फ्रिगैश करिंथि

कहानी
प्रथम सहायक-सर्जन वयदा उबल पड़ा, “जहन्नुम में जाए”। उसका चेहरा पिटे हुए विद्यार्थी की तरह लाल हो रहा था। झुंझलाकर उसने अपने रबर के दस्ताने उतार फेंके, “जहन्नुम में जाए, डांट सुनने को मैं ही एक रह गया हूं। मैं कोई बच्चा नहीं हूं।”
द्वितीय सहायक तेलेकैश ने अपने दस्ताने आहिस्ता-आहिस्ता उतारे और नल के नीचे हाथ धोने लगा। वह मुस्करा रहा था।
“क्या पागलपना है,” उसने धीरज बंधाया, “इतने बरस बाद एकाएक तुम बुरा मानने लगे...? वह छह साल से मुझ पर, तुम पर चिल्ला रहा है तो क्या तुम्हें खा गया? और तुम यह भी जानते हो कि तुमको खासतौर से वह बहुत चाहता है...”
“चाहता हो मेरी बला से। चाहता है तो अपनी दादी को चाहे....”

“अरे, अरे जामे से बाहर न हो। कुछ समझते भी हो? वह अपनी जगह सही था... बुरा न मानना, आज गलती तुम्हारी ही थी। मैं खुद ही तुमसे कहने वाला था कि सीधे पेट पर रोशनी डालने की बजाय तुम दर्पण को उसकी नाक के तले पकड़े रखे हुए थे।”
“तो क्या हुआ? ऐसा कह नहीं सकता था वह? इशारा ही कर देता। चिल्लाना ज़रूरी था क्या? क्या मैं उसका नौकर हूं? और वह भी उन सब बेहूदों के सामने? और मरीज़ भी कैसा कि जिसे बेहोशी ही नहीं थी कि कुछ सुन न पाए। वह एक-एक शब्द सुन रहा था। यही है हमारी इज्ज़त! वाह भाई! तुम्हें इसी में मज़ा आता हो तो हज़ार बरस मज़े लूटो। मैंने कोई पट्टा नहीं लिखा लिया है इस अस्पताल का। मैं तो जाने कब का अपना अस्पताल खोल चुका होता... ‘प्रसिद्ध सर्जन का सहायक होने का महान गौरव’ मेरे लिए दो कौड़ी का है... उस गौरव को तुम्हारा मन हो तो रख लो उठाकर! उसके भले के लिए ही कहता हूं... अब मुझ पर चिल्लाया तो...”
वह चुप हो गया था। तेलेकैश ने उसकी कमर में चुटकी काटी थी। कई मिनट तक तो इस डर से उसकी बोलती बन्द रही कि कहीं बुड्ढे ने उसके प्रलाप का अन्तिम वाक्य सुन न लिया हो। प्रोफेसर बिल्कुल चुपचाप चला आया था। वयदा ने उसके चिरपरिचित, रूखे, झुर्रीदार चेहरे को ताका। वह चिलमची पर झुका हुआ था। वह उदास दिख रहा था। बस और कुछ नहीं तो भी यह भांपकर कि वह कुछ बोलने वाला है वयदा चिहुंक गया।


“अच्छा भाइयो, आज का काम खत्म हुआ।”
इस कर्कश आवाज़ को सुनकर वयदा की जान-में-जान आई। उसे भय से मुक्ति और दु:साहस का एक-साथ अनुभव हुआ। “तो उसने सुना नहीं.... खैर हुई.... मुझ पर चिल्लाना छोड़ दे नहीं तो....”
“अगले छह दिनों का मुझे इन्तज़ार है।” प्रोफेसर कह रहे थे, “सम्मेलन है, इसलिए, मगर कोई सम्मेलन की ही वजह से नहीं... उसमें तो वही सब कलफाई कमीज़ वाले किताबी लोग होंगे... भुगत लूंगा उनको भी किसी तरह... मगर असल में तो मुझे सवेरे जल्दी उठने से फुर्सत मिलेगी... बिस्तर में पड़े-पड़े बहुत दिन बाद कोई अच्छी किताब पढ़ने का मौका मिलेगा...”
मुंह झुकाकर वह उसे धोने लगा। उस पर खून के छींटे थे। इतने में वह दर्द से कराहा। दोनों सहायक दौड़े।
“धत्तेरे की,” उसने कोसा, “यह मुझे चैन न लेने देगी। मैं समझ गया। इसका इंतज़ाम करना ही होगा।”
दोनों ने प्रश्न-वाचक दृष्टि से देखा, मगर उत्तर देने के बदले बुड्ढा खौंखिया उठा।

“मुंह बाए क्या खड़े हो? जैसे तुमको मालूम नहीं कि मुझे हर्निया की तकलीफ है? काम करते वक्त जब दर्द के मारे मैं दांत भींचता हूं और उस पर तुम छिप-छिपकर हंसते हो तो तुम समझते हो कि मैं देखता नहीं?”
दोनों हक्के-बक्के रह गए; मगर प्रोफेसर ने उनकी तरफ ध्यान न दिया और बोलता रहा।
“बस बहुत छिप-छिपकर हंस चुके। बहुत हो गया, अब नहीं हंस पाओगे।” एक क्षण वह ध्यानमग्न रहा फिर जैसे सहसा किसी नतीजे पर पहुंचा हो। ऐसे बोला:
“सुनो-सुनो, इन छह दिनों का क्यों न फायदा उठाया जाए... श्री श्री सम्मेलन का मेरे बिना क्या बिगड़ जाएगा... कम-से-कम मेरा तो समय ही बचेगा। पड़ा-पड़ा पढ़ता रहूंगा। आराम करने का कितना उम्दा मौका है। पांचवे दिन, मैं टैंगो नाचता दिखाई दूंगा।”
वह चंचल हो उठा।
“और सुनो, मैं यहीं, किसी एक प्राइवेट कमरे में लेटूंगा। कहीं सचमुच कोई बात बिगड़ गई तो प्रोफेसर कलफ़ाई कमीज़ आकर मेरी जांच कर लेंगे... वाह भाई वाह, क्या ठाठ रहेगा! सात नम्बर कमरा मेरे लिए तैयार कराओ!”
उसकी स्फूर्ति का असर मानो उसके सहायकों पर भी हुआ। तेलेकैश खींसे निपोरकर बोला:
“किसको बुलाने का विचार किया है आपने, सर! प्रोफेसर होर्के को? वही ठीक रहेंगे मेरे ख्याल से। अभी फोन कर दिया जाए उनको। अभी घर पर मिल जाएंगे...”

प्रोफेसर ने झटके से सर उठाकर देखा। उसने ऐसा भयंकर चेहरा बनाया जैसे उनमें से किसी एक का सर ही उतार लेंगे।
“दिमाग ठिकाने है! एक और प्रोफेसर! मेरे लिए!” वह गरजे, “मुझे नहीं चाहिए! कोई मानवीय सहकर्मी मेरे उदर में अपना पंजा नहीं घुसेड़ सकता। असम्भव। मैं तो किसी को यह सुअवसर नहीं देने वाला! होश में आओ बेटे!”
तेलेकैश से मुंह बन्द नहीं रखा गया।
“लेकिन मान लीजिए...”
“मान क्या लीजिए? मान लीजिए क्या मानी? बत्तख के पेंदे की तरह अपनी खोपड़ी आगे-पीछे डुला रहे हैं -- न जाने किस तरह के जानवरों से पाला पड़ा है। ज़रा से में ढुलमुल होने लगते हैं! वाह रे ईश्वर! कितना दयालु है तू जो इन्हें मुझे बख्शा... समझ रखो, मैं खुद ही कर लूंगा। दो ठो निकम्मों को भुगतना पड़ेगा, भुगत लूंगा। डरते क्यों हो, तुम पर भी नज़र रखूंगा।”
वे अवाक् खड़े-के-खड़े रह गए। प्रोफेसर ने आदेश देना तो शु डिग्री ही कर दिया था -
“चलते-फिरते नज़र आओ! बड़ा ऑपरेशन घर तैयार करो। ऑपरेशन-मेज़ बीच कमरे में रखो। हिल्डा को इंजेक्शन के लिए बुलाओ!...”
“गुस्ताखी माफ़, प्रोफेसर - क्या अभी इसी वक्त?... हम ही दोनों?

“तो फिर और कब, हे ईशू, क्या खाने के बाद, जब मेरा पेट भरा होगा? आज सबेरे इत्तफ़ाक से मैं नाश्ता गोल कर गया था सो जुलाब की ज़रूरत नहीं... अच्छा, सुनो कसाइयो! आधे घंटे में मैं बाल बनाकर कपड़े बदलकर नीले वाले कमरे में पहुंच जाऊंगा... इस बीच तुम रगड़-रगड़कर नहा-धो डालो और हर्निया वाले औज़ार स्टरलाइज़ कर लो... हिल्डा से कहो ताज़ा नोवोकेन बना ले; क्योंकि स्थानिक चीरा लगना है। समझ गए? ओह ठहरो ज़रा, मैं तो भूल ही गया था... इतना सस्ता छोड़ने वाला नहीं... मुझे एक शीशा चाहिए, बड़ा-सा हो। समझे? तुम्हें उसे लैंप के ऊपर इस तरह से तिरछा लटकाना है कि वह मेरे सिरहाने के समानान्तर रहे जहां मेरी खोपड़ी होगी। मैं उसी शीशे से तुम्हारा तमाशा देखता रहूंगा। अरे कसाइयो, मैं तुमको काम के वक्त मटरगश्ती करने का मौका नहीं देने का; जो ऐसा सोचते हो तो गलती करते हो... देखो, अपना हुनर दिखलाने का कितना अच्छा अवसर तुम्हें मिल रहा है... चलो अपनी-अपनी चाल दिखाओ। अच्छा, आपसे मिलकर खुशी हुई। अब बूचड़खाने में फिर मुलाकात होगी।”

और फिर सब-कुछ एक विचित्र स्वप्न की भांति घटित होने लगा।
आधे घण्टे बाद जब प्रोफेसर हेलियॉट्रोप फूलों के रंग का आसमानी पाजामा-कुर्ता पहने ऑपरेशन घर के दरवाज़े पर दिखाई दिया तो मेज़ कमरे के बीचोंबीच लगी थी और शीशा उसके ऊपर टंगा हुआ था। बेहोशी की दवा की विशेषज्ञ डॉ. हिल्डा इंजेक्शन की पिचकारी सफाई के साथ भर रही थी, घबराहट के मारे दोनों सहायक सर्जनों के चेहरे सफेद हो रहे थे। मगर वे चुपचाप सब ज़रूरी औज़ार निकालकर रख रहे थे। प्रोफेसर आया तो वे चौंकते-चौंकते बचे। तेलेकैश कुछ बोलने को हुआ कि बुढ़ऊ ने उसे चुप करा दिया।
“क्या? इसी को रोशनी का इंतज़ाम कहते हैं आप? नम्बर तीन लैंप नीचा करो, भले आदमी! तुम मेरी आंखें चौंधिया देना चाहते हो जिससे मैं कुछ देख न पाऊं, क्यों?”
तीनों-के-तीनों सहायक, सैनिकों की तरह मुस्तैदी से चालू हो गए। प्रोफेसर ने अपना ड्रेसिंग गाउन उतार फेंका, “सिरहाना ऊंचा करो! अब ठीक है। पाए नीचे करो... अपना पिछवाड़ा मैं कहां रखूंगा? इतना नहीं समझते? छुओ मत मुझे। काट खाऊंगा!”
यह आखिरी बात डॉ. हिल्डा से कही गई थी; क्योंकि वह रोआबदार ऑपरेशन मेज़ पर चढ़ने में प्रोफेसर को सहारा देने की कोशिश कर रही थी। थोड़ी देर तक तो वह मेज़ पर करवटें बदलने और खास तौर से अपने सिर को सही तरह से टिकाने में व्यस्त रहा; फिर उसका भाषण शुरु हो गया।

“अब ठीक है। चलो, कपड़े लाओ। तुमको नाभि से नीचे दो ऊंगली की जगह छोड़नी है। ठीक यही जगह है बुद्धू, आंखें फाड़-फाड़कर क्या देखते हो? मैंने पहले ही उसका नक्शा बना रखा है तुम्हारे वास्ते। नहीं तो तुम्हारे बनाने के लिए छोड़ देता? गुसलखाने में ही मैंने बना डाला था। जितना ज़रूरी है उससे बड़ा चीरा हरगिज़ नहीं लगाना है। ठीक वहीं चीरा लगाओ जहां से रेखा शु डिग्री होती है। रेखा के सहारे-सहारे चीरते जाओ और एकदम अण्डकोष तक आ जाओ। हां देना तो, आयोडीन कहां है... नहीं, नहीं, तुम नहीं, हिल्डा को देने दो।”
डॉ. हिल्डा के हाथ में पिचकारी कांप रही थी। अचानक एक डांट पड़ी तो उसके होश ठिकाने आ गए।
“ईश्वर के वास्ते ज़रा और नीचे लगाओ! इसी को इंजेक्शन कहती हो! और गहरे धंसाओ, बेवकूफ! कितनी बार मैंने तुमसे कहा है कि सुई को सीधा रखा करो। उसे नाभि-रेखा के ऊपर लगाना होता है उसके किनारे नहीं। क्या तुम चाहती हो कि मैं उस तरह चीखूं जैसे वह बूढ़ा कल चीख रहा था? मुझे साफ दिख रहा है कि तुम उसे गलत जगह रखे हुए हो।”
दोनों सर्जन दबी-दबी हंसी हंसे, मगर उनके दांत बज रहे थे।

“तुम दोनों हंसना बन्द करो। अभी देखता हूं मैं कि तुम जितने बहादुर बनते हो उतने हो कि नहीं... बस हो गया हिल्डा, बच्ची। यह चौथी सुई मुझे नहीं चुभी... अब आयोडीन और छुरी लाओ, बल्कि ठहरो... एक क्षण रुको। हिल्डा आयोडीन लगाए और... श्रीमान् वयदा शल्य-क्रिया करें!”
सहायक सर्जन वयदा ‘श्रीमान’ के व्यंग्य को सुनकर चौंक पड़ा। परन्तु एक विचित्र प्रकार के स्वाभिमान से वह प्रभावित हो उठा और उसका चेहरा लाल हो आया।
“जी हां, श्रीमान वयदा, आप ही से कहा जा रहा है क्योंकि आप हर्निया के इन साधारण मर्ज़ों को कुछ नहीं समझते। अब मैं अपने ही पेट पर आपके हाथों का कौशल परखना चाहता हूं... बस करो, काफी है। आयोडीन भी थोड़ी देर में उड़ जाती है। देखो, श्रीमान वयदा को देखो। कितने अधीर हो रहे हैं; उन्हें मेरी कटाई करने की कितनी जल्दी है। आज हिसाब चुकता करने के दिन का वे न जाने कब से इंतज़ार कर रहे थे, क्यों ठीक है न?”

और यह कहकर प्रोफेसर ने अवाक सर्जन को कनखियों से देखा। शुद्ध किए चाकू को हाथ में लेकर वयदा ऑपरेशन मेज़ की ओर बढ़ा।
“अच्छा अब मैं चुप रहूंगा। मैं शीशे में देखूंगा.... अब सुनो, चिपकनी पट्टी, कपड़ा, एक दर्ज़न चिमटियां, दो वायल आयोडीन.... तिरछी तराश.... टांके लगाने के पहले रुई। उंगलियों से लीप-पोत नहीं करना जैसे तुम आमतौर पर करते हो। फुनिकुलस को तर्जनी से उठाना, समझे?... बाकी मैं देखता चलूंगा ... तैयार? एक... दो... तीन शुरू!”
पेट के गोश्त पर चाकू फुर्ती से चला। तेलेकैश रक्त पोंछता जा रहा था। हिल्डा चिमटियां तैयार कर-करके देती जा रही थी। दो मिनट तक निपट सन्नाटा छाया रहा। प्रोफेसर की सांवली सिपाहियाना खाल के तले चरबी प्राय: थी ही नहीं, थोड़े ज़ख्म के भीतर से चमकीला रुपहला गुह्य झांकता दिखाई दिया। फिर भी उसके पीछे जो थुलथुल मांसपेशी दिखनी चाहिए थी वह न जाने क्यों प्रकट नहीं हो रही थी। उसे बांधने के लिए पहले उसे पकड़कर उठाना होगा.... हूं.... आश्चर्य है कि मांसपेशी क्यों नहीं दिख रही....।
“उफ्”... मरीज़ ने मुंह बनाया, “उफ्”।
सर्जन का हाथ कांप गया।

“ओह आखिरकार तुम्हें मिला तो? कि नहीं मिला? मैं तो सोच रहा था कि.... हम पर कुछ नया प्रयोग करोगे और हम बेहोश हो जाएंगे, क्यों? चलो खोज में लगे रहो.... यहीं कहीं होगा, और कहां जा सकता है.... लो, धन्य हो.... अब हम ज़रा कसाईगिरी करेंगे, कि नहीं? रिसेक्शन अभी रहने दो। इस बीच देख रहा हूं कि गॉज़ के धागे ज़ख्म से बाहर निकले जा रहे हैं और मुझे तरबूज के बराबर हेमाटोमा होने वाला है.....”
सर्जन मारे अपमान के काला पड़ गया।
“अच्छा..... अच्छा? अब किया क्या जाएगा, क्यों भाई! अब करना क्या चाहिए? बता दूं तो बड़ा अच्छा हो, क्यों? लेकिन देखो भाई अपनी प्रतिष्ठा की जिस सर्जन को इतनी चिन्ता हो उसे मालूम होना चाहिए..., और मैं जो कुछ न बोलूं तो कैसा रहे? हां.... मैं तो इस वक्त एक असहाय मरीज़ हूं। तुम्हें बताने वाला मैं कौन हूं। क्यों, है न ? अपनी मुक्ति का उपाय अपने आप ही करना होगा तुम्हें?”
वयदा के माथे पर पसीना झिलमिलाने लगा। वह दिमाग लड़ा रहा था। सहसा उसे याद आ गया -- चौथी उंगली! उसने बंधी-बंधाई तैयार खूंटी को चिमटी से उठाया, नाथा और कस दिया। मांस में उसने मोटा तागा पिरो दिया..... आखिरी टांका!
“शुक्र है!” मरीज़ ने उपेक्षा के भाव से कहा।

तेलेकैश ने डॉ. हिल्डा से धागा-पड़ी सुइयां - तीन-की-तीन लीं और उन्हें वयदा को पकड़ा दिया। वयदा ने दो सुइयां कपड़े पर रखीं और तीसरी को ज़ख्म में पिरोया।
‘दाहिनी तरफ’ प्रोफेसर हौंके। वयदा भौंचक रह गया, उसने अदबदाकर सुई बाहर खींच ली। “हे प्रभु! अब उसने सुई ही निकाल फैंकी! मैंने यह थोड़े ही कहा था, बेवकूफ कहीं के। मेरा मतलब दूसरी सुइयों से था। हज़ार बार कहा है कि सुइयां बाएं हाथ की पहुंच में रखना चाहते हो तो उन्हें दाहिनी तरफ रखा करो.... खोपड़ी पर क्यों न रख लिया करो। नहीं तो अपनी भजनावली की पुस्तक में दबाकर रख दिया करो? हे ईश्वर, अच्छे आदमी से पाला पड़ा है।”
सौभाग्य से दो टांके लग चुके थे। तेलेकैश, वयदा को एक-एक करके चिमटियां दे रहा था। अब यह इम्तहान निपटने ही वाला था। मगर इसके पहले कि वह खत्म हो उन्हें एक और फटकार सुननी बदी थी।
“आहिस्ता से, हत्तेरे की.... इसमें तुम्हारा हाथ पोला रहना चाहिए! ताज़े चिरे पेट में पंजा घुसेड़ने का क्या मतलब है! किसी लड़की से लिपट रहे हो क्या? .... अच्छे आदमी से पाला पड़ा है.... हो गया? बहुत-बहुत धन्यवाद! इसी को तुम पन्द्रह मिनट कहते हो? हां-हां, तुमने सोचा होगा कि मैं घड़ी कहां से देख पाऊंगा... तो बता दूं कि तुमने अठ्ठारह मिनट तीस सेकण्ड लगाए हैं, शर्म करो! कितनी बुरी बात है। चलो, चलो हमारी सफाई करो। स्ट्रेचर कहां है? अब तो स्ट्रेचर तैयार रहना चाहिए था। मैं कब तक अपने पैर टांगे रहूं.... थोड़ा कलोडियन लगाओ.... बस छुट्टी हुई।”
जब मरीज़ को स्ट्रेचर पर उतारा जा रहा था तो लाल चेहरा लिए वयदा फुर्ती से उठा। उसने दरवाज़ा धकेलकर खोल दिया और पहले आगे निकल गया।
यह भी गलत।

“तुम यहीं रहो डॉक्टर,” गले तक ढंके प्रोफेसर ने कहा, “डॉ. हिल्डा मेरे साथ मेरे कमरे तक जाएंगी। तुम दोनों का आज बहुत साथ हो चुका। आप अगर मुआयने के ठीक पहले मुझसे आकर मिल जाएंगे तो बहुत होगा।”
मगर जब दरवाज़े पर हक्के-बक्के प्रथम सहायक के सामने से स्ट्रेचर लिढ़ियाया जा रहा था तो प्रोफेसर ने सिर उसकी तरफ पलटकर चादर के नीचे से दाहिना हाथ निकालकर बढ़ा दिया। जब वह बोला तो उसकी आवाज़ में एक मुस्कराहट छिपी हुई थी जो कि जमकर डांट पिलाने के आत्मसंतोष से उपजती है।

“हूं ... देना अपना पंजा .... मैं यह काम भला एक क्षण को भी होर्के पोर्के को देने की सोच सकता था। मैं तो उसी को करने देता जिसने मुझसे सीखा हो। और अठ्ठारह मिनट वाली बात.... यह भी कोई बात नहीं है.... और कभी-कभी जो मैं चिल्ला पड़ता हूं तो .... उसमें इतना बुरा मानने की क्या ज़रूरत है भाई। आखिर फेफड़ों की भी तो कसरत होती रहना चाहिए कि नहीं? किसी ने मुझे उनके सिवाय और किसी पर चिल्लाते नहीं सुना होगा जिनको मैं चाहता हूं। अच्छा फिर मिलेंगे।”
स्ट्रेचर बरामदे को पार करके निकल गया, तब भी सहायक सर्जन को अपनी हथेली पर उस वृद्ध हडैले हाथ की गरमाई अनुभव होती रही।
वह मानो सपने में हो, इस तरह मुड़ा। तेलेकैश हंसता हुआ दस्ताने उतार रहा था। वह कमरे के उस पार खड़ा दिल खोलकर हंस रहा था और वहीं से चिल्लाकर बोल रहा था -

“कैसा रहा? सुन्दर! दिव्य! हीरा आदमी है बूढ़ा -- है न? जवाब नहीं इसका सारी दुनिया में! कसम से, इतना पसीना तो मुझे मेरे अन्तिम वर्ष के मेडिकल इम्तहान में भी न छूटा होगा।”
विचारमग्न वयदा औज़ारों की मेज़ के पास खड़ा चिमटियों में न जाने क्या खंखेड़ता रहा। तेलेकैश बक-बक किए जा रहा था।
“और भाई तुम! तुम भी अच्छी मुसीबत से गुज़रे.... मैं देख रहा था तुम्हारी अरदब को.... दो सुइयों के पीछे कहीं तुम सारा डब्बा उसके मुंह पर मार बैठते तो क्या होता! तुम्हें ठीक वक्त पर उसने पकड़ा। और सबसे मज़े की बात तो यह है कि - तुमने भी ज़रूर देखा होगा कि ऑपरेशन की कोई ज़रूरत नहीं थी। इस तरह की हर्निया को लेकर दस बरस तक वह मज़े से चल सकते थे कि नहीं? तुम्हें लगा कि उसे हर्निया की बीमारी थी? मुझे तो नहीं लगा। वह तो उसे झक सवार थी - और कुछ नहीं; उसका एक पेच ढीला है न! हरामी कहीं का। इसने तो हद कर दी। मगर जो चाहे कह लो, मेरे खयाल से हमारे लिए है यह गर्व की बात। मैं तो कहूंगा कि यह एक अनमोल मरीज़ था.... क्यों क्या हुआ.... बोलते क्यों नहीं.... फिर खयालों में खो गए?”

वयदा कमरे के बीचों-बीच खड़ा अपनी खाली हथेली ऐसे निहार रहा था जैसे उसने पहले कभी न देखी हो।
सहसा वह बोला, उसकी आवाज़ मानो किसी और की अजब आवाज़ हो और अपनी हथेली लगातार ताकता रहा; “केयरनाम ही तो उस शहर का नाम था न?”
“किस शहर का, दिमाग ठिकाने है?”
“जिसमें प्रभु ने.... अपने शिष्यों को दर्शन दिए थे और.... टॉमस को .... शंकालु टॉमस को .... अपनी उंगली प्रभु की कमर में लगाने को कहा था.... जहां भाले का ज़ख्म था वहां.... ताकि उसे .... इस बात पर विश्वास न करने का दंड मिल जाए.... कि प्रतिभा अपना विधान स्वयं बनाती है......”


फिं्रगैश करिंथि (1887-1938): आधुनिक हंगारी हास्य-लेखकों में प्रसिद्धतम फ्रिगैश करिंथि विज्ञान और मनस्तत्तव-प्रेमी उपन्यासकार एवं कहानीकार थे। वह बनना तो भौतिकी और गणित के शिक्षक चाहते थे, अनन्तर उन्होंने चिकित्सा-शास्त्र भी पढ़ा, किन्तु बने अन्तत: पत्रकार।

उन्होंने अद्भुत रूप से विपुल टिप्पणियां, साहित्यिक व्याख्याएं और रेखाचित्र लिखना आरम्भ किया। उनकी हास्य-कथाएं और कहानियां आज भी अत्यन्त लोकप्रिय हैं। ‘आप ऐसे लिखते हैं’ नामक अपने ग्रन्थ में, जिसमें हंगारी और विश्व-साहित्य के प्रतिनिधियों की शैलियों की विडम्बना की गई है, करिंथि ने साहित्यिक व्यंग्यचित्रों की एक नई विधा की सृष्टि की। ये व्यंग्यचित्र निरी साहित्यिक छींटाकशी नहीं बल्कि लेखकों और उनकी शैलियों की विलक्षण समालोचनाएं भी हैं।
हंगरी से अनुवाद: रघुवीर सहाय।
सभी चित्र: उदय खरे: शौकिया चित्रकार, भोपाल में रहते हैं।
यह कहानी - बारह हंगारी कहानियां, प्रकाशक साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से साभार।