कमलेश चंद्र जोशी

हाल के वर्षों में प्राथमिक स्तर के बच्चों के लिए पूरक पाठ्य सामग्री के रूप में चित्रात्मक पुस्तकों के प्रकाशन में गैर सरकारी संस्थाओं ने काफी रुचि दिखाई है। इसके फलस्वरूप बच्चों के लिए नई-नई चित्रात्मक सामग्री निर्मित की जा रही है और बच्चों तक पहुंचाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। इसके साथ ही विभिन्न तरह की कार्यशालाओं के आयोजन की शुरुआत भी हुई है, जिनमें बच्चों की पुस्तकों व उनके लिए लेखन से जुड़े पहलुओं पर चर्चा होती रही है। कुछ समय पहले बच्चों के लिए पुस्तकालय कार्यक्रम चलाने वाली व बच्चों के लिए पुस्तकों के प्रकाशन से जुड़ी नई दिल्ली की संस्था "रूम टू रीड" ने ऐसे ही मुद्दों पर गंभीरता से विचार करने के लिए कार्यशाला का आयोजन किया। इसमें बच्चों की पुस्तकों व उनके लिए लेखन संबंधी मुद्दों पर एक-दूसरे के विचार जाने गए व कुछ मामलों में ठोस अहसास भी बने। इन्हीं चर्चाओं के आधार पर यह लेख तैयार किया गया है।

अच्छी किताब के संकेतक
यूं तो अच्छी किताब को किसी खाके में बांध पाना थोड़ा मुश्किल काम है। कार्यशाला में सर्वप्रथम इस मुद्दे को समझने का प्रयास किया गया कि बच्चों के लिए अच्छी पुस्तक के क्या माने हैं? कार्यशाला में आए प्रतिभागियों ने इस बारे में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए बताया - बच्चों की किताबों में काफी चित्र हों, उनके आस-पास का परिवेश हो, कहानी-कविताओं में पशु-पक्षियों के चरित्र हों, कहानी का अंत सुखद हो, अक्षरों का आकार बड़ा हो आदि।
इतनी चर्चा के बाद उनका ध्यान इस बात की ओर आकर्षित किया गया कि आप जिन पहलुओं की बात कर रहे हैं उनको ध्यान में रखते हुए बहुत-सी सामग्री बाज़ार में अभी उपलब्ध है। लेकिन क्या सिर्फ इन बिंदुओं के आधार पर बाल-साहित्य को अच्छा या बुरा बताया जा सकता है? शायद ज़रूरत इस बात पर विचार करने की भी है कि बच्चों की हमारे मन में क्या छवि है व इस छवि को मौजूदा बाल पुस्तकों में किस तरह से चित्रित किया गया है।

आगे चर्चा के दौरान यह बात उभरी कि बाल साहित्य में बच्चे की स्वतंत्र छवि का उभरना ज़रूरी है जिसमें उसकी अपनी बात, अपनी सोच, अपनी कल्पनाशीलता व तर्कशीलता दिखाई दे। इस प्रकार बच्चों की किताबों में बच्चों की स्वयं निर्णय लेने की क्षमता, अपना तर्क रखने की क्षमता आदि आंतरिक मूल्य दृष्टिगोचर हो सकते हैं। इसका उदाहरण प्रेमचंद की कहानी "ईदगाह" में दिखाई देता है। इस कहानी में जहां एक बच्चे की अपनी दादी के प्रति संवेदनशीलता उभर कर आती है, वहीं दूसरी तरफ यह बात भी सामने आती है कि हामिद इस कहानी में कहीं-न-कहीं स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकने वाली स्थिति पर भी कायम रहता है। कहानी में हामिद चिमटा लेने के पक्ष में अपने तर्क मज़बूती से रखता है और अपनी दादी के लिए चिमटा खरीद लेता है, जबकि उसके साथी विभिन्न प्रकार के खिलौने खरीदते हैं। यह बच्चों के लिए कहानी का एक ठोस आंतरिक मूल्य है, इसे समझने की ज़रूरत है।

इसी तरह नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक "बस की सैर" की मुख्य पात्र वल्ली भी अपनी सहज जिज्ञासा का उपयोग करते हुए बस की यात्रा करती है। अपने तर्कों से वह बस कंडक्टर व बस के यात्रियोें को संतुष्ट करती है। इस कहानी में एक बच्ची अपनी सोच, अपना तर्क और अपनी जिज्ञासा दर्शाती है जो एक नए किस्म के सामाजिक मूल्य हैं।
नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित एक अन्य पुस्तक "कजरी गाय झूले पर" में भी गाय के माध्यम से बच्चों के मनोभावों को समझा जा सकता है। यहां एक गाय अपने रोज़मर्रा के कार्यों को छोड़कर स्वतंत्र रूप से सोचते हुए झूला झूलने का अनुभव लेना चाहती है।

ऐसा प्रतीत होता है कि बाल साहित्य में बच्चों की छवि को समझना अच्छी किताब का एक संकेतक (इंडेक्स) हो सकता है। आमतौर पर बाज़ार में उपलब्ध विभिन्न पुस्तकों में यह देखा जाता है कि कहानी के पात्र तो बच्चे व पशु-पक्षी हो सकते हैं लेकिन वे बड़ों की सोच के आधार पर अपने क्रियाकलाप करते हैं, अपना तर्क रखते हैं। ऐसी बहुत-सी सामग्री से बाज़ार पटा हुआ है।

बच्चों की किताबों के अन्य संकेतकों को समझने के लिए हम कुछ और किताबों पर निगाह दौड़ा सकते हैं। मसलन, चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक "बुढ़िया की रोटी" को एक लोक-कथा के रूप में गूंथा गया है। इसमें घटनाओं का बार-बार दोहराव है और यह कहानी बच्चों के परिवेश से सशक्त रूप से जुड़ी हुई है। इस तरह की कहानी में बच्चों को घटनाओं के दोहराव के माध्यम से यह अंदाज़ लगाने का मौका मिलता है कि आगे बुढ़िया किस-किस के पास जाएगी और रोटी पाने का प्रयास करेगी। ताराबाई मोदक की कहानी "खीरा खाऊं कचर-कचर" में भी इसी किस्म का दोहराव है। अक्सर यह देखा गया है कि इस तरह की कहानियां बच्चों को पसंद आती हैं।

कई दफा बचपन की घटनाएं या बाल सुलभ अनुभव भी बच्चों को बहुत भाते हैं। उदाहरण के लिए चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक "ननिहाल में गुज़रे दिन" को याद कर सकते हैं। इसमें बचपन की घटनाएं सहज रूप से एक के बाद एक सामने आती हैं। बच्चे इन्हें पढ़ते हुए कहीं-न-कहीं अपनी छवि को देखते हैं, अपने अनुभव से जोड़ते हुए उसमें आनंद पाते हैं।

चित्रों का महत्व
बाल साहित्य में चित्रों पर चर्चा के दौरान यह बात ज़्यादा स्पष्ट हो रही थी कि चित्र गत्यात्मक होने चाहिए जिससे बच्चों को लगे कि इनमें कुछ घटित हो रहा है, बजाय केवल स्थिर चित्र इस्तेमाल करने के। ऐसी ही कुछ बात चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक "महागिरी" के चित्रों में देखी जा सकती है। इसमें हाथी के चेहरे पर उजागर समस्त भाव देखे जा सकते हैं। चित्रों के लिहाज़ से ऐसे ही कुछ और नाम याद आते हैं - नेशनल बुक ट्रस्ट की "दादी ने की बुनाई", "चौदह चूहे घर बनाने चले", "कजरी गाय झूले पर", स्कॉलिस्टिक इंडिया की "पाजी बादल" आदि। इन सभी में चित्र न केवल महत्वपूर्ण हैं वरन् वे किताब के पाठ्य को समृद्ध भी करते हैं। बच्चे इन चित्रों की बारीकियों में जा सकते हैं और चीज़ों को खोजने का प्रयास कर सकते हैं। इसके साथ ही जो बच्चे ठीक से पढ़ नहीं पाते वे भी चित्रों के माध्यम से कहानी को समझने की कोशिश करते हैं और उसका स्वयं विस्तार करते हैं।

तयशुदा चरित्र एवं भाषा
बच्चों की अच्छी पुस्तकों पर चर्चा के दौरान यह बात भी उभरी कि अधिकतर पुस्तकों में बच्चों के चरित्र गढ़े हुए होते हैं और वे एक वयस्क के नज़रिए से सोचते या क्रियाकलाप करते हैं। इससे कहानियां एक ही सपाट ढर्रे पर चल पड़ती हैं और उनमें बच्चों का कोई अनुभव नहीं दिखाई पड़ता।

आमतौर पर कहानियों के चरित्रों में एक तरफा नायकत्व के गुण भरे होते हैं जिससे आसानी से स्पष्ट हो जाता है कि कहानी में कौन नायक है और कौन खलनायक। कहानी में नायक हर समस्या का निदान खोज लेता है और अंत में विजय प्राप्त करता है। ऐसी कहानियां बच्चों को कोई नई दृष्टि प्रदान नहीं करती। इन्हें "चंपक" व विभिन्न प्रकार की कॉमिक्स में अक्सर देखा जा सकता है।

उक्त बातों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में बाल-साहित्य में चले आ रहे कुछ स्टीरियो-टाइप तोड़ने की ज़रूरत है - चाहे वह भाषा के स्तर पर हो या विषयवस्तु के स्तर पर। भाषा के स्तर पर यह कहा जाता है कि बच्चों के लिए सरल वाक्य हों। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर भाषा में बच्चों के स्थानीय परिवेश के कई शब्द सहजता से आते हैं तो उनको लेकर समस्या नहीं होनी चाहिए। इस बात को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि बच्चों के लिए भाषा बनावटी न हो। अगर सहज रूप से इस्तेमाल किए जाएं तो कठिन शब्दों को भी बच्चे कहानी के संदर्भ द्वारा अनुमान लगाकर समझ सकते हैं। गुलज़ार द्वारा बच्चों के लिए रचित रचनाएं "पाजी बादल", "बोस्की का पंचतंत्र", "बोस्की के ब्राह्मण", "पोटली बाबा की" आदि पुस्तकों में भाषा का प्रवाह और किस्सागोई देखने मिलती है और उर्दू के शब्द भी मिलते हैं। इससे कहानी समृद्ध ही होती है। ऐसी ही बातें "ननिहाल में गुज़रे दिन" में भी दिखाई देती हैं। बच्चों के लिए पूरक पाठ्य सामग्री निर्मित करने का एक उद्देश्य यह भी है कि बच्चों का अच्छे साहित्य से परिचय हो सके।

लोक-कथाएं
लोक-कथाओं और पंचतंत्र के बारे में चर्चा के दौरान ये बातें उभरीं कि लोक-कथाएं और पंचतंत्र बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं लिखी गई हैं क्योंकि उस समय बच्चों के लिए लिखने की अलग परंपरा नहीं थी। दूसरे, इन कथाओं में कहीं-कहीं स्त्री-पुरुष संबंधों की भी चर्चा है, जिसकी वजह से ये सिर्फ बच्चों के लिए लिखी गई होंगी ऐसा नहीं लगता। साथ ही लोक-कथाओं को समझने के लिए स्थानीय संदर्भ पर ध्यान देना ज़रूरी है। ज़्यादातर लोक-कथाएं श्रुति परंपरा के तहत रची गई हैं। कई लोक-कथाओं में आम जीवन की समस्याओं को परिकल्पना के सहारे हल करने का प्रयास किया जाता है। कभी-कभी इनमें किसी चीज़ की सृष्टि की कहानी बताई जाती है, उदाहरण के लिए - दुनिया कैसे बनी? ऐसी कहानियों में तर्क या वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अपेक्षा करना फिज़ूल है क्योंकि वे इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर नहीं लिखी गई हैं।

लोक-कथाओं को बच्चों के साथ पढ़ते समय बच्चों से यह ज़रूर पूछना चाहिए कि कहानी में समस्या का जो समाधान सुझाया गया है उसके अलावा उनकी नज़र में समस्या का और क्या निदान हो सकता है।
लोक-कथाओं की एक श्रेणी हिरोइज़्म लिए होती है। इनका मुख्य पात्र अत्यन्त शक्तिशाली व साहसी होता है और वह हर समस्या का हल अपने पौरुष से निकाल लेता है। लोक-कथाओं में भूत, चुड़ैल, जादू, चमत्कार, चोरी, ठगी आदि प्रतिबिंबित होते हैं। ये सब उस समय के सामाजिक यथार्थ का हिस्सा थे। इसी तरह लोक-कथाओं में कई तरह के सामाजिक भेदभाव भी अक्सर देखने को मिलते हैं। इसलिए हमें अपना नज़रिया स्पष्ट रखना चाहिए ताकि हम तय कर पाएं कि किस लोक-कथा का बच्चों के साथ उपयोग करें और किस उद्देश्य के लिए करें।

कॉमिक्स के बारे में हुई चर्चा में स्पष्ट हुआ कि यह एक आधुनिक विधा है जिसमें चित्रों को बनाने के लिए सीमित स्थान है। इस कारण चित्रकार की रचनात्मकता के लिए बहुत गुंजाइश नहीं होती। कॉमिक्स में यह देखने में आता है कि घटनाएं एकाएक छलांग लगाती हैं, और विचार गायब रहते हैं। कॉमिक्स में बच्चों के सोचने-विचारने व खुद से विज़्युलाइज़ करने की गुंजाइश नहीं बचती। इसलिए बच्चों को कॉमिक्स के अलावा अन्य पाठ्य सामग्री से भी परिचित करवाया जाना चाहिए। साथ ही कॉमिक्स के फॉर्मेट को समझने की ज़रूरत भी है। इस फॉर्मेट में भी बच्चों के लिए अच्छी कहानी बनाई जा सकती है।

शुरुआती उम्र के पाठक
तीन से छह वर्ष के बच्चों के लिए किताबों के बारे में हुई चर्चा के दौरान यह बात उभरी कि स्कूल आने से पूर्व बच्चों के पास कहानी का एक ढांचा होता है। इसका कारण यह है कि बच्चे अपने माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी से घर पर कोई-न-कोई कहानी सुनते रहते हैं। इस कारण उनके मन में कहानी की एक संरचना होती है और वह संरचना मिलने पर बच्चे उसे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं व उसमें आनंद लेते हैं। ऐसी किताबों की फेहरिस्त में रत्नासागर द्वारा प्रकाशित पुस्तकें "लालू-पीलू", "हीरा", नेशनल बुक ट्रस्ट की पुस्तकें "आम की कहानी", "मेंढक और सांप", यूनीसेफ, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक "भालू का बच्चा" तथा एकलव्य, भोपाल द्वारा प्रकाशित कुछ चित्रकथाएं "मैं भी...", "रूसी-पूसी", "चूहे को मिली पेंसिल", "नाव चली" आदि हैं जिन्हें बच्चे चाव से देखते-पढ़ते हैं। रत्नासागर द्वारा प्रकाशित "मेज़", "घेरा" आदि अवधारणात्मक पुस्तकों का बच्चे आनंद नहीं ले पाते क्योंकि उसमें कहानी की कोई संरचना नहीं होती।
तीन से छह वर्ष के आयु वर्ग के लिए चित्र-पुस्तकें भी उपयोगी होती हैं जिनसे बच्चों में किताबों के प्रति रुचि बनाई जा सकती है। लेकिन हमारे यहां इतने छोटे बच्चों के लिए चित्र पुस्तकों को प्रकाशित करने की बहुत समृद्ध परंपरा नहीं है। चित्र-पुस्तकों में केवल चित्र होते हैं और इनके माध्यम से ही कहानी कही गई होती है। इन किताबों में ज़रूरत इस बात की होती है कि चित्र ऐसे हों जिन्हें बच्चे आसानी से जोड़कर कहानी का अनुमान लगा सकें। चित्र-पुस्तकों को तैयार करने में चित्रकार की भूमिका अत्यन्त अहम होती है। हमारे यहां ऐसी चित्रात्मक पुस्तकें ही ज़्यादा छपती हैं जिनका मकसद पाठ्य को समृद्ध करना होता है।

किस तरह की किताबें
छोटे बच्चे पशु-पक्षियों को एक आत्मीयता से देखते हैं। उनमें बच्चों के मनोभावों की तरह गतिशीलता भी होती है। साथ ही पशु-पक्षी आसानी से बच्चों के परिवेश में दिखाई पड़ते हैं और उनमें से कई पालतू भी होते हैं। जब पशु-पक्षियों की किसी कहानी में बच्चे अपने क्रियाकलापों को कल्पनाशीलता व फैंटेसी के रूप में देखते हैं तब वे उसका आनंद लेते हैं। कई दफा बच्चों के लिए पशु-पक्षियों की कहानियों में चरित्रों का मानवीकरण किया जाता है। ऐसी बहुत-सी कहानियां मिलती हैं और इसमें कोई बुराई भी नहीं है कि पशु-पक्षी मानवीकृत व्यवहार करें या अपनी प्रकृति के अनुरूप। दोनों तरह की कहानियां बच्चों के लिए लिखी जाती हैं। छोटे बच्चों को सुखद अंत वाली कहानियां अच्छी लगती हैं क्योंकि वे दुनिया को ठीक-ठाक ढंग से देखना चाहते हैं कि उसमें कुछ गड़बड़ न हो और कुछ गड़बड़ हो रही हो तो उसका बाद में सकारात्मक हल निकल जाए और लगे कि सब कुछ ठीक हो गया।

छोटे बच्चों को ऐसी कहानियां भी अच्छी लगती हैं जिसमें घटनाओं का दोहराव हो जैसे "रूसी-पूसी", "नाव चली", "मैं भी" आदि पुस्तकों को ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि उनमें बच्चों के लिए बाल सुलभ गतिविधियां हैं और बच्चों की सोच के अनुसार घटनाओं का दोहराव भी। इसको इस बात से भी जोड़कर देख सकते हैं कि अगर इन कहानियों में कविता की दो-चार पंक्तियां आती हैं तो बच्चों को मज़ा आता है। जैसे मुझे पाठ्य-पुस्तक में पढ़ी एक कहानी याद आ रही है जिसमें गिलहरी को मेहनती और कौवे को आलसी दिखाया गया है। गिलहरी कौवे को अपने साथ काम पर चलने के लिए कहती है लेकिन वह यही दोहराता है कि तू चल मैं आता हूं, चुपड़ी रोटी खाता हूं, हरी डाल पर बैठा हूं और ठंडा पानी पीता हूं। इस तरह से ये पंक्तियां बार-बार आती हैं जिसकी वजह से बच्चा कहानी के ढांचे को पकड़ लेता है और उसे कहानी में आनंद भी आता है। बच्चों के लिए कहानियां ओपन-एंडेड भी हो सकती हैं जिसमें बच्चों को कहानियों का एक हल दिया गया है और वे उसका अन्य विकल्प भी खोज सकते हैं या अपनी सोच से कहानी को आगे बढ़ा सकते हैं।

किशोरों के लिए साहित्
किशोरों के लिए किस तरह का साहित्य हो इस पर अभी भी काफी काम किया जाना बाकी है। लेकिन मोटेतौर पर इस बात से तो सभी सहमत दिख रहे थे कि पशु-पक्षियों वाली कहानियां दस वर्ष से छोटे बच्चों के लिए ठीक लगती हैं किन्तु उससे बड़े बच्चे उन कहानियों में आनंद नहीं पाते; क्योंकि किशोरों की अपनी दुनिया होती है और वे उस दुनिया को अपने ढंग से समझते हैं। किशोरों की दुनिया को ध्यान में रखकर लिखी गई किताबों की संख्या काफी कम है। ऐसी पुस्तकों में नेशनल बुक ट्रस्ट की आर.के. नारायण द्वारा रचित "स्वामी और उसके दोस्त", रस्किन बांड की पुस्तक "रस्टी के कारनामे" तथा स्कॉलिस्टिक इंडिया द्वारा प्रकाशित तथा श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित पुस्तक "बब्बर सिंह और उसके साथी" आदि ही दिखाई देती हैं।
इस कार्यशाला में यह बात भी रेखांकित हुई कि पाठ्य-पुस्तकों से इतर पूरक सामग्री का बच्चों के साथ भाषा की कक्षाओं में सक्रिय रूप से उपयोग होना चाहिए जिससे भाषा शिक्षण को एक नया आयाम मिले। हालिया भाषा-शिक्षण की किताबों पर नज़र दौड़ाएं तो केवल पाठों के प्रश्न-उत्तर व अभ्यासों को याद करने पर ही ज़ोर रहता है। किताबों व कहानियों में रुचि लेना, अपनी समझ बढ़ाना, पढ़ी हुई सामग्री का आनंद लेना आदि का कहीं भी उद्देश्य नहीं होता। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज़ 2005 के भाषा के फोकस ग्रुप पर्चे में भी काफी शिद्दत के साथ पूरक सामग्री के इस्तेमाल का ज़िक्र किया गया है। इससे भाषा शिक्षण के प्रति नया नज़रिया बनाने में मदद मिल सकती है।


कमलेश चंद्र जोशी: लखनऊ में नालंदा संस्था से संबद्ध हैं। वे नालंदा संस्था से प्रकाशित पत्रिका ‘प्रारंभ शैक्षिक संवाद’ का संपादन भी करते हैं।
इस लेख के लिए चित्र - महागिरी, बस की सैर, ईदगाह, कजरी गाय झूले पर - किताबों से लिए गए हैं।