नॉर्मन डेनियल 
भावानुवाद: सुशील जोशी

यदि यह कहानी आपको नहीं चुभती, यदि यह आपके दिल के तारों का झनझना नहीं देती, यदि इसे पढ़कर आप नाराज़ और दुखी- और, हां गौरवान्ति महसूस नहीं करते. . .

कभी-कभार ह ऐसा मौका आता है जब थानेदार पर गटसिंह थाने में अकेले बैठे हों। आज ऐसा ही मौका था। वे अपनी बड़ी-सी मेज़ के पीछे नितान्‍त अकेले बैठे सोच रहे थे कि अपनी बीबी को इस बार जन्‍मदिन पर क्‍या तोहफा दें। सोचने की वजह यह थी कि उनके पास ज्‍़यादा पैसे थे नहीं, फिर भी वे कम पैसों में शानदार तोहफा देना चाहते थे।

तभी उनके कानों मे किसी के खंखारने की आवाज़ पड़ी। ऐसा लगता था कि कोई खंखरकर उनका ध्‍यान खींचना चाहता हो। उन्‍होंने नजुरें ऊपर उठाई मगर सामने कोई दिखाई नहीं दिया। जब आवाज़ फिर से आई तो उन्‍होंने थोड़ा ध्‍यान से देखा। एक छोटा लड़का उनकी मेज़ के सामने खड़ा था। उस लड़के का सिर बमुश्किल मेज़ के ऊपर नज़र आ रहा था। थानेदार परगसिंह ने पूछा, ‘’कहों, तुम्‍हें क्‍या चाहिए?’’

‘’मैं पुलिस प्रधान से मिलना चाहता हूं।‘’ लड़के ने जवाब दिया। आवाज़ धीमी ज़रूर थी, मगर उसमें दृढ़ता थी। ‘’अच्‍छा, पर पहले मुझे बताओं कि क्‍यों? और ज़रा इस ओर तो आओ, ज़रा मैं देखूं तो सही कि तुम दिखते कैसे हो।‘’

लड़का बेधड़क सामने आ गया। परगटसिंह ने अन्‍दाज़ लगाया कि उसकी उम्र नौ साल के आसपास होगी। लड़का साफ-सुथरा और सकूल यूनिफॉर्म में था। हां, जूतों पर, कमीज़ की आस्‍तीनों पर मिट्टी-कीचड़ के एक-दो धब्‍बे ज़रूर थे, जो आम बात है। बाल भी उलझे हुए थे।

‘’हां, तो अब बताओं पुलिस प्रधान से किस बारे में बात करनी है?’’ ‘’सिपाही नेमीशरण के बारे में, सर।‘’ ‘’नेमीशरणा’’ परगट सिंह चौंक पड़े कि इस बच्‍चे को नेमीशरण से क्‍या मतलब हो सकता है; जिसकी मौत कल ही हुई है।

‘’जी सर। ऐसा है कि मैं लेकसाइड स्‍कूल में पढ़ता हूं। सिपाही नेमीशरण वहां चौराहे पर ट्रेफिक पुलिस थे। मैं अपने स्‍कूल के सुरक्षा दल में हूं इसलिए मुझे सिपाही नेमीशरण के साथ काम करना पड़ता था। मेरी मां ने मुझे बताया कि कल नेमीशरण की मृत्‍यु हो गई। मैं जानना चाहता हूं कि क्‍या सिपाही नेमीशरण की शवयात्रा भव्‍य तरीके से निकलेगी?’’

थानेदार परगटसिंह से यदि कोई पूछता कि चांद धरती से कितना दूर है, तो भी वे इतना नहीं चौंकते। ‘’बैठों, बेटे।‘’ उन्‍होंने कहा, ‘’पहले बताओं तुम्‍हारा नाम क्‍या है?’’ ‘’विजय धीमान, सर।‘’

‘’कहां रहते तो? धर पर और कौन-कौन हैं?’’ ‘’225 कालिदास मार्ग। मैं अपनी मां के साथ रहता हूं। मेरे पिताजी नौसेना में हैं और वे बहुत दिनों से जहाज़ पर हैं।‘’

‘’अब बताओं कि तुम्‍हें क्‍यों लगता है कि सिपाही नेमीशरण की शवयात्रा भव्‍य होनी चाहिए?

‘’क्‍योंकि वे इसके हकदार हैं।‘’

परगटसिंह ने हामी में सिर हिलाया और कहा, ‘’बेशक। नेमीशरण मेरा बहुत अच्‍छा दोस्‍त था। वह बहुत अच्‍छ आदमी था। फिर भी मैं जानना चाहता हूं कि उसके जनाज़े से तुम्‍हारे जैसे लड़के को क्‍या मतलब?’’

‘’वे मेरे भी दोस्त थे और हमारे स्‍कूल के सामने उन्‍होंने पूरे सत्‍ताईस साल ड्यूटी की, यह बात उन्‍होंने मुझे बताई थी। और यह भी बताया था कि सत्‍ताईस साल में एक बार भी कोई ज़ख्‍मी नहीं हुआ था – एक बार भी नहीं।‘’

‘’हां, यह बात तो सच है। वह बहुत अच्‍छा सिपाही था।‘’ ‘’हां ज़रूर थे और उनका अंतिम संस्‍कार आई.जी. जैसा होना चाहिए।‘’

‘’क्‍या ? किसके जैसा? ओह... हां, मैं समझ गया तुम क्‍या कहना चाहते हो। तुम्‍हारा मतलब है कि उनका अंतिम संस्‍कार राजकीय सम्‍मान से होना चाहिए।‘’

‘’बिल्‍कुल, जैसा कि सारे वीरों का होता है। आपको याद होगा जबलपुर में एक सिपाही ने दो डकैतों के साथ लड़ाई की थी। उसने एक डकैत को मार डाला था और खुद भी मारा गया था। उसकी शवयात्रा राजकीय सम्‍मान से निकली थी।‘’

‘’हां, मैंने भी उसके बारे में पढ़ा था। वह बहुत बहादुर सिपाही था।‘’

‘’मैंने एक और सिपाही के बारे में पढ़ा था। उसने एक मुठभेड़ के दौरान गुण्‍डे को गोली मारी थी। किन्‍तु गुण्‍डे से लड़ाई में वह खुद भी मारा गया था।‘’

‘’हां मुझे याद है।‘’ परगटसिंह बुदबुदाए। ‘’तो क्‍या वीर कहलाने के लिए किसी को मारना ज़रूरी है?’’

परगट सिंह सोच में पड़ गए। फिर बोले, ‘’तुम्‍हारा सवाल तो बहुत मुश्किल है। मुझे नहीं पता, मगर वे सिपाही तो ज़रूर वीर थे।‘’

विजय धीमान ने कहा, ‘’और सिपाही नेमीशरण भी वीर थे। उन्‍होंने कभी किसी को मरने नहीं दिया, चोट भी नहीं लगने दी। उन्‍होंने कभी गोली-बोली चलाकर किसी को मारा तो नहीं, परन्‍तु वे वीर ज़रूर थे।‘’

‘’हां एक तरह से वह वीर था, मैं मानता हूं। परन्‍तु मुझे नहीं लगता कि उसकी शवयात्रा राजकीय सम्‍मान से निकलेगी। हां, उसकी शवयात्रा बड़ी ज़रूर होगी क्‍योंकि उसके इतने सारे दोस्‍त थे।‘’

‘’परन्‍तु सारे सिपाही परेड नहीं करेंगे?’’ ‘’नहीं।‘’

’’तो मुझे पुलिस प्रधान से मिलना है।‘’

‘’परन्‍तु विजय, तुम नहीं मिल सकते। पुलिस प्रधान घर पर हैं और बीमार हैं। वैसे भी अब तुम्‍हें स्‍कूल जाना चाहिए...।‘’

‘’क्‍या आपको लगता है कि सिपाही नेमीशरण की शवयात्रा राजकीय सम्‍मान से हानी चाहिए?’’

‘’हां, हां, मुझे लगता है।‘’

‘’ तो मैं अपने स्‍कूल के हैड मास्‍टर से कहूंगा कि. . .।‘’

‘’ज़रूर कहना. . . मगर बेटे अब तुम सकूल जाओ। मुझे बहुत अच्‍छा लगा कि तुम यहां आए।‘’

थानेदार परगटसिंह उसे जाते देखते रह और मन ही मन सोचते रहे कि इस लड़के को पता है कि उसे क्‍या चाहिए।

थोड़ा ही वक्‍त बीता होगा कि फोन बज उठा। परगटसिंह ने फोन उठाया तो दूसरी ओर से आवाज आई, ‘’थानेदार परटसिंह, मैं लेकसाइड स्‍कूल का प्रधान पाठक. . .।‘’

परगटसिंह बीच में ही बोल उठे, ‘’आप ज़रूर विजय धीमान नाम के उस लड़के के बारे में कुछ कहना चाहते होंगे।‘’

हेउ मास्‍टर बोले, ‘’विजय मेरे पास आया था, उसके दिमाग में एक बहुत ही विलक्षण ख्‍याल...।‘’

परगटसिंह ने एक बार फिर उनकी बात को बीच में काटकर पूछा, ‘’आप इसके बारे में क्‍या सोचते हैं?’’

‘’अव्‍यावहारिक, बचकाना ख्‍याल है। मगर उसने बताया कि आप उसके विचार से सहमत हैं।‘’

‘’जी हां, मैं उससे इत्‍तफाक रखता हूं।, मगर ऐसा हो नहीं सकता।‘’

‘’नेमीशरण कोई बहुत विशिष्‍ट सिपाही तो था नहीं।‘’ हैडमास्‍टर बोले। ‘’नहीं, वह ऐसा कोई असाधारण सिपाही तो नहीं था मगर कर्त्‍तव्‍यनिष्‍ठ था। वैसे भी उसे कोई तमगा वगैरह नहीं मिला था और उसे वीरनुमा सम्‍मान तो नहीं मिलेगा। पर मैंने उससे बुरे सिपाही देखे हैं।‘’ परगटसिंह ने जवाब दिया।

‘’मैंने विजय से कह दिया है कि सकूल की तरफ से हम नेमीशरण के शव पर पुश्‍प अर्पित करेंगे। परन्‍तु विजय इससे संतुष्‍ट नहीं हुआ।‘’

‘’नहीं हेड मास्‍टर साहब, वह लड़का इतने से संतुष्‍ट नहीं होगा। मगर होगा कुछ नहीं।‘’ इतना कहकर परगटसिंह ने फोन रख दिया।

परगटसिंह को और भी कई काम निपटाने थे। किसी की ज़मानत, और भी पता नहीं क्‍या–क्‍या काम थे। सब काम करते-करते तीन बज गए। तीन बजे फोन बजने लगा- और दूसरी तरु पुलिस प्रधान थे।

‘’मेरे घर पर एक लड़का बैठा है जिसे तुमने भेजा है। परगट सिंह, ये क्‍या मामला है? लड़का नेमीशरण के जनाज़े की बात कर रहा है परन्‍तु मेरे पल्‍ले कुछ नहीं पड़ रहा। वैसे भी मेरी तबियत खराब है।‘’

परगटसिंह ने जवाब दिया, ‘’मैं उस लड़के को जानता हूं, सर। मैंने उससे कहा था कि वह आपसे नहीं मिल सकता लेकिन वह काफी जि़द्दी है।‘’

‘’खैर, अब ऐसा करो। एक कार भेजों और उस लड़के को घर भिजवा दो। वह ठेठ स्‍कूल से यहां तक पैदल आया है। मालूम है, पूरे पांच किलो-मीटर होते हैं उसके स्कूल से यहां तक।‘’

‘’मैं खुद ही गाड़ी लेकर आता हूं और उसे घर छोड़ देता हूं सर। रासते में उसे समझा दूंगा कि अब बहुत हो गया।।‘’

परगटसिंह गाड़ी लेकर, प्रधान के धर गए और विजय धीमान को अपने साथ लिया। रास्‍ते में परगटसिंह ने विजय से कहा, ‘’विजय वैसे तो किसी के भी पास जाना तुम्‍हारा अधिकार है मगर पुलिस प्रधान के पास जाकर तुमने गलती की।‘’

विजय बोला, ‘’जी हां सर। आपने मना किया था, परन्‍तु मेरी मां कहती है कि मैं ठीक अपने पिता की तरह अडि़यल हूं।‘’

‘’अब मैं तुम्‍हें घर ले जाऊंगा और तुम्‍हारी मां से बात करूंगा। तुम्‍हें कोई एतराज़ है?’’

‘’नहीं सर। मैंने मां को समझाने की बहुत कोशिश की पर वे समण्‍ती ही नहीं। शायद आप उनहें समझा सकें।‘’

‘’हां शायद। मैं जितना सोचता हूं उतना ही मुझे लगता है कि तुम्‍हारी बात सही है। पर साथ ही मुझे यह भी लगता है कि ऐसा होना असंभव है।‘’ परगट सिंह बोले।

‘’क्‍यों असंभव है? यही तो मैं जानना चाहता हूं। यदि वीर बनने के लिए किसी को मारना या अपनी जान देना ज़रूरी है तो मैं वीर नहीं बनना चाहता।‘’

गाड़ी विजय के घर पहुंच चुकी थी। विजय गाड़ी से उतरकर घर की तरफ बढ़ा, पीछे-पीछे थानेदार। मां ने पुलिस की गाड़ी और थानेदार को देखा तो थोड़ी चिन्तित हो गई। पूछने लगीं, ‘’इसने कुछ किया क्‍या?’’

परगटसिंह बोले, ‘’नहीं मैडम। मेरा नाम परगटसिंह है। विजय, सिपाही नेमीशरण के बारे में बात करने मेरे पास आया था। मुझे लगता है कि आपका बेटा एक ज़बर्दस्‍त लड़का है। यही कहने के लिए मैं इसके साथ आाया हूं।‘’

‘’क्‍या आपको सचमुच ऐसा लगता है?’’ ‘’आपको एक बात बताऊं श्रीमति धीमान? विजय के दिमाग में और बहुत सारे लोगों से बेहतर विचार है। उसे लगता है कि नेमीशरण वीर था और उसे वीराचित सम्‍मान मिलना चाहिए। यह नामुमकिन है और शयद थोड़ा बेतुका भी है, मगर मैं आपके बेटे से सहमत हूं . . . और सबसे अच्‍छी बात तो यह है कि वह अपनी बात को पूरा करने के लिए इतनी भागदौड़ कर रहा है।‘’

‘’शुक्रिया, थानेदार साहब।‘’

’’अच्‍छा विजय, बेसट ऑफ लग’’ ने विजय में एक नई स्‍फूर्ति भर दी। इस स्‍फूर्ति का प्रमाण दूसरे दिन सुबह मिला जब सोढ़े दस बजे थानेदार परगटसिंह का फोन बज उठा। फोन किसी और का नहीं, नगर-माहपौर का था। पता चला कि महापौर खुद बात करना चाहते हैं। महापौर ने छूटते ही कहा, ‘’क्‍या तुम विजय धीमान नाम के किसी लड़क को जानते हो?’’

‘’हे भगवान, क्‍या वह वहां भी... ?’’

’’हां, वह यहां बैठा है और मेरा दिमाग चाट रहा है। तुम फौरन यहां आओ।‘’ महापौर थोड़ा तल्‍खी से बोले।

‘’मैं वहां आकर क्‍या करूंगा?’’

‘’उस बच्‍चे को यहां से ले जाओ। वह तो अपने अधिकारों वगैरह की बात कर रहा है। खैर, तुम फौरन उसे उसके स्‍कूल पहुंचाओ जी।‘’

‘’जी, अभी आता हूं।‘’ इतना कहकर परगटसिंह ने फोन रख दिया और महापौर के दफ्तर पहुंचे। वहां देखा कि विजय धीमान कुर्सी पर बैठा पैर झुला रहा है, और महापौर ‘दैनिक सरे बाज़ार’ देख रहे हैं। उसके मुखपृष्‍ठ पर आज उनके खिलाफ खबर छपी थी। थानेदार को देखते ही महापौर बोल उठे, ‘’इस लड़के को ले जाओ और सिफर से यहां मत भेजना।‘’

विजय ने उठते-उठते कहा, ‘’इन्‍होंने मूझे नहीं भेजा है। मैं अपने आप आया हूं।‘’ महापौर चिल्‍ला पड़े,। ‘’तुम बीच में मत बोलो।‘’ फिर वे थानेदार से मुखातिब हुए, ‘’अब इस लड़के को स्‍कूल ले जाओ। इसके मां-बाप को समझाओ ओर इसके स्कूल प्रिंसिपल को इत्‍तला करो। इसे तो गिरफ्तार किया जाना चाहिए।‘’

थानेदार ने अखबार को उठाकर लपेट लिया और बगल में दबाते हुए मासूमियत से पूछा, ‘’किसे सर, प्रिंसिपल को?’’

महापौर चिल्‍लाए, ‘’दफा हो जाओ चहां से।‘’

थानेदार विजय को लेकर चल पड़े। बाहर आकर विजय बोला, ‘’यहां आकर कुछ फायदा नहीं हुआ।‘’ थानेदार बोले, ‘’हां कोई फायदा नहीं हुआ।‘’

विजय बोला, ‘’मैंने उन्‍हें तीन बार बताया कि मैं क्‍यों आया हूं परन्‍तु वे समझ ही नहीं पाए। थेड़े बुद्धू लगते हैं। परन्‍तु अब करें क्‍या?’’

‘’क्‍या करोगे। देखो, लोगां को यह समझाना बहुत मुश्किल है कि जो सिपाही चालीस साल तक अच्‍छे से अपना काम करता है, वह वीर होता है। सब लोग समझते है कि वीरता बन्‍दूक की गोलियों में होती है।‘’ परगटसिंह ने समझाने की कोशिश की।

‘’तो मैं अब और कुछ नहीं कर सकता?’’ विजय ने चिंतित स्‍वर में पूछा। ‘’मैं तो इतनी ज़ोर से चिल्‍ला भी नहीं सकूंगा। और मेरी आवाज़ कौन सुनेगा?’’ विजय बोल पड़ा।

‘’अरे, ‘छत से चिल्‍लाना’ एक मुहावरा है। छत से चिल्‍लाने का मतलब है लोगों तक अपनी बात पहुंचाना। लो यह अखबार और घर चले जाओ। घर पर पढ़ना। और सुनो, अपनी बात मत छोड़ना।‘’ परगटसिंह परगटसिंह ने मुस्‍कुराकर जवाब दिया।

लड़का चल पड़ा, वह छोटा-सा लड़का जिसे भावी नागरिक कहा जाता है। उसने बीच में रूककर अखबार पर नज़र डाली। अखबार को देखते ही वह घर जाना भूल गया। घर जाने की बजाए वह दूसरी तरु तेज़ कदमों से चलने लगा।

अगले दिन सुबह थानेदार परगट सिंह ने विजय के घर की घंटी बजाई। दरवाजा विजय ने ही खोला और थानेदार को देखकर उसकी आंखें फटी-कीफटी रह गईं।

विजय की मां ने थानेदार को अन्‍दर बुलाया। बैठक में मेज़ पर ‘दैनिक सरे बाज़ार का ताज़ा अंक रखा था। उसके मुखपृष्‍ठ पर विजय का इंटरव्‍यू था। साथ में नेमीशरण की फोटो भी।

विजय की मां ने पूछा, ‘’आप किसी मुश्किल में तो नहीं पड़ गए?’’

‘’नहीं मैडम, मैं तो विजय को लेने आया हूं। मैं आपको यह बताना चाहता हूे कि सिपाही नेमीशरण की शवयात्रा राजकीय सम्‍मान से निकलेगी। नेमीशरण का कर्त्‍तव्‍य- परायणता का पुरस्‍कार मरणोपरान्‍त दिया गया है। उसने चालीस वालों तक निष्‍ठापूर्वक हज़ारों बच्‍चों की सुरक्षा की है। चलो विजय, तुम्‍हें हमारे साथ चलना है।‘’ परगटसिंह ने पूरी बात एक ही सांस में कह डाली।

‘’मैं यूनिफार्म पहनकर अभी चलता हूं।‘’ विजय के चेहरे पर संतोष का भाव था।

एलरी क्‍वीन द्वारा संपादित संकलन ‘’एल ऐज़ इन लूट’’ की एक कहानी ‘’ए फ्युनरल फॉर पैट्रोलमैन केमरॉन’’ का भावानुवाद।

सुशली जोशी: पर्यावरण एवं विज्ञान लेखन में सक्रिय, होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध।

ज़रा सिर तो खुजलाइए

एक फ्लास्‍क या किसी भी संकरे मुंह के बर्तन में थोड़ा सा नपानी लेकर उसे गर्म करें। जब पानी उबलने लगे तो उसे नीचे उतार कर बर्तन के मुंह पर एक गुब्‍बारा फंसा दीहजए (देखिए चित्र)। और बर्तन को ठंडा होने दीजिए। देखिए क्‍या हहोता है? हमें लिख भेजिए। सही जवाबों को अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा। हमारा पता है:

संदर्भ, द्वारा एकलव्‍य, काठी बाजार होशंगाबाद 461001