगा। यह प्रतिक्रिया पाठक के अपने अनुभव और सन्दर्भों का प्रतिरूप होती है इसलिए एक पाठ्य के अनेक प्रतिरूप सम्भव हैं।

* पाठ्य सामग्री के साथ पाठक का जुड़ाव बनाने के तरीके पाठक की उम्र और सन्दर्भ के अनुसार ही होने चाहिए। इसलिए साहित्य का चुनाव सतर्कता के साथ बच्चे के रुझान के अनुरूप किया जाना चाहिए। पढ़ने की शुरुआती प्रक्रिया में पोस्टर का प्रयोग बहुत सार्थक था। कुछ शालाओं में शिक्षक बच्चों के द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुएँ जैसे बिस्कुट, साबुन, टॉफी आदि के खाली पैकेट दीवारों पर लगाते हैं।

* पाठ्य का अर्थ पाठक की पृष्ठभूमि, सन्दर्भ और पूर्वज्ञान का मिलाजुला रूप होता है। यह संवेदनशीलता का भाव भी मज़बूत करता है। बाल साहित्य बच्चों के मन में जो गुदगुदाहट और रोचकता उत्पन्न करता है, वह पाठक के लिए प्रेरणादायक है।

* पढ़ने के लिए प्रेरणा का होना आवश्यक है। हमारा यह दायित्व है कि हम पाठक को उचित, रोचक और सन्दर्भ से जुड़ती हुई विषयवस्तु उपलब्ध कराएँ। उसमें बड़े चित्रों के साथ कम टेक्स्ट की कहानी की किताबें उपयोगी होती हैं।

* यह समझना आवश्यक है कि बच्चों का ध्यान लम्बे समय तक एक जगह केन्द्रित करना अपेक्षाकृत कठिन होता है इसलिए उनके लिए कम समय के पाठ्यों का चुनाव किया जाए।

अन्त में, पढ़ना सीखने की प्रक्रिया को समझना मेरे लिए एक दिलचस्प अनुभव रहा। इस अनुभव को व्यापकता से समझने के लिए अन्य स्रोत सामग्री को पढ़ने की प्रेरणा मिली। पढ़ना एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें पाठक दिन-प्रतिदिन नए कौशल विकसित करते हैं। पढ़ने की शुरुआत करने वाले पाठक से यह अपेक्षा नहीं होनी चाहिए कि वह भाषा के उच्च कौशल जैसे समालोचना या फिर शब्दों को लिखना, उनका सही उच्चारण आदि करें। यह समय के साथ धीरे-धीरे अभ्यास करने से आता है। प्रत्येक पाठक की स्वयं की सीखने की गति होती है और सीखने की प्रक्रिया में उस गति को ध्यान में रखना आवश्यक है। मैंने देखा है कि बच्चों को कभी-कभी होमवर्क में दस-दस बार ‘अ से ज्ञ’ तक लिखने के लिए दिया जाता है जो उनके लिए बहुत ही बोझिल होता है। अर्थहीन लिखने पर ज़ोर देने से पढ़ने की मज़ेदार प्रक्रिया के उबाऊ बन जाने का गम्भीर खतरा मौजूद रहता है।


शुभ्रा मिश्रा: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड में कार्यरत हैं।
चित्र: हीरा धुर्वे: भोपाल की गंगा नगर बस्ती में रहते हैं। चित्रकला में गहरी रुचि। साथ ही ‘अदर थिएटर’ रंगमंच समूह से जुड़े हुए हैं।