डॉ. किशोर पंवार

जुलाई का तीसरा सप्ताह चल रहा था। इन दिनों मेरी कॉलोनी के बगीचे में ढेर सारी तितलियाँ दिखाई दे रही थीं। सभी एक रंग-रूप की, एक ही जैसी। किताबें पलटी तो पता चला कि ये कॉमन इमीग्रेंट नाम की तितलियाँ हैं। हल्के-पीले और क्रीम रंग की। सारा दिन ये इधर-उधर एक-दूसरे के पीछे भागती रहती हैं। कभी ज़मीन पर उगी घास के पास, तो कभी पेड़ों के ऊपर। बहुत दिनों से सोच रहा था कि इनकी एक-दो तस्वीर निकालूँ, पर ये हैं कि एक जगह बैठती ही नहीं। मैं इनके पीछे-पीछे और ये मेरे आगे-आगे। बड़ी चंचल हैं ये। उड़ती ही रहती हैं। यहाँ से वहाँ, और वहाँ से और कहीं।
इन तितलियों का पीछा करते-करते एक दिन मेरी नज़र पीले कनेर की एक पत्ती पर पड़ी, तो क्या देखता हूँ कि एक तितली के अन्दर दूसरी तितली लगभग फँसी हुई है। ऊपर हल्के क्रीम रंग की और अन्दर हल्के पीले रंग की जिसके पंखों के किनारे मटमैले थे। मुझे लगा कि अन्दर वाली तितली मर गई है और दूसरी तितली ने बन्दरिया की तरह उसे चिपका रखा है। अन्दर वाली तितली के पैर मुड़े हुए थे, एंटीना में भी कोई हलचल न थी। यह सब देख मैंने सोचा कि पिछले दिनों जिस मौके की तलाश थी वह आ चुका है।

मैं तुरन्त घर गया और अपना कैमरा ले आया। जब मैंने इनकी पहली तस्वीर उतारी तब तक तो सब ठीक-ठाक था परन्तु दूसरा क्लोज़-अप लेने के चक्कर में जब मैं तितलियों के और पास पहुँचा तो अन्दर वाली तितली में कुछ हलचल हुई और वे दोनों एक-दूसरे से थोड़ी दूर हो गईं। हालाँकि, उनके पीछे का आधा हिस्सा अभी भी एक-दूसरे के अन्दर ही था।

अब मुझे समझ में आ चुका था कि ये तो सन्तति बढ़ाने वाला मामला है। ये तितलियाँ तो आपस में समागम कर रही हैं। हालाँकि, मुझे यह नहीं मालूम कि इनमें कौन नर है, कौन मादा। दोनों के रंग में हल्का-सा अन्तर ज़रूर था। अन्दर वाली हल्के हरे-पीले और बाहर वाली हल्के पीले रंग की थी। थोड़ी ही देर में ये जोड़ा उस पत्ती से उड़ चला। दूसरी तितली अभी भी नीचे लटकी हुई थी। ये जोड़ा फिर पुआड़ियों की पत्ती पर बैठ गया। मैंने सोचा कि ये तितलियाँ पिछले महीने भर से यहाँ उड़ रही हैं और इनकी संख्या भी बढ़ रही है तो हो न हो इनके अण्डे भी यहीं-कहीं होना चाहिए। मैंने कनेर की कई पत्तियों को उलट-पलट कर देखा पर सफलता नहीं मिली। घूमने का समय भी पूरा हो चला था अत: मैं वापस घर आ गया। रात भर रिमझिम-रिमझिम बारिश होती रही।

अगली कड़ी की खोज
दूसरे दिन बगीचे की पगडण्डी पर चहल-कदमी करते मेरी नज़र एक जगह उभरी हुई मिट्टी पर पड़ी। ध्यान से देखा तो वहाँ तीन इंटरलॉकिंग टाइल्स के बीच के जोड़ पर एक बिल जैसी रचना थी। इसके आस-पास हरी-पीली, कटी पत्तियाँ भी जमी हुई थीं। झाँककर देखा तो यह तो चींटी का बिल निकला। इसके अन्दर-बाहर कुछ लाल चींटियाँ आवागमन कर रही थीं। कटी पत्तियों के रूप-रंग और बनावट को देख मुझे यह समझते देर न लगी कि ये तो पत्तियाँ कुतरने वाली चींटियों की कॉलोनी है। इसी बिल के आस-पास मुझे ताज़ी हरी-भूरी, छोटी-छोटी लेंड़ियाँ भी दिखाई दीं। चींटियाँ इन्हें भी बिल में ले जा रही थीं। मुझे लगा कि हो न हो ये लेंड़ियाँ तितलियों के लार्वा की ड्रॉपिंग्स ही हैं।
नज़र उठाकर देखा तो ऊपर केसिया सियामिया यानी पीली गुलमोहर का पेड़ था। इसकी टहनियों की नई पत्तियाँ कुतरी हुई थीं। अब तक मुझे विश्वास हो गया था कि जिन तितलियों को मैं पिछले दिनों से उड़ते हुए देख रहा हूँ उन्होंने केसिया की पत्तियों पर अण्डे दिए हैं और उनके लार्वा ही ये लेंड़ियाँ नीचे गिरा रहे हैं। मैं तुरन्त घर से कैमरा ले आया। नीचे वाली टहनियों को झुकाकर देखा तो सारा माजरा साफ हो गया। टहनी पर कुतरी हुई पत्तियाँ भी थीं और उन पर हरे-पीले रंग के लार्वा भी थे। हालाँकि, अण्डे नहीं दिखे।

ऊपर लार्वा, नीचे प्यूपा
लार्वा के फोटो निकाले। कुछ पत्तियों को अण्डों की तलाश में उल्टा-पलटा। अण्डे तो नहीं मिले पर इनका प्यूपा ज़रूर दिख गया, केसिया की पत्ती पर नीचे की तरफ चिपका हुआ। बिलकुल एक लम्बे, पतले, हल्के पीले रंग के शंख जैसा। तितली के इस रूप को हिन्दी में शंखी ही कहते हैं। प्यूपा बिलकुल तैयार था। उसमें बाहर से ही कुछ हलचल दिखाई दे रही थी। जैसे ही मैंने एक-दो फोटो निकाले उसका अगला मोटा हिस्सा फटा और उसमें से एक नई तितली बाहर आने लगी। बाहर निकलने तक तो उसके पंख घड़ी किए हुए थे परन्तु अगले कुछ ही क्षणों में वे ऐसे खुले जैसे भिण्डी या कपास के बीज-पत्र बीज के छोटे खोल से बाहर आने पर खुलते हैं। खोल में ये बड़े करीने से तह किए होते हैं परन्तु बाहर आते ही इनकी तह खुलने लगती हैं। अण्डा, लार्वा के कुछ स्टेज और फिर प्यूपा को पार कर तितली अपनी अन्तिम वयस्क अवस्था में आ चुकी थी।

थोड़ी देर तक यह वहीं प्यूपा से चिपकी रही। धीरे-धीरे उसके चारों पंख अलग हुए। थोड़े पंख फड़फड़ाए और अगले पाँच-सात मिनिट में वह अपना पुराना खोल छोड़ जीवन के एक नए सफर पर एक नए साथी की तलाश में निकल चुकी थी।
यह सब देख मुझे ये गाना याद आ गया जो तितली की कहानी संगीतमय अन्दाज़ में बयाँ करता है - तितली उड़ी, उड़ जो चली, फूल ने कहा आजा मेरे पास, तितली कहे मैं चली आकाश।

अण्डे भी मिले
तितली के जीवन की शुरुआत लगभग एक मिली मीटर लम्बे अण्डे से होती है जो मुझे आखिरकार केसिया की पत्ती पर चिपके हुए मिल ही गए। ये बड़ी मुश्किल से दिखाई देते हैं। अण्डों से निकलती है इल्ली और फिर बनता है प्यूपा एवं अन्त में तितली निकल कर उड़ जाती है। चारों अवस्थाओं का रूप-रंग, खाने का तरीका सब अलग। इल्ली पत्ती कुतरने वाली हरी-पीली, प्यूपा निष्क्रिय समाधि रचा स्थिर किसी पत्ती या टहनी से चिपका हुआ। और फिर फूलों का रस चूसने वाली रंग-बिरंगी, पक्षियों की तरह यहाँ-वहाँ डाल-डाल पर फूलों पर मण्डराने वाली सुन्दर सजीली चित्ताकर्षक प्रकृति का अजूबा जीव बन जाती है।


डॉ. किशोर पंवार: होल्कर साइन्स कॉलेज, इन्दौर में वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक। विज्ञान लेखन एवं नवाचार में रुचि रखते हैं।
सभी फोटो: डॉ. किशोर पंवार।