हिमांशु श्रीवास्तव                                                                                                                            [Hindi PDF, 437 kB]

विज्ञान शिक्षण में किसी अवधारणा को समझाते समय विविध तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। कई बार पढ़ने वाले उस पाठ, उस बातचीत के सन्दर्भ को बिलकुल समझ नहीं पाते कि आखिर उन्हें यह सब क्यों पढ़ाया जा रहा है। ऐसे में कई बार उस अवधारणा की समझ के विकास को ऐतिहासिक संदर्भ में देखने से न केवल उसकी उपयोगिता का अन्दाज़ लगता है, बल्कि विज्ञान किस तरह आगे बढ़ता है इसकी समझ भी विकसित होती है। कई लोगों का मानना है कि इस तरीके से विज्ञान की प्रकृति को लेकर भी कुछ स्पष्टता आती है - मसलन विज्ञान में कोई भी सिद्धान्त सदा-सदा के लिए नहीं रहता, समय-समय पर नए प्रयोगों, नए अवलोकनों, नए विश्लेषणों आदि के आधार पर उसमें बदलाव आता है, आदि।

ऐसी ही एक कोशिश इन्दौर में एक शिक्षक प्रशिक्षण के दौरान विद्युतधारा और चुम्बकत्व के आपसी रिश्ते को समझने के लिए की गई, जिसमें इस विषय से जुड़ी विभिन्न अवधारणाओं की समझ के विकास को ऐतिहासिक रूप में देखने का प्रयास हुआ। बीच-बीच में कुछ ऐतिहासिक प्रयोगों को आज उपलब्ध सामग्री की सहायता से करके भी देखा गया। इस ट्रेनिंग की रिपोर्ट यहाँ दी जा रही है। अगर इसका कोई भी हिस्सा अपने सन्दर्भ में उपयोगी लगे तो आप भी आज़माकर देखिए और हमसे अपने अनुभव साझा कीजिए।

सत्र की शुरुआत सभी प्रतिभागियों के परिचय के साथ हुई। इसके बाद सत्र के मूल विषय के परिचय की बारी थी, जिसमें यह बातचीत हुई कि हर बार ऐसे प्रशिक्षणों में अक्सर हम विद्युतधारा और चुम्बकत्व को अलग-अलग ही समझते हैं और उनके आपसी रिश्ते की बात छूट ही जाती है, इसलिए आज के सत्र में इन विषयों के एकदम शुरुआती अनुभवों (जैसे परिपथ बनाना, श्रेणी और समान्तर क्रम को समझना, चुम्बक के ध्रुवों को पहचानना आदि) से न शु डिग्री करके यह मान कर चलेंगे कि सभी का विद्युतधारा, वोल्टेज, प्रतिरोध, चुम्बकों का आकर्षण-प्रतिकर्षण आदि से थोड़ा परिचय तो है ही। निश्चित ही यह एक भारी मान्यता थी, इसलिए यह तय हुआ कि समूह से एक-दो छुटपुट सवाल पूछ कर देख लिया जाए। इससे जिन्होंने पहले कभी इन अवधारणाओं को समझा है, उन्हें वापस ध्यान करने में तो मदद मिलेगी ही; उन लोगों को भी लाभ होगा जो इन अवधारणाओं से अभी तक कन्नी काटते आए हैं। इस पर आम सहमति होने पर जो पहला सवाल पूछा गया उसमें ब्लैकबोर्ड पर बनाए गए एक सरल परिपथ (चित्र-1) में शिक्षकों को यह बताना था कि अगर परिपथ में बहने वाली विद्युतधारा को घटाना या बढ़ाना है तो क्या-क्या तरीके सम्भव हैं। काफी आसानी से लोगों ने परिपथ में जुड़ी बैटरी की संख्या को घटाने और बढ़ाने की बात कही और चर्चा में यह भी आया कि अगर ऐसे किसी सरल परिपथ में प्रतिरोध का मान निश्चित रहे, तो परिपथ में बहने वाली विद्युतधारा उस परिपथ को दिए गए वोल्टेज के समानुपाती होती है। पर बात यहीं पर रुकी नहीं, कुछ लोगों ने वोल्टेज की बजाय प्रतिरोध को बदलने की भी सलाह दे डाली - हालाँकि यह बात कई और लोगों को शुरुआत में बिलकुल हज़म नहीं हुई। थोड़ा कुरेदने पर कहा गया कि प्रतिरोध को भी उसकी लम्बाई, उसकी काट के क्षेत्रफल या उसके पदार्थ को बदलने से बदला जा सकता है और इससे सम्बन्धित सूत्र भी शिक्षकों की तरफ से ही सुझाया गया। इससे ऐसा लगा कि आगे के सत्र में विद्युतधारा के जिन सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाना है, उनके बारे में एक मोटी समझ तो समूह में बनी है तो इसे यहीं छोड़कर चुम्बकत्व से जुड़ा हुआ एक प्रश्न पूछा गया।

चुम्बक के ध्रुव पहचानना
इसके बाद एकदम एक-सरीखे दिखने वाले दो चुम्बक समूह को दिखाए गए। एक में तो दोनों ध्रुवों के निशान ठीक लगे थे पर दूसरे में ये निशान उल्टे थे, यानी उत्तरी ध्रुव की ओर च् और दक्षिणी ध्रुव की ओर ग़् लिखा था। उन्हें उसमें से सही निशान वाले चुम्बक की पहचान करने को कहा गया। यह एक बहुत ही रोचक गतिविधि है जिसे अगर आपने अभी तक नहीं किया है, तो ज़रूर ही करके देखना चाहिए। यह ऊपर से देखने में जितना आसान लग रहा है, दरअसल उतना आसान है नहीं। इस सवाल के जवाब में भी चुम्बक के दो ध्रुवों की बात आई, ध्रुवों के बीच लगने वाले आकर्षण और प्रतिकर्षण बल की बात भी आई और यह भी कि अगर एक चुम्बक को एक रस्सी से लटकाकर अपने आप घूमने के लिए छोड़ दिया जाए, तो वह हमेशा उत्तर-दक्षिण दिशा में ही ठहरता है। चूँकि चुम्बक को लेकर इतनी समझ पर्याप्त थी विद्युत-धारा और चुम्बकत्व के आपसी रिश्ते की बात करने के लिए, इसलिए यहाँ बात को रोककर वास्तविक सत्र की ओर बढ़ गए।
ध्यान दें कि भले ही विद्युतधारा और चुम्बकत्व हमारे इस सत्र के मूल विषय नहीं थे और उन्हें जल्द ही समेट दिया गया, पर फिर भी शिक्षकों से सामान्य परीक्षानुमा सवाल नहीं पूछे गए कि ओह्म का नियम क्या कहता है, वोल्टेज या करंट की क्या परिभाषा है आदि। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में किस तरह के सवाल पूछना अधिक उपयोगी होता है, यह हमेशा से एक रोचक विषय रहा है। इस बारे में और जानने के लिए आप ‘संदर्भ’ पत्रिका के अंक-39 अगस्त-सितम्बर 2001 में कैरन हेडॉक का लेख - अच्छे सवाल कैसे पूछें - पढ़ सकते हैं। आगे के सत्र के लिए मैंने एक कहानी सुनाने का प्रस्ताव रखा, जो सभी को पसन्द आया। यह कहानी कुछ इस प्रकार थी।

विज्ञान का इतिहास
यह बात तो काफी पहले से पता थी कि कुछ चीज़ों में आकर्षण का गुण होता है, जैसे अम्बर या फिर चुम्बक। पर अगर विज्ञान के इतिहास पर गौर फरमाएँ तो हम पाते हैं कि यह विषय 17वीं शताब्दी तक काफी ठण्डा पड़ा रहा। इस समय तक प्रमुख समझ थी कि ये ‘गुण’ पदार्थ में निहित होते हैं और आपस में पास-पास आने पर इन गुणों का आदान-प्रदान होता है। 17वीं शताब्दी को विशेषकर जाना जाता है - न्यूटन के यांत्रिकी सिद्धान्त (Newtonian Mechanics) और निर्वात पर हुए काम के लिए। इसी दौरान घर्षण के विद्युतीय प्रभाव भी देखे गए, पर कुल मिलाकर इस विषय में कोई ठोस काम नहीं हुआ। परन्तु 18वीं सदी की शुरुआत में स्टीफन ग्रे नाम के व्यक्ति कुछ प्रयोग करके काँच की छड़ से रगड़ कर पैदा की जाने वाली विद्युत को एक कमरे से दूसरे कमरे तक ले जा पाने में सफल रहे। उन्होंने कई पदार्थों पर प्रयोग किए और उन्हें सुचालक और कुचालक के दायरों में वर्गीकृत भी किया। इस हलचल से थोड़ी रोचकता आई और कुछ और लोगों ने भी प्रयोग आरम्भ किए।

इस समय तक विद्युत के बारे में यह अवधारणा थी कि यह एक भार-रहित तरल है जिसका ठीक-ठीक अन्दाज़ लगाना या नापना काफी मुश्किल या यूँ कहें कि नामुमकिन ही है। पर कुछ लोगों ने इस तरल को बोतलों में इकट्ठा करने की कोशिशें भी कीं और इस प्रक्रिया में उन्हें कई बार झटके भी लगे। मज़ेदार बात यह है कि इन झटकों का विचार लोगों को काफी पसन्द आया और उसे लोग दूसरों पर आज़माने भी लगे, विशेषकर कोर्ट या राजा इसका उपयोग सज़ा देने में करने लगे। लीडेन जार नाम से बड़े-बड़े उपकरण बनाए गए जिनमें आवेश को इकट्ठा किया जाता था। इनका उपयोग दरअसल काफी अधिक वोल्टेज पैदा करने के लिए किया जाता था। बाद में इन्हीं से कंडेंसर की समझ का विकास हुआ।

पर इन सबसे काफी दूर 18वीं सदी के मध्य में फ्रेंकलिन ने कुछ अलग ही प्रयोग सेट किए और देखा कि अभी तक जो दो तरह की विद्युत मानी जा रही थी (काँच से रगड़ कर बनाई गई और अम्बर से रगड़ कर बनाई गई), वह वास्तव में एक ही है। उन्होंने यह बात भी कही कि जिस तरल की बात की जा रही है, वह सभी पदार्थों में मौजूद है। उसकी अधिकता या कमी से ही पदार्थ अलग-अलग लक्षण दिखाते हैं। आज अगर हम आवेश के सिद्धान्त को देखें, तो फ्रेंकलिन बहुत गलत नहीं लगते। आप बस उस तरल को भार रहित इलेक्ट्रॉन्स समझ लें और चिन्ह बदल दें। इस सरलीकरण का काफी फायदा हुआ। पर इससे ज़रूरी एक और काम जो फ्रेंकलिन ने किया, वह था प्रयोगशाला में बिजली के झटके और आकाशीय बिजली के बीच समानता दिखाने का। उन्होंने आकाशीय बिजली के झटके से बचने के लिए तड़ित चालक भी बनाए और फिर क्या था, इसके बाद तो गाड़ी चल पड़ी। लोगों को पहली बार इस सबका कुछ व्यावहारिक उपयोग समझ में आया।

लेकिन विद्युत की एक तरल के रूप में समझ तब तक चलती रही, जब तक कूलम्ब ने कुछ गणनाएँ करके और आवेश की अवधारणा देकर यह साबित नहीं कर दिया कि विद्युत, चुम्बकत्व और गुरुत्व में लगने वाले बल उनके स्रोतों के बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती (inversely proportional) होते हैं, अर्थात् अगर स्रोतों के बीच की दूरी दोगुनी कर दी जाए तो उनके बीच लगने वाला बल एक- चौथाई हो जाएगा। इस तरह के कुछ और प्रयोगों की मदद से न्यूटन की यांत्रिकी और विद्युत के बीच में भी कुछ-कुछ सम्बन्ध दिखने लगे। हालाँकि, यह अन्तर बहुत स्पष्ट था कि विद्युत में आकर्षण और प्रतिकर्षण दोनों तरह के बल होते हैं जबकि गुरुत्व में सिर्फ आकर्षण होता है।
1795 में वोल्टा ने जब अलग-अलग धातुओं का प्रयोग करके पहली बार विद्युतधारा बैटरी बनाई और 1800 में दो अन्य लोगों ने पानी का विद्युत रासायनिक अपघटन किया तो इलेक्ट्रो-केमिस्ट्री के रूप में एक और व्यवहारिक उपयोग सामने आया।

हम देखते हैं कि 18वीं सदी में एक ओर तो विद्युत को लेकर हमारी समझ में भारी बदलाव हुए तो दूसरी ओर उसके कई व्यवहारिक उपयोग भी समझ में आने लगे। पर अभी तो कहानी शुरू ही हुई थी। इस समय तक विद्युत और चुम्बकत्व के आपसी सम्बन्ध को लेकर भी कुछ विचार थे, पर कुछ ठोस प्रमाण नहीं दिखे थे। 1820 में ओर्स्टेड नाम के व्यक्ति ने, जो पिछले 13 वर्षों से इन्हीं सम्बन्धों को ढूँढ़ने में लगा था, एक दिन अचानक अपनी कक्षा में बच्चों को कुछ प्रयोग दिखाते समय स्वयं ऐसा कुछ देखा कि उसके बाद एक और नया आयाम ही जुड़ गया इतिहास में। उसने वहाँ क्या देखा, इस पर जाने से पहले एक और सवाल उठता है कि आखिर वह ऐसा सम्बन्ध ढूँढ़ने में इतनी शिद्दत से लगा ही क्यों था? प्रसिद्ध समाजशास्त्री जे.डी. बरनाल मानते हैं कि ऐसा दरअसल इसलिए था क्योंकि ओर्स्टेड, एमानुएल कान्त नामक दार्शनिक के विचारों से काफी प्रभावित था। कान्त का मानना था कि सभी प्राकृतिक प्रक्रियाओं (phenomena) के बीच कुछ-न-कुछ सम्बन्ध है। पर ओर्स्टेड तो विज्ञान में काम करते थे और सिर्फ मान्यताओं को लेकर तर्क नहीं कर सकते थे, उन्हें कुछ ठोस प्रमाण की आवश्यकता थी और यही अवलोकन वे कर पाए, 1820 में अपनी उस कक्षा में।

प्रयोग को करके देखना
चूँकि लगभग सभी शिक्षक ओर्स्टेड के प्रयोग को पढ़ाते आए हैं, ओर्स्टेड के अवलोकनों को उन्हें ही प्रस्तुत करने को कहा गया। शिक्षकों ने बताया कि ओर्स्टेड ने एक तार, जिसमें विद्युत धारा बह रही थी, के इर्द-गिर्द एक चुम्बकीय क्षेत्र देखा और चुम्बकीय सुई की सहायता से उस चुम्बकीय क्षेत्र के मान, दिशा आदि को गहराई में समझा। तय किया गया कि ओर्स्टेड के उस प्रयोग को हम सब भी करके देखते हैं और इसलिए कक्षा को 4-5 के छोटे-छोटे समूहों में बाँट कर सभी समूहों में सामग्री के बतौर ताँबे के विभिन्न लम्बाई वाले तार, कुछ कनेक्टिंग वायर, 1 अडैप्टर, कुछ क्रोकोडाइल क्लिप्स और 1-1 चुम्बकीय सुई दे दी गई। अब सभी समूहों को 3ज् पर अडैप्टर को सेट करके चित्रानुसार बाकी सामग्री की सहायता से ताँबे के तार में करंट प्रवाहित करना था और चुम्बकीय सुई को अलग-अलग स्थितियों में रखकर उसमें आए विचलन को देखना था (चित्र-2)।

विचलन किस स्थिति (orientation) में मिला, कितना मिला और उस पर किस-किस कारक का असर पड़ता है - यह देखना ही इस प्रयोग का मुख्य उद्देश्य था। इन सभी अवलोकनों को उन्हें अपनी नोटबुक में लिखते जाना था। पाया गया कि
1. तार में करंट बहने पर चुम्बकीय सुई की कुछ ही स्थितियों में उसमें विचलन आता है अर्थात् उस समय वहाँ पर वह एक चुम्बकीय क्षेत्र महसूस करती है।
2. जैसे-जैसे चुम्बकीय सुई को उसी तल में तार से दूर ले जाते हैं यानी कि उसकी और तार के बीच की लम्बवत दूरी बढ़ाते हैं, विचलन कम होने लगता है।
3. वोल्टेज बढ़ाने से विचलन बढ़ता है - तर्क यह दिया गया कि चूँकि वोल्टेज बढ़ाने से तार में बहने वाले करंट का मान बढ़ जाता है, उससे पैदा होने वाला चुम्बकीय क्षेत्र भी बलवती हो जाता है।
4. ताँबे के तार की लम्बाई ठीक-ठाक तरीके से कम करने पर भी विचलन बढ़ जाता है - यहाँ पर तर्क यह दिया गया कि बाकी सभी कारकों के न बदलने की स्थिति में तार की लम्बाई कम करने से उसका प्रतिरोध भी कम हो जाएगा और तार में बहने वाले करंट का मान बढ़ जाएगा।
5. करंट की दिशा बदलने पर विचलन की दिशा भी बदल जाती है।

ध्यान दें कि इस प्रयोग में चुम्बकीय क्षेत्र के मान और अलग-अलग कारकों के साथ इसके सम्बन्ध को केवल गुणात्मक तरीके से ही समझने की कोशिश की गई थी। आप चाहें तो समय लगाकर अपनी कक्षा में थोड़ा-बहुत मात्रात्मक विश्लेषण भी करवा सकते हैं।
इसके बाद सवाल उठाया गया कि इसी ताँबे के तार को अगर एक छल्ले के रूप में मोड़ दिया जाए तब भी क्या उसके इर्द-गिर्द एक चुम्बकीय क्षेत्र मिलेगा? इस सवाल पर भागीदार बहुत स्पष्ट नहीं थे तो यह तय हुआ कि इसे करके देखा जाए। सबने अपने-अपने तार के अलग-अलग व्यास के छल्ले बनाए और दोनों सिरों से क्लिप जोड़कर तार में उतना ही करंट प्रवाहित कराया। ऐसा पाया गया कि छल्ले के रूप में कर देने पर अगर चुम्बकीय सुई को छल्ले के केन्द्र पर रख दिया जाए तो उतना ही विचलन आता है जितना उसे तार से छल्ले की त्रिज्या बराबर दूरी पर रखने पर मिला था। और मज़ेदार यह था कि यहाँ भी विचलन उन्हीं नियमों के अनुसार काम कर रहा था जैसा कि तार को सीधा रखने पर। जैसे कि - उस छल्ले के केन्द्र से गुज़रने वाली रेखा पर चुम्बकीय सुई को छल्ले के तल के लम्बवत रखने पर विचलन सबसे ज़्यादा मिलता है, आदि (चित्र-3)। इससे यह निकला कि चाहे तार को सीधा रखें या छोटा करके एक छल्ले का रूप दे दें, उससे पैदा होने वाले चुम्बकीय क्षेत्र पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता।

विद्युत धारा से चुम्बकत्व
इसके तुरन्त बाद सोलेनोइड की अवधारणा पर बात हुई। कुछ पहले से तैयार सोलेनोइड में करंट प्रवाहित करके सब ने समूहों में सोलेनोइड द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र के दोनों ध्रुवों को भी पहचाना। यह भी चर्चा हुई कि अगर करंट की दिशा बदल दी जाए तो क्या सोलेनोइड के ध्रुव भी बदल जाएँगे और उससे पैदा होने वाले चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा बदल जाएगी। शिक्षकों ने इसे स्वयं करके देखा और पाया कि ऐसा ही होता है। इस पर यह सवाल भी आया कि अगर सोलेनोइड में करंट बहाने पर उसका खुद का एक चुम्बकीय क्षेत्र बनता है तो जब सोलेनोइड के पास एक और चुम्बक लेकर आएँ तो दो चुम्बकों के बीच आकर्षण-प्रतिकर्षण बल भी महसूस होने चाहिए। बस देर क्या थी, सभी समूहों में एक-एक चुम्बक बाँट दिया गया और शिक्षकों ने अपनी इस परिकल्पना को भी जाँच कर देखा।

इसी बात को अब दूसरी तरह से पूछा गया कि अपने उस साधारण से दिखने वाले ताँबे के तार में भी तो करंट प्रवाहित करने पर विचलन दिखा था, वह भी तो एक चुम्बकीय क्षेत्र बना रहा था तो क्या वहाँ पर भी चुम्बक ले जाने पर हमें चुम्बकीय बल महसूस होगा? फटाफट पुराना वाला सेटअप फिर से बनाया गया पर दुर्भाग्य देखिए कि इस बार ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया। चर्चा में आया कि सोलेनोइड में बना चुम्बकीय क्षेत्र काफी बलवती था और तार तो सोलेनोइड के महज़ एक छल्ले की तरह है, इसलिए उसका चुम्बकीय प्रभाव काफी कम है। इसे ठीक से देखने के लिए हमने हाई-पॉवर चुम्बकों का इस्तेमाल किया और तार को आसानी से हिलने-डुलने के लिए दो धागों की सहायता से स्वत्रंतापूर्वक एक मेज़ से लटका दिया (चित्र-4)। इस बार सभी ने तार को एक खास दिशा में विचलित होते हुए पाया। इसका मतलब साफ था कि तार पर एक बल लग रहा था। करंट की दिशा बदलने या चुम्बक के ध्रुव बदलने पर इस बल की दिशा बदली हुई पाई गई। इस अवसर पर फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियम पर भी थोड़ी बात हुई कि अगर करंट की दिशा और बाहरी चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा पता हो तो तार पर लगने वाले बल की दिशा के बारे में क्या कह सकते हैं।

चर्चा को थोड़ा और बढ़ाते हुए विद्युत मोटर के सिद्धान्त पर बातचीत हुई कि कैसे एक चुम्बकीय क्षेत्र में रखे आयताकार छल्ले में करंट प्रवाहित करने पर छल्ले के दोनों सिरों पर लगने वाले बल उसे घुमाने लग जाते हैं। ब्लैकबोर्ड पर एक चित्र की सहायता से एक आयताकार छल्ले की विभिन्न भुजाओं पर लगने वाले बलों का विश्लेषण किया गया (चित्र-5.1)। इसके बाद सभी को उस सिद्धान्त का उपयोग करके अपनी-अपनी मोटर बनाने को कहा गया। मोटर का बनना और उस छल्ले को घूमते हुए देखना, सभी के लिए काफी कौतूहल भरा था (चित्र-5.2)।

विद्युत और चुम्बकत्व मौसेरे भाई
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते चूँकि समय काफी हो चला था, इसलिए कहानी को थोड़ा और आगे बढ़ाते हुए यह बताया गया कि 1823 में विद्युत चुम्बक बना, 1831 में उसके डिज़ाइन में कुछ सुधार हुए। विद्युत टेलीग्राफ बना, विद्युत मोटर बनी और न जाने क्या-क्या। अगले दस-एक साल विद्युत के चुम्बकीय प्रभाव का उपयोग करके जहाँ एक ओर नई-नई चीज़ें बनाने की कोशिश चल रही थी, वहीं दूसरी ओर फैराडे किन्हीं और ही सवालों में उलझे हुए थे। उन्होंने पाया कि विद्युत और चुम्बकत्व के बीच का रिश्ता स्थिर (static) नहीं है और ऐसा वे इसलिए कह पाए क्योंकि उन्होंने देखा कि जिस तरह करंट के बहने से चुम्बकीय क्षेत्र पैदा होता है, उसी तरह चुम्बकीय क्षेत्र बदलने से भी करंट पैदा होता है। इसे ही हम विद्युत-चुम्बकीय प्रेरण (induction) कहते हैं। यह बात इसलिए बहुत ज़रूरी हो जाती है क्योंकि इसका मतलब था कि किसी प्रकार से चुम्बकीय क्षेत्र को बदलकर (चाहे बाहर से कोई बल लगाकर या किसी अन्य तरीके से कुछ यांत्रिक कार्य करके) करंट पैदा किया जा सकता था।


इसके बाद तो उद्योग जगत ने इस सिद्धान्त का खूब इस्तेमाल किया। हाल के नब्बे के दशक में जिस प्रकार आईटी सेक्टर में एक बाढ़-सी आई थी, ठीक उसी प्रकार की बाढ़ उस समय इलेक्ट्रिकल इंडस्ट्री में आई। हर कोई इन सरल-से सिद्धान्तों का इस्तेमाल करके कुछ-न-कुछ नया बना रहा था। 1867 में डायनमो बना, उसके बाद यातायात में विद्युत वितरण मशीनें, टेलीग्राफ, टेलीफोन आदि आदि। खास बात यह थी कि कुछ गिने-चुने सिद्धान्तों का प्रयोग करते हुए अनगिनत व्यावहारिक उपयोग की चीज़ें इस उद्योग ने दीं। यह इतिहास में पहला उदाहरण दिखता है, जब विशुद्ध रूप से विज्ञान के प्रयोगों और उससे जन्मे सिद्धान्तों को वृहद् स्तर पर इंडस्ट्री के रूप में बदलते हुए देखा गया। विज्ञान, इंजीनियरिंग की ओर बढ़ा और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग नाम के विषय की नींव पड़ी।

अब फैराडे द्वारा किए गए प्रयोगों को कुछ सरलीकृत रूप में समूह को भी करके देखना था, पर समय की कमी के चलते यह तय हुआ कि इससे सम्बन्धित कम-से-कम दो प्रयोग तो कर ही लिए जाएँ -
1. एक हाई-पॉवर चुम्बक को तेज़ी से किसी सोलेनोइड के पास और दूर ले जाने पर क्या सोलेनोइड में कुछ करंट बहता है?
2. इसी सिद्धान्त पर आधारित डायनमो बना कर देखा जाए।

पहले प्रयोग के लिए समूहों में पहले से ही मौजूद सोलेनोइड से एक-एक डिजिटल एमीटर जोड़ दिया गया और अलग-अलग चुम्बकों को अलग-अलग वेग के साथ आगे-पीछे किया गया (चित्र-6)। ऐसा पाया गया कि कमज़ोर चुम्बकों को काफी तेज़ी से आगे-पीछे करने से एमीटर में कोई रीडिंग नहीं आती है। पर अगर एक हाई-पॉवर चुम्बक को तेज़ी से आगे-पीछे किया जाए तो एमीटर में कुछ रीडिंग दिखाई देती है जो इस बात का संकेत है कि सोलेनोइड में करंट का प्रवाह हुआ है। अगर पास लाने पर करंट का मान धनात्मक है तो दूर ले जाने पर मान ऋणात्मक आता है।

डायनमो से एल.ई.डी. जलाना
आगे इसके स्पष्टीकरण में न जाते हुए शिक्षकों को सत्र की समाप्ति से पहले एक डायनमो बनाकर देखना अधिक ज़रूरी लगा, पर चूँकि डायनमो का जो डिज़ाइन हमने सोचा था, उसके लिए एक काफी अधिक छल्ले वाली कॉइल की ज़रूरत थी। इसे एक प्रदर्शन के रूप में ही किया जाना तय हुआ। हमने कॉइल को एक जगह पर रखकर उसके दोनों सिरों से एक एल.ई.डी. को जोड़ दिया और एक हाई-पॉवर चुम्बक को काफी तेज़ी से ऊपर-नीचे किया गया (चित्र-7)। सभी ने देखा कि एल.ई.डी. काफी जल्दी-जल्दी जलती-बुझती है।
पता करें कि जब सोलेनोइड के अक्ष पर चुम्बक को आगे-पीछे करने पर उससे जुड़े एमीटर में धनात्मक और ऋणात्मक, दोनों तरह की रीडिंग आ रही थीं अर्थात् बारी-बारी से दोनों दिशाओं में करंट बह रहा था, तो यहाँ उसकी जगह एल.ई.डी. लगाने पर वह लगातार जलने की बजाय जल-बुझ क्यों रही थी?
इस बात पर भी ध्यान दें कि किसी-किसी डायनमो में चुम्बक को स्थिर रखकर कॉइल को घुमाया जाता है और कभी-कभी कॉइल को स्थिर रखकर चुम्बक को। महत्त्वपूर्ण यह है कि कॉइल से गुज़रने वाला चुम्बकीय क्षेत्र बदलना चाहिए और जितनी तेज़ी से यह चुम्बकीय क्षेत्र बदलता है, उतना ही अधिक करंट कॉइल में पैदा होता है।

कुछ निष्कर्ष
इस डेमोंस्ट्रेशन के साथ ही सत्र समाप्त हुआ। इस पूरे सत्र में विद्युत और चुम्बक के आपसी रिश्ते के अलावा विज्ञान विषय के बारे में जिन बातों पर अलग-अलग समय पर ज़ोर दिया गया, उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं -
1. विज्ञान का एक लम्बा इतिहास है। वह कुछ गिने-चुने जीनियस लोगों का ही किया-धरा नहीं है, कई लोगों के छोटे-छोटे योगदान जोड़कर ही कुछ महत्व की बात उभरती है।
2. अचानक से दिखने वाली खोजें उतनी भी अचानक नहीं होतीं, जितनी वे प्रतीत होती हैं, जैसे - ओर्स्टेड की खोज के पहले उन्हीं सवालों से जूझते हुए उनका 13 साल का काम था।
3. विज्ञान किसी अलग दुनिया में नहीं हो रहा होता है। दुनिया में चल रही तमाम प्रक्रियाओं, विचारों आदि का भी असर कहीं-न-कहीं विज्ञान पर पड़ता है, जैसे - कान्त के दर्शन का असर ओर्स्टेड द्वारा शोध के लिए चुने गए प्रश्नों पर।
ऐतिहासिक रूप से देखने पर विज्ञान की प्रकृति के बारे में ये जो बातें उभर रही हैं, ये कभी नहीं उभरतीं अगर इस विषय को पारम्परिक तरीके से ही करवाया गया होता। इस नए तरीके से करवाने से शिक्षकों को मज़ा तो आया ही, थोड़ा-बहुत इस विषय की महत्ता और उसके सन्दर्भ को समझने का भी एक मौका मिला। आपकी इस बारे में क्या राय है, हमें पत्र भेजकर ज़रूर बताएँ।


हिमांशु श्रीवास्तव: होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजूकेशन, मुम्बई से पीएच.डी. कर रहे हैं। इसके पहले पाँच साल तक एकलव्य के विज्ञान समूह के साथ इन्दौर में काम किया।
फोटोग्राफ: हिमांशु एवं हाई स्कूल विज्ञान समूह, इन्दौर एकलव्य।