सुशील जोशी

मांसपेशियां सिकुड़ती हैं यह तो ठीक है लेकिन इस सिकुड़न के लिए उन्हें ऊर्जा कहां से मिलती है?

कैसे बदलती है रासायनिक ऊर्जा यांत्रिक ऊर्जा में?

यह तो जानी मानी बात है कि शरीर की सभी क्रियाओं में ऊर्जा लगती है। उससे भी ज्यादा जानी मानी बात है कि यह ऊर्जा भोजन के विभिन्न घटकों के विघटन से प्राप्त होती है। जब हम कहते हैं 'शरीर की क्रियाएं तो इसमें मात्र शरीर की हरकतें ही नहीं बल्कि कई सारी अन्दरूनी भौतिक व रासायनिक क्रियाएं भी शामिल हैं। मसलन, दिल का धड़कना, भोजन का पचना, संवेदनाओं का ग्रहण किया जाना, नए-नए रसायनों का बनना, रोग-प्रतिरोध, शरीर के तापमान का नियंत्रण, नई कोशिकाओं का निर्माण वगैरह वगैरह। इन अलग अलग क्रियाओं के लिए ऊर्जा भी अलग-अलग रूपों में चाहिए। दिल धड़कने और हाथ-पैर हिलाने के लिए यांत्रिक ऊर्जा चाहिए जबकि प्रोटीन बनाने के लिए रासायनिक ऊर्जा चाहिए। गुर्दे में से हानिकारक पदार्थों को छानने के लिए अलग किस्म की ऊर्जा चाहिए तो शरीर का तापमान नियंत्रित करने के लिए ऊष्मा रूपी ऊर्जा को हैण्डल करना होगा। ऐसी क्रियाएं जिनमें ऊर्जा खर्च होती है, उन्हें ऊर्जाशोषी या एण्डरगॉनिक क्रियाएं कहा जाता है।

इतनी तमाम किस्म की ऊर्जाशोषी क्रियाओं को चलाने के लिए जरूरी है। कि शरीर में कुछ ऊर्जादायक यानी एक्सरगॉनिक क्रियाएं भी चलें। भोजन के घटकों का ऑक्सीजन की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति में विघटन ही यह ऊर्जादायक क्रिया है।

ऊपर ऊर्जाशोषी व ऊर्जादायक क्रियाओं की बात करते हुए हमने यह भी कहा कि ऊर्जाशोषी क्रियाएं इतनी किस्म की हैं कि उनमें ऊर्जा अलग अलग रूपों में लगती हैतो सवाल यह उठता है कि क्या ऊर्जादायक क्रिया को इतने अलग अलग ढंगों से चलाया जाता है? दूसरे शब्दों में, सवाल यह है कि ऊर्जाशोषी व ऊर्जादायक क्रियाओं की परस्पर कड़ी कैसे जुड़ती है?

एक कड़ी है एटीपी
यही कड़ी जोड़ने का काम एक अनोखा रसायन करता है जिसका नाम है एडीनोसीन ट्राई फॉस्फेट या संक्षेप में एटीपी। एटीपी नामक इस रसायन का ऐसा कुछ कमाल है कि यह ऊर्जादायक क्रियाओं से उत्पन्न ऊर्जा को अपने में संचित रखता है और ऊर्जाशोषी क्रिया के लिए प्रदान कर देता है। ऊर्जाशोषी क्रिया की प्रकृति के अनुरूप एटीपी सही रूप में ऊर्जा प्रदान करता है। अर्थात यह उत्पादन कर्ता व ग्राहक के बीच एक सेतु का कार्य करता है। इसलिए एटीपी को ऊर्जा की सार्वभौमिक मुद्रा भी कहते हैं। जी हां, सार्वभौमिक! कारण यह है। कि एटीपी सभी जीवधारियों में ऊर्जा के हस्तांतरण की भूमिका निभाता है। सूक्ष्मतम बैक्टीरिया से लेकर विशाल काय व्हेल तक और एककोशीय शैवाल से लेकर पेड़ खजूर' तक सबमें एटीपी पाया जाता है और ऊर्जा विनिमय की भूमिका निभाता है।

हाल ही में जिन तीन व्यक्तियों को रसायन शास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला, उन तीनों ने एटीपी पर ही अनुसंधान किया है। इससे पूर्व कम से कम तीन और व्यक्तियों कों एटीपी संबंधी नोबल पुरस्कार मिल चुका है।

यहां हम एटीपी की उपरोक्त महत्वपूर्ण भूमिका को समझने की कोशिश करेंगे। आगे बढ़ने से पूर्व कुछ बातों का स्पष्टीकरण करना जरूरी है। सबसे पहली बात तो यह है कि छः नोबल पुरस्कारों के

एटीपी सभी जीवधारियों में ऊर्जा के हस्तांतरण की भूमिका निभाता है। सूक्ष्मतम बैक्टीरिया से लेकर विशालकाय हेल तक और एककोशीय शैवाल से लेकर पेड़ खजूर' तक सबमें एटीपी पाया जाता है और ऊर्जा विनिमय

बावजूद इस वक्त भी एटीपी को लेकर कई ऐसी बातें हैं जिन्हें हम भलीभांति समझ नहीं पाए हैं। अतः यह सतर्कता रखनी होगी कि इन सब बातों को अन्तिम शब्द न मानें। दूसरी बात यह है कि एटीपी रसायन के कई पहलू अत्यंत पेचीदा हैं। इन्हें सरल करने के चक्कर में त्रुटि रह जाने की सम्भावना है। तो अब आगे बढ़ते हैं।

एटीपी की भूमिका
आपने भोजन किया, वह पचकर कोशिकाओं में पहुंचा। दूसरी ओर खून के साथ ऑक्सीजन आ ही रही है। तो शुरू हो जाए ऑक्सीकरण और निकल जाए सारी ऊर्जा! जल्दी ही सारी ऊर्जा निकल जाएगी, फिर दिन भर क्या होगा? परन्तु ऐसा होता नहीं है। ऊर्जा तभी निकलती है, जब जरूरत होती है। यानी भोजन व ऑक्सीजन दोनों की उपस्थिति के बावजूद ऑक्सीकरण की क्रिया नहीं चलती रहती। कोई न कोई व्यवस्था जरूर है जो इस प्रक्रिया पर लगाम लगाती है। इस बिन्दु को ध्यान रखिए, हम आगे इसका समाधान करेंगे।

फिलहाल मुद्दा यह है कि जब ऊर्जा की जरूरत होती है तब क्या किया जाता है। तथ्य यह है कि प्रत्येक कोशिका में एटीपी के करोड़ों या शायद अरबों अणु मौजूद रहते हैं। ऊर्जा की ज़रूरत ये अणु पूरी करते हैं। कैसे? इसे समझने के लिए एटीपी की संरचना पर गौर करना होगा।

एटीपी की संरचना
एटीपी का अणु तीन इकाइयों से मिलकर बना होता है: एडीनीन नामक कार्बनिक क्षार, राइबोज़ नामक शर्करा और तीन फॉस्फेट समूह।

एडीनीन व राइबोज़ की मिली जुली इकाई को एडीनोसीन कहते हैं। अतः एपी की संरचना को निम्नानुसार भी लिख सकते हैं:

आगे हम एटीपी को इसी रूप में दर्शाएंगे।

यदि एटीपी के अणु में से एक फॉस्फेट समूह निकाल दिया जाए तो एडीनोसिन डाई फॉस्फेट (एडीपी ) बनता है। इसी तरह एडीपी के अणु में से एक और फॉस्फेट समूह निकाल दिया जाए तो एडीनोसीन मोनो फॉस्फेट (एएमपी ) बनता है।

एटीपी से एडीपी बनने में तथा एडीपी से एएमपी बनने में कुछ ऊर्जा मुक्त होती है। एएमपी को यदि तोड़ा जाए तो भी कुछ ऊर्जा निकलती है मगर इसकी मात्रा उतनी नहीं होती जितनी प्रथम दो फॉस्फेट समूह टूटने पर निकलती है।

इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि प्रथम दो फास्फेट बन्धनों में भरपूर ऊर्जा मौजूद है। इन्हें 'ऊर्जा सम्पन्न बन्धन' भी कहा जाता है। इन बन्धन को दर्शाने के लिए प्रायः एक सरल रेखा की बजाए लहरदार रेखा का उपयोग किया जाता है:

यहां यह कह देना लाज़मी है कि फॉस्फेट समूह को अलग करने की क्रिया का जिक्र यहां जल अपघटन यानी हाइड्रोलिसिस के संदर्भ में हो रहा है।

यहां एक और बात जानने योग्य है: जिस तरह से फॉस्फेट समूह को हटाने पर ऊर्जा प्राप्त होती है, उसी प्रकार से फॉस्फेट समूह वापस जोड़ने के लिए ऊर्जा खर्च करना होती है।

मैं यहां इस समस्या को जानबूझकर नहीं उठा रहा हूं कि किसी अणु में यह ऊर्जा क्यों व कैसे होती है तथा किसी बंधन को तोड़ने-बनाने में ऊर्जा का जमा-खर्च क्यों होता है।

प्रत्येक कोशिका में एटीपी के करोड़ों अणु मौजूद होते हैं। जब ऊर्जा की जरूरत होती है तब इन्हें उपयोग किया जाता है। एटीपी को एडीपी में तब्दील करने हेतु विशेष किस्म के एन्जाइमों की जरूरत होती है। एक समूह के रूप में इन्हें 'एटीपीएज़' कहते हैं। अर्थात एटीपीएज़ नाम में यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह किमी एक एन्ज़ाइम का नाम है। एटीपीएज़ समस्त जीवधारियां में पाए जाते हैं। एटीपीएज़ विशेष की प्रकृति पर निर्भर करता है कि ऊर्जा किस रूप में मिलेगी तथा किम काम आएगी। ये काम मोटे तौर पर निम्न किस्मों के होंगे:

  1. यांत्रिक कार्य - जैसे मांसपेशियों का सिकुड़ना
  2. रासायनिक कार्य - जैसे प्रोटीन वगैरह का निर्माण
  3. ऊष्मा उत्पन्न करना
  4. पदार्थों (खासकर आयनों ) का स्थानांतरण करना - जैसे तंत्रिका संवेदनाओं में या गुर्दे में।

सिकुड़न की कड़ीः कंकाल की मांसपेशी के विभिन्न हिस्से। सामान्य तौर पर दिख रही मांसपेशी के एक तंतु को अगर खोलें तो वह और भी पतले तंतुओं से मिलकर बना होता है। इन पतले तंतुओं में से अगर एक को खोलें तो यह भी और पतले तंतुओं का बंडल निकलता है। इस पतले तंतु को अगर सूक्ष्मदर्शी से देखा जाए तो इसमें हल्के और गाढ़े रंग ( यहां चित्र में सफेद और काली) पट्टियों का पैटर्न दिखता है। सफेद पट्टी के बीच में एक काली-सी रेखा दिखती है। दो काली रेखाओं 'A' के बीच के हिस्से को एक संकुचन इकाई कहते हैं।

इस बार हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि एटीपी यांत्रिक ऊर्जा कैसे प्रदान करता है। हम उदाहरण लेंगे मांसपेशियों के संकुचन का और मांसपेशी होगी कंकाल से जुड़ी मांसपेशी।

मांसपेशियों का सिकुड़ना
यह तो आप जानते ही हैं कि हाथ-पांव हिलाने डुलाने के लिए मांसपेशियों की सिकुड़न ज़िम्मेदार है। मांसपेशियां हड्डियों से जुड़ी होती हैं। जब

मांसपेशियां सिकुड़ती हैं तो वे हड्डियों को खींचती हैं और हड्डी में हरकत होती है। सवाल यह है कि मांसपेशियां सिकुड़ती कैसे हैं और इसके लिए ऊर्जा कैसे मिलती है। इसे समझने के लिए कंकाल से संबंधित किसी पेशी की रचना को देखें।

खरगोश की कंकाल से जुड़ी एक मांसपेशी का इलेक्ट्रॉन माइक्रोग्राफ

अगर कंकाल की एक मांसपेशी को खासा बड़ा करके देखें ( ऊपर का चित्र ) तो इसमें एक के बाद एक क्रम में जमी सफेद-काली पट्टियों जैसी रचनाएं दिखती हैं। दो काली रेखाओं (A) के बीच का भाग मांसपेशी की एक संकुचन इकाई (Contractile Unit) मानते हैं।

जब मांसपेशी सिकुड़ती है तो काली रेखाएं (A) एक दूसरे के पास आ जाती हैं। उनके साथ जुड़ी सफेद पट्टियां (B) संकरी हो जाती हैं। लेकिन बीचों-बीच जो काली मोटी-सी (C) पट्टी दिख रही है उसकी चौड़ाई में लगभग नहीं के बराबर फर्क आता है।

अगर एक इकाई को और बड़ा करें तो पाएंगे कि यह दो तरह के तंतुओं से मिलकर बनी होती है जो एक खास क्रम से जमे होते हैं। पतला तंतु एक्टिन है और मोटा तंतु मायोसिन। इनकी जमावट की वजह से ही हमें काली- सफेद पट्टियों का पैटर्न नज़र आता है। मोटे मायोसिन तंतु C पट्टी में पाए जाते हैं। इस पट्टी की चौड़ाई ठीक उतनी ही होती है। जितनी कि मायोसिन तंतु की लंबाई। पतले वाले एक्टिन तंतु मुख्य तौर पर B पट्टी में पाए जाते हैं, लेकिन ये आगे बढ़कर C पट्टी में भी धंसे होते हैं। मोटी काली रेखा A से वह संरचना है जिस पर एक्टिन टिके होते हैं।

मायोसिन तंतु
मायोसिन तंतु मायोसिन नामक प्रोटीन के अणुओं की श्रृंखला से बना होता है। इसका एक अणु लगभग 140 नैनोमीटर (एक नैनोमीटर =10-9 मीटर) लंबा होता है।

मायोसिन प्रोटीन की रचना में एक लंबी पूंछ होती है तथा दूसरी ओर घुंडी नुमा सिर होता है जो एक ओर झुका होता है। सारे तंतुओं की पूंछे आपस में गुंथी होती हैं। नतीजा यह होता है कि एक रस्सीनुमा रेशा बन जाता है और इस रस्सी पर नियमित सर्पिलाकार रूप में सिर की घुंडियां उभरी होती हैं।

प्रत्येक मायोसिन तंतु अपने साथ वाले एक्टिन फिलामेंट से जुड़ सकता है। मायोसिन तंतु लंबाई लिए हुए कई अणुओं से मिलकर बना होता है जिसके एक तरफ घुंडी जैसी रचना होती है और पीछे की ओर लंबी पूंछ। सबसे नीचे का चित्र एक मायोसिन अणु का है, जिसकी लंबाई नैनोमीटर में दिखाई गई है। बीच के खड़ी स्थिति वाले चित्र 'मोटे तंतु' मायोसिन और 'पतले तंतु' एक्टिन के हैं।

मायोसिन एक एटीपीएज़ का काम भी करता है। यानी एटीपी का जल विघटन करके एडीपी और फॉस्फेट समूह में बदल देता है। मगर मायोसिन एटीपीएज़ की दो विशेषताएं होती हैं। यह एटीपी को तभी विघटित करता है जब कैल्शियम आयन (Ca++) मौजूद हों। इसकी दूसरी विशेषता यह होती है कि एटीपी को तोड़ने से पूर्व यह उसे घुण्डीनुमा सिर से जोड़ लेता है और विघटन के बाद बने एडीपी व फॉस्फेट समूह को तुरंत अलग नहीं करता।

एक्टिन तंतु के प्रोटीन अणु
पतला तंतु एक्टिन नाम के प्रोटीन से बना होता है। इसमें प्रोटीन की दो श्रृंखलाएं एक दूसरे पर लिपटी होती हैं। एक्टिन प्रोटीन पर ऐसे स्थान मौजूद होते हैं जो मायोसिन के साथ जुड़ सकते हैं।

मगर एक्टिन तंतु के साथ ट्रोपोनीन व ट्रोपोमायसिन नाम के दो अन्य

मांसपेशी का सिकुड़नाः आराम के समय मांसपेशियों में मायोसिन की घुंडियां एक्टिन से लगी नहीं होतीं, उससे अलग होती हैं। मायोसिन की घुंडियां स्वतंत्र रूप से काम करती हैं। यहां प्रक्रिया को देखने के लिए दो घंडियों का सहारा लिया जा रहा है जो काली हैं और दोनों तरफ मौजूद हैं।

जब तंत्रिकाओं के द्वारा सिकुड़न का संदेश आता है कई प्रक्रियाएं शुरु हो जाती हैं। इसी के साथ 1.  मायोमिन की घुंडी को एटीपी का अणु मिलता है, घुंडी मायोसिन एन्ज़ाइम की तरह काम करती है और एटीपी को जल अपघटित कर एडीपी और फास्फेट ग्रुप में टूटने की क्रिया को उत्प्रेरित करती है। इस टूटन से जो ऊर्जा मिलती है उसकी वजह से यह घुंडी तनाव में आ जाती हैं ( चित्र मे घुंडी की तनाव की अवस्था दिखाई गई है)।  2.  यह घुंडी एक्टिन के सक्रिय हिस्सों से जुड़ जाती है।  3.  ऊर्जा समाप्त हो जाती है और घुंडी अपनी सामान्य अवस्था की ओर मुड़ जाती है चूंकि वो एक्टिन से जुड़ी हुई है इमलिए घुडी के मुड़ने की दिशा में एक्टिन भी आगे बढ़ जाता है। और एक्टिन ततुओं के बीच की ग्वाली जगह कम हो जाती है। इसी समय शिव और वान होती है वो यह कि एडीपी और फास्फेट ग्रुप घुंडी मे अन्नग हो जाता है।  4.  अलग हुई घुंडी को फिर से एटीपी मिलता है और 5.  वो फिर में तनाव में आ जाती है। और पहले 1 मे लेकर 3 तक की प्रक्रिया फिर में दोहराई जानी है।

प्रोटीन भी गुंथे होते हैं। ये कुछ इस तरह गुंथे होते हैं कि एक्टिन के सक्रिय बिन्दु मायोसिन तंतु के संपर्क में नहीं आ पाते।

यानी सामान्य अवस्था में एक्टिन व मायोसिन तंतु एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। अब मान लीजिए तंत्रिका तंत्र के ज़रिए संकुचन का संदेश आता है। यह संदेश कुछ इस तरह का होता है कि तंतुओं के इर्द-गिर्द कैल्शियम आयन की सांद्रता बढ़ने लगती है।

कैल्शियम आयन की सांद्रता बढ़ते ही कई क्रियाएं शुरू हो जाती हैं।

  1.  मायोसिन एटीपीएज़ सक्रिय हो जाता है; यह एटीपी को घुंडियों से जोड़कर उसे एडीपी व फॉस्फेट में तब्दील कर देता है (मगर छोड़ता नहीं है)।
    इस क्रिया में से जो ऊर्जा निकलती है वह व्यर्थ नहीं जाती। इसी ऊर्जा की वजह से मायोसिन की पूंछ की जमावट (Conformation) थोड़ी बदल जाती है। इस तब्दीली की वजह से पूंछ तनाव में रहती है।
  2.  कैल्शियम आयन एक्टिन तंतुओं के साथ जुड़े ट्रोपोनीन व ट्रोपो मायसिन घटकों से जुड़ जाता है। इस जुड़ाव का परिणाम यह होता है कि ट्रोपोनीन व ट्रोपोमायसिन की जमावट में बदलाव आता है।   ये तंतु में अंदर की ओर चले जाते हैं तथा एक्टिन के सक्रिय बिन्दु सामने उभर आते हैं।
  3.  मायोसिन व एक्टिन के बीच एक सेतु बन जाता है, जो पहले संभव नहीं था। यह सेतु एडीपी व फॉस्फेट समूह के ज़रिए बनता है।
  4.  यह तो हम जानते ही हैं कि मायोसिन के तंतु तनाव की स्थिति में हैं (जैसे कि कमान तनी हुई हो)। इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए तन्तु वापस अपनी पूर्व स्थिति में आना चाहते हैं। पूर्व स्थिति   में आने के दौरान घुंडी को एक झटका लगता है और वह अपनी मौजूदा स्थिति से 45° के कोण तक झुक जाती है। जाहिर है कि घुंडी की गति के साथ-साथ एक्टिन तंतु को भी सरकना होगा। तो   एक्टिन तंतु सरककर थोड़ा अंदर चला जाता है। लिहाज़ा हो गया थोड़ा-सा संकुचन।
  5.  इसी के साथ मायोसिन की घुंडी से जुड़े एडीपी व फॉस्फेट समूह भी मुक्त हो जाते हैं।

इस प्रकार संकुचन का एक चक्र पूरा होता है।

एक सेकंड की सिकुड़न के दौरान मायोसिन की हर घंडी को पांच से दस बार जुड़ने, वापस आने और जुड़ने के चक्कर से गुजरना पड़ता है। मायोसिन के एक तंतु में करीब पांच सौ घुंडियां होती हैं, और सब स्वतंत्र रूप से यह कार्य करती हैं।


सुशील जोशीः होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध। पर्यावरण एवं विज्ञान लेखन में सक्रिय।