एक व्यवस्था बनाने की कोशिश

आइज़ेक एसीमोव
अनुवाद: रमा चारी

लगभग दो हज़ार साल पहले यूक्लिड ने गणितीय प्रणाली, विशेष तौर पर ज्यामिति की एक व्यवस्था बनाई। दस स्वसिद्ध मान्यताएं उसकी बुनियाद थीं - पांच सामान्य विचार और पांच आधारतत्व। अन्य सब अत्यंत सरल थे, परंतु इनमें से आखिरी आधारतत्व काफी लंबा व जटिल था। दो हज़ार साल के इस लंबे अंतराल में इसे हटाने एवं सरल या वैकल्पिक रूप देने के लिए बहुत से असफल प्रयास हुए।
लेखक ने गणित की बुनियाद को समझने के साथ-साथ इस लेख में इस आखिरी स्वसिद्ध को विस्तार से समझाने का प्रयास किया है। इस स्वसिद्ध व इन कोशिशों को समझना इतना महत्वपूर्ण क्यों है यह जानने के लिए आपको इस लेख की अगली कड़ी का इंतज़ार करना होगा जिसमें अठारहवीं सदी व बाद की घटनाओं से शुरू करते हुए लेखक यथार्थ से परे का संसार बुनता चला जाता है।

गणित सदा ही विज्ञान से एक सीढ़ी ऊपर रहा है। विज्ञान काफी हद तक उदगामी (inductive) होता है अर्थात् वस्तुओं या प्रक्रियाओं के अवलोकन से सामान्य नियमों का उद्गमन किया जाता है। वहीं गणित में आदि-सिद्धांतों (first principles) से परिणामों का निगमन (deduction) किया जाता है। गणित की यह प्रक्रिया कुछ उच्च कोटि की और (विज्ञान की तुलना में) अधिक निश्चित लगती है।

पर क्या होगा, यदि ये आदि-सिद्धांत ही गलत हों? यह पता चलने का आघात किसी वैज्ञानिक अवलोकन की गलत व्याख्या से कहीं अधिक होता है। ये दो निबंध इसी वस्तुस्थिति को दर्शाते हैं।
मेरे कुछ आलेखों की पाठकों में तीव्र प्रतिक्रिया होती है। इसका बहुत अच्छा उदाहरण वह लेख है जिसमें मैंने उन वैज्ञानिकों की सूची दी थी जो मेरे अनुसार उच्चतर कोटि के थे। उस लेख के अंत में मैंने अभी तक के सर्वश्रेष्ठ (मेरे विचार में) दस वैज्ञानिकों का क्रम भी दिया था।

स्वभावत:, इस सूची के बारे में मुझे कई पत्र मिले हैं, और कई वर्षों बाद अभी भी मिलते रहते हैं; जिनमें इन नामों में फेरबदल करने के सुझाव होते हैं। इनके जवाब में मेरा स्पष्टीकरण यह होता है कि न्यूटन को छोड़कर (जिनके इस सूची में होने के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती है) दस सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों का चुनाव एक वैयक्तिक (subjective) विषय है और इस बारे में कोई तर्क करना निरर्थक है। हाल ही में मुझे इस सुझाव के साथ एक पत्र मिला कि मेरी सूची में आर्किमिडीज़ के स्थान पर यूक्लिड का नाम होना चाहिए था। इसके जवाब में मेरा तर्क था कि यूक्लिड ‘मात्र एक वर्गीकर्ता/प्रणालीकर्ता (systematizer)’ थे जबकि आर्किमिडीज़ ने गणित और भौतिकी के विकास में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए।

पर फिर मेरे अन्त:करण में विचार उठने लगे। अभी भी मेरे विचार में आर्किमिडीज़ का स्थान यूक्लिड से ऊपर है पर यूक्लिड को ‘मात्र एक वर्गीकर्ता’ कहना मुझे परेशान करने लगा। प्रणाली की स्थापना करना कोई मामूली बात नहीं है और ‘मात्र’ शब्द का उपयोग उचित नहीं है।

यूक्लिड की गणितीय प्रणाली
यूक्लिड (जो ई. पू. 300 के लगभग सक्रिय थे) से तीन सौ साल पहले यूनानी ज्यामिति शास्त्रियों ने प्रमेय सिद्ध करना प्रारंभ कर दिया था और यूक्लिड के समय तक कई प्रमेय सिद्ध हो चुके थे।
यूक्लिड ने जो काम किया वह था इन सबको व्यवस्थित कर एक प्रणाली का रूप देना। उन्होंने कुछ परिभाषाओं व धारणाओं (assumptions) से प्रारंभ कर पहले कुछ प्रमेयों को सिद्ध किया। फिर उन्हीं परिभाषाओं, धारणाओं और प्रारंभिक प्रमेयों का उपयोग कर कुछ और प्रमेय सिद्ध किए, और इस तरह प्रमेय सिद्ध करने के क्रम को आगे बढ़ाया।

जहां तक हमें ज्ञात है, यूक्लिड पहले व्यक्ति थे जिन्होंने एक विस्तृत गणितीय प्रणाली इस आधार पर विकसित की कि (प्रारंभ से) सब कुछ सिद्ध करने की चेष्टा व्यर्थ है। आवश्यकता इस बात की है कि कुछ ऐसे तथ्यों से शुरुआत की जाए जिन्हें सिद्ध तो नहीं किया जा सकता पर अंतर्ज्ञान (intuition)के बल पर बिना स्पष्ट प्रमाण के भी स्वीकार किया जा सकता है। ऐसी प्रमाणित न की जा सकने वाली धारणाओं को ‘स्वसिद्ध (axioms)’ कहते हैं।

यूक्लिड का इस प्रकार एक प्रणाली बनाना अपने आप में एक महान बौद्धिक विकास था, पर उन्होंने इससे भी बड़ा काम किया। उन्होंने ‘सही’ स्वसिद्ध चुने।
आइए, इस ‘सही’ का अर्थ देखें। विचार कीजिए कि एक प्रणाली का विकास करने के लिए आप स्वसिद्ध तथ्यों की सूची बनाते हैं। तो आप चाहेंगे कि सर्वप्रथम यह सूची संपूर्ण हो अर्थात् उस विषय से संबंधित सभी प्रमेयों को इस सूची में निहित स्वसिद्धों से सिद्ध किया जा सकता हो। पर दूसरी ओर इनमें से कोई स्वसिद्ध अतिरिक्त या अनावश्यक न हो, अर्थात ऐसा नहीं हो कि एकाधिक स्वसिद्ध को सूची से निकालने के बाद भी बचे हुए स्वसिद्ध सारे प्रमेय सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हों, या कुछ स्वसिद्ध बाकी स्वसिद्धों का उपयोग करके सिद्ध किए जा सकें। और अंत में, सारे स्वसिद्ध आपस में सुसंगत (consistent) होने चाहिए यानी कि ऐसी स्थिति न हो कि किसी चीज़ या तथ्य को कुछ स्वसिद्ध सत्य बताएं और कुछ असत्य।

यूक्लिड की बनाई स्वसिद्ध आधारित प्रणाली दो हज़ार साल से इस कसौटी पर खरी उतर रही है। किसी को भी आज तक यूक्लिड की सूची में न तो कोई और स्वसिद्ध जोड़ने की आवश्यकता लगी और न ही कोई किसी स्वसिद्ध को हटा या बदल पाया। यह प्रमाण है यूक्लिड के विवेकपूर्ण चुनाव का।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक जबकि गणितीय तर्क-प्रणाली काफी विकसित हो गई थी, यह स्पष्ट होने लगा कि यूक्लिड की प्रणाली में कई अव्यक्त धारणाएं (acit assumptions) थींे जिन्हें यूक्लिड और उनके पाठकों, दोनों ने बिना प्रकट रूप से कहे ही स्वीकार कर लिया था।

उदाहरण के लिए यूक्लिड के प्रारंभिक प्रमेयों में से कई हैं जिनमें दो त्रिभुजों को सर्वांगसम (congruent) सिद्ध करने के लिए कल्पना की जाती है कि एक त्रिभुज को अपनी जगह से उठाकर दूसरे त्रिभुज के ऊपर रख दिया गया है। इस क्रिया में यह मान लिया गया है कि त्रिभुज को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में उसका आकार या नाप कुछ नहीं बदलता। आप कहेंगे, ‘और क्या’। जी हां, आप मान लेते हैं कि कुछ नहीं बदलता, मैं भी मान लेता हूं और यूक्लिड ने भी मान लिया था लेकिन उन्होंने कहीं पर भी प्रकट रूप से कहा नहीं कि ऐसा मानना पड़ेगा।
आगे देखें। यूक्लिड ने यह भी मान लिया था कि एक सरल रेखा दोनों दिशाओं में अनंत तक बढ़ायी जा सकती है। पर कहीं स्पष्टत: यह नहीं लिखा कि ऐसी पूर्वधारणा (assumption) मानी जा रही है।

और तो और, उन्होंने कई महत्वपूर्ण आधारभूत तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया जैसे एक सरल रेखा में बिंदुओं के क्रम का महत्व। फिर उनकी कुछ मूलभूत परिभाषाएं भी संपूर्ण नहीं थीं....।
खैर, यह सब छोड़िए। पिछली शताब्दी में यूक्लिड की ज्यामिति को बहुत ठोस आधार दे दिया गया है। हालांकि इसके लिए स्वसिद्ध और परिभाषाओं की इस प्रणाली में कुछ बदलाव लाना पड़ा, पर मूल रूप में यूक्लिड की ज्यामिति वैसी ही रही। अंतर सिर्फ इतना है कि यूक्लिड द्वारा दिए गए स्वसिद्ध और परिभाषाओं के साथ उनकी ही अव्यक्त धारणाएं जोड़ दें तो प्रणाली सम्पूर्ण हो जाती है।

यूक्लिड-प्रणाली के सामान्य विचार
चलिए, अब यूक्लिड के स्वसिद्ध तथ्यों पर नज़र डालते हैं। ये कुल दस थे और इन्हें पांच-पांच के दो वर्गों में बांटा गया था। पहले वर्ग को ‘सामान्य विचार’ (common notions) का नाम दिया गया है क्योंकि ये विज्ञान की सभी धाराओं में उपयोग किए जाते थे। ये पांच स्वसिद्ध इस प्रकार हैं -

1. दो वस्तुएं यदि किसी तीसरी वस्तु के बराबर हैं तो वे आपस में भी बराबर होंगी।
2. यदि समान मात्राओं को समान मात्राओं में जोड़ा जाए तो उनके योग भी समान होंगे।
3. यदि समान मात्राओं में से समान मात्राएं घटाई जाएं तो उनके शेषफल भी समान होंगे।
4. यदि दो वस्तुएं एक-दूसरे की संपाती (coincident) हैं तो वे आपस में बराबर होंगी।
5. संपूर्ण हमेशा अंश से बड़ा होता है।
ये ‘सामान्य विचार’ इतने सामान्य, प्रत्यक्ष और सहज स्वीकार्य लगते हैं कि इनका खंडन ही नहीं किया जा सकता और ये परम सत्य को दर्शाते हैं। लगता है कि किसी व्यक्ति में जैसे ही तर्कशक्ति विकसित हो जाएगी वह इन तथ्यों को स्वीकार कर लेगा। बिना संसार के व्यावहारिक ज्ञान के, सिर्फ ज्ञानज्योति के बल पर वह समझ सकता है कि यदि दो चीज़ें किसी तीसरी के बराबर हों तो वे आपस में भी बराबर होंगी, इत्यादि।

इस दशा में वह यूक्लिड के स्वसिद्ध तथ्यों का उपयोग करके ज्यामिति के सारे प्रमेय हल कर सकता है अर्थात बिना किसी अवलोकन के वह आदि-सिद्धांतों के द्वारा संसार के आधारभूत गुण जान सकता है।
इस धारणा ने कि, संपूर्ण गणितीय ज्ञान अंतर्मन से आ सकता है, यूनानी चिंतकों को इतना मोहित कर दिया कि उनमें वह महत्वपूर्ण उत्कंठा ही समाप्त हो गई जिससे प्रायोगिक विज्ञान का विकास संभव हो पाता। यद्यपि यूनान में उस समय भी टेसीबियस (Ctesibiu) और हेरो (Hero) जैसे प्रयोगधर्मी थे पर यूनानी पंडित उनके कार्य को शिल्प या कारीगरी का नीचा दर्ज़ा देते थे।
प्लेटो के एक वार्तालाप में सुकरात एक दास से किसी ज्यामितीय आरेख के बारे में कुछ निश्चित प्रश्न करते हैं और उत्तर में वह दास एक प्रमेय सिद्ध करता है। इस घटना से सुकरात यह दिखाना चाहते थे कि एक अशिक्षित व्यक्ति भी अपने अंतर्मन से सत्य की खोज कर सकता है। लेकिन ध्यान दें, ऐसा होने के लिए प्रश्नकर्ता का एक बेहद परिष्कृत व्यक्ति (सुकरात) होना आवश्यक था और वह दास भी वास्तव में पूर्णत: अशिक्षित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपने जीवन काल में उस दास ने बहुत कुछ देखा और समझा था। इसके फलस्वरूप उसने स्वयं कई धारणाएं बना लीं, जिनका प्रकट रूप में न उसे पता था न (शायद) सुकरात को।

फिर भी 1800 ई. तक भी इम्मानुएल कांट जैसे प्रभावशाली दार्शनिक यही मानते थे कि यूक्लिड के स्वसिद्ध परम सत्य को निरूपित करते हैं।
पर क्या यह सच है? क्या कोई भी इस कथन का खंडन करेगा कि ‘संपूर्ण सदा अंश से बड़ा होता है? संख्या 10 को 6 + 4 में विभाजित किया जा सकता है, तो क्या हम यह मानने में सही नहीं हैं कि 10 की संख्या, 6 और 4 दोनों से बड़ी है? यदि एक अंतरिक्ष यात्री किसी अंतरिक्ष यान के अंदर जा सकता है तो क्या हमारा यह मानना सही नहीं होगा कि अंतरिक्ष यान का आयतन अंतरिक्ष यात्री के आयतन से अधिक है? फिर हम कैसे इस स्वसिद्ध की सत्यता पर संदेह कर सकते हैं?’

स्वसिद्ध सदैव सत्य?
इसके लिए एक उदाहरण देखते हैं। क्रमागत संख्याओं (consecutive numbers) की किसी भी सूची को सम और विषम संख्याओं में विभाजित किया जा सकता है। इसलिए हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि क्रमागत संख्याओं की किसी भी सूची में सारी संख्याओं का योगफल केवल सम संख्याओं के योग से सदा अधिक होगा। परंतु, यदि हम एक अपरिमित (infinite) सूची लें तो हम पाएंगे कि सारी संख्याओं का योग और सिर्फ सम संख्याओं का योग, दोनों बराबर हैं। इस तरह के परा-परिमित (transfinite) गणित में ‘संपूर्ण, अंश से बड़ा’ वाला स्वसिद्ध काम नहीं करता।
पुन:, मान लीजिए कि दो वाहन किन्हीं दो बिंदुओं ‘अ’ और ‘ब’ के बीच एक ही रास्ते पर चलते हैं। दोनों के रास्ते एक हैं पर क्या वे एकसम (identical) हैं? ज़रूरी नहीं! पहला वाहन ‘अ’ से ‘ब’ को गया और दूसरा ‘ब’ से ‘अ’ को। अर्थात् दोनों रास्तों की लंबाई एक हो सकती है, पर दिशाएं अलग होने के कारण वे एक-दूसरे के बराबर नहीं कहे जा सकते।

क्या यह सिर्फ कोरी गप्प है? क्या एक रेखा की दिशा हो सकती है? जी हां, बिल्कुल। दिशा वाली रेखाओं को ‘सदिश’ (vector) कहते हैं। ‘सदिश गणित’ के नियम सामान्य गणित के नियमों से कुछ अलग होते हैं और दो वस्तुएं आपस में संपाती (coincident) होने के बावजूद असमान हो सकती हैं।
संक्षेप में, ये स्वसिद्ध परम सत्य के उदाहरण नहीं हैं और संभवत: परम सत्य जैसी कोई चीज़ ही नहीं है। यूक्लिड के स्वसिद्ध इसलिए स्वसिद्ध नहीं हैं कि वे किसी अंतर्ज्ञान से उत्पन्न परम सत्य हैं वरन् केवल इसलिए कि वे वास्तविक संसार के परिप्रेक्ष्य में सही बैठते हैं।

और यही कारण है कि यूक्लिड के स्वसिद्धों से प्राप्त ज्यामितीय प्रमेय वास्तविकता के अनुरूप जान पड़ते हैं। क्योंकि वे वास्तविकता से ही आरंभ हुए।
ऐसा संभव है कि किसी भी स्वसिद्ध समूह (set of axioms) से, जो परस्पर विरोधी या असंगत न हों, प्रारंभ कर एक प्रमेय प्रणाली विकसित की जाए जो कि इन स्वसिद्धों से और आपस में सुसंगत (consistent) हो पर हमारे वास्तविक संसार के साथ सुसंगत नहीं हो। इस प्रकार का बनाया हुआ ‘स्वैच्छ गणित’ (arbitrary mathematics) यूक्लिड के स्वसिद्धों पर आधारित गणित से कम ‘सत्य’ नहीं होगा, सिर्फ शायद कम उपयोगी। वस्तुत: विशेष परिस्थितियों में, जैसे परा-परिमित और सदिश संख्याओं के संदर्भ में, ‘स्वैच्छ गणित’ शायद ‘सहज बुद्धि गणित’ से अधिक उपयोगी निकले।

फिर भी, हमें ‘उपयोगी’ और ‘सत्य’ के बीच दिग्भ्रमित नहीं होना चाहिए। हो सकता है कि कोई स्वसिद्ध प्रणाली इतनी अटपटी हो कि उसके उपयोगी होने की कोई संभावना न हो पर फिर भी हम उसकी ‘सत्यता’ के बारे में कुछ नहीं कह सकते। अगर यह प्रणाली स्वसंगत (self consistent) हो तो हमें और कुछ मांगने का कोई अधिकार नहीं है। ‘सत्य’ और ‘वास्तविकता’ धर्मशास्त्र के शब्द हैं, विज्ञान के नहीं।

यूक्लिड-प्रणाली के आधारतत्व
अब यूक्लिड के स्वसिद्धों पर वापस लौटें। अभी तक मैंने सिर्फ पांच ‘सामान्य विचार’ गिनाए थे। उस सूची में पांच और थे जो विशेषकर ज्यामिति से संबंधित थे। बाद में इन्हें ‘आधारतत्व’ (postulate) कहा गया। इनमें से पहला था:
1. किसी भी बिंदु से अन्य एक बिंदु तक सरल रेखा खींचना संभव है।
यह कथन सुनने में सहज स्वीकार्य लगता है पर क्या आपको पूरा विश्वास है? क्या आप सिद्ध कर सकते हैं कि आप सूर्य से पृथ्वी तक एक सरल रेखा खींच सकते हैं? यदि आप किसी प्रकार सूर्य पर सुरक्षित खड़े हो सकें और पृथ्वी को उसकी कक्षा में एक स्थान पर रोक लें, और किसी तरह पृथ्वी से सूर्य तक एक रस्सी तान सकें तो यह रस्सी सूर्य और पृथ्वी के बीच एक सरल रेखा को निरूपित करेगी। आपको शायद यह लगे कि वह एक युक्तिसंगत ‘काल्पनिक प्रयोग’ (thought experiment) है। मैं भी ऐसा ही सोचता हूं परंतु हम सिर्फ अनुमान कर रहे हैं कि ऐसा हो सकता है। इस स्वसिद्ध को न हम कभी करके दिखा सकते हैं और न ही गणित से सिद्ध कर सकते हैं।

वैसे, एक सरल रेखा होती क्या है? मैंने ऊपर यह पूर्वानुमान किया था कि तान कर खींची गयी रस्सी एक सरल रेखा के आकार को निरूपित करेगी। परंतु यह आकार क्या है? हम अधिक से अधिक यह कह सकते हैं कि ‘सरल रेखा अति तनु और अति सीधी’ वस्तु है। या फिर गायिका गरटÜड स्टीन के गीत की तर्ज़ पर ‘एक सरल रेखा है जो एक सरल रेखा है........’।
यूक्लिड ने सरल रेखा की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी है, ‘एक रेखा जो अपने ही बिंदुओं पर समान रूप से स्थित है।’ पर इस कथन को ऐसे छात्र को समझा पाना मेरे लिए भी मुश्किल होगा जो ज्यामिति का अध्ययन कर रहा है।

एक और परिभाषा है, ‘एक सरल रेखा दो बिंदुओं के बीच की न्यूनतम दूरी है।’
लेकिन अगर एक रस्सी दो बिंदुओं के बीच तान कर रखी जाए तो वह एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक और कम दूरी में नहीं जा सकती। तो फिर यह कहना कि एक सरल रेखा दो बिंदुओं के बीच की न्यूनतम दूरी है, यह कहने के बराबर है कि एक सरल रेखा का आकार एक तनी हुई रस्सी जैसा है। पर फिर यही प्रश्न उठता है कि आखिरकार यह आकार है क्या?
आधुनिक ज्यामिति में सरल रेखा को परिभाषित ही नहीं किया जाता। बल्कि सार रूप में यह कहा जाता है: सरल रेखा वह होती है जो ‘बिंदु’, ‘समतल’, ‘बीच में’, ‘सतत’ जैसी कुछ अन्य अपरिभाषित वस्तुओं से निम्न प्रकार से संबंधित होती है। इसके बाद इन संबंधों की सूची दी जाती है।

खैर जो भी हो, यूक्लिड के बाकी आधारतत्व इस प्रकार हैं:
2. एक परिमित (finite) सरल रेखा को सतत रूप से एक सरल रेखा में बढ़ाया जा सकता है।
3. किसी भी बिंदु को केंद्र मानकर किसी भी त्रिज्या का वृत्त खींचा जा सकता है।
4. सभी समकोण बराबर होते हैं।
5. यदि एक सरल रेखा अन्य दो सरल रेखाओं को इस तरह काटती है कि एक तरफ के दोनों अंत:कोणों का योग दो समकोणों से कम हो तो ये दो सरल रेखाएं अनंत तक बढ़ाए जाने पर उसी तरफ मिलेंगी जिस तरफ के अंत:कोणों का योग दो समकोणों से कम है।
आशा है, आपने एक चीज़ पर तुरंत गौर किया होगा। यूक्लिड के दस स्वसिद्धों में से सिर्फ एक (पांचवां आधारतत्व) ऐसा है जो कि काफी लंबा है और सहज ही समझ में नहीं आता।

यदि अंकगणित, सरल रेखा और वृत्त के बारे में जानने वाले किसी व्यक्ति के सामने ये दस स्वसिद्ध गिनाए जाएं तो शु डिग्री के नौ वह सरलता से मान लेगा। फिर आप दसवें (अर्थात् पांचवें आधारतत्व) पर पहुंचेंगे और वह ज़रूर कहेगा, ‘क्या कहा?’
इसके बाद भी उसे इस कथन को समझने में बहुत समय लगेगा। मैं स्वयं साथ में दिए गए आरेख के बिना इस कथन को समझाने की कोशिश नहीं करना चाहूंगा।

पांचवां आधारतत्व
चित्र में दी गई दो सरल रेखाओं को देखिए : एक वह है जो बिंदु C से M होती हुई बिंदु D को जाती है (इसे छोरवर्ती बिंदुओं के नाम पर रेखा क्क़् कह सकते हैं), और दूसरी वह जो G, H और L बिंदुओं से होकर जाती है (रेखा GH)। एक तीसरी रेखा (AB) A, L, M और B से होकर जाती है और GH व CD दोनों रेखाओं को कोण बनाते हुए काटती है।
अगर रेखा CD को हम पूर्णत: क्षैतिज मान लें और रेखा AB पूर्णत: ऊर्ध्वाधर यानी खड़ी रेखा (vertical) तो AB द्वारा CD के काटने से बने चारों कोण (CMB, BMD, DML और LMC) समकोण होंगे और आपस में बराबर होंगे (चौथा आधारतत्व)। विशेषकर कोण LMC और DML जिनको चित्र में 3 व 4 से दर्शाया गया है, आपस में बराबर हैं और समकोण हैं।

(ध्यान दें कि मैंने ‘पूर्णत: क्षैतिज’ या ‘पूर्णत: ऊर्ध्वाधर’ या ‘रेखाओं का काटना’ की कोई परिभाषा नहीं दी है, न ही यह समझाने की कोशिश की है कि किसी पूर्णत: क्षैतिज रेखा को एक ऊर्ध्वाधर रेखा से काटने पर चार समकोण क्यों बनते हैं। वैसे भी मैं कोई दावा नहीं कर रहा हूं कि मैं बहुत ठोस आधार पर तर्क कर रहा हूं। यह किया जा सकता है, लेकिन उतनी लंबी-चौड़ी विवेचना के लिए मैं तैयार नहीं हूं।)

खैर, अब रेखा GH को देखिए जो पूरी तरह से क्षैतिज नहीं है। इसका अर्थ यह है कि जिस बिंदु पर यह रेखा AB को काटती है वहां बने चारों कोण समकोण नहीं हैं और आपस में बराबर नहीं हैं। यह सिद्ध किया जा सकता है कि कोण ALH और GLB आपस में बराबर हैं और उसी तरह कोण HLB और GLA भी आपस में बराबर हैं। किन्तु पहले दो कोणों में से कोई भी, दूसरे दो कोणों में से किसी के बराबर नहीं है। जैसे, कोण GLB (कोण 2), कोण HLB (कोण 1) के बराबर नहीं है।

हम एक और रेखा EF खींचें जो बिंदु L से होकर जाती हो और रेखा AB की तरह पूर्णत: क्षैतिज हो। इस स्थिति में यह रेखा AB के साथ कटाव बिंदु पर चार बराबर समकोण बनाएगी। अर्थात् कोण FLB व ELB समकोण हैं। पर हम देख सकते हैं कि कोण HLB पूरी तरह कोण FLB के अंदर समाहित है (अब ‘अंदर समाहित’ का क्या अर्थ है?) और उसके बाद भी कुछ जगह बचती है। अब क्योंकि कोण HLB, कोण FLB का एक अंश है और कोण FLB एक समकोण है तो पांचवें ‘सामान्य विचार’ के अनुसार कोण HLB एक समकोण से छोटा हुआ।

इसी तरह, कोण ELB जो कि एक समकोण है, की GLB से तुलना करके हम दिखा सकते हैं कि कोण 2 समकोण से बड़ा है। चित्र में दिखाए गए कोणों में से अंत:कोण वे हैं जो रेखा GH और CD के बीच में हैं अर्थात् कोण 1, 2, 3 और 4। यूक्लिड के पांचवें आधारतत्व के अनुसार हमें ‘एक ही तरफ के अंत:कोणों’ का योग देखना है, अर्थात् 1 और 4 का, जो एक ही तरफ हैं या 2 और 3 का, जो दूसरी तरफ हैं। अब हमें पता है कि 3 और 4 समकोण हैं, कोण 1 समकोण से छोटा है और कोण 2 समकोण से बड़ा है। तो हम कह सकते हैं कि एक तरफ के अंत:कोण 1 और 4 का योग दो समकोणों से कम है, जबकि दूसरी तरफ के अंत:कोणों का योग दो समकोणों से अधिक है।

अब पांचवें आधारतत्व के अनुसार यदि रेखाओं GH और CD को बढ़ाया जाए तो वे उस तरफ एक-दूसरे को काटेंगी जिस तरफ के अंत:कोणों का योग दो समकोणों से कम है। वास्तव में, आप चित्र को देखें तो पाएंगे कि रेखाओं GH और CD को बढ़ाने पर वे (बिंदुदार रेखाएं) बिंदु ग़् पर एक-दूसरे को काटती हैं जो उसी तरफ है जिस तरफ कोण 1 और 4 हैं। कटाव के दूसरी तरफ रेखाएं बढ़ाने पर एक-दूसरे से दूर होती जा रही हैं और स्पष्ट है कि वे आपस में कभी नहीं मिलेंगी।

इसके विपरीत, यदि हम बिंदु L से होती हुई रेखा JK खींचें तो स्थिति उल्टी होगी। कोण 2 एक समकोण से कम हो जाएगा और कोण 1 समकोण से बड़ा (यहां पर कोण 2 अब कोण JLB है और कोण 1 है कोण KLB)। इस स्थिति में कोण 2 और 3 का योग समकोणों से कम होगा और अंत:कोणों 1 और 4 का योग दो समकोणों के योग से अधिक। अगर रेखाओं JK और CD को बढ़ाया जाए (दिखाई गई बिंदुदार रेखाएं) तो वे बिंदु ग्र् पर एक-दूसरे को काटेंगी। जो उसी तरफ है जिस तरफ अंत:कोण 2 और 3 हैं। दूसरी तरफ वे एक-दूसरे से दूर होती जाएंगी।

अब, जब मैंने पांचवें आधारतत्व की इतनी विस्तृत व्याख्या कर दी है (यद्यपि बहुत ठोस आधार पर नहीं), आप शायद यह कहने को तैयार हों, ‘हां, बिल्कुल। ये तो साफ ज़ाहिर है।’
शायद ऐसा हो, पर यदि कोई चीज़ इतनी ज़ाहिर है तो फिर उसकी इतनी लंबी-चौड़ी व्याख्या की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी। आखिर, बाकी नौ स्वसिद्धों को समझाने के लिए मुझे कहां इतना प्रयत्न करना पड़ा? और फिर, पांचवें आधारतत्व को मैंने समझाया भले ही हो, क्या मैंने उसे सिद्ध किया? नहीं, मैंने केवल स्वसिद्ध की परिभाषा के शब्दों की व्याख्या की और चित्र की ओर इंगित करके कहा, ‘यदि आप इस चित्र को देखें तो पाएंगे कि.....’।

समझने का दूसरा तरीका
पर अभी हमने केवल एक चित्र बनाकर देखा है, जिसमें एक पूर्णत: खड़ी रेखा दो रेखाओं को काटती है जिनमें से एक पूर्णत: क्षैतिज है। क्या होगा यदि इन तीनों रेखाओं में से कोई भी पूर्णत: क्षैतिज या ऊर्ध्वाधर न हो और कोई भी अंत:कोण समकोण नहीं? पांचवां आधारतत्व किसी भी ऐसी रेखा के लिऐ सत्य है जो अन्य दो रेखाओं को काटती हो। पर मैंने तो कहीं भी यह सिद्ध नहीं किया।

मैं हज़ारों चित्र बनाकर दिखा सकता हूं कि उन सब में पांचवां आधारतत्व लागू होता है, पर यह काफी नहीं है। इस स्वसिद्ध को सिद्ध करने के लिए मुझे यह दिखाना ही होगा कि वह हर संभव स्थिति में सत्य है और ऐसा सिर्फ चित्र बनाकर नहीं किया जा सकता। चित्र से किसी कथन को केवल स्पष्ट किया जा सकता है। उसे सिद्ध करने के लिए हमें बाकी अवधारणाओं और पहले से सिद्ध किए गए प्रमेयों के आधार पर तर्क द्वारा कथन की सत्यता दिखानी होगी। मैंने ऐसा नहीं किया है।

चलिए, अब पांचवें आधारतत्व को गतिमान रेखाओं के संदर्भ में देखते हैं। कल्पना कीजिए कि रेखा GH को बिंदु L को धुरी मानकर इस तरह घुमाया जाए कि वह EF के पास आती जाए। (यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या एक सरल रेखा इस तरह घुमाने पर भी सरल रेखा ही रहती है? हम सिर्फ ऐसा मान सकते हैं।) अब जैसे-जैसे रेखा GH रेखा EF की तरफ घूमेगी उसका रेखा CD के साथ विच्छेदन बिंदु (बिंदु N) दाईं तरफ दूर हटता जाएगा।
इसके विपरीत यदि आप रेखा JK को रेखा EF की तरफ घुमाएं तो विच्छेदन बिंदु O बाईं तरफ दूर होता जाएगा। आप चाहें तो चित्र में स्वयं निशान लगाकर देख लीजिए।

किंतु रेखा EF के बारे में सोचिए। जब रेखा GH घूमकर रेखा EF की संपाती हो जाती है तब हम यह कह सकते हैं कि विच्छेदन बिंदु (intersection point) दाईं तरफ अनंत दूरी पर चला गया है (अब अनंत दूरी का जो भी अर्थ हो)। इसी तरह जब रेखा JK रेखा EF की संपाती हो जाती है तब विच्छेदन बिंदु O बाईं तरफ अनंत दूरी पर चला जाएगा। अत: हम कह सकते हैं कि रेखा EF व CD एक-दूसरे को दो बिंदुओं पर काटती हैं, एक दाईं तरफ अनंत दूरी पर और एक बाईं तरफ अनंत दूरी पर। या इसे दूसरी तरह देखें।

रेखा EF पूर्णत: क्षैतिज है और रेखा AB को काटते हुए चार समकोण बनाती है। इस स्थिति में कोण 1, 2, 3 और 4 चारों समकोण हैं और आपस में बराबर हैं। कोण 1 और 4 का योग दो समकोणों के योग के बराबर है और उसी तरह कोणों 2 और 3 का भी।
किंतु पांचवें आधारतत्व के अनुसार विच्छेदन उस तरफ होगा जिस तरफ के अंत:कोणों का योग दो समकोणों से कम हो। लेकिन जब रेखाओं EF और CD को रेखा AB के काटने से बने अंत:कोणों को देखें तो किसी भी अंत:कोण-युग्म का योग दो समकोणों से कम नहीं है; अर्थात् किसी भी तरफ रेखाओं EF और CD का विच्छेदन नहीं हो सकता।

अब स्थिति यह है कि हमने दो भिन्न तर्कों से पहले यह दिखाया कि रेखाएं कक़ और क्क़् एक-दूसरे को दो ऐसे बिंदुओं पर काटती हैं जो अनंत दूरी पर स्थित हैं और फिर यह दिखाया कि ये दोनों रेखाएं एक-दूसरे को काटती ही नहीं। क्या इसका यह अर्थ लगाया जाए कि हमें एक विरोधाभास मिला है और यूक्लिड की प्रणाली में कुछ दोष हैं?
इस विरोधाभास को दूर करने के लिए हम यह कह सकते हैं कि अनंत दूरी पर रेखाओं का काटना/विच्छेदन यह कहने के बराबर है कि कोई कटाव बिंदु नहीं है। ये उसी स्थिति को बताने के दो तरीके हैं। इस बात को स्वीकार करना यहां चल सकता है क्योंकि यह बाकी सारे ज्यामिति शास्त्र से सुसंगत है।

तो हम अब यह कहते हैं कि EF व CD जैसी दो रेखाएं, जो किसी परिमित (finite) दूरी पर बढ़ाए जाने तक नहीं मिलती हैं, वे ‘समानांतर’ होती हैं। यह परिमित दूरी कितनी भी बड़ी हो सकती है।
यह भी स्पष्ट है कि बिंदु L से होकर एक ही ऐसी रेखा जा सकती है जो रेखा CD के समानांतर हो। कोई भी और रेखा जो L से होकर जाती हो और EF से ज़रा सा भी हटकर हो, वह या तो GF की तरह होगी, या फिर JK की तरह अर्थात् किसी एक तरफ का एक न एक अंत:कोण समकोण से छोटा ही होगा। यह भी कोई बहुत ठोस तर्क नहीं है, बल्कि उसी बात को थोड़ा घुमा-फिरा कर कहा गया है। परंतु इस तरह की व्याख्या ज़्यादा आसानी से समझ में आती है, और हम कह सकते हैं कि - किसी सरल रेखा के बाहर स्थित किसी बिंदु से एक और सिर्फ एक ही ऐसी सरल रेखा खींची जा सकती है जो पहली रेखा के समानांतर हो।

उपरोक्त कथन यूक्लिड के पांचवें आधारतत्व का पूर्ण पर्याय है। अगर पांचवें आधारतत्व के स्थान पर इस कथन को रख दिया जाए तो यूक्लिड ज्यामिति का पूरा ढांचा बिना बदले वैसा का वैसा ही रहेगा। पांचवें आधारतत्व का यह समानांतर रेखाओं वाला रूप यूक्लिड द्वारा दी गई परिभाषा की तुलना में ज़्यादा स्पष्ट और बोधगम्य लगता है, कम से कम सुनने में। यह इसलिए कि प्रारंभिक विद्यार्थी को भी समानांतर रेखाओं का थोड़ा-बहुत ज्ञान होता है पर अंत:कोणों का नहीं। इसीलिए ज्यामिति की प्रारंभिक पुस्तकों में आप इस स्वसिद्ध का अधिकतर यही रूप पाएंगे।
उलझाव बरकरार?

पर वास्तव में देखें तो यह रूप पहले वाले से कोई ज्य़्ाादा सरल और स्पष्ट नहीं है। क्योंकि जैसे ही आप ‘समानांतर’ का अर्थ समझाने का प्रयत्न करेंगे आपको अंत:कोणों के बारे में बताना पड़ेगा। या, अगर आप अंत:कोणों से पीछा छुड़ाना चाहते हों तो आपको उलझना पड़ेगा अपरिमिति लंबाई की सरल रेखाओं से और इस कथन से कि दो रेखाओं का अनंत दूरी पर विच्छेदन, विच्छेदन न होने के बराबर है। यह तो और खराब स्थिति हो जाएगी।

अब मैंने पांचवां आधारतत्व सिद्ध नहीं किया तो इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि उसे सिद्ध ही नहीं किया जा सकता। हो सकता है किसी सूक्ष्म, लंबे, चतुर तर्क के द्वारा पांचवें आधारतत्व को बाकी चार आधार तत्वों और पांच सामान्य विचारों से सिद्ध किया जा सकता हो (या हो सकता है, किसी अतिरिक्त स्वसिद्ध के उपयोग से जो पांचवे आधार तत्व से अधिक सरल और ‘स्पष्ट’ हो)।

परंतु ऐसा नहीं है। इन दो हज़ार सालों में गणितज्ञों ने बाकी नौ स्वसिद्धों का उपयोग कर पांचवें आधारतत्व को सिद्ध करने के अनेक प्रयत्न किए हैं। विशेषकर इसलिए कि यह पांचवां स्वसिद्ध इतना लंबा और दुरूह है कि लगता ही नहीं कि यह एक स्वसिद्ध हो सकता है। किंतु इस प्रकार के प्रयत्न सदा निष्फल रहे, और लगता नहीं कि कभी भी सफल होंगे। पांचवां आधारतत्व न तो किसी अन्य स्वसिद्ध में निहित है और न ही किसी अन्य स्वसिद्ध को सूची में रखा जा सका जो ज़्यादा सरल हो और ज्यामिति के लिए उपयोगी भी हो।

वास्तव में, यह तर्क दिया जा सकता है कि यह पांचवां आधारतत्व यूक्लिड की सबसे बड़ी उपलब्धि है। किसी विलक्षण अंतर्ज्ञान से उन्हें ज्ञात हो गया कि वे न तो बाकी नौ सरल व स्पष्ट स्वसिद्धों से पांचवें आधारतत्व को सिद्ध कर सकते हैं और न ही उसके बिना काम चला सकते हैं। अत: चाहे वह कितना ही लंबा और दुरूह क्यों न हो, पांचवें आधारतत्व को उन्हें अपनी स्वसिद्ध सूची में डालना ही था।

नए विचार
इस तरह दो हज़ार साल तक यह पांचवां आधारतत्व अपने लंबे, अस्पष्ट और द्विविधात्मक रूप में रहा। यह एक तरह की खोट लगता था, एक बड़ी शालीन और परिष्कृत तर्क  ाृंखला में एक धब्बा। गणितज्ञों को इसने बहुत परेशान किया। और फिर, 1733 ई. में एक इतालवी धर्मगुरु, जिरोलामो सच्चेरी को इस पांचवें आधारतत्व के बारे में तब तक का सबसे अद्भुत और प्रखर विचार आया, परंतु जिरोलामो सच्चेरी स्वयं इतने प्रखर नहीं थे कि उस विचार को आगे बढ़ा सकें - इसके बारे में हम अगले लेख में बात करते हैं।

...शेष अगले अंक में।


आइज़ेक एसीमोव: बीसवीं शताब्दी में विज्ञान को लोगों तक पहुंचाने में जिन वैज्ञानिकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है - उनमें से एक हैं आइज़ेक एसीमोव। इसी तरह विज्ञान गल्प को भी वे नईऊंचाइयों तक लेकर गए। इन दोनों उपलब्धियों के अलावा भी उन्होंने बहुत-सी पुस्तकें लिखीं, उनकी किताबों की कुल संख्या सैकड़ों में होगी।