लेखक :  नुऐमन
अनुवाद: भरत त्रिपाठी

सहीर के लिए स्कूल का पहला दिन था।
वह गर्व से चलते हुए स्कूल गया, अपने पिता का हाथ पकड़कर, लगभग उन्हें खींचते हुए। नई कमीज़, पीठ पर नया बस्ता और दूसरे हाथ में नया छाता जो अभी तक एक बार भी नहीं खुला था। यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि वह बस स्टॉप से ही उछलते हुए स्कूल तक गया। वह खुश था, पर जल्दी में भी था। अगर बारिश हो गई तो? उसकी नई कमीज़ गन्दी हो गई तो? अप्पा उसे निश्चित ही डाँटेंगे। क्या अप्पा उसके साथ रोज़ स्कूल आएँगे? उम्मीद है कि ऐसा नहीं होगा। उसे अपने बड़े भाइयों और बहनों के साथ हँसते-खेलते हुए आने में ज़्यादा मज़ा आएगा। पर वह इस बारे में ज़्यादा चूँ-चपड़ नहीं करेगा। अन्यथा, कहीं उसका स्कूल जाना ही बन्द न कर दिया जाए। आखिर, बहुत रोने, शिकायत करने और काफी इन्तज़ार करने के बाद ही तो उसे स्कूल जाने को मिला था।
जब परिवार और पड़ोस के बड़े लड़के-लड़कियाँ स्कूल जाते थे तो सहीर उनके साथ धान के खेतों तक जाया करता था। आयताकार टिफिन में दिन का खाना, तस्वीरों से भरी पाठ्य पुस्तकें, शिक्षकों द्वारा काली स्लेटों पर रंगीन चॉकों से दिए गए सही के निशान...सहीर के लिए स्कूल यही सब था। जब शाम को उसका भाई स्कूल से घर लौटता तो उसकी कमीज़ बदरंग और मैली हो चुकी होती। सहीर स्कूल में, जिसे वह खेल का बड़ा-सा मैदान समझता था, ‘चोर-सिपाही’ खेलने की कल्पना किया करता। तभी से, वह अम्मा की पोशाक पकड़कर, सिसकते हुए स्कूल जाने की ज़िद किया करता। सहीर के उत्साह और लालसा को देखते हुए उसके अप्पा ने कई बार गोविन्दन सर से पूछा था कि क्या उसे स्कूल में दाखिला मिल सकता है? पर जवाब हमेशा यही होता था: “उसे कम-से-कम पाँच साल का होना चाहिए।”
आज, जब सहीर अपने कन्धे पर रंगबिरंगा बस्ता और सपनों से सजा छाता लिए पहली बार स्कूल गया तो उसने खुद को किसी बड़े लड़के जैसा महसूस किया।

साल-दर-साल, काली स्लेट पर लिखे गए उसके बेढंगे अक्षरों के आगे शिक्षक सही और गलत के निशान लगाते रहे। वह छठवीं कक्षा तक पहुँच गया। वह उन बिरले मौकों पर बड़ा दुखी हो जाता था जब उसे शिक्षक से मार खानी पड़ती थी। वह याद करता कि उसके सपने में तो स्कूल में कोई मार-पिटाई नहीं होती थी! और अपनी नई कल्पनाओं में वह शिक्षक से बेंत छीन लेता और उसे खिड़की से बाहर फेंक देता।
फिर भी सहीर को स्कूल पसन्द था। उसे गोविन्दन सर, गंगाधरन सर, शैला मैडम, सुलेमान सर सभी पसन्द थे। तब भी, कभी-कभी स्कूल में सहीर दुखी महसूस करता था। उसे लगता था जैसे उसके पिता, माँ, दादाजी और सभी प्रिय लोग कहीं बहुत दूर हों! यह मानो ऐसा था जैसे वे सभी लोग जिन्हें वह प्रेम करता था और जो उससे प्रेम करते थे, कहीं खो जाते थे। उसका परिचित संसार भी स्कूल में उसे बहुत दूर प्रतीत होता था।

सहीर कोझीकोड के निकट स्थित एक छोटे-से गाँव पुथन कुन्नू में रहता था। वहाँ उसके बहुत सारे दोस्त थे - रशीद, अब्दुल्ला, रहमान, शफीक, शम्सुद्दीन, रहीम, तथा कई और। कुरान की आयतें जो हवा में तैरती हुईं हर रोज़ सुबह-शाम सुनाई देती थीं; अब्दुल्ला उस्ताद की अज़ान जो दिन में पाँच बार मस्जिद से हवा में बहती हुई आती थी; अपनी तस्बीह1 के साथ हमेशा प्रार्थना के भाव से भरे अप्पा; हर गुरुवार मगरिब2 के बाद होने वाली दिक्र3; दिक्र के बाद होने वाली चाय; चाय के बाद पत्तिरी बाँटकर खाना; हर शाम मस्जिद के अहाते में दोस्तों के साथ पत्तों की गेंद से खेलना - जब से उसे याद था तब से यही सब सहीर की दुनिया का हिस्सा था।
हर सुबह सहीर मदरसा जाता था। मदरसा की कक्षा सुबह सात से नौ बजे तक लगती थी। मम्मू उस्ताद अरबी अक्षर, कुरान के पाठ, नमाज़ और दूसरी प्रार्थनाएँ सिखाते थे। मदरसे के बाद, सहीर जल्दी से घर लौटता था ताकि स्कूल जाने के लिए तैयार हो सके जो तीन किलोमीटर दूर स्थित था। अधिकांश दिनों में उसके नाश्ते में एक कप कॉफी और थोड़े बिस्कुट होते थे, जो वह सुबह बहुत जल्दी ले लिया करता था। कभी-कभी मदरसा कक्षाओं के बाद वह चाय लेता था। साढ़े नौ बजे तक अम्मा सलीके से उसका टिफिन बॉक्स और बस्ते में किताबें लगा देतीं। वह बस उसे उठाता और स्कूल के लिए भाग पड़ता।

कक्षाएँ ठीक दस बजे, या सभा के दिनों में नौ बजकर पचास मिनिट पर शुरु हो जाती थीं। यदि वह दस मिनिट भी देरी से पहुँचता तो उसे पूरे पीरियड के लिए कक्षा के बाहर खड़े रहना पड़ता और फिर कक्षा शिक्षक के पीछे चलते हुए शिक्षक-कक्ष तक जाना पड़ता ताकि उस दिन के लिए उसकी उपस्थिति दर्ज हो सके। वहाँ, अन्य शिक्षकों के सामने उसे खूब डाँट पिलाई जाती।
सहीर की अधिकांश स्कूली ज़िन्दगी मदरसे से स्कूल के बीच की एक व्यग्र दौड़ थी। कक्षा छूट जाने का डर, शिक्षक द्वारा डाँटे जाने का डर...।
कभी-कभी सहीर सोचा करता था कि जल्दी ही वह पी.टी. ऊषा को पछाड़ने में समर्थ हो जाएगा। वाकई, छठी कक्षा में आते-आते सहीर दौड़ लगाने में बहुत माहिर हो चुका था।
स्कूल और मदरसे के अलावा एक और दुनिया थी जो सहीर को बहुत पसन्द थी। वह थी दादी की कहानियों और गीत-गाथाओं की दुनिया। जब वे नफीसत गाथाएँ सुनातीं तो कोई भी सुनने के लिए रुक जाता। उनके पास इतनी अलग आवाज़ और लय-ताल की बहुत सुन्दर समझ थी। सहीर ने बहुत-सा इतिहास इन गीतों और किंवदन्तियों से सीखा तथा इन कहानियों से सीखा जो उसकी पाठ्य पुस्तकों या फिर बालारमा और पूमपाट्टा4 में नहीं होती थीं। मोइनुद्दीन शेख, बदर की लड़ाई तथा अलियार थंगल की कहानियाँ, बदारुल मुनीर व हुसुल जमाल की प्रेम कहानी, इरवाड़ी तथा मुत्थुपेटा के औलियाओं की कहानियाँ...। जब दादी ये कहानियाँ सुनाती थीं, तो ऐसा लगता था जैसे वह अपने सभी परिचित नायकों से आमने-सामने मिल रहा हो। सहीर अक्सर आश्चर्य करता कि न जाने वे इतनी लम्बी रचनाएँ कैसे याद रखती थीं।
पर सहीर को अफसोस होता था कि स्कूल के उसके किसी भी मित्र को इन गीतों या कहानियों के बारे में पता नहीं था। “इन गीतों और कहानियों को स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में क्यों नहीं रखा जाता?” उसने एक बार दादी से पूछा था। दादी ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया था। शायद उन्हें उत्तर पता भी नहीं था। और सहीर ने फिर कभी वह प्रश्न नहीं पूछा।

सहीर दादी को एक दिन स्कूल ले जाकर शैला मैडम की कुर्सी पर बैठाना चाहता था ताकि वे ये सभी गीत और कहानियाँ पूरी कक्षा को सुनाएँ। पर क्या कभी ऐसा होगा? क्या शैला मैडम कभी ऐसा होने देंगी?
छठवीं कक्षा के ‘ब’ वर्ग में रोज़ चौथा पीरियड मलयालम का होता था। चूँकि ओणम परीक्षाएँ नज़दीक थीं, अधिकांश शिक्षक कक्षा में दोहराव करवा रहे थे। मलयालम के शिक्षक गंगाधरन हमेशा की तरह अपनी बेंत को पाठ्य पुस्तक में पुस्तक-चिन्ह की तरह रखे हुए कक्षा में आए। उन्होंने कुछ पुराने प्रश्नपत्रों पर नज़र दौड़ाई और बच्चों को उनका प्रारूप समझाया। फिर वे बोले, “तुममें से अधिकांश लोग ‘सन्दर्भ समझाओ’ वाले प्रश्नों का उत्तर देने में असफल हो जाते हो। अक्सर तुम लोग पाठों के चरित्रों के नाम तक याद नहीं रख पाते।” उन्होंने अभ्यास के लिए सभी बच्चों से प्रत्येक पाठ के चरित्रों के नाम अपनी-अपनी कॉपियों में लिखने को कहा।
सहीर ने भी जल्दी से प्रत्येक पाठ के चरित्रों के नाम लिख दिए। चार पाठों में कुल ग्यारह चरित्र थे। जब उन लोगों ने अभ्यास पूरा कर लिया, तो शिक्षक सहीर की तरफ मुड़े और उससे उत्तरों को ज़ोर से पढ़ने को कहा। सहीर ने पढ़ा:

“पाठ एक: ‘अच्छा मित्र’; चरित्र: कुट्टन, उन्नी, कुंजूलक्ष्मी और अम्मू। पाठ दो: ‘धूर्त रामू’; चरित्र: रामू, माधवी और अरोमल। पाठ तीन: ‘श्रम का फल’; चरित्र: रमन, कुनजुन्नी, सथ्यन।”
थोड़ा विराम लेने के बाद, दुखी पर दृढ़ आवाज़ में उसने जोड़ा, “...और रशीद।”

पूरी कक्षा मौन हो गई। गंगाधरन सर ने आंशिक रूप से छुपी हुई अपनी बेंत को हाथ में ले लिया। उनकी जिज्ञासु आँखें सुनहरी रंग की कमानी वाले चश्मे के ऊपर से झाँकने लगीं। उन्होंने सहीर से पूछा, “यह क्या था? तुमने यह नाम कहाँ से खोज लिया? इस तरह का नाम पूरी पाठ्य पुस्तक में कहीं भी नहीं है!”
सहीर हकलाया, “सर, क्योंकि...पूरी किताब में कहीं भी कोई मुस्लिम नाम नहीं है...।”
सारे बच्चे हँस पड़े तो सहीर ने गंगाधरन सर की तरफ देखने की हिम्मत जुटाई। सर ने ज़ोर से अपनी बेंत को मेज़ पर ठोका। पूरी कक्षा शान्त हो गई। अपने गुस्से को काबू में करते हुए गंगाधरन सर ने सहीर से पूछा, “सहीर, क्या तुम साम्प्रदायिकता की बात कर रहे हो?”
सहीर को वह प्रश्न समझ में नहीं आया। वह गंगाधरन सर से पूछना चाहता था कि उनका मतलब क्या था। पर तभी दिन के खाने की घण्टी बज उठी।
टिफिन के डिब्बे को हाथ में लिए, सहीर हाथ धोने के लिए अपने दोस्तों के साथ नल तक जाने के लिए भागा। उसने दौड़ लगाई...प्रथम आने के लिए।


नुऐमन: केरल के उभरते लेखक व पत्रकार हैं। विकास के मुद्दों पर लिखते हैं।
मलयालम से अँग्रेज़ी में अनुवाद: एम.टी. अंसारी और लिजी वर्गीज़
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: पत्रकारिता का अध्ययन। स्वतंत्र लेखन और द्विभाषिक अनुवाद करते हैं। होशंगाबाद में निवास।
सभी चित्र: चित्रा के.एस.
यह कहानी ‘अनटोल्ड स्कूल स्टोरीज़’ किताब से ली गई है। अन्वेशी रिसर्च सेंटर फॉर विमन्स स्टडीज़ द्वारा ‘डिफरेंट टेल्स: स्टोरीज़ फ्रॉम मार्जिनल कल्चर्स एंड रीजनल लैंग्वेजेज़’ के तहत विकसित। ‘डिफरेंट टेल्स’ सीरीज़ के तहत अन्वेशी रिसर्च सेंटर ने आठ किताबें तैयार की हैं। सीरीज़ सम्पादक: दीपा श्रीनिवास। प्रकाशक: मैंगो, डी.सी. बुक्स, केरल। मूल्य: 80 रुपए।
इस  में प्रकाशित आठों किताबें एकलव्य के भोपाल स्थित पिटारा में उपलब्ध हैं।