लेखक :  कमर रहमान
अनुवाद: मनीषा शर्मा

लीलावतीज़ डॉटर्स पुस्तक में प्रकाशित महिला वैज्ञानिकों के विचार और उनके संघर्ष आप तक पहुँचाने का वादा हमने पिछले अंक में प्रकाशित सुपूर्णा सिन्हा के लेख में किया था। उस कड़ी को जारी रखते हुए इस बार हम आपको रूबरु करा रहे हैं कमर रहमान से। उन्होंने यह कथानक इस तरह से लिखा है मानो किसी और ने उनके बारे में लिखा हो।

बात 1950 की है। शाहजहाँपुर कस्बा। एक पुराने प्रतिष्ठित पर्दानशीं परिवार की छह साल की एक लड़की घर पर अपनी माँ का एक महिला डॉक्टर से इलाज होते देखती है। वह इस डॉक्टर से बेहद प्रभावित होती है और खुद डॉक्टर बनने का मन बना लेती है। समय गुज़रता गया और जब वह अलीगढ़ के अब्दुल्ला स्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ाई कर रही थी, तब एक दिन उसने अपनी माँ से जाकर कहा कि वह डॉक्टर बनना चाहती है। माँ को यह विचार कतई पसन्द नहीं आता क्योंकि उनकी राय में महिला डॉक्टर अपने पुरुष मरीज़ों से कुछ ऐसी बातें करती हैं, जिन्हें बहुत शालीन नहीं माना जा सकता। जब वह बी. एससी. में थी तब उसकी शादी हो गई। दुर्भाग्यवश, उसके वैवाहिक जीवन में कुछ समस्याएँ आईं, और तब उसने तय किया कि वह ऐसा जीवन नहीं चाहती थी। किसी ऐसे व्यक्ति के साथ रहना जो उससे बिलकुल अलग था और उसका सम्मान तक नहीं करता था, इस बात को वह स्वीकार नहीं कर सकती थी और न ही उसने किया।

अपनी कुछ महीनों की बच्ची को लेकर वह माता-पिता के घर चली आई और आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में भौतिक रसायन में एम. एससी. करने के लिए दाखिला ले लिया। आगरा में उसके पिता आयुक्त थे। एक छोटी बच्ची की देख-रेख करते हुए पढ़ाई करना बेहद मुश्किल था, लेकिन उसकी माँ ने बच्ची की देखभाल करने में बहुत मदद की और उसने अपनी पढ़ाई जारी रखी। एम. एससी. करने के बाद वह अपने माता-पिता के साथ शाहजहाँपुर वापस आ गई।

अध्यापन की शुरुआत
एक दिन वह अपनी बहन से मिलने लखनऊ गई। वहाँ उसकी मुलाकात करामात हुसैन मुस्लिम गर्ल्स कॉलेज की प्रिंसिपल श्रीमती वसीम से हुई। वे अपने कॉलेज की उच्चतर-माध्यमिक कक्षाओं में रसायन शास्त्र पढ़ाने के लिए एक व्याख्याता की तलाश कर रही थीं। उसने कॉलेज में पढ़ाना स्वीकार कर लिया, और यह उसके जीवन का एक बहुत ही बड़ा अनुभव साबित हुआ।

युवा लड़कियों को विज्ञान पढ़ाना, उन्हें पर्किंग सीनियर और जूनियर जैसे महान वैज्ञानिकों के बारे में बताते हुए और केकुले व फिशर्स के सपनों की चर्चा करते हुए उसे गर्व महसूस होता था। लेकिन उसे अभी जीवन में और भी बहुत कुछ करना था। एक दिन वह लखनऊ विश्वविद्यालय के जैव रसायनशास्त्र विभाग में गई। वहाँ उसकी मुलाकात जाने-माने जैव रसायन शास्त्री प्रोफेसर पी. एस. कृष्णन से हुई जो अपने क्षेत्र के महारथी माने जाते थे। उसने उनसे गुज़ारिश की कि वे उसे अपने मार्गदर्शन में पीएच. डी. करने दें। पहले तो वे इसके लिए तैयार नहीं हुए, लेकिन फिर उसके दृढ़ संकल्प को देखते हुए उन्होंने उसे अपने विभाग में शामिल होने की अनुमति दे दी

आनुसंधानिक कार्य
जल्द ही (1970 में) औद्योगिक विषविज्ञान शोध केन्द्र (वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध परिषद - कॉउंसिल ऑॅफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च - की सबसे बड़ी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में से एक) ने जूनियर साइंटिफिक रिसर्च असिसटेंट के एक पद का विज्ञापन प्रकाशित किया। उसने इस पद के लिए आवेदन दिया, और वह चुन ली गई। चयन समिति के अध्यक्ष डॉक्टर ए. एस. पेंटल ने कहा, “तुम इस क्षेत्र में बहुत नाम कमाओगी।”

अपनी वैज्ञानिक यात्रा में वह कई अनुभवों से गुज़री। उसने महसूस किया कि हर स्तर पर महिला को पुरुष की तुलना में अधिक मेहनत करनी पड़ती है। इस पुरुष-प्रधान समाज में किसी महिला के लिए कुछ हासिल करना और अपना नाम बनाना बेहद मुश्किल है। लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी और अनेक अड़चनों के बावजूद वह आगे बढ़ती रही। आज, उसे अपनी निजी और शैक्षणिक उपलब्धियों पर गर्व होता है।

जीवन के लिए विष पर शोध
विष-विज्ञान के क्षेत्र में उनका अनुभव बेहद गहन है। इस क्षेत्र में वे बड़े पैमाने पर काम कर रही हैं। फाइबर (रेशों), कणों और नैनोकणों की विषाक्तता उनकीशोध के प्रमुख विषय हैं। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विभिन्न शोध पत्रों में उनके अपने काम पर आधारित 130 लेख प्रकाशित हो चुके हैं।

उन्होंने चिरपरिचित पर्यावरण और व्यावसायिक वायु प्रदूषकों, जैसे सिलिका, एस्बेस्टॉस, एस्बेस्टॉस के विकल्पों, स्लेट की धूल, गलीचे की धूल, काजल, और ऐसे अन्य अत्यन्त सूक्ष्म कणों की विषाक्तता पर काम किया है। ये सब प्रदूषक पिछले कई दशकों से चर्चा का विषय रहे हैं। उसने इन प्रदूषकों के सम्पर्क में आने वाली जनसंख्या पर पड़ने वाले असर को लेकर कई जानपदिक रोग-वैज्ञानिक (एपीडी-मिऑलॉजिकल) सर्वेक्षण किए जिसमें आणविक स्तर पर जैव-सूचकों (बायो मार्कर्स) का इस्तेमाल करते हुए स्वास्थ्य के लिए होने वाले खतरों को आँकने के लिए विश्लेषण किया गया।

उनके अध्ययनों से पता चला कि एस्बेस्टॉस, ऑॅक्सीजन और नाइट्रोजन की प्रतिक्रियाशील प्रजातियों को उत्पन्न करता है। ये मुक्त रेडिकल्स संकेत प्रपातों (signaling cascades) को सक्रिय करते हैं और डीएनए को नुकसान पहुँचाते हैं, जिसकी वजह से जींस की संरचना और कोशिकीय विषाक्तता परिवर्तित हो जाती हैं, जो एस्बेस्टॉस से जुड़ी फेफड़ों की बीमारियों के रोगजनन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। नैनो कणों को उनकी सम्भावित विषाक्तता के लिए जाँचा गया। अध्ययनों ने दर्शाया है कि कुछ कृत्रिम रूप से निर्मित किए जाने वाले नैनो कण विषैले होते हैं, और उनके विष-विज्ञानीय मूल्यांकन की आवश्यकता है। स्लेट की धूल के विषैले प्रभाव के बारे में कुछ महत्वपूर्ण अध्ययन मन्दसौर में किए गए जिनसे ऐसी धूल से उपजने वाली बीमारियों के निदानात्मक परीक्षण (डायग्नोस्टिक टेस्ट), उपचार और बचाव के तरीकों को विकसित करने में मदद मिली है।

उन्होंने संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्र के एस्बेस्टॉस पर आधारित उद्योगों पर गहन अध्ययन कर उन कारणों को उजागर किया जिनके चलते भारतीय उद्योगों में बीमारियाँ बढ़ रही हैं। उनके अध्ययन से यह साबित हुआ कि सिगरेट के धुएँ और केरोसीन की कालिख, दोनों के संयोग से उनके सम्पर्क में आने वाली जनसंख्या में बीमारियाँ बढ़ जाती हैं। भारत में एस्बेस्टॉस पर आधारित उद्योगों में किए गए इन गहन अध्ययनों ने उन लोगों की मुसीबतों को उजागर किया जिन्हें अपने कामकाज के चलते ऐसे खतरों का सामना करना पड़ता है। (घरों में खाना बनाने के लिए ईंधन के रूप में कैरोसीन का इस्तेमाल करनेवाली स्त्रियाँ, और रोज़ीरोटी के लिए एस्बेस्टॉस उद्योग में काम करनेवाले मज़दूर)। ये निष्कर्ष राष्ट्रीय स्तर पर बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनके आधार पर एस्बेस्टॉस के क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों को धूम्रपान छोड़ने, और लोगों को खाना बनाने के अपरिशोधित (unprocessed) ईंधन का इस्तेमाल न करने की सलाह दी गई।

गलीचे बनाने वाले कुछ संगठित और असंगठित कारखानों में भी सर्वेक्षण किए गए। वहाँ काम करने वाले मज़दूरों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारणों का अध्ययन किया गया। उन्होंने भारतीय घरों में जैव-ईंधन (खाना बनाने के लिए जलाए जाने वाले गोबर के उपले आदि) की वजह से घर के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण का भी अध्ययन किया। उन्होंने साबित किया कि किस तरह जैव-ईंधन की वजह से बढ़ रहे कणात्मक (पार्टिकुलेट) वायु प्रदूषण के चलते साँस सम्बन्धी बीमारियाँ और मौतें बढ़ रही हैं।

उन्होंने एस्बेस्टॉस की खदानों के इलाकों में भी गहन अध्ययन किया, जिसमें एस्बेस्टॉस की अलग-अलग किस्मों की पहचान और प्रभावित जनसंख्या की सम्पूर्ण चिकित्सकीय जाँच की गई। साथ ही जोखिम आँकने के लिए विशेष जैव-सूचकों को पहचाना गया। महिलाओं और उनके व्यावसायिक जोखिमों पर विस्तृत शोध किया गया। इससे कई संगठित और गैर-संगठित क्षेत्रों में, विषैले रसायनों के सम्पर्क में काम करने वाली महिलाओं की विभिन्न समस्याएँ सामने आईं। इस विषय पर उन्होंने एक फिल्म भी बनाई, जिसे भारत सरकार की ओर से सर्वश्रेष्ठ वीडियो फिल्म का पुरस्कार मिला।

राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति
कणात्मक वायु प्रदूषक और महिलाओं की समस्याएँ विषय पर उनके शोध कार्य के आधार पर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग से कई महत्वपूर्ण परियोजनाएँ शुरु की गईं जिन्हें अमेरिका, जर्मनी, भारत सरकार और लन्दन की कॉमनवेल्थ साइंस कॉउंसिल ने आर्थिक मदद दी।
उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया, और इसी सिलसिले में उन्हें विदेशों में कई शोध यात्राओं के लिए आमंत्रित किया गया, समीक्षात्मक लेख लिखने के लिए कहा गया और अन्तर्राष्ट्रीय बैठकें आयोजित कराने की ज़िम्मेदारियाँ सौंपी गईं।

उन्हें साझा-कार्यक्रमों के तहत मेहमान वैज्ञानिक के रूप में कई अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त संस्थानों में बुलाया गया। उन्हें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में व्याख्यान और प्रमुख भाषण देने के लिए आमंत्रित किया जाता रहा है।
विज्ञान के क्षेत्र में देश की प्रगति की बात हो या किसी सामाजिक पहलू की या फिर युवा वैज्ञानिकों के विकास की, उन्होंने हमेशा सभी क्षेत्रों में विभिन्न क्षमताओं में सक्रिय भागीदारी की है। अब 63 वर्ष की आयु में उनका सपना है कि वे उन लोगों के लिए एक केन्द्र स्थापित कर सकें जो अपने व्यवसाय और कामकाज के कारण स्वास्थ्य-सम्बन्धी खतरों का सामना करते हैं।


कमर रहमान: लखनऊ विश्वविद्यालय के शोध विभाग की डीन हैं, साथ ही हमदर्द विश्वविद्यालय, दिल्ली से भी प्रोफेसर के तौर पर सम्बद्ध। उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान से सम्मानित। इनके पसन्दीदा विषय पल्मोनरी बायोकेमेस्ट्री, जीनो टॉक्सिसिटी और मॉलेक्युलर एपिडीमिऑलॉजी हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनीषा शर्मा: शिक्षा और व्यवसाय से चिकित्सक हैं। विज्ञान और शिक्षा में गहरी दिलचस्पी। अनुवाद करने का शौक है। दिल्ली में रहती हैं।
लीलावतीज़ डॉटर्स पुस्तक का सम्पादन रोहिणी गोडबोले व राम रामास्वामी ने किया है। प्रकाशक: इण्डियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़।