पारुल बत्रा

बेटे जस से जुगलबन्दी के कुछ अनुभव

हाल में ही मेरा बेटा जसकरन (जस) पाँच साल का हुआ है, डेढ़ साल का होते-होते वह पूरे वाक्य अच्छी तरह से बोलने लगा और अपनी बातें भी हमें समझाने लगा। जैसे ही बोलना शुरू किया, उसकी बातें, सवाल और अवलोकन सुनकर मैं कई बार हैरान भी होती थी, परेशान भी और खुश भी कि वह किस तरह से अपने आसपास की दुनिया और चीज़ों को समझने में लगा हुआ है। कई बार उसके सवालों के जवाब मेरे पास भी नहीं होते थे, कई बार मैं इस सोच में पड़ जाती थी कि इसने ऐसा क्यों कहा, इसने ऐसा कैसे सोचा या कहाँ सुना। कुछ चीज़ों के सूत्र तो मुझे समझ आते भी थे, तो कुछ के नहीं भी। तब मेरे मन में यह सवाल आया कि जो भी आसपास दिख रहा है या महसूस हो रहा है, हर चीज़ एक ‘अवधारणा’ ही तो है, चाहे वह कोई वस्तु हो, विचार या फिर प्रक्रिया। ये सब अवधारणाएँ बच्चे कैसे सीखने की कोशिश करते हैं और उसमें उनकी तरफ से सीखने की क्या जद्दोजहद शामिल होती है?

तब मैंने अवधारणाएँ कैसे बनती हैं और बच्चे कैसे सीखते हैं, इस पर गौर करने की कोशिश की...कुछ चीज़ों पर जस से बातचीत करके समझने की भी कोशिश की कि उसके मन में क्या चल रहा है। और खुद समझने के लिए मैंने उसके सवालों को अपनी समझ के अनुसार इस तरह मोटे तौर पर वर्गीकृत कर लिया।


किसी चीज़ के बारे में ‘स्कीमा’ यानी मस्तिष्क में उसकी व्यवस्थित और अर्थपूर्ण व्याख्या, दूसरे शब्दों में कहें तो एक मुकम्मल राय बनने को ही अवधारणा बनना कहते हैं। और शिक्षाशास्त्री पियाजे के अनुसार पुराने स्कीमा (यहाँ स्कीमा से अभिप्राय किसी चीज़ की अवधारणा से है) में परिवर्तन होते रहते हैं और नए अनुभवों से इन स्कीमाओं में नई जानकारी जुड़ती रहती है। बच्चा कोई कोरी स्लेट नहीं होता कि उस पर किसी नए ज्ञान की इबारत लिख दी जाए।

तो ऐसे कई अनुभव और अवलोकन मैं यहाँ आपसे साझा कर रही हूँ, जिनमें एक बच्चा शायद अपने लिए कुछ नए स्कीमा बनाने की जद्दोजहद में है। अधिकतर को शुरुआती स्कीमा और कुछ को मध्यवर्ती स्कीमा (नई और पुरानी) में भी रखा जा सकता है।

भाषा और अनुभव  
मुझे अच्छी तरह से याद है कि बीस माह की उम्र में मटन की मोटी हड्डी चूसते हुए उसने कहा था, “आम खा रहा हूँ।” तब मैं चौंकी और मुझे याद आया कि पिछली गर्मियों में जब आम आए थे तब तो यह बमुश्किल एक साल का रहा होगा और तब उसने आम की गुठली चूसी होगी। तो इस चूसने और उस चूसने में स्वाद का अन्तर तो है लेकिन चूसने की प्रक्रिया एक समान है इसलिए उसने अपने पुराने अनुभव को ध्यान में रखते हुए नए अनुभव से उसकी तुलना की। अपने इस अनुभव की व्याख्या भी उसके आधार पर की।

कमला मुकुन्दा अपनी किताब आज स्कूल में तुमने क्या पूछा में कहती हैं कि जो कुछ भी सीखा जा रहा है वह पूर्व-ज्ञान और अनुभवों में ही जोड़ना, घटाना और उलट-फेर (बदलाव या समायोजन) होता है और यह उतना आसान भी नहीं होता। अपने पूर्व-ज्ञान के अनुभवों के आधार पर ही बच्चा नए ज्ञान की व्याख्या करता है। यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि बच्चे के मन में कोई अवधारणा कैसे बनती है। बच्चे विविध अनुभवों से गुज़रते हैं और वे जो अनुभव करते हैं, उसकी व्याख्या भी करते हैं और यह व्याख्या उनके पास पहले से मौजूद ज्ञान के प्रकाश में ही की जाती है। मान लीजिए किसी तीन साल के बच्चे ने रेस्टोरेंट में पहली बार टोमेटो केचप की बोतल और मेन्यू कार्ड देखा। उसने केचप की बोतल को ‘दूध की बोतल’ कहा और मेनू कार्ड को ‘किताब’ क्योंकि अभी बच्चे के पूर्व-अनुभव सीमित हैं और उसे अभी इतना पता है कि दूध की बोतल और केचप की बोतल की आकृति में समानता है और केचप की बोतल में ऊपर उठा हुआ भाग दूध की बोतल के ‘निप्पल’ जैसा लगता है और कोई भी ‘लिखी हुई चीज़’ जिसे लोग उठाकर पढ़ते हैं, ‘किताब’ जैसी लगती है, यह अवधारणाओं का एक ‘मोटा वर्गीकरण’ है। अगले स्तर पर इन्हें और बारीकी-से वर्गीकृत कर देखने पर बच्चा दूध की बोतल और केचप की बोतल में बारीक अन्तर समझते हुए, उनमें फर्क करना सीख जाएगा।

वह बच्चा जिसे किताबें हाथ में लेने और देखने का अनुभव है, यह समझ सकता है कि हर छपी हुई सामग्री किताब नहीं होती। वह हाथ में डायरी या टेबल कैलेंडर दिए जाने पर उलट-पलट कर समझने की कोशिश करते हुए देखता है कि यह किताब से फरक कैसे है। तो वह केवल आकृति और आकार के आधार पर अन्तर नहीं कर रहा होता। यहाँ उनका वज़न, रंग, टेक्सचर और उपयोगिता - सभी श्रेणियों में वर्गीकृत कर यह समझने की कोशिश होती है कि दरअसल ये वस्तुएँ अलग-अलग कैसे हैं और यह जानकारी प्राप्त करने की कवायद स्वयं के स्तर पर ही की जा रही है।

एक बार जस ने मेरे फोन में एक संगमरमर की मूर्ति की फोटो देखी और कहा, “भगवान!” क्योंकि वह मूर्ति किसी देवी की प्रतिमा जैसी लग रही थी, पर थी वह मात्र एक मूर्ति ही। लेकिन बच्चे ने मन्दिर में जो प्रतिमाएँ देखीं, वे इस प्रतिमा से काफी मिलती-जुलती थीं। इस कारण उसने इसे भी ‘भगवान’ कहा। मुझे आश्चर्य हुआ कि दो साल का बच्चा कितनी बारीकी-से चीज़ों का अवलोकन कर सकता है।

डूबना और गीला होना - इसका उदाहरण मुझे देखने को तब मिला जब मैं उसे एक कहानी सुना रही थी जिसमें एक पात्र साही मछलियों को पानी में तैरते देखकर कहती है कि - पानी में इनके घर कैसे होंगे? मैं तो डूब ही जाऊँगी।

तब जस हर बार कहानी सुनाने पर कहता था कि मैं तो ‘गीला’ हो जाऊँगा। वह ‘डूब जाऊँगा’ की जगह हर बार ‘मैं तो गीला हो जाऊँगा’ से बदल देता था। अभी वह बमुश्किल दो साल का है, गीला होना तो उसके अनुभव में शामिल है लेकिन डूबना उसके अनुभव में शरीक नहीं है इसलिए ‘डूबने की अवधारणा’ अभी नहीं बनी है। लेकिन यह अवधारणा तब विकसित होना शुरू हुई जब वह अपने पापा के साथ स्विमिंग पूल गया और कई लोगों को वहाँ तैरते और डुबकी लगाते हुए देखा, तब डुबकी लगाने से ‘डूबने’ की बात शायद कुछ साफ हुई। इससे यह बात भी समझ आती है कि नई अवधारणाएँ बनने के लिए विविध अनुभवों का होना भी ज़रूरी है। और एक अवधारणा का बनना अन्य अवधारणाओं के बनने को गति प्रदान करता है। कमला मुकुंदा की यह बात भी मुझे सटीक लगती है कि - सभी बच्चे वास्तविकता की अपनी पूर्व-धारणाओं से ही सीखना प्रारम्भ करते हैं। चाहे वह एक नया शब्द ही क्यों न हो।

पुल - हम सभी जानते हैं कि पुल किसे कहते हैं लेकिन उस पुल की अवधारणा को क्या किसी और जगह नए सन्दर्भ में रचनात्मक रूप से उपयोग कर पाते हैं? परन्तु बच्चों के लिए इस तरह से सोचना शायद स्वाभाविक लगता है। हमारे घर के बाहर बगीचे में एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक रस्सी बन्धी थी। तब जस ने रस्सी को देखकर कहा, “यह पुल है।” अरे हाँ! सच ही तो है, खास तौर से अगर किसी चींटी को बगीचा पार करना हो, यह सोचकर मैं मन ही मन मुस्कुराई। मतलब उसके मन में पुल की यह अवधारणा तो स्पष्ट है कि कोई भी चीज़ जो दो सिरों को जोड़ने का काम करे, पुल कहलाएगी।

अनुभव गुँथे हुए हैं - एक भाषाई अनुभव दूसरे अनुभव को विस्तार देने, उसे नया रंग देने और उसे बेहतर समझने में काम आता है।
उदाहरण:1 - जस को बहुत प्यास लगी थी। उसने मुझसे पानी माँगा, जब मैंने पानी दिया तो उसने एक साँस में पूरा गिलास पीकर कहा, “प्यासी मैना।” मैंने उसकी बात समझते हुए कहा, “प्यासी मैना ने जैसे पिया था, वैसे पिया।” तो वह बहुत खुश हो गया और कहा, “हाँ, प्यासी मैना जैसे!”
उदाहरण:2 - रोज़ सुबह उठकर जस के पापा जस से पूछते हैं कि तुमने क्या सपना देखा?
पापा - सपना देखा था? क्या देखा?
जस - काऊ आई थी ऊऊममहाहा... (गाय की आवाज़ निकालते हुए)।
पापा - फिर क्या हुआ? चिड़िया आई थी?
जस - हाँ, चिड़िया भी, ट्वीट ट्वीट...।
पापा - फिर गाय को खुजली हुई तो चिड़िया ने पीठ खुजला दी, फिर चिड़िया उड़ गई।
जस - फिर चिड़िया को दिखे बहुत सारे बैलून। (यहाँ अनोखा घोंसला नामक एक किताब की कहानी की घटना को सपने में जोड़कर आगे बढ़ा लिया गया है।)

एक किताब को पढ़ने का अनुभव, उसमें जिस तरह से आश्चर्य का भाव आया है, वही आश्चर्य का भाव यहाँ जस ने अपना सपना सुनाने में उस कहानी को जोड़कर लाने की कोशिश की है। बच्चे भाषाई विविधता और भावों को स्पंज की तरह सोखते हैं। कार्टून या टीवी पर इस तरह के वाक्यों को सुनना, जैसे - मैं यह काम करने में माहिर हूँ, या यह बहुत दिलचस्प है, या यह बहुत स्वादिष्ट है, जैसे वाक्य कहना या फिर ‘अरे वाह! ये रहा!’ जैसे वाक्यांशों का सही सन्दर्भ में सही जगह उपयोग कर पाना सम्भव हो पाता है। भाषा सीखते हुए बच्चे उसे जस-का-तस नहीं बोलते, वे पूरे सन्दर्भ के साथ ही सीखते हैं इसलिए वे सही जगह पर उसका इस्तेमाल भी कर पाते हैं।

शब्दों के शाब्दिक अर्थ - भाषा सीखने की शुरुआती प्रक्रिया में (दो से तीन वर्ष की उम्र में) बच्चे शब्दों के शाब्दिक अर्थ ही ग्रहण करते हैं। वे शब्द जो शब्दश: अर्थ नहीं रखते या जो कहा जा रहा है उसके अलावा भी कोई अर्थ होता है (meaning beyond the text or hidden meaning and inferences), ऐसे शब्द समझने में उन्हें कठिनाई होती है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, भाषा के प्रयोगों और खेलों से बच्चे परिचित होते जाते हैं और पाँच वर्ष की आयु में तो शब्दों और भावों में छुपे हुए अर्थों को भी पकड़ने और उपयोग में लाने लगते हैं।

कुछ उदाहरण (दो-तीन वर्ष की आयु) 

  • मम्मा - मैं सोने जा रही हूँ।
    जस - आप कहाँ जा रहे हो, मत जाओ।
    मम्मा - मैं सोने जा रही हूँ।
    जस - आप सो जाओ (वह नहीं चाहता कि मैं जाने की बात करूँ)।
  • मम्मा (खाँसते हुए) - मुझे खाँसी चल रही है।
    जस - क्या चल रहा है?
    हवा चल रही है कहने पर समझने में कठिनाई नहीं होती क्योंकि उसे हम देख सकते हैं लेकिन खाँसी आने की जगह खाँसी ‘चलना’ कहने पर ‘चलना’ अपने शाब्दिक अर्थ के अलावा दूसरा अर्थ भी रखता है।
  • पापा - कार खराब हो गई है।
    जस - फिर आप कार को कौन-से अस्पताल में ले जाओगे?
  • मम्मा - एसी की ठण्डी हवा खा लो।
    जस - कैसे खाएँ?

कुछ उदाहरण (चार-पाँच वर्ष की आयु)
इसके अलावा मुझे एक बात और समझ में आई कि बच्चे सन्दर्भ से अर्थ का अनुमान लगा ही लेते हैं, उन्हें हर वाक्य या नए शब्द का अर्थ बताने की ज़रूरत नहीं होती। जैसे एक कहानी को पढ़ते समय एक वाक्य आया - सपना ने चींटियों की लम्बी कतार देखी। “कतार मतलब लाइन,” जस ने खुद ही कहा, फिर हम आगे कहानी पढ़ने लगे। ऐसा अन्य कई शब्दों के साथ भी हुआ।

मुहावरे इस बात का सटीक उदाहारण हैं कि उनमें वह शाब्दिक अर्थ नहीं होता जो कहा गया है। शब्द शक्ति की इस लक्षणा और व्यंजना को समझने में बच्चों को कुछ समय लगता है। लेकिन वे उपयोग करते-करते मुहावरों के सही प्रयोग कर ही लेते हैं। मैंने ‘बाल-बाल बचे’ और ‘आँखें फटी-की-फटी रह जाना’ मुहावरों का जस को सही प्रयोग करते देखा, लेकिन ये अपेक्षाकृत सरल थे; पर जब उसने किसी बात पर कहा कि ‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’ तो मैं उसकी बात समझी नहीं क्योंकि यह मुहावरा जो बात वह कहना चाह रहा था, वहाँ फिट ही नहीं हो पा रहा था। लेकिन वह मुहावरा जानता था, सो उपयोग भी करना ज़रूरी था, इसलिए मैंने उसे कुछ कहा नहीं। जब उसने पहली बार ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ सुना तो कहा, “पहले बुद्धू को घर से जाना होगा तभी लौटकर आ पाएगा।”

एक बार जस ने किसी बात पर गलती की और मैंने उसे डाँटा, तब उसने मुझे ही बोलना शुरू कर दिया कि मेरी गलती नहीं थी, आपकी ही थी वगैरह। तब मैंने हँसते हुए कहा, “अच्छा! उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे।” कुछ सेकंड तक तो वह रुका और फिर झट-से कहा, “इसमें चोर आप हो और कोतवाल मैं।”

भाषा में बिम्ब और रूपक - किसी भी बच्चे का भाषाई कौशल यानी उसके द्वारा बोली जाने वाली वाक्य संरचना और शब्द भण्डार कितने समृद्ध हैं, यह उसके वातावरण पर निर्भर करता है। कुछ उदाहरण जिसमें बच्चे ने एक वस्तु की दूसरे से तुलना की या बिम्बों के रूप में चीज़ों को देखा:

  • आधा चाँद, केले जैसा दिख रहा है।
  • रोशनी पड़ती है और सपना टूट जाता है। यहाँ रोशनी का मतलब सुबह की धूप और सपने से मतलब नींद से है।
  • एक झुका हुआ पौधा जिसकी कुछ टहनियाँ नीचे पानी में डूब रही थीं -- को देखकर जस ने कहा, “पेड़ का हाथ पानी में है, उसने पानी को छू लिया।”
  • खिड़की में से धूप को अन्दर आते देखकर कहा, “मौसम अन्दर आ रहा है।”

मेरी समझ में ये भाषाई कौशल किसी क्रमिक तौर पर हासिल नहीं किए गए, इनके पीछे ढेर सारी बातचीत, किस्से-कहानियों और भाषाई रूप से समृद्ध माहौल का हाथ रहा है।
भाषा में लय और तुकबन्दी - बच्चे कैसे भाषा की लयों से परिचित हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। खेलगीत या कविताएँ गाने का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन या बच्चे को कुछ सिखाना मात्र नहीं होता बल्कि भाषा की संरचना से परिचित कराना भी होता है। बच्चे अपने मन से ही छोटी तुकबन्दियाँ बना लेते हैं, जैसे-

सो रहा था बाघ
जस रहा था जाग

जिसे ढूँढ़ा गली-गली
वो तो गार्डन में मिली

मकड़ी और मक्खी
सबकी पक्की

नया और पुराना - तो यहाँ यक्ष प्रश्न यह था कि कोई चीज़ पुरानी कैसे होती है। पहले तो जस के शब्दकोष में ‘पुराना’ नामक शब्द ही नहीं था। यह बात मुझे तब पता चली जब दूध की दो बोतलें किचन में धुलने के लिए रखी हुई थीं और जस (ढाई वर्ष की उम्र का वाकया) ने इशारा करते हुए कहा, “देखो मम्मा, दो-दो बोतलें, एक न्यू वाली और एक नई नहीं है।” तब मैंने कहा, “हाँ, एक नई और एक पुरानी बोतल।”

जब अगली बार दूध की नई बोतल आई, जस ने फट-से उसे उठाकर मुँह लगाया और कहा, “जैसे ही मैंने इसे पिया, यह पुरानी हो गई।” मुझे लगता है कि ‘पुराना’ होने की अवधारणा कुछ अमूर्त ही है और अलग-अलग सन्दर्भों में अलग तरीकों से उपयोग होती है और बच्चे के सामने एक ही बार में वे सभी सन्दर्भ नहीं खुल पाते। जैसे फलाँ कपड़े, चप्पल या खिलौना पुराना कैसे हो गया है, पूछने पर जवाब मिल सकता है कि - खेलते-खेलते खिलौना पुराना हो गया, चप्पल या कपड़े पहनते-पहनते पुराने हो गए। लेकिन एक कहानी में एक वाक्य आता है कि - एक जंगल में एक शेर रहता था, वो बहुत बूढ़ा और बीमार हो गया था, तब पहली बार कहानी सुनने के बाद जस ने तपाक-से पूछा, “बूढ़े कैसे होते हैं? बूढ़ा मतलब ‘पुराना’ है क्या?” और तकनीकी रूप से तो यह सही भी है, आप बूढ़े हो गए हैं मतलब आप पुराने हो गए हैं।

सीखे जा रहे नए शब्दों का अभ्यास  
जूठा क्या है? - ‘जूठे’ को लेकर मेरा अवलोकन यह रहा कि बच्चों के लिए जब जूठे की अवधारणा बन रही होती है तो वे उस शब्द को सिर्फ खाना जूठा होने के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त नहीं करते बल्कि कई अन्य चीज़ों के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। इसका एक कारण मुझे यह भी लगता है कि वे जो भी नया शब्द सीखते हैं, उसे बार-बार उपयोग में लाने के लिए आतुर रहते हैं और लगातार ऐसे सन्दर्भ तलाशते हैं जहाँ वह शब्द फिट हो सके। कई बार तीर निशाने पर लगता है तो कई बार नहीं भी। जैसे-

  • जब जस की कुर्सी पर उसका छोटा भाई आकर बैठ गया तो उसने कहा, “चेयर जूठी हो गई है।”
  • चिड़िया के घोंसले में छिपकली को घुसते देखकर कहा, “छिपकली ने चिड़िया का घोंसला जूठा कर दिया।”

गलती हो गई - नया-नया ‘गलती’ शब्द सीखने पर, ‘गलती’ शब्द को दोहराने के लिए कोई काम बार-बार करना और ‘गलती हो गई’ कहकर उसे फिर से दोहराते जाना। बच्चे इन नए शब्दों यानी ध्वनियों और कार्यों (जैसे फर्श पर बार-बार पानी गिराना, खिड़की से कोई चीज़ बाहर फेंकना, किसी चीज़ को क्रम से या किसी पैटर्न में जमाना, किसी चीज़ को तोड़कर उसकी जाँच-पड़ताल करना) को तब तक बार-बार करते रहते हैं जब तक कि वे उन्हें करने में महारत न हासिल कर लें, यह भी एक तरह का सीखना ही है।

सामाजिक रीतियाँ, मान्यताएँ और सीखना
बच्चे भी उसी समाज का हिस्सा हैं जिसका हम और हमारी ही तरह वे भी बहुत-सी अवधारणाएँ, मान्यताएँ या रूढ़ियाँ बना और अपना लेते हैं। समाज से जुड़ी अवधारणाएँ एक दिन में नहीं बनतीं, वे लगातार अनुभवों या बार-बार कुछ घटनाओं को देखकर समझी जाती हैं। जैसे कि हर त्योहार साल में एक बार ही आता है फिर अगले साल तक उसका इन्तज़ार करना पड़ता है। यह एक चक्रीय प्रक्रिया है, जो शायद अपने जीवन के कुछ शुरुआती सालों में लगातार अनुभव करने के बाद बच्चे समझने लगते हैं। जैसे - गणपति विसर्जन के बाद मन्दिर में गणेशजी की मूर्ति को देखकर जस ने कहा, “अरे! ये गणपतिजी वापिस आ गए, ये तो मम मम में चले गए थे!” या फिर साल में दस बार पूछना कि होली या क्रिसमस कब आएगी।

रिश्ते - मैं दादी को ‘दादी’ बोलता हूँ, आप उन्हें ‘मम्मी’ बोलती हो और खुशबू दीदी उन्हें ‘आंटी’ क्यों बोलती हैं?

बड़े भी गलत हो सकते हैं क्या? - एक अंकल नदी में पॉलिथीन समेत कुछ कचरा डाल रहे थे, मैंने उन्हें मना किया तो जस ने पूछा, “आपने उन्हें क्यों मना किया?” तो मैंने उसे विस्तार से बताया कि नदी में कचरा क्यों नहीं डालना चाहिए। इस पर जस ने कहा, “लेकिन वो अंकल तो बड़े हैं, उन्हें तो मालूम होना चाहिए।”

डरना क्यों ज़रूरी है? - रात को मैं और जस घर से कुछ दूर घूम रहे थे, सड़क पर घुप्प अँधेरा था। मैंने बस मोबाइल जेब से निकालकर टॉर्च जलाई ही थी कि एक साँप सरसराता हुआ सड़क से झाड़ियों में जा घुसा। मैंने जस का हाथ पकड़कर दौड़ लगा दी और घर आकर ही साँस ली। घर आकर मैंने उसे साँप के बारे में बताते हुए समझाया कि मैं क्यों भागी। तो उसने पूछा, “साँप से क्यों डरना चाहिए?” तब मुझे समझ में आया कि साँप का डर तो मेरे मन में था, उसके मन में तो कोई डर नहीं था। वस्तुत: मेरा यह व्यवहार उसके मन में वह डर स्थानान्तरित कर देगा। इन्सान के रूप में तो हम ढेरों डर पाले हुए हैं - अँधेरे का डर, कॉक्रोच का डर, भगवान का डर, भूत का डर आदि। बहुत-से लोग ज़रा-ज़रा-सी बात पर अपने बच्चों को डराते रहते हैं - अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो तुम्हें बाबा उठाकर ले जाएगा, तुम्हें भूत ले जाएगा, तुम्हें चींटी काट लेगी आदि। मुझे ऐसा लगता है कि बच्चे स्वभावतया निर्भीक होते हैं और ये सभी डर वे हमसे ही सीखते हैं।

मैं गधा नहीं हूँ - इस प्रश्न का उत्तर देने में मुझे दिक्कत हुई कि गाली क्या होती है। इसकी तुलना में ‘धमकी क्या होती है’ को बताना आसान था। जस को किसी ने गधा कहा, उसने एकदम सामान्य तरीके से उत्तर देते हुए कहा, “मैं गधा नहीं हूँ। गधा तो एक जानवर है।” उसके बाद उसने यह भी पूछा, “इन्सानों को हम गधा क्यों कहते हैं? गधा तो एक जानवर है, और हम जानवर नहीं हैं।”

मुझे लगता है कि बच्चे हर पल ऐसी न जाने कितनी ही अवधारणाओं से दो-चार हो रहे होते हैं और ढेरों अवधारणाएँ एक-दूसरे के साथ बन और बिगड़ रही होती हैं। कुछ अवधारणाओं के बनने में अन्य अवधारणाओं का टूटना या उनमें संशोधन भी शामिल होता है। भाषा और सामाजिक विज्ञान के सन्दर्भ में इन्हें समझना अधिक जटिल लगता है और गणित व विज्ञान में अपेक्षाकृत सरल। जैसे उम्र, समय/कैलेंडर, लम्बाई या दूरी की अवधारणा पर काम या प्रयोग करके देखा जा सकता है। लेकिन सामाजिक नियमों, मान्यताओं और भाषा के मामले में मसला उलझ जाता है क्योंकि ये बच्चे के आसपास के परिवेश और वातावरण पर निर्भर करेगा।

हम जितने विविध अनुभव बच्चों को देंगे और जितनी ज़्यादा उनसे बातचीत करेंगे, इन मसलों को सुलझाने की दिशा में हम कुछ कदम आगे बढ़ा रहे होंगे।


पारुल बत्रा: पिछले 7 वर्षों  से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, भोपाल में काम कर रही हैं और फिलहाल सरकारी स्कूल के शिक्षकों और बच्चों के साथ शुरुआती पढ़ने-लिखने की प्रक्रियाओं को समझने में जुटी हैं। बच्चों के लिए कई किताबें प्रकाशित। बाल साहित्य और बच्चे कैसे सीखते हैं, यह समझने में गहरी दिलचस्पी है।

सभी फोटो: पारुल बत्रा।