स्वच्छंद गंदगे

15 जनवरी 2010                                                                                                                      यात्रा वृत्तान्त

15 जनवरी के दिन कंकणाकृति सूर्यग्रहण होने वाला था। खास बात यह थी कि ग्रहण को तमिलनाडु और केरल के काफी इलाकों से देखा जा सकता था। ऐसे इलाकों में कन्याकुमारी, रामेश्वरम् आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा था।
दक्षिण भारत के राज्यों से दिखाई देने, काफी लम्बी अवधि तक दिखाई देने जैसी बातों की वजह से इस आकाशीय घटना को देखने के लिए मेरा मन बेचैन होने लगा था। इसलिए मैंने और मेरी माँ ने तय किया कि वलयाकार सूर्य ग्रहण देखने ज़रूर जाना चाहिए। हमने ‘फॉलिएज आऊटडोर्स’ नामक प्रकृति प्रेमी संगठन से सम्पर्क किया। फॉलिएज आउटडोर्स ने ग्रहण देखने के लिए यात्रा का पूरा खाका तैयार किया हुआ था।
सफर पर रवाना होने से कुछ दिन पहले एक विशेष सत्र का आयोजन किया गया था। इसमें पूना के खगोलविद प्रकाश तुपे और घाणेकर ने स्लाइड शो और अन्य सामग्री के मार्फत हमें ग्रहण के बारे में समझाया, हमारी जिज्ञासाओं को शान्त किया। इस बीच हमें ग्रहण के दौरान आसानी से किए जाने वाले प्रयोगों और अवलोकनों के बारे में भी बताया गया। कुल मिलाकर, ग्रहण के बारे में पहले से बेहतर समझ बन गई थी। मैंने घर पर ही पिनहोल कैमरा तैयार करके उससे सूर्य का बिम्ब बनाकर देखा। बिम्ब को देखकर खुशी तो हुई लेकिन जितना मैंने सोचा था पिनहोल से बनने वाला बिम्ब उससे काफी छोटा बना था।

सफर की शुरुआत
13 जनवरी को हम पूना से पनवेल पहुँचे। तय कार्यक्रम के मुताबिक हमें पनवेल से मुम्बई-त्रिवेन्द्रम् नेत्रावती एक्सप्रेस से सफर शु डिग्री करना था। यह रेलगाड़ी कोंकण रेलमार्ग से केरल तक जाती है। रास्ते में दोनों तरफ प्राकृतिक दृश्यों की भरमार थी। पहाड़ों का सीना चीरकर बनाई गई सुरंग और छोटी-बड़ी नदियों पर बनाए गए पुलों का एक बार जो सिलसिला शु डिग्री हुआ तो पता ही नहीं चला कि कितना समय बीत गया है।
दूसरे दिन, हम केरल की भूमि पर थे। खाड़ियों, बैक वॉटर लैगून्स, नारियल, केले के बगीचों को पार करते हुए हम त्रिवेन्द्रम् (तिरुवनन्तपुरम) पहुँच गए। उस रात वहीं रुकना था।

अगले दिन यानी 15 जनवरी को, हम लोग सुबह कन्याकुमारी के लिए रवाना हुए। जब हम कन्याकुमारी पहुँचे तो विशाल हिलोरे लेता हिन्द महासागर नज़र आया। और जैसे ही विवेकानन्द मैमोरियल पर नज़र दौड़ाई तो होश गुम हो गए। वहाँ दो-ढाई हज़ार लोग पहले से ही मौजूद थे। मानो जन सैलाब हो। विवेकानन्द रॉक और संत कवि तिरूवल्लूर की ऊँची विशाल मूर्ति के बारे में सोचते हुए जितनी भी उमंगें मन में उठी थीं, उन्हें सिरे से खारिज करना पड़ा।

वैसे तो हमारे प्लान में विवेकानन्द रॉक पर जाना तय किया था लेकिन भारत के कई इलाकों से बहुत सारे लोग यहाँ ग्रहण का लुत्फ उठाने आए हुए थे। लगभग 300 लोग तो हमारी ट्रेन से ही यहाँ आए थे। तमिलनाडु का विशेष त्यौहार - पोंगल भी आज ही था, और शबरीमला से आए अय्यपा के भक्त भी यहाँ बड़ी तादाद में पहुँचे थे। खैर, हमने विवेकानन्द रॉक पर जाने का विचार रद्द किया।

कुछ अवलोकन, कुछ प्रयोग
हमारे आयोजकों ने एक होटल के हरे-भरे बगीचे को ग्रहण देखने के लिए चुन लिया था। हमारे ग्रुप में तीन लोग खास फोटोग्राफी के मकसद से यहाँ आए हुए थे। उन्होंने अपने-अपने फिल्टर्स लगे कैमरे ट्रायपॉड पर लगाकर, अन्य साजो-सामान के साथ पोज़िशन्स ले लीं। ग्यारह बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे। सूरज लगभग बीच आसमान तक चढ़ आया था। मैंने भी अपने लिए एक सुविधाजनक जगह ढूँढ़ ली। मैंने अपना पिनहोल कैमरा, पैड, पेपर, क्लिप्स, पेंसिल, दूरबीन आदि वस्तुएँ बाहर निकालीं। एक बार फिर पिन होल कैमरे से सूरज का बेहतर बिम्ब बनाने की कोशिश करने लगी। पिनहोल कैमरे से सूरज का बिम्ब बेहद छोटा मिल रहा था। दूरबीन से भी एक कोशिश करके देखी लेकिन कुछ भी मन माफिक होता हुआ नहीं दिख रहा था। आस-पास चहल-कदमी करते हुए मैंने देखा कि अभय घाणेकर ट्राईपॉड पर दूरबीन को लगाकर आईपीस के नीचे कागज़ पर सूरज का काफी बड़ा और स्पष्ट बिम्ब बना पा रहे थे।

समझदार को इशारा ही काफी है। मैंने भी अपनी दूरबीन को उसी तरह से सेट किया। अब मुझे भी सूरज के बड़े बिम्ब के दीदार हुए। ठीक ग्यारह बजकर छह मिनट पर ग्रहण प्रारम्भ हुआ यानी चाँद ने सूरज को ढाँकना शुरु किया। ग्रहण के इस पहले कॉन्टेक्ट (स्पर्श) के समय से लेकर हर दस-पन्द्रह मिनट बाद मैं और मेरी माँ सूरज के बिम्ब को पेंसिल की मदद से कागज़ पर ड्रॉ कर रहे थे।

हालाँकि, वलयाकार सूर्य ग्रहण में अभी काफी समय बाकी था, इसलिए कम होती रोशनी और लगातार ढँकते जा रहे सूरज का जायज़ा लेते हुए कुछ प्रयोग व अवलोकन तो हो ही सकते थे। मैं अपने साथ रसोई घर का पूरी तलने वाला झारा लेकर आई थी। इस झारे को सही कोण और दूरी बनाते हुए पकड़ने पर कागज़ पर ग्रहण ग्रस्त सूरज के अनेक बिम्ब दिखाई देते हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो सूरज की कलाओं को देख रहे हों। ग्रहण के दौरान थोड़ी-थोड़ी देर बाद हम झारे से पड़ने वाली सूर्यकलाओं के बिम्ब को पुन: देख रहे थे। कुछ फोटो खींचने की भी कोशिश की, पर वे फोटो थोड़ी अस्पष्ट आईं। सूर्य ग्रहण के दौरान जब वलयाकार ग्रहण दिखाई देना शु डिग्री हुआ तो झारे से दिखाई देने वाले बिम्ब का नज़ारा भी बदला हुआ था। झारे के हरेक छेद से बनने वाले बिम्ब में काले बिन्दु को घेरता हुआ रोशनी का एक छल्ला दिखाई दे रहा था। इसे देखकर हम सबके मुँह से ‘वाह!’ निकल पड़ा। शायद इतना कुछ इस झारे से दिखाई दे जाएगा इसका तो गुमान भी न था। इस मायने में मेरी कोशिश कामयाब रही। मैंने अपनी पीठ थप-थपाई। उस झारे से दिखने वाले वलयाकार ग्रहण को काफी लोगों ने कैमरे में कैद किया।

होटल के लॉन में पंछियों के लिए एक छोटी टंकी में पानी रखा हुआ था। उस पानी में भी आसमान में चल रहे ग्रहण का नज़ारा दिखाई दे रहा था। पानी में दिखाई दे रहे सूरज के अक्स को खुली आँखों से देखना भी उतना ही खतरनाक है जितना सूरज को सीधे आसमान में देखना। इसलिए हमने 16 नम्बर के वेल्डिंग काँच से इसे देखने का मन बनाया (इसे सूर्य ग्रहण के विशेष चश्मों से भी देखा जा सकता है)। लगातार हिलते पानी की वजह से फोटो खींचना तो सम्भव नहीं हुआ लेकिन देखने और पड़ताल करने का कोई भी मौका मैं आज छोड़ना नहीं चाहती थी।

वहाँ पर डेनमार्क, जापान आदि देशों से भी पर्यटक थे। उनमें से एक थे माइकल अंकल। माइकल अपने बड़े और भारी कैमरे से लगातार ग्रहण की तस्वीरें ले रहे थे। मैंने भी उनके कैमरे से सूरज को देखा। फिर मैंने उनसे कहा कि अगर वे मुझे भी कुछ तस्वीर भेज सकें तो अच्छा होगा। माइकल ने वलयाकार सूर्य ग्रहण की उम्दा तस्वीरें मुझे ई-मेल से भेजीं। और, मैंने भी उन्हें झारे से दिखाई देने वाले वलयाकार ग्रहण की तस्वीर भेजी।

हमारे मार्गदर्शक घाणेकर हमें होटल के लॉन में शिरीष के वृक्ष के पास लेकर गए। शिरीष (abizzia lebbeck) की ऊँचाई आम तौर पर 25-30 फुट तक होती है। फिलहाल होटल परिसर का यह पौधा चार फुट का था। शिरीष के पत्ते प्रकाश के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। सूर्य ग्रहण के दौरान जब रोशनी कम होती गई तो शिरीष के पत्ते भी आधे बन्द हो गए थे। दोपहर एक बजे के आस-पास जब रोशनी काफी कम हो गई, तो कौए और समुन्दर की ओर गए बगुले भ्रमित होकर पेड़ पर व बिजली की तारों पर बैठ गए।

ग्रहण का रोमांच
लगभग एक बजकर दस मिनिट पर वलयाकार ग्रहण का रोमांच शुरु हुआ। चाँद ने सूरज को ढँक लिया था और सूरज की चकती वलय या रिंग की तरह दिखाई दे रही थी। ये नज़ारा लगभग 10 मिनट तक दिखाई देने वाला था। 10 मिनट यानी जी भरकर देखने का मौका। हम सबने इसका पूरा फायदा उठाया। सूर्य वलय को कभी ग्रहण के चश्मे से, कभी वेल्डिंग काँच से, तो कभी कुण्ड के पानी में बन रहे अक्स के मार्फत देखा। इन 10 मिनटों के दौरान मैंने पहले से तैयार दूरबीन की मदद से कागज़ पर वलयाकार सूर्य ग्रहण को रेखांकित किया और फोटो भी खींच ली। झारे से बनने वाले बिम्ब को भी दोबारा-तिबारा देख लिया।

‘शिरीष’ के पेड़ के पास जाकर उसकी पत्तियों का अवलोकन किया। और उसकी अधबन्द पत्तियों की तस्वीर भी खींची। इतना सब करने के बाद इत्मीनान से घसियाले लॉन में लेटकर, ग्रहण वाला चश्मा लगाकर आसमान में दिखाई दे रहे कंगन जैसे सूरज को जी भर कर निहारा। खास बात यह है कि इन दस मिनटों के दरमियान सूरज के सामने कभी-कभी बादल गुज़रते थे, जो मानो खुद एक फिल्टर की तरह काम कर रहे हों। ऐसा ही एक बादल का टुकड़ा जब सूरज के सामने से गुज़र रहा था तभी हमारे सर ने बताया कि इस समय सूरज को बिना किसी फिल्टर के सीधा देखा जा सकता है। हमने खुली आँखों से, पर सावधानी से दो-चार सेकण्ड के लिए बादल के पीछे के सूरज को देखा और फोटो भी खींच ली।

इस लेख में मैंने कई बार कहा कि वलयाकार सूर्य ग्रहण देखा लेकिन दरअसल, मैं पूरे दस मिनट अमावस का चाँद देख रही थी। 22 जुलाई, 09 का खग्रास सूर्यग्रहण बरसाती मौसम की वजह से मैं देख नहीं पाई थी इसलिए 10 मिनट तक चला यह वलयाकार ग्रहण मेरे लिए किसी बेमिसाल दावत से कम नहीं है।
ग्रहण के दौरान जब थर्ड कॉन्टेक्ट का समय आया तब तक मेरे पेट में चूहे कूदने लगे थे। मैं अपना सामान बटोर कर होटल पहुँची और जमकर पेट पूजा की। फिर दोबारा होटल के लॉन में जा पहुँची। भोजन के बाद मैंने फिर से ग्रहण को समाप्ति तक देखा। हम लोग शाम तक त्रिवेन्द्रम वापस आ गए।

अगले दिन, रेल से हमने पूना के लिए कूच किया।



सूर्य ग्रहण और सारोस चक्र

सन् 2009 अन्तर्राष्ट्रीय खगोल वर्ष के रूप में मनाया गया। इस साल जुलाई में हुआ पूर्ण सूर्य ग्रहण एक प्रमुख घटना थी। साथ ही, लगभग छह महीने बाद होने वाला वलयाकार सूर्य ग्रहण भी उत्सुकता बढ़ा रहा था। इन दोनों की वजह से मैं कई खगोलविदों के सम्पर्क में आई और मुझे ग्रहण के बारे में विस्तार से जानने-समझने का मौका भी मिला।
समझ बढ़ाने की शुरुआत मैंने कुछ अध्ययन सामग्री से की। जल्द ही मुझे एक-दो कार्यशालाओं में शामिल होने का मौका भी मिला। इन सबके ज़रिए ग्रहण को काफी विस्तार और गहराई से जाना। उनमें से कुछ रोचक बातें यहाँ बता रही हूँ। खासकर, सूर्यग्रहण के बारे में।

सरसरी तौर पर हमें सूर्य ग्रहण के बारे में बताया जाता है कि जब सूर्य, चाँद और पृथ्वी एक ही सीध में होते हैं, तब चाँद की छाया पृथ्वी पर पड़ती है और सूरज की चकती का कुछ हिस्सा या पूरा सूरज दिखाई नहीं देता। इसे सूर्यग्रहण कहते हैं। परन्तु यह बात इतनी सरल नहीं है। ग्रहण के समय पृथ्वी से चाँद की और सूरज की दूरी कितनी है, उस पर सूर्यग्रहण का प्रकार निर्भर करता है। सूर्य ग्रहण के दौरान पृथ्वी पर पड़ने वाली छाया के तीन रूप - मुख्य छाया (अम्ब्रा), उपछाया (पेनअम्ब्रा) और छाया का पृथ्वी की सतह तक न पहुँच पाना शामिल है। इससे ग्रहण को खग्रास, खण्डग्रास और वलयाकार के रूप में पहचानते हैं (देखिए चित्र)।

हर साल जनवरी के पहले हफ्ते में पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी सबसे कम होती है। इसके कारण हमें सूर्य की चकती अपेक्षाकृत थोड़ी बड़ी नज़र आती है (यह फर्क बेहद मामूली है। सामान्यत: आकाश में सूरज की चकती का आकार आधा डिग्री के आस-पास होता है)। ऐसे में बड़े आकार की सूर्य चकती को चाँद पूरी तरह ढँक नहीं पाता।
मान लीजिए, इन हालात में चाँद भी धरती से दूरस्थ स्थिति (Apogee) पर हो तो चाँद की चकती का आकार भी अपेक्षाकृत छोटा दिखाई देगा। संयोग से ऐसा ही कुछ 15 जनवरी, 2010 को भी हुआ था। चाँद धरती से दूर था और सूरज सबसे पास के बिन्दु के करीब था। उस दिन सूरज की चकती का व्यास लगभग 32 मिनट 31 सेकण्ड था। चाँद की चकती इसके मुकाबले कुछ कमतर थी। इसलिए एक ओर जहाँ चाँद सूरज की चकती को पूरी तरह ढाँक नहीं पा रहा था, वहीं धरती से चाँद और सूरज की दूरियों की वजह से चाँद की मुख्य छाया धरती तक पूरी तरह नहीं पहुँच पा रही थी; जिसकी वजह से वलयाकार सूर्य ग्रहण की सम्भावना बन पड़ी थी। सूर्य ग्रहण की मुख्य छाया भारत के एकदम दक्षिणी छोर से यानी कन्याकुमारी, तूतीकोरिन, मदुराई, रामेश्वरम् आदि के कुछ ऊपर से गुज़रने वाली थी इसलिए इस इलाके में लगभग 10 मिनट तक वलयाकार सूर्य ग्रहण दिखाई दिया। भारत के जिन इलाकों में इस ग्रहण के दौरान चाँद की उपछाया पड़ने वाली थी वहाँ इस ग्रहण को खण्डग्रास रूप में देखा गया (जैसे कि पुणे या होशंगाबाद)।

निकट भविष्य में इतनी लम्बी अवधि का वलयाकार सूर्य ग्रहण भारत से दिखाई नहीं देगा। ऐसा बताया जाता है कि इससे पहले 20 जुलाई 1944 को पूना समेत कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के कई इलाकों से वलयाकार सूर्य ग्रहण देखा गया था।

अब थोड़ा विचार पृथ्वी और चाँद की कक्षाओं के बारे में कर लेते हैं। पृथ्वी एक तल में रहते हुए सूरज का चक्कर लगाती है। इसी तरह चाँद भी एक तल में धरती का चक्कर लगाता है। खास बात यह है कि चाँद का परिक्रमा तल धरती के परिक्रमा तल से 5 डिग्री का कोण बनाता है। यानी सूर्य और धरती तो एक तल में उपलब्ध हैं लेकिन चाँद उस तल से ऊपर या नीचे हो सकता है। सूर्य ग्रहण के लिए तीनों पिण्डों का एक लाइन और एक तल में होना ज़रूरी है। पृथ्वी के परिक्रमा तल को चाँद जिस जगह पर काटता है उसे खगोलीय परम्परा में ‘नोड’ कहते हैं (कुछ भारतीय परम्परा में नोड को राहु-केतु नाम भी दिया गया है)। जिस बिन्दु से चाँद का परिक्रमा तल पृथ्वी कक्षा के परिक्रमा तल को छेदकर ऊपर या उत्तर की तरफ जाता है, उसे असेंडिंग नोड (भारतीय परम्परा में राहु) नाम से जाना जाता है। जिस बिन्दु से चाँद का परिक्रमा तल पृथ्वी के परिक्रमा तल को छेदकर नीचे या दक्षिण की ओर जाता है उसे डिसेंडिंग नोड (भारतीय परम्परा में केतु) नाम से जाना जाता है।

सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण के दिन की गणना के लिए कार्यशाला में हमें कुछ रोचक तरीके भी सिखाए गए थे। प्रमुख बात तो यह है कि ग्रहण में एक निश्चित अन्तराल दिखाई देता है, यानी एक तयशुदा समय अवधि के बाद ग्रहण की घटना दोहराई जाएगी। इस दोहराव को ‘सारोस चक्र’ नाम दिया गया है। सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण का सारोस अलग-अलग होता है। यहाँ हम मुख्य रूप से सूर्य ग्रहण की बात करेंगे। एक सारोस में लगभग 70 से 80 सूर्य ग्रहण होते हैं। और एक सारोस 1244 से 1515 साल की अवधि तक चलता है। हरेक सारोस चक्र को एक यूनिक नम्बर दिया जाता है। जैसे 15 जनवरी को हुआ ग्रहण सारोस चक्र नम्बर 141 का 23वाँ ग्रहण था। एक ही सारोस चक्र के ग्रहणों में 18 साल 11 दिन और आठ घण्टे का निश्चित अन्तराल दिखाई देता है। उदाहरण के लिए 15 जनवरी, 2010 के सारोस चक्र को देखते हैं। इस सारोस की शुरुआत 19 मई, 1613 में हुई थी और तब से निश्चित अन्तराल में ग्रहण दोहराए जा रहे हैं। इसलिए हम आसानी से बता सकते हैं कि 4 जनवरी, 1992 को इसी सारोस चक्र का 22 नम्बर का ग्रहण हुआ था और 24 नम्बर का ग्रहण 26 जनवरी, 2028 को होगा। कुल मिलाकर, इस तरह से किसी एक सारोस चक्र के ग्रहणों के बारे में सटीक अनुमान लगाया जा सकता है।
सारोस चक्र 141 का अन्तिम ग्रहण 13 जून, 2857 को होगा यानी यह सारोस 1244 साल तक चलेगा। इस सारोस की एक और खास बात यह है कि इसमें पूर्ण सूर्य ग्रहण की बजाय लम्बी अवधि के वलयाकार सूर्य ग्रहण ही दिखाई देंगे। 14 दिसम्बर, 1955 को इसी सारोस चक्र में 12 मिनट 9 सेकण्ड तक चला वलयाकार सूर्य ग्रहण दिखाई दे चुका है।

हरेक सारोस का शुरुआती ग्रहण खण्डग्रास ग्रहण होता है जो उत्तरी ध्रुव या दक्षिणी ध्रुव पर दिखाई देता है। इसी तरह सारोस का अन्तिम ग्रहण भी खण्डग्रास के रूप में उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव पर ही दिखाई देता है। सारोस के काफी सारे ग्रहण खग्रास या वलयाकार होते हैं।
ग्रहण-सारोस के बारे में और जानने-समझने का मन हो तो नासा या ऐसी अन्य वेबसाइट पर सामग्री की पड़ताल की जा सकती है।


स्वछंद गंदगे: कक्षा सातवीं की विद्यार्थी हैं। भोसरी, पुणे में रहती हैं।