सुशील जोशी

रसायन विज्ञान के स्कूली पाठ्यक्रम में एवोगैड्रो संख्या का स्थान काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन यह अंक कहां से और किस तरह आया, अक्सर इसके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं दी जाती। इस लेख में इस संख्या के इतिहास की चर्चा की गई है। एवोगैड्रो संख्या पता करने की विधियों के बारे में अगले अंक में चर्चा करेंगे।

वैसे तो एवोगैड्रो संख्या एक मशहूर संख्या है और किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है मगर मुझे लगता है कि थोड़ा-सा परिचय दे देने से सहूलियत होगी। दरअसल यह संख्या रसायन शास्त्र के विकास के एक पूरे दौर का प्रतिनिधित्व करती है। यह वह दौर था जिसने आधुनिक रसायन शास्त्र को सिर की बजाय पैरों पर खड़े करने का काम किया था।

संक्षेप में इतिहास कुछ इस प्रकार है। जॉन डाल्टन ने अपनी परमाणु परिकल्पना सन् 1804 में प्रस्तुत कर दी थी। इसके अनुसार, अन्य बातों के अलावा, रासायनिक क्रियाओं में परमाणु भाग लेते हैं और इस दौरान वे टूटते नहीं। कई लोग ऐसा मानते हैं कि इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन की खोज ने परमाणु की अविभाज्यता की मान्यता को ध्वस्त कर दिया है। ऐसा नहीं है। डाल्टन सिर्फ रासायनिक क्रियाओं की बात कर रहे थे और आज भी हम मानते हैं कि रासायनिक क्रियाओं के दौरान परमाणु नहीं टूटता। मगर एक समय था जब (डाल्टन के जीते जी) परमाणु की अविभाज्यता पर खतरा मंडराने लगा था और इस घटनाक्रम ने रसायन को समृद्ध किया है। हम उसी की बात करने जा रहे हैं।

डाल्टन का सिद्धांत पदार्थों की क्रियाओं के मात्रात्मक विश्लेषण पर आधारित था। उनके पास जो आंकड़े थे, वे पदार्थों के वज़न से सम्बंधित थे। इन आंकड़ों से पदार्थ की अविनाशिता का सिद्धांत निकला था, व्युत्क्रम अनुपात का नियम निकला था, स्थिर अनुपात का नियम निकला था। और इन नियमों की व्याख्या के लिए डाल्टन ने परमाणु मॉडल प्रस्तुत किया था।
इसी समय एक अन्य वैज्ञानिक (पता नहीं उस समय इन सबको वैज्ञानिक कहते भी थे या नहीं) जोसेफ गैलूसेक ने पदार्थों की रासायनिक क्रियाओं को एक अलग रास्ते से समझने का प्रयास किया। गैलूसेक की रुचि गैसों में थी और वे गैसों की परस्पर क्रियाओं का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने देखा कि जब गैसें आपस में क्रिया करती हैं तो उनके आयतन के बीच सरल अनुपात होता है। सरल अनुपात यानी छोटी-छोटी पूर्णांक संख्याओं का अनुपात। उन्होंने यह भी देखा कि यदि उक्त क्रिया में बनने वाला पदार्थ भी गैस हो, तो क्रियाकारी गैसों और क्रियाफल गैस के बीच भी एक सरल अनुपात होता है।

बर्ज़ीलियस ने इस अवलोकन की जो व्याख्या की उसने डाल्टन के मॉडल की जड़ें हिलाना शु डिग्री कर दिया। बर्ज़ीलियस ने दरअसल डाल्टन के परमाणु मॉडल और गैलूसेक के अवलोकनों को एक साथ रखकर देखा। एक ओर डाल्टन का मॉडल कहता था कि पदार्थ परमाणु के रूप में क्रिया करते हैं। इसका मतलब है कि एक पदार्थ का एक परमाणु दूसरे पदार्थ के एक, या दो, या तीन वगैरह परमाणुओं के साथ क्रिया करेगा। दूसरी ओर गैलूसेक के अवलोकन बता रहे थे कि किसी गैस का एक इकाई आयतन दूसरी गैस के एक इकाई या दो इकाई या तीन इकाई आयतन से क्रिया करता है। तो, बर्ज़ीलियस का सवाल था कि, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पदार्थों के आयतन और उनमें परमाणुओं की संख्या के बीच सीधा सम्बंध हो? बर्ज़ीलियस का जवाब था कि यही सही लगता है और उन्होंने एक सरल-सा नियम प्रस्तुत किया: “समान ताप व दाब पर गैसों के बराबर आयतन में परमाणुओं की संख्या बराबर होती है।” इसका मतलब है कि ताप और दाब बराबर हों, तो 1 लीटर हाइड्रोजन, 1 लीटर ऑक्सीजन, 1 लीटर कार्बन डाईऑक्साइड में परमाणुओं की संख्या बराबर होगी।

अविभाज्यता पर खतरा
इस नियम ने डाल्टन की नींद उड़ा दी। तार्किक स्तर पर तो एकदम सही लगता है मगर इसके आधार पर गणना करें तो परमाणु अविभाज्य नहीं रहता। एक उदाहरण देखें। 1 लीटर हाइड्रोजन और 1 लीटर क्लोरीन की क्रिया होने से 2 लीटर हाइड्रोजन क्लोराइड गैस बनती है।
1 ली. हाइड्रोजन + 1 ली. क्लोरीन
= 2 ली. हाइड्रोजन क्लोराइड
बर्ज़ीलियस के नियम के अनुसार 1 लीटर हाइड्रोजन में और 1 लीटर क्लोरीन में परमाणुओं की संख्या बराबर होगी और 2 लीटर हाइड्रोजन क्लोराइड में उनसे दुगने परमाणु होंगे। यानी हाइड्रोजन के n परमाणु क्लोरीन के द परमाणु से क्रिया करके हाइड्रोजन क्लोराइड के 2n परमाणु बनाते हैं। थोड़ा और आगे बढ़ें। इसका मतलब यह है कि हाइड्रोजन का 1 परमाणु और क्लोरीन का 1 परमाणु क्रिया करके हाइड्रोजन क्लोराइड के दो परमाणु बनाते हैं।

अब झंझट शुरु हो गई। मान लीजिए हाइड्रोजन क्लोराइड का एक परमाणु बनाना हो, तो? तब तो हाइड्रोजन व क्लोरीन के आधे-आधे परमाणु की ज़रूरत होगी। तो बात अटक गई।

समस्या का समाधान
आगे चलकर एक इतालवी वैज्ञानिक ने परमाणु व अणु में भेद करके इस समस्या को सुलझाया। अमीडियो एवोगैड्रो ने यह स्पष्ट किया कि कई सारे तत्व (खासकर गैसीय तत्व) परमाणु के रूप में नहीं बल्कि अणुओं के रूप में पाए जाते हैं। उन्होंने बर्ज़ीलियस के नियम में संशोधन करके इस रूप में प्रस्तुत किया: “समान ताप व दाब पर गैसों के बराबर आयतन में अणुओं की संख्या बराबर होती है।”
यह था किस्से का पहला हिस्सा। इससे इतना तो पता चला कि सभी गैसों के 1 लीटर आयतन में अणुओं की संख्या एक समान होती है। इसके आधार पर हम समस्त गैसों के अणुओं के भार की तुलना कर सकते हैं। जैसे यदि 1 लीटर ऑक्सीजन, 1 लीटर हाइड्रोजन से 16 गुना भारी है तो हम कह सकते हैं कि ऑक्सीजन का एक अणु हाइड्रोजन के एक अणु से 16 गुना भारी होगा। इसका मतलब है कि ऑक्सीजन का एक अणु हाइड्रोजन के एक परमाणु से 32 गुना भारी होगा। इस तरह से अणु भार व परमाणु भार निकालने का एक आसान तरीका हाथ लगा।

मगर एक बात पर ध्यान दें। हम अभी भी यह नहीं जानते कि हाइड्रोजन या ऑक्सीजन के एक अणु का वास्तविक भार कितना है। हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि ऑक्सीजन का अणु हाइड्रोजन के अणु से 16 गुना भारी है। यदि हाइड्रोजन का परमाणु भार 1 माना जाए तो, ऑक्सीजन का परमाणु भार हुआ 16 तथा अणु भार हुआ 32। मगर वास्तव में हाइड्रोजन का एक परमाणु कितना वज़नी है, यह हमें पता नहीं है।
अलबत्ता, परमाणुओं और अणुओं के सापेक्ष भार पता चलना भी काफी बड़ी बात थी। इनके आधार पर आवर्त सारणी का निर्माण हुआ, यौगिकों के सूत्र बने और रासायनिक क्रियाओं को समीकरणों से दर्शाना संभव हुआ। इसकी मदद से एक काम और हुआ।
ऑक्सीजन का अणु भार 32 है। अब थोड़ा पीछे चलते हैं। ऑक्सीजन का अणु भार 32 क्यों है? इसलिए कि यदि आप 1 लीटर हाइड्रोजन लें और एक लीटर ऑक्सीजन लें तो एवोगैड्रो की परिकल्पना के अनुसार उनमें अणुओं की संख्या समान होगी। 1 लीटर ऑक्सीजन का वज़न, 1 लीटर हाइड्रोजन का 16 गुना होता है। इसलिए हमने यह निष्कर्ष निकाला है कि ऑक्सीजन का एक अणु हाइड्रोजन के एक अणु से 16 गुना भारी है। अब मान लीजिए हम 32 ग्राम ऑक्सीजन लेते हैं और 2 ग्राम हाइड्रोजन लेते हैं। ये मात्राएं इन तत्वों के अणु भार के बराबर ग्राम मात्राएं हैं। इनमें भी अणुओं की संख्या बराबर होगी।

जब अणु भार को ग्राम में व्यक्त किया जाता है तो उसे उस पदार्थ का ग्राम अणु भार कहते हैं। ऑक्सीजन का ग्राम अणु भार 32 ग्राम है और हाइड्रोजन का ग्राम अणु भार 2 ग्राम है। इसी प्रकार से पदार्थों के ग्राम परमाणु भार भी बताए जा सकते हैं। किसी पदार्थ की एक ग्राम अणु भार के बराबर मात्रा को उस पदार्थ का एक मोल कहते हैं। जैसे कार्बन डाईऑक्साइड का ग्राम अणु भार 44 ग्राम है तो इसका एक मोल 44 ग्राम हुआ।

मोल-तोल या मोल-मोल?
अभी भी हमें यह नहीं पता कि एक मोल में कितने अणु हैं या कितने परमाणु हैं। यदि वह मालूम चल जाए तो हम आसानी से (‘जबकि’ नियम लगाकर) एक अणु का वज़न निकाल सकते हैं। दूसरी ओर यदि हमें यह पता हो कि एक अणु या परमाणु का वज़न कितना है तो हम यह बता सकेंगे कि एक मोल में कितने अणु या परमाणु होंगे। गोल-गोल समस्या है, है ना? या कहें कि मोल-मोल समस्या है!
यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि एक मोल ऑक्सीजन 32 ग्राम, एक मोल हाइड्रोजन 2 ग्राम, 1 मोल कार्बन डाईऑक्साइड 44 ग्राम एवं एक मोल नाइट्रोजन 28 ग्राम होंगी। मगर एवोगैड्रो का सिद्धांत कहता है कि इन सबका आयतन बराबर होगा। नाप-तौल कर पता चला है कि सारी गैसों के एक मोल का आयतन (सामान्य ताप और दाब पर) 22.4 लीटर होता है। ध्यान रखने की बात यह है कि एवोगैड्रो का नियम गैसीय अवस्था पर ही लागू होता है।

बहरहाल कहने की बात यह है किसी भी पदार्थ के एक मोल में अणुओं या परमाणुओं की संख्या बराबर होगी। इस संख्या को एवोगैड्रो संख्या कहते हैं। यानी किसी भी पदार्थ के एक ग्राम अणु भार में उपस्थित कणों की संख्या ही एक मोल है। कणों से आशय अणु हो सकता है, परमाणु हो सकता है, आयन भी हो सकता है। इस संख्या को यह नाम एवोगैड्रो ने नहीं दिया था। उन्होंने तो शायद मोल को भी परिभाषित नहीं किया था। इस संख्या को एवोगैड्रो संख्या नाम देने का काम ज़्यां बैप्टिस्ट पेरिन ने दिया था और उन्होंने ही पहली बार यह पता लगाया था कि यह संख्या कितनी है। इसकी बात तो अगली बार करेंगे मगर कुछ रोचक बातें और।

पहली बात तो यह बताना लाज़मी है कि यह संख्या बहुत बड़ी है और बहुत बुनियादी है। दरअसल मोल की अवधारणा ने रसायन शास्त्र को एक ऐसा औज़ार दिया है जिसने हमारा काम बहुत आसान कर दिया है। इसकी मदद से हम अणु व परमाणु के स्तर पर होने वाली क्रियाओं को ग्राम तो क्या किलोग्राम और टनों में भी व्यक्त कर सकते हैं। दूसरी ओर यदि किसी क्रिया का अध्ययन ग्राम जैसे स्थूल स्तर पर कर लें तो हम यह पता लगा सकते हैं कि कितने परमाणु या अणु उस क्रिया में शामिल रहे होंगे। इस तरह से मोल की इकाई हमें परमाणु की दुनिया को स्थूल विश्व से जोड़ने में मदद करती है।

मोल को इतनी महत्वपूर्ण अवधारणा माना गया है कि इसका जश्न मनाने के लिए हर साल 23 अक्टूबर को मोल दिवस का आयोजन किया जाता है और यह कार्यक्रम सुबह 6 बजकर 2 मिनट पर शुरु होता है। इस दिन और समय को चुनने का कारण बहुत मज़ेदार है मगर उसके लिए अगले अंक का इन्तज़ार कीजिए।

आप समझ ही गए होंगे कि एवोगैड्रो संख्या का पता लगाना बहुत अहमियत रखता है। इससे हमें यह पता चलेगा कि किसी पदार्थ के एक अणु या परमाणु का वास्तविक वज़न कितना होता है। इस संख्या को किसी गणना के द्वारा नहीं निकाला जा सकता। इसे प्रयोगों द्वारा निकाला गया है और इसकी कई विधियां हैं। अगले अंक में हम इनमें से एक विधि की बात करेंगे। यह विधि ज़्यां बेप्टिस्ट पेरिन ने ही खोजी थी और उन्हें इसके लिए नोबल पुरस्कार भी दिया गया था। एवोगैड्रो संख्या निकालने से जहां एक ओर परमाणुओं और अणुओं की गिनती करना संभव हुआ, वहीं इसकी बदौलत पदार्थ की कण प्रकृति की भी पुष्टि हुई।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा प्रकाशित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन में रुचि।
अणुभार, परमाणु भार, मोल आदि के बारे में और विस्तार से जानने के लिए संदर्भ पत्रिका के अंक - 7 (सितंबर-अक्टूबर 1995) में प्रकाशित लेख - ‘परमाणु भार की गुत्थी अणु-परमाणु भेद से सुलझी’ तथा अंक 8-9 (नवंबर 95-फरवरी 96) का लेख - ‘संकेत और सूत्र: रासायनिक संघटन की एक अभिव्यक्ति’ को ज़रूर देखिए। ये दोनों लेख भी सुशील जोशी ने लिखे हैं।