आमोद कारखानिस

हिमालय, आल्प्स जैसी पर्वत श्रृंखलाएं, हजारों किलोमीटर दूर स्थित महाद्वीपों पर एक से मिलते जीव जंतु, समुद्र तल का नया होना और उसके ऊपर मौजूद महाद्वीपों की चट्टानों का कमोबेश पुराना होना? अजीब गुत्थी थी। जब सुलझना शुरू हुई तो समझ में आया कि कैसे खिसकते हैं महाद्वीप? साथ ही एक नए विषय को जन्म भी हुआ - ‘लेट टेक्टोनिक्स।

मेरे घर की दीवार पर दुनिया को एक बड़ा नक्शा टंगा हुआ है। जब भी मैं उसे ध्यान से देखता हूं सभी महाद्वीप एक जिग-सॉ पहेली के टुकड़े लगते हैं। जब थोड़ा बहुत भू विज्ञान, पढ़ा तो मालूम पड़ा कि ये सिर्फ पहेली नहीं है बल्कि यथार्थ है। ये सारे टुकड़े करोड़ों साल पहले आपस में मिलकर एक बड़ा महाद्वीप बनाते थे। बाद में धरती के अंदर चली किसी प्रक्रिया की वजह से ये महाद्वीप कई हिस्सों में बंट गया। फिर ये टुकड़े यहां-वहां घूमते हुए उस स्थिति में पहुंचे जहां कि आज दिखाई देते हैं।

लेकिन ये तो अभी हाल ही की बात है, यही कोई तीसेक बरस पहले की, जब वैज्ञानिकों ने स्वीकारा कि सारी धरती कभी एक महादीप थी।

* एक ऐसी पहेली जिसमें दुनिया के नक्शे के टुकड़े कर दिए जाते और फिर उन्हें जोड़ने कहा जाता है।

दुनिया का नक्शा: दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका के तटों को कर ऐसा लगता है मानो ये एक ही जमीन के हिस्से हों जिन्हें तोड़कर अलग कर दिया गया हो। क्या यह सिर्फ एक संयोग है।

वरना पहले भी कई लोग यह बात कर चुके थे, कई सबूत भी इस ओर इशारा कर रहे थे; लेकिन उस समय तो उन्हें सिर्फ कल्पना कह कर हवा में उड़ा दिया जाता था।

इस समय एक वैज्ञानिक की टिप्पणी याद आ रही है जिसने कहा था कि साठ-सत्तर के दशक में अगर आप महावीपों के खिसकने में विश्वास करते होते तो अमेरिकी विश्वविद्यालयों में नौकरी पाना लगभग नामुमकिन था और अगर आज आप इस पर विश्वास नहीं करते हैं तो नौकरी पाना नामुमकिन है।"

वैसे देखें तो विज्ञान की प्रक्रिया भी कुछ ऐसी है। पहले वैज्ञानिक कुछ अवलोकनों के आधार पर एक परिकल्पना बनाते हैं। फिर अगर परिकल्पना में कुछ दम नज़र आया तो दुनिया भर के वैज्ञानिक इस परिकल्पना के आधार पर अपने अवलोकनों को समझने की कोशिश करते हैं। अगर उचित स्पष्टीकरण हुआ तो ठीक, वह परिकल्पना बनी रहती है - जब तक कि वो लोगों के अवलोकनों से मेल खाती है। नहीं तो परिकल्पना इतिहास के पन्नों में गुम हो जाती है, यह कहते हुए कि फलां विषय को समझने के लिए इंसान ने क्या-क्या परिकल्पना की थी।

तट, पहाड़ और जीवश्म
एक पहेली थी हिमालय, आल्प्स आदि पर्वत श्रृंखलाओं को लेकर। ये पहाड़ी श्रृंखलाएं एक दूसरे के ऊपर मुंड़ी, टूटी, बेइंतहा दाब से बनी परतदार तलछटी (Sedimentary) चट्टानों से बने हैं। लोग यह तो जानते थे कि इन चट्टानों का निर्माण पानी के नीचे हुआ है, लेकिन क्या कारण रहा होगा जो ये चट्टानें पानी के ऊपर उठ गई - पहाड़ी श्रृंखलाओं के रूप में, यह गुत्थी बना हुआ था?

इसी तरह अटलांटिक क्षेत्र का नक्शा तैयार होने के बाद से लोगों का ध्यान लगातार इस ओर जाता रहा है कि अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के समुद्र तट एक दूसरे से बेहद मिलते जुलते हैं - ऐसे लगता है कि अगर उन्हें उठी कर. पास-पास कर दिया जाए तो जुड़ कर एक हो जाएंगे। जब गहराई से जांच पड़ताल की गई तो दोनों महाद्वीप के तटीय किनारों की चट्टानों की संरचना, उम्र आदि में बेहद समानताएं मिलीं। क्या यह सिर्फ एक संयोग है?

उन्नीसवीं शताब्दी का दौर था जब प्रकृति विज्ञानी दुनिया भर की प्राकृतिक विविधता के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए लंबी-लंबी यात्राएं कर रहे थे। ऐसी ही यात्राओं के दौरान उन्हें एक ही जाति के सांप, कछुए आदि जीव अफ्रिका के साथ परिण अमेरिका में भी मिले। साथ ही ग्लोसोपेटरिस जाति के फर्न( एक तरह का पौधा) के जीवाश्म भारत में तो मिले ही, ऑस्ट्रेलिया में भी खोज निकाले गए। अब वे समानताएं भी उसी संयोग की कड़ी मान ली जाएं? अगर नहीं तो सवाल खड़ा होता है कि एक दूसरे से हजारों किलोमीटर दूर स्थित महाद्वीप पर कैसे पहुंच गए ये जीव

सिकुड़ती धरती, टूटते पुल
एक सुझाव आया कि हो सकता है कि कभी ये महादवीप आपस में ज़मीनी पुल जैसी किसी चीज से जुड़े हों, जो बाद में समुद्र में डूब गई हो। ये दौर था जब पृथ्वी के ठंडा होकर सिकुड़ने की थ्योरी प्रचलित थी। तो भू-विज्ञानियों ने माना कि हो सकता है। कि पृथ्वी के सिकुड़ने के कारण ये पुलनुमा चीज़ टूटकर बिखर गई हो।

इस 'धरती की सिकुड़न' वाली थ्योरी के जनक थे एक अमेरिकी भू वैज्ञानिक जेम्स आना। इनके अनुसार पृथ्वी कभी अर्घ पिघली अवस्था में थी, जब यह ठंडी हुई तो सिकुड़ी। उनका कहना था कि पहाड़ दरअसल कुछ और नहीं बल्कि सिकुड़न की वजह से बने हैं। जब कोई चीज़ सुकड़ती है तो सलवटें पूरी सतह पर समान रूप से पड़ती है। तो धरती के मामले में ये

माउंट एवरेस्टः हिमालय पर्वत श्रृंखला का सबसे शिखर। ये पहाड़ी श्रृंखला परतदार तलछटी चट्टानों से बनी हैं। बेइंतहा दाब की वजह से ये चट्टानें मुड़-तुड़ गई हैं। दुनिया के कई हिस्सों में इस तरह की पहाड़ी श्रृंखलाएं मिलती हैं जैसे कि आल्प्स (इनसेट में आल्स की एक पहाड़ी, जिसमें मुड़ी, तुड़ी परतदार चट्टानें दिख रही है)। तलछटी चट्टानें पानी के नीचे बनती हैं। लंबे समय तक यह बात पहेली बनी रही कि क्या वजह हो सकती है कि ये चट्टानें पानी के ऊपर उठ कर न पारियों की शक्ल में बदल गई?

सिर्फ कुछ ही जगह क्यों पड़ीं, पहाड़ों के रूप में?

बाद के सालों में जब चट्टानों के बनने की प्रक्रिया का व्यापक अध्ययन हुआ तो भू-वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि इन पहाड़ों के बनने से पहले इन जगहों पर उथले समुद्र का तल धीरे-धीरे नीचे धंस रहा था और उस पर तलछट की परत तेज़ी से जम रही थी। इस तरह पर्वत श्रृंखलाओं के रूप में ऊपर उठने से पहले ये चट्टानें काफी मोटी हो चुकी थीं।

इसी बीच एक और जानकारी सामने आई कि तलछट तो अधिकतर समुद्र की तली में जमा होता है और समुद्र महाद्वीपों के किनारे पर होते हैं। - इसलिए यह जगह जहां पहाड़ी श्रृंखलाएं हैं कभी महाद्वीपों का किनारा रही होगीलेकिन उलझन वहीं की वहीं थी कि समुद्र का तल धंस क्यों रहा था और चट्टानें ऊपर क्यों और कैसे उठीं?

क्या महाद्वीप खिसके हैं?
कुल मिलाकर एक पहेली-सी बनी हुई थी लेकिन कुछ वैज्ञानिकों को लग रहा था कि जीव, जीवाश्म, चट्टानों आदि की समानताएं इशारा करती हैं। कि कभी ये महाद्वीप जुड़े हुए थे। उस दौर में ये जीव उस ज़मीन पर घूमा करते होंगे। बाद के दौर में किसी वजह से ये महाद्वीप अलग हो गए या टूट गए। और खिसकते हुए यहां पहुंच गए जहां कि नक्शे में आज दिखाई देते हैं। पहाड़ी शृंखलाओं को लेकर उनका कहना था कि ये महाद्वीपों की टकराहट का परिणाम हैं। जब दो। महाद्वीप भिड़ेंगे तो उनके बीच आने वाले समुद्र की तलछटी चट्टानें बीच में फंसकर ऊपर की ओर उठेंगी।

जर्मनी का अल्फ्रेड वेगनर ऐसा ही एक वैज्ञानिक था। यह सिद्ध करने के लिए वह विभिन्न महाद्वीपों के बीच कई तुलनात्मक अध्ययन भी कर रहा था। आर्कटिक क्षेत्र के एक द्वीप में उसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में मिलने वाले एक पौधे ( फर्न ) के जीवाश्म मिले। ठंडे आर्कटिक में ये कहां से आए? वेगनर का कहना था कि कभी यह द्वीप उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में स्थित होगा और खिसकते-खिसकते आर्कटिक क्षेत्र में पहुच गया। लेकिन 1920 के आस पास जब वेगनर अपने तक को बता रहा था, उसकी बात सुनने को कोई भी तैयार नहीं था; उन्हें सिर्फ कोरी बकवास कहा जा रहा था।

शायद दिक्कतें दो थीं। एक तो लोगों के दिलो-दिमाग पर इस बात का छाया होना कि धरती हमेशा से वैसी है जैसी कि अभी दिखती है; और दूसरी - समझ नहीं आना कि इतने विशाल और भारी महाद्वीप कैसे खिसकेंगे।" यानी विज्ञान को और सबूतों की ज़रूरत थी।

चुंबकीय पृथ्वी के पलटते धुव

पृथ्वी के चुबंकिय गुण के बारे में तो हमें मालूम है। मजेदार बात है कि पृथ्वी के चुंबकीय उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव हमेशा स्थिर नहीं रहते बल्कि यह स्थिति उलटती-पलटती रहती है। यानी आज जहां चुंबकीय उत्तरी ध्रुव है वहां चुंबकीय दक्षिणी ध्रुव होगा और जहां चुंबकीय दक्षिणी ध्रुव है वहां चुंबकीय उत्तरी ध्रुव होगा। यह बात तब मालूम पड़ी जब चट्टानों के चुंबकीय गुण के बारे में मालूम पड़ा और इस दिशा में अध्ययन शुरू हुए।

अगर हम कम्पास को हवा में लटकाएं तो उसकी चुंबकीय सुई पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुवों के सापेक्ष स्थिर हो जाती है- यानी उसका उत्तरी ध्रुव पृथ्वी के चुंबकीय दक्षिणी ध्रुव की ओर और दक्षिणी ध्रुव चुंबकीय उत्तरी ध्रुव की ओर हो जाता है। इसी तरह जब चट्टान का निर्माण होता है तो चुंबकीय लौह कण अपने आप को ( चट्टान की पिघली हुई अवस्था में ) पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुवों के अनुरूप जमा लेते हैं। इसी बीच अगर पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव पलट गए तो चट्टान की जो अगली परत बनेगी उसमें चुंबकीय कण, अपने आपको पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुवों की नई दिशा के अनुसार जमाएंगे। यह दिशा पहले निर्मित हुई परत पर जमे चुंबकीय कणों की दिशा से बिल्कुल

चुंबकीय पृथ्वी के पलटते ध्रुव: चट्टानों के अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिकों के पास आज लाखों साल पहले की जानकारी मौजूद है - जब-जब पृथ्वी के ध्रुव पलटे हो। इसे देखकर लगता है कि एक क्रम है जिसमें आज जहां दक्षिण ध्रुव है वहां उत्तरी ध्रुव हो जाएगा और जहां उत्तरी ध्रुव है वही दक्षिण ध्रुव से जाएगा। कई बार यह पलटन बहुत थोड़े समय के लिए होती है। ऐसी ही एक थोड़े समय वाली पलटन 30 हजार साल पहले हुई थी। इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है कि वे ध्रुव क्यों पलटते है। यहां दिए गए स्केल में 45 लाख साल पहले तक की स्थिति दिखाई गई है। महाद्वीपों के अपने मूल स्थान से खिसकने की परिकल्पना को स्थापित करने में इस चुंबकीय पलटन का महत्वपूर्ण योगदान है।

कहां-कहां हैं खाइयां और रिजः सभी महासागरों में फैली समुद्री रिजें आपस में जुटी हुई है। और खाइयां महाद्वीपों के किनारों पर हैं।

तलछट है उसकी परत तुलनात्मक रूप से काफी पतली है। इसी तरह महासागर का तल जिन चट्टानों का बना हुआ है वो भी काफी नई थीं। उन्हें समुद्र तल में कोई भी चट्टान ऐसी नहीं मिली जिसकी उम्र पन्द्रह करोड़ साल से अधिक हो। एक इंसानी जिंदगी की तुलना में तो ये संख्या काफी बड़ी दिखती है लेकिन पृथ्वी की उम्र की तुलना में तो यह संख्या बहुत बड़ी नहीं लगती। कुछ अजीब-सी बात लगती है न - नीचे समुद्र तल नया और ऊपर मौजूद महाद्वीप उससे भी हजारों करोड़ साल पुराने।

समुद्र तल और चुंबकीय पटियां
समुद्री पहाड़ी शृंखला, उनमें दरारें, खाइयां, नया तल - क्या ये सारी बातें किसी एक खांचे में फिट बैठ सकती हैं? कुछ लोग इस दिशा में सोच रहे थे। 1960 में अमेरिका के प्रिंसटन विश्वविद्यालय के भूविज्ञानी हैरी एच. हैस ने समुद्र की तली के लगातार नया बनते रहने के बारे में एक परिकल्पना दी।

उन्होंने कहा कि धरती के भीतर से पदार्थ लगातार ऊपर आकर समुद्री रिज में जमता रहता है। इस तरह सदी रिज में लगातार नया तल बनता रहता है। जिस गति से नए तल का निर्माण होता है, पुराना तल समुद्री खाइयों में समाकर नष्ट होता रहता है।लोग इस परिकल्पना को जांचने के बारे में सोचते इससे पहले ही एक नई समस्या उठ खड़ी हुई।

जब समुद्र विज्ञानियों ने बड़े-बड़े चुंबकत्वमापी समुद्र तल में उतारे तो तली का व्यवहार बड़ा अजीब था। ऐसा लगता था मानों समुद्र तल बड़ी बड़ी पट्टियों में बंटा हो। हर पट्टी पर जमी चुंबकीय कणों की दिशा बगल वाली पट्टी से बिल्कुल उलट थी ( देखिए चित्र )। धीरे-धीरे दुनिया के सभी महासागरों में भी ऐसे ही पैटर्न में जमी हुई पट्टियां खोज निकाली गई। एक ओर हैरी एच. हैस की समुद्र तल के लगातार नए बनते रहने की परिकल्पना और इधर ये चुंबकीय पट्टियां। कुछ साल यूं ही निकल गए। ..

इसी बीच 1963 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के दो शोधार्थियों फ्रेड वाइन और डी. एच. मैथ्यूज ने अपना एक पर्चा प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने हिंद महासागर में मिली चुंबकीय पट्टियों का विश्लेषण किया था।

उन्होंने कहा कि जब समुद्री पहाड़ियों में मौजूद दरार में नीचे से आया हुआ पदार्थ जमेगा तो उसमें मौजूद चुंबकीय कण अपने आपको पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के अनुरूप जमा लेंगे। अगर समुद्री रिज में पदार्थ लगातार ऊपर आता रहता है तो धीरे-धीरे ये पट्टी चौड़ी होती जाएगी। इसी बीच अगर पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव पलट गए तो अब जो नया पदार्थ आएगा उसके चुंबकीय कण अपने आपको इस नई स्थिति के अनुरूप जमाएंगे। यह पट्टी पहली वाली पट्टी के मुकाबले उल्टी दिशा में चुंबकीय गुण दिखाएगी।

इस विश्लेषण का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु था कि अगर समुद्री रिज से निकलता पदार्थ रिज के दोनों तरफ समान रूप से फैलता है तो दोनों तरफ एक-सी समानांतर चुंबकीय पट्टियों का पैटर्न मिलेगा। और एक ही काल में बनी पट्टियां रिज से समान दूरी पर दोनों ओर मिलेंगी।

यह थ्योरी काफी आकर्षक थी। इसे जांचने के लिए महासागर के तलों की तेज़ी से जांच पड़ताल शुरू हो गई। हर बारे परिणाम वही आए जैसे कि वैन और मैथ्यूज़ ने अपनी परिकल्पना के आधार पर भविष्यवाणी की थी।

वैज्ञानिकों ने रिज से दूर जाती पट्टियों के ऊपर जमे तलछट की सबसे निचली परत से जीवाश्म निकाले और तली की चट्टानों के नमूने लिए। उन्होंने पाया कि रिज से दूर जाती धर परत पहले वाली के मुकाबले पुरानी थी।

अब सब-कुछ साफ था। समुद्र तल अपने बनने का इतिहास खुद सुना रहा था। हैस की थ्योरी इस जांच पड़ताल में खरी पाई गई। चूंकि नया तल रिज के समानान्तर बनता है इसलिए इन चुंबकीय पट्टियों के आधार पर यह जानना आसान हो गया कि विभिन्न महासागरों के फैलने (नया तल बनने) की गति और दिशा क्या है। इसी के साथ यह गुत्थी भी सुलझ गई कि महाद्वीप किस प्रकार खिसकते होंगे।

इस तरह सत्तर और अस्सी के दशक में एक नए विषय का जन्म हुआ जिसे ‘प्लेट टेक्टोनिक्स' कहते हैं। इसके दो भाग हैं -- ‘महासागर के तल को फैलना' और 'महादीपों का गतिमान होना'।

प्लेटों में बंटी पृथ्वी
गोल पृथ्वी को मोटे तौर पर तीन भागों में बांट सकते हैं। ऊपर का कड़ा खोल या आवरण - अखरोट की तरह; बीच का पिघला हिस्सा - जिसे मेन्टल कहते हैं; और केंद्र का ठोस हिस्सा - कोर। मेन्टल का ऊपरी हिस्सा अर्ध पिघली अवस्था में है। इसी तरह कोर का ऊपरी हिस्सा भी पिघली अवस्था में है। खैर हमें यहां अर्ध पिघले मेन्टल और कड़े आवरण से मतलब है।

महासागरों में चुंबकीय पट्टियां: जब दरार को भरने के लिए धरती के नीचे से पदार्थ आकर जमता है तो उसमें मौजूद चुंबकीय कण अपने आपको पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के अनुरूप जमाते हैं। चूंकि प्लेटों के खिसकने, दरार के फैलने और नीचे से पदार्थ के आकर जमने की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है इसलिए एक ही दिशा में जमे थकीय कणों की एक पटी-सी बन जाती है। इसी बीच अगर पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव पलट गए तो अब जो नया पदार्थ बाहर आकर दरार में जमेगा उसमें चुंबकीय कण अपने आपको पृथ्वी की नई चुंबकीय दिशा के अनुरूप जमाएंगे। यह दिशा पहले वाली दिशा के बिल्कुल उलट होगी। अगर तल रिण के दोनों ओर समान रूप से फैल रहा है तो दोनों ओर एक से पैटर्न की समानान्तर पट्टियां मिलेगी। इनसे यह जानने में मदद मिलती है कि रिज से तलों के फैलने (नया बनने ) की दिशा या री होगी। साथ ही अलग-अलग काल में बनी पट्टियों की चौड़ाई के आधार पर विभिन्न महासागरों के तलों के फैलने की गति की तुलना की जा सकती है। तीर की दिशा पट्टियों के रिज से दूर खिसकते जाने की दिशा बता रही है।

इन दोनों की मोटाई करीब चालीस मील है। इसे लिथोस्फियर कहते हैं। यह कई जगह से अटका हुआ हैये दरारें समुद्री रिज और खाइयों के रूप में हैं। इस तरह कह सकते हैं कि ग्लोब कई प्लेटों से मिलकर बना हुआ है। इन प्लेटों की सीमाएं हैं दरारें यानी समुद्री रिज और खाइयां। :

प्लेट और महाद्वीप
महाद्वीप इन्हीं प्लेटों पर धंसे हुए हैं। इनका कोई अलग अस्तित्व नहीं है।

कई प्लेटें इतनी बड़ी हैं कि महाद्वीपों के साथ-साथ महासागरों के तल का एक बड़ा हिस्सा भी उनके साथ होता है। जैसे की भारतीय  प्लेट -- जिस पर भारत भी सवार है और भारतीय महासागर के तल का बड़ा हिस्सा भी इससे बना हुआ है।

अगर भारतीय महासागर को ही देखें, इसका तल मोटे तौर पर तीन प्लेटों से बना हुआ है। भारतीय प्लेट - जिस पर भारत सवार है, अफ्रीकन प्लेट - जिस पर अफ्रीका सवार है और अंटार्कटिक प्लेट (चित्र देखें)।

कल्पना कीजिए कि अगर ग्लोब से

पानी निकाल दिया जाए तो ली ग्लोब कैसा लगेगा। इठे हुए थे मालीप से और मसागरों के तल में जहां प्लेटों की सीमाएं हैं वहां समुद्री पादियों की श्रृंखलाएं होंगी और कुछ जमहों पर (महाद्वीपों के किनारों) महासागरों के तल में गहरी-गहरी खाइयां।

कैसे चलती है प्लेट
खिसकती प्लेट हैं इसलिए इनके साथ इन पर सवार महाद्वीपों को भी चलना पड़ता है जब कभी पृथ्वी के भीतर चल रही इन चालों के कारण प्लेट को खिसकना पड़ता है तो दो प्लेटों के बीच की दरार चौड़ी होती है। चूकीं दो प्लेटों के बीच बिलकुल भी खाली जगह  नहीं रह सकती इसलिए धरती के भीतरी भाग से पिघला पदार्थ तुरंत ऊपर आकर इस खाली जगह को भर देता है। इस तरह नया तल बनता जाता है और प्लेट खिसकती जाती है। समुद्र के भीतर और रिण में भी यही स्थिति होती है।

अगर नया तल बन रहा है जगह घेरेगा --- क्या इसका मतलब है

नया बनता तल (एक रेखाचित्र): रिज से बाहर आते पदार्थ से बनता नया तल। नए तल को जगह देने के लिए पुराने तल का हिस्सा बारे में समा जाता है। जहां से होकर ये मेन्टल में पता है। इस तरह नए तल के बनने और पुराने के खत्म होने की प्रक्रिया चलती रहती है। तीर गति की दिशा दिखा रहे हैं।

कि धरती लगातार फूलती जा रही है? गणना की गई है कि पिछले 60 करोड़ सालों में धरती के आकार में लगभग नहीं के बराबर वृद्धि हुई है। इसका मतलब है कि अगर कहीं तल बन रहा है तो उसी गति से कहीं और नष्ट भी हो रहा है। बिल्कुल यही होता है महासागर के किनारों पर मिलने वाली समुदी खाइयों में।

जब भी प्लेट खिसक कर किसी दूसरी प्लेट से टकराती है तो एक प्लेट नीचे की ओर झुककर पृथ्वी के भीतर समा जाती है। इन जगहों पर बहुत गहरी खाइयां बन जाती हैंआमतौर पर यह जगह समुद्र के भीतर महाद्वीपों के किनारों पर होती है। यह खाइयां बहुत गहरी होती हैं।

महादीप से बच गए?
अगर प्लेट नष्ट हो रही है तो महादीपों का क्या होता है?

दरअसल प्लेट का निर्माण जिन चटटानों से होता है उनको घनत्व बहुत अधिक होता है। जबकि महाद्वीपों की चट्टानें इनके मुकाबले काफी हल्की हैं इसीलिए वे इनके साथ धरती के भीतर इब नहीं पातीं। इसीलिए जब दो प्लेटों पर सवारी करते महाद्वीप टकराते हैं तो कोई एक प्लेट तो झुककर नीचे चली जाती है लेकिन महाद्वीपों का पदार्थ ऊपर की ओर उठकर पर्वत शृंखलाएं बना लेता है।

चूंकि प्लेट के बनने और बिगड़ने की प्रक्रिया में महाद्वीपीय पदार्थ नष्ट नहीं होता इसीलिए समुद्र तलों के मुकाबल महाद्वीप बहुत अधिक पुराने हैं। और उन पर समुद्र तलों के मुकाबले करोड़ों साल पहले की चट्टानें मिलती हैं।

हमने बात शुरू की थी महाद्वीपों के एक होने से और कहां चले आए। लेकिन सही भी था ने कि जब तक प्लेटों के चलने का तरीका समझ नहीं आता, कसे समझते कि कभी महाद्वीप भी खिसके होंगे। अब इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व तो नदी, बस प्लेट के साथ चलते रहते हैं।

सच, कितना मुश्किल है न यह अहसास कर पाना कि हमारे नीचे की दुनिया हमेशा गतिमान है। अलग अलग महासागरों में विभिन्न प्लेटों के बनने की दर एक सेंटीमीटर से लेकर 20 सेंटीमीटर तक नापी गई हैलेकिन भूविज्ञान में यह गति भी बहुत तेज़ मानी जाती है।

इस रफ्तार से 10 करोड़ सालों में तो एक पूरा-का-पूरा समुद्र नया बन सकता है। और देखो न इसी गति ने हमें कहां से कहां पहुंचा दिया। कभी भारत नीचे अंटार्कटिका क्षेत्र में पड़ा हुआ था और आज भूमध्य रेखा के ऊपर है। खैर - एक बार लेयें के चलने का तरीका समझ में आने के बाद महाद्वीपों के खिसकने में जो गफलत थी वो दूर हो गई।

कुछ अधूरे सवाल
अलग-अलग महासागरों के फैलने की गति, दिशा, चट्टानों के अध्ययन आदि की मदद से अनुमान लगाया गया है कि दुनिया के सारे महाद्वीप करीब 20 करोड़ साल पहले एक थे। कैसा था यह सुपर महादीप? कहां से टूटा यह?. ... आदि, आदि ऐरों सवाल हैं। जिनके जवाब भूविज्ञान के पास हैं। लेकिन अगली बार तक इंतजार करना पड़ेगा।

इसी तरह ऐसा ही एक और सवाल उठता है कि क्या प्लेटें सिर्फ टकराती हैं, नई बनती हैं और नष्ट होती हैं? या फिर प्लेटों का कोई और भी गुण है? जवाब है कि है -- लेकिन यह बताने के लिए जगह अब ज्यादा नहीं बथी है? तो इसे भी अगली बार के लिए मुल्तवी करते हैं।

हां, जाने से पहले एक बात और - कि प्लेट टेक्टोनिक्स सिर्फ समुद्र के फैलने, पहाड़ी श्रृंखलाओं के बनने की बात नहीं करती बल्कि भूकंप और ज्वालामुखी जैसी घटनाओं के जवान भी ढूंढती है। और हां, नया बनना सिर्फ समुद्र के भीतर नहीं होता बल्कि महाद्वीपों के ऊपर भी दिखाई देता है। पूछोगे कहां, तो मैं कहूंगा रुको अगले अंक तक; जब हम फिर से निकलेंगे प्लेट टेक्टोनिक्स की यात्रा पर।


आमोद कारखानिसः कम्प्यूटर विज्ञानी; शौकिया चित्रकार; बंबई में रहते हैं।