वैज्ञानिक जीवन 

बचपन से लगातार वे अपनी मेधा को प्रदर्शन करते रहे ताकि बेहतर विद्यार्थी को मिलने वाला वज़ीफा जीत सकें और अपनी पढ़ाई जारी रख सकें। क्योंकि पिता की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।
1920 में उन्होंने अपना प्रसिद्ध पर्चा लिखा। उनके इस काम के बारे में एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने उस समय कहा, “खगोलभौतिकी को । साहा के काम ने काफी तेज़ गति प्रदान की। बाद में इस क्षेत्र में हुए काम पर उनके शोध का काफी प्रभाव रहा।"

वैज्ञानिक तार्किकता के ज़रिए बौद्धिक मुक्ति, और इस प्रकार समाज को मिलने वाले लाभ लगभग उतनी ही महत्वपूर्ण चीज हैं जितने कि शोध द्वारा मिलने वाले भौतिक लाभ। सत्रहवीं सदी से यह बात पाश्चात्य चिंतन के केंद्र में रही है। कई विद्वानों के अनुसंधानों से भी यह बात सामने आई है कि अन्य समाजों में भी विज्ञान के विकास की जड़े सहनशीलता की सांस्कृतिक परंपरा में ही रही हैं। यदि यह बात सही है, तो अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से तालमेल बिठाए बगैर किसी भी समाज में न तो आधुनिक विज्ञान फल-फूल सकता है और न ही इससे मिलने वाला भौतिक लाभ।

इसी सरोकार के साथ छह भारतीय वैज्ञानिकों, जगदीश चंद्र बोस, प्रफुल्ल चंद्र रॉय, चंद्रशेखर वेंकट रमन, सत्येंद्र नाथ बोस, मेघनाद साहा और होमी जहांगीर भाभा ने भी विज्ञान की सार्वभौमिकता और अपने समाज के लिए इसकी अहमियत की हिमायत की। सन् 1894 में लंदन की रॉयल सोसायटी की तर्ज पर एशियाटिक सोसायटी ऑफ साइंस की कलकत्ता में स्थापना हुई।

शुरू में बंगाल प्रेसिडेंसी के प्रशासनिक केंद्र के रूप में और आगे चलकर (1774-1921) ब्रिटिश भारत की राजधानी के रूप में, कलकत्ता में हिंदुस्तानियों को आधुनिक विज्ञान से संपर्क का मौका मिला। दरअसल 1915 से 1921 के बीच जगदीश चंद्र बोस, प्रफुल्ल चंद्र रॉय, सी. वी. रमन, सत्येंद्रनाथ बोस और मेघनाद साहा की बदौलत ही कुछ सालों के लिए कलकत्ता, यूरोप के बाहर वैज्ञानिक क्रियाकलापों का सबसे बड़ा केंद्र बना रहा। इन पांचों में से मेघनाथ साहा में सबसे ज्यादा जोश था - शोध कार्यों की दृष्टि से भी और राजनैतिक मामलों में भी। राजनैतिक रूप से वे इन वैज्ञानिकों में सबसे अधिक सक्रिय थे

शुरुआती दौर
एक दुकानदार के पांचवे बच्चे के रूप में उनका जन्म ढाका के पास के एक गांव शेओराताली में 6 अक्टूबर 1893 में हुआ। घर की आर्थिक हालत इतनी खराब थी कि पिता मेघनाथ की स्कूल की पढ़ाई का खर्चा तक उठाने में असमर्थ थे। अपनी पढ़ाई के हर दौर - स्कूल, कॉलेज एवं यूनिवर्सिटी में मेघनाथ को प्रतिभावान विद्यार्थियों को दिया जाने वाला वजीफा जीतना पड़ा ताकि वो पढ़ाई का खर्चा निकाल सके। उन्होंने अपनी स्नातक डिग्री प्रेसिडेंसी कॉलेज, कलकत्ता से प्राप्त कीयहां उनके सहपाठी सत्येंद्रनाथ बोस, प्रफुल्ल चंद्र रॉय, राजेंद्र प्रसाद और सुभाष चंद्र बोस जैसे लोग थे। सन् 1916 में मेघनाथ साहा यूनिवर्सिटी कॉलेज, कलकत्ता में व्याख्याता नियुक्त हुए। उनके शुरुआती शोध पर्चों के विषय विद्युत-चुंबकीय सिद्धांत, विकिरण दबाव और ब्रह्मांडीय स्पेक्ट्रम के सिद्धांत आदि थे। इन्हीं के आधार पर उन्हें 1919 में डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि मिली। 1920 में साहो एक साल के अध्ययन प्रवास पर इंग्लैंड और जर्मनी गए। वापस आने के बाद 1921 में वे कलकत्ता के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में ‘खेड़ा प्राध्यापक' बन गए। 1923 में उन्होंने यह पद छोड़ दिया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्राध्यापक बन गए

इलाहबाद में अपने 15 वर्ष के कार्यकाल के दौरान उन्होंने अपना ध्यान सांख्यिकीय यांत्रिकी (स्टेटिस्टिकल मेकेनिक्स), आणविक और परमाण्विक स्पेक्ट्रोस्कोपी, ऊंचे ताप पर अणुओं के विघटन, और ऊपरी वायुमंडल के विज्ञान के अध्यापन व शोध पर लगाया।
साही एक बार फिर 1938 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में ‘पालित प्राध्यापक' के रूप में कलकत्ता वापस आए। इसी बीच 1927 में उन्हें रॉयल सोसायटी का सदस्य मनोनीत किया गया।

वर्णक्रम में छुपा रहस्य
साहा का सबसे मौलिक वैज्ञानिक योगदान था ऊंचे तापक्रम पर आयनी करण का सिद्धांत और इस सिद्धांत को ब्रह्मांडीय वायुमंडल एवं स्पेक्ट्रा वर्गीकरण के क्षेत्र में लागू करना। उन्होंने अपना यह काम 1919 में कलकत्ता में शुरू किया था और इसे यूरोप प्रवास के दौरान विकसित किया। 1920 में उन्होंने अपने पर्चे को प्रकाशित किया, तब वे 27 बरस के थे।

उनके काम का महत्व आंकने के लिए यह देखना जरूरी है कि उस समय खगोलशास्त्र में क्या कुछ काम चल रहा था। इसका उदाहरण हमें अमेरिका के वैज्ञानिक हेनरी मॉरिस रसेल के काम में मिलता है। अन्य कई वैज्ञानिकों के साथ रसेल तारों के वर्णक्रम में मौजूद रंगों के आधार पर उनका वर्गीकरण करने की कोशिश में जुटे थे। यह वह जमाना था जब अमेरिका में काफी शक्तिशाली दूरबीनें बनाई जा चुकी थीं और अवलोकन का खगोलशास्त्र अपने चरम पर था। बहरहाल, रसेल इस लगभग अंतहीन वर्गीकरण के काम पर सवाल उठा रहे थे जिसमें कोई पर्याप्त सैद्धांतिक आधार न हो।

सदियों पहले न्यूटन के नियमों से आकाशीय पिंडों की गतियों को समझना संभव हुआ था। रसेल का सवाल था कि प्लांक, बोहर और आइंस्टाइन के विकिरण एवं क्वांटम यांत्रिकी संबंधी नियमों से तारों की रचना को समझने में मदद क्यों न ली जाए?
रसेल ने 1917 में लिखा, “मुझे ऐसा लगता है कि आज का खगोल शास्त्र एक फौज की तरह है जो धड़ों में आगे बढ़ रहा है - एक रोज़मर्रा के अवलोकन की दिशा में और दूसरा सिद्धांतों की खोज की दिशा में। यदि इन दोनों में लगातार संपर्क न रहा तो ये बहुत दूर नहीं पहुंचेंगे।''

इस सारे शोरगुल के बावजूद रसेल के कार्य से प्लांक, बोहर और आइंस्टाइन के काम को तारों की बनावट और विकास पर लागू करने में मदद नहीं मिल पाई। इस समय तक तारों के वर्णक्रम के विश्लेषण के आधार पर खगोलशास्त्री उनमें मौजूद रासायनिक तत्वों की पहचान करने लगे थे। वे वर्णक्रमों के आधार पर तारों का वर्गीकरण भी कर लेते थे - परंतु मात्र गुणात्मक तौर पर। परंतु इन वर्णक्रमों के पीछे छिपा भौतिकशास्त्र बहुत कम समझा जा सका था। रसेल और अन्य वैज्ञानिकों ने माना था कि वर्णक्रम में विभिन्नता का प्रमुख कारण आकाशीय पिंडों के तापमान में अंतर का होना है। परंतु कई और लोगों का इस बात से मतभेद था। अभी तक इस बात की कोई भौतिकशास्त्री व्याख्या मौजूद नहीं थी कि तापमान से वर्णक्रम में अंतर क्यों आता है।

साहा का पर्चा : सुलझती गुत्थी
और तब अक्टूबर 1920 में घटी एक घटना ने जैसे सब कुछ बदल दिया। उस माह की फिलॉसॉफिकल मेग्जीन में एक अनजाने वैज्ञानिक एम. एन, साहा का एक लेख छपा था। कलकत्ता के इस भारतीय वैज्ञानिक ने अपने पर्चे में किसी तत्व के आयनी करण ऊर्जा और आयनीकरण के स्तर को आसपास के वातावरण के तापक्रम और दबाव से जोड़ा था।

किसी भी परमाणु से एक इलेक्ट्रॉन को अलग ,'ने में लगी ऊर्जा को आयनीकरण ऊर्जा कहते हैं। जब पदार्थ को गर्मी दी जाती है, तो उसका सामान्य प्रभाव यह होता है कि पदार्थ के घटकों की कड़ियां ढीली पड़ जाती हैं। जैसे ठोस पदार्थ को गर्म करने से वह द्रव में बदल जाता है और द्रव को गर्म करने से वह वाष्प में बदल जाता है। वाष्प को और गर्म करने पर उसके अणु विखंडित हो जाते हैं और

परमाणु घटक प्राप्त होते हैं। इसी तर्क को और आगे बढ़ाएं तो और गर्मी मिलने पर इलेक्ट्रॉन ( जो कि परमाणु का एक घटक है ) परमाणु से अलग हो जाता है। बाकी बचे परमाणु को आयनीकृत परमाणु कहते हैं। साहा ने इस तरह से अणुओं से बनी गरम गैस को सैद्धांतिक विश्लेषण किया जिसमें परमाणु - सामान्य व आयनीकृत - और इलेक्ट्रॉन मौजूद हों। इस विश्लेषण से प्राप्त समीकरण के आधार पर वे यह गणना कर सके कि तापमान और दबाव का किसी गैस में विघटित घटकों की सांद्रता पर क्या व कितना प्रभाव पड़ेगा।

रसेल ने तत्काल पहचाना कि यही तो आकाशीय वर्णक्रम की सैद्धांतिक कुंजी है। साहा ने अक्टूबर पर्चे के तुरंत बाद दो और पर्चे प्रकाशित किए। इन पर्यों को इतना प्रभाव हुआ कि रसेल ने अपने सहयोगी एडम्स को लिखा, “मुझे विश्वास है कि कुछ ही सालों में हम वर्णक्रम संबंधी जानकारी के आधार पर आयनीकरण ऊर्जा वगैरह के ज्ञान के उपयोग से, आकाशीय पिंडों का तापमान पता लगा लें गे।'' इसके विपरीत साहा की शिकायत थी, “हमारे पास प्रायोगिक आंकड़े लगभग न के बराबर हैं।'' रसेल ने भी वर्णक्रम व आयनीकरण ऊर्जा के उच्च कोटि के आंकड़ों की कमी को महसूस किया। परंतु उन्हें यह भी पता था कि ये आंकड़े कहां से मिल सकते हैं - माउंट विल्सन में जॉर्ज हेल और उनके सहकर्मियों के पास। साहा के ऐसे कोई संपर्क नहीं थे। अगली गर्मियों में रसेल खुद माउंट विल्सन पहुंचे ताकि साहा के सिद्धांतों को तारों पर लागू करके देख सकें। माउंट विल्सन में व्याख्यान देते हुए उन्होंने बताया कि साहा के सिद्धांत में, “अब खगोल शास्त्र, भौतिकी और रसायनशास्त्र में विकिरण के अवशोण और उत्सर्जन के परमाण्विक मॉडल मौजूद हैं।” माउंट विल्सन में उपलब्ध सूरज के चित्रों के आधार पर रसेल ने बताया कि साहा की कुछ भविष्यवाणियां सही हैं और मोटे तौर पर उनके सिद्धांत के आधार पर सौर वायुमंडल में उपस्थित तत्वों के व्यवहार की व्याख्या की जा सकती है।

भावी संभावनाओं को पहचानने में रसेल अकेले नहीं थे। स्वयं साहा ने भी अपने काम के लिए सहायता मांगी थी और जार्जहेल को लिखा कि उन्हें वह सामग्री उपलब्ध कराई जाए जो रसेल को दी गई थी। रसेल ने साहा के पत्र के जवाब में माउंट विल्सन में प्रस्तावित काम का ब्यौरा देते हुए साहा को आश्वस्त किया कि उन्हीं के सिद्धांत के अनुरूप काम होगा। अलबत्ता भारत नामक ब्रिटिश उपनिवेश के उस 'देशी' भौतिकशास्त्री को माउंट विल्सन दल में आमंत्रित नहीं किया गया। साहा वापस कलकत्ता आ गए और कुछ ही समय बाद इलाहाबाद चले गए।

विज्ञान और समाज
1930 तक साहा विज्ञान पढ़ाने और शोध में पूरी तरह डूबे हुए थेराष्ट्रीय विकास में विज्ञान और शोध की भूमिका पर सोचने और काम करने का उनका दौर इसके बाद शुरू होता है। इस दिशा में उनके द्वारा किए गए काम को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है।

पहले में वो गतिविधियां आती हैं जिनमें उन्होंने देश में वैज्ञानिक शोध के लिए अवसर बढ़ाने, विशेष शोधों के लिए प्रयोगशालाओं की स्थापना, स्थापित संस्थानों में चल रहे शोध कार्यों का दायरा बढ़ाने, शोध पत्रिकाएं निकालने तथा इन शोधों के राष्ट्रीय विकास में इस्तेमाल आदि से संबंधित प्रयास किए।

कलकत्ता में 1933 में स्थापित हुई ‘इंडियन फिजिकल सोसायटी' और 1935 में स्थापित 'इंडियन साइंस न्यूज एसोसिएशन के पीछे साहा का ही योगदान न था। 1938 में जर्मन वैज्ञानिक ओट्टो हान यूरेनियम के आण्विक विखंडन (Nuclear Fission) की घोषणा की। साहा ने तुरंत ही भविष्य में इसको मिलने वाले महत्व को पहचान लिया। इस समय वो कलकत्ता विश्वविद्यालय में 'पालित प्रोफसर' थे। उन्होंने एम. एस. सी. के पाठ्यक्रम में तुरंत ही आण्विक भौतिकी को एक विशेष विषय के रूप में शामिल कर लिया।

इसी दिशा में उनके अगले प्रयासों के चलते 1948 में कलकत्ता में ‘इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स' की स्थापना हुई ( जिसे उनकी मृत्यु के बाद साहा इंस्टिट्यूट का नाम दिया गया।) उन्होंने यह भी कोशिश की कि बिखरे हुए विश्वविद्यालयों को जोड़कर एक मजबूत राष्ट्रीय शोध तंत्र का निर्माण किया जाए। किंतु धन के अभाव, प्रशिक्षित वैज्ञानिकों की कमी और विश्वविद्यालय के लालफीताशाही संगठन के कारण सफलता नहीं मिली।

अपने काम के दूसरे हिस्से में उनका सरोकार देश के आर्थिक विकास के लिए वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक तरीकों के बेहतर इस्तेमाल से था।

1935 से 1953 तक साहा राष्ट्रीय नियोजन में विज्ञान के योगदान से संबंधित अपने विचारों को ‘साइंस एंड कल्चर' नामक पत्रिका के माध्यम से व्यक्त करते रहे। इसी के ज़रिए उन्होंने राष्ट्रीय नियोजन, सार्वजनिक क्षेत्र, औद्योगीकरण, पनबिजली, नाभिकीय ऊर्जा, आधुनिकीकरण में विज्ञान व टेकनॉलाजी की भूमिका आदि के साथ साथ भारतीय कला, पुरातत्व और प्राचीन काल में विज्ञान, आदि विषयों पर अपने जबर्दस्त विचार व्यक्त किए।

ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय विकास में विज्ञान व टेकनॉलाजी की भूमिका को लेकर नेहरू पर प्रभाव डालने में साहा का ही हाथ था। 1938 से वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की योजना समिति के सदस्य थे। नेहरू इस समिति के अध्यक्ष थे। सन 1942 से वे विज्ञान वे औद्योगिक शोध परिषद के सदस्य रहे। 1951 में साहा एक निर्दलीय के रूप में लोक सभा के सदस्य चुने गए। लोक सभा में उन्होंने सरकार की विज्ञान, टेकनॉलाजी और विकास संबंधी कई नीतियों की आलोचना की।

16 फरवरी को दिल्ली में योजना आयोग के दफ्तर की ओर जाते हुए उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे गिर पड़े। उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया लेकिन वे फिर कभी नहीं उठ सके। इस तरह भारत के 62 वर्ष की आयु के एक लगनशील, दूरदर्शी वैज्ञानिक का अंत हो गया।


यह लेख एकलव्य द्वारा प्रकाशित विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी की फीचर सर्विस ‘स्रोत' के अक्टूबर 1989 अंक से लिया गया है।