किशोर पंवार [Hindi PDF, 232 kB]

जीव विज्ञान में एक प्रमुख विचार जैव विकास का है जिसे काफी ज़ोर-शोर से चार्ल्स डार्विन ने प्रस्तुत किया था। जीवों का क्रमिक विकास हुआ और यह प्रक्रिया आज भी जारी है। यह बात लगभग वैज्ञानिक जगत में सर्वमान्य है। बहुत-से उदाहरण इस विचार के प्रमाण में प्रस्तुत किए गए हैं। प्रमाण स्वरूप कुछ कड़ियाँ भी मिली हैं जैसे सरीसृप से पक्षियों के विकास की कड़ी आर्कियोप्टेरिक्स के जीवाश्म की खोज। आज पाए जाने वाले कुछ जीव भी ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। परन्तु ऐसा कम ही होता है कि विकास होता दिखाई दे। और वह भी दो तरफा। गहरे समुद्र से हाल ही में केलिफोर्निया विश्व-विद्यालय के जोनाथन ज़ेहर ने एक ऐसे जीव का पता लगाया है जो दूसरे जीव का अभिन्न हिस्सा बनने की राह पर है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह जीव अन्त:सहजीवी (endosymbiont) बनने चला है।

यह है एक सायनोबैक्टीरिया। इसका प्रस्तावित नाम है केंडीडेटस एटेलोसयनोबैक्टीरियम थैलेसा। नाम ज़रा कठिन है, हो सकता है बाद में थोड़ा सरल हो जाए। अभी ट्रायनोमियल है (नाम के तीन भाग हैं), तय होने पर बायनोमियल हो जाएगा (सिर्फ दो भाग - स्पीशीज़ व जीनस रह जाएँगे)। यह एक विशिष्ट प्रकार का अनूठा जीव है। इसका जीनोम बताता है कि उसमें पानी से नाइट्रोजन लेकर उसे उपयोगी अमोनिया में बदलने की क्षमता है। गौरतलब है कि नाइट्रोजन का उपयोग अन्य जीव उसके तत्व-रूप में नहीं कर सकते। उसका अमोनिया या नाइट्रेट में बदलना ज़रूरी होता है। ऐसा ही यह जीव करता है। परन्तु एक चौंकाने वाली बात यह है कि इस सायनोबैक्टीरिया में फोटोसिंथेसिस के लिए ज़िम्मेदार जीन नहीं हैं। यानी यह जीव प्रकाश संश्लेषण की अपनी मूलभूत क्षमता खो चुका है। यह विरोधाभास ही है कि किसी सायनोबैक्टीरिया को अपने पोषण के लिए किसी दूसरे जीव पर निर्भर रहना पड़े।

यह कभी एक स्वतंत्र जीव था, इसका पता लगाना कोई आसान काम न था, ऐसा कहना है जोनाथन जे़हर का। दरअसल, यह एक सूक्ष्म शैवाल पर निर्भर हो चुका है। उसका नाम है प्रिम्नेसियोफाइट। दोनों साथ-साथ रहते हैं। सायनोबैक्टीरिया और शैवाल की यह शादी कई मायनों से विचारोत्तेजक है। जीव विकास की दृष्टि से यह एक ऐसा उदाहरण हो सकता कि एक सायनोबैक्टीरिया (प्रोकेरियॉट) एक शैवाल (यूकेरियॉट) का कोशिकांग बनने जा रहा है। दोनों स्वतंत्र जीवों के बीच यह सम्बन्ध एक बहुत बड़ा कदम है। जे़हर ने प्रयोगों के माध्यम से यह पता लगाया कि यह सायनोबैक्टीरिया शैवाल के साथ उसकी कोशिका भित्ति के सूक्ष्म गड़्ढों में छिपा रहता है। और कोशिका के अलग होने (सेल सॉर्टिंग) के समय भी उससे जुड़ा रहता है।

इस घटना को पूरी तरह सही ढंग से समझने के लिए बेहतर होगा कि हम कुछ शब्दों के मायने जान लें जैसे कोशिका, कोशिकांग, बैक्टीरिया, सायनोबैक्टीरिया और शैवाल आदि।

कोशिका और कोशिकांग
जैसा कि हम जानते हैं कि सभी जीवों का शरीर छोटी-छोटी इकाइयों का बना होता है। ये इकाइयाँ ही कोशिकाएँ कहलाती हैं। पौधे और जन्तु, सभी तरह-तरह की कोशिकाओं के बने रहते हैं। कोशिकाएँ दो तरह की होती हैं - एक प्रोकेरियॉटिक यानी सरल प्रकार की जिनमें सत्यकेन्द्रक, क्लोरोप्लास्ट और मायटोकॉण्ड्रिया नहीं पाए जाते। कोशिका के अन्दर जो अत्यन्त सूक्ष्म जीवित रचनाएँ पाई जाती हैं वे कोशिका के अंग यानी कोशिकांग कहलाते हैं। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि हमारा शरीर मान लें एक सम्पूर्ण कोशिका है तो इसके अन्दर पाए जाने वाले लीवर, दिल, फेफड़े और किडनी शरीर के अंग यानी कोशिकांग हुए। जिस प्रकार लीवर, दिल और किडनी मिलजुलकर काम करते हैं जिससे शरीर चलता है, ठीक उसी प्रकार कोशिका के अन्दर पाए जाने वाले कोशिकांग यानी क्लोरोप्लास्ट, मायटोकॉण्ड्रिया और केन्द्रक आदि के मिलजुलकर काम करने से ही कोशिका का अस्तित्व होता है और वह जीवित रहती है।

बैक्टीरिया और सायनोबैक्टीरिया
बैक्टीरिया अर्थात् ऐसे जीवाणु जो एक कोशिका से बने सरल प्रकार के प्रोकेरियॉटिक यानी सूक्ष्म जीव हैं। इन्हें आँखों से नहीं देखा जा सकता। ये स्वपोषी, मृतजीवी या परजीवी प्रकार के होते हैं। इनमें सत्यकेन्द्रक, क्लोरोप्लास्ट और मायटोकॉण्ड्रिया नहीं पाए जाते। कई बैक्टीरिया बीमारी भी फैलाते हैं और कुछ दही भी जमाते हैं, जैसे लेक्टोबेसीलस।

सायनोबैक्टीरिया भी एक तरह के बैक्टीरिया ही हैं। फर्क यह है कि ये सभी नीले-हरे रंग के होते हैं। इसी कारण उन्हें नीले-हरे बैक्टीरिया भी कहा जाता है। ये सभी स्वपोषी होते हैं। इन्हें पूर्व में नीली-हरी शैवाल कहा जाता था परन्तु कोशिका रचना के विस्तार में जाने पर जब पता चला कि ये बैक्टीरिया की तरह प्रोकेरियॉटिक हैं न कि शैवाल की तरह यूकेरियॉटिक, तब से इन्हें सायनोबैक्टीरिया कहा जाने लगा है। ये नम भूमि, स्वच्छ पानी एवं समुद्री जल में पाए जाते हैं। कुछ सायनोबैक्टीरिया में हवा की नाइट्रोजन को अमोनिया में बदलने की क्षमता होती है। यह क्षमता कुछ बैक्टीरिया के अलावा अन्य विकसित जीवों में नहीं पाई जाती है। अपनी नाइट्रोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिए हम सभी इन पर आश्रित हैं।

शैवाल-काई
शैवाल यानी काई। कुछ शैवाल चिकने होते हैं। नदी तालाबों में जिस पत्थर पर आपका पाँव कभी फिसला था उस पर ये शैवाल ही लगे रहते हैं। इन्हें सबसे सरल जलीय यूकेरियॉटिक जीव कह सकते हैं। ये नम ज़मीन और चट्टानों पर भी उगते हैं। ये नदी-तालाबों के पानी और समुद्री पानी, दोनों में मिलते हैं। कुछ समुद्री शैवाल तो कई मीटर लम्बे होते हैं। शैवाल एककोशीय और बहुकोशीय, दोनों तरह के होते हैं। इनका शरीर थैलस कहलाता है। ये स्वपोषी हैं जो हरे, पीले, लाल व भूरे रंगों में पाए जाते हैं। ये यूकेरियॉटिक जीव हैं अर्थात् इनमें सत्यकेन्द्रक, क्लोरोप्लास्ट, मायटो-कॉण्ड्रिया, रायबोसोम और रिक्तिका जैसे सभी कोशिकांग पाए जाते हैं।

सभी जीव कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और वसा तथा कुछ खनिज लवणों से मिलकर बने होते हैं। जीवों की कोशिका झिल्ली भी लिपिड और प्रोटीन की बनी होती हैं। जीव द्रव्य में भी मुख्यत: प्रोटीन होते हैं। पौधे ऊर्जा प्राप्ति के लिए हवा, पानी और मिट्टी से प्राप्त पदार्थों की सहायता से प्रकाश संश्लेषण द्वारा कार्बोहाइड्रेट बना लेते हैं। परन्तु प्रोटीन बनाने के लिए कुछ ज़रूरी इन्तज़ामात करने पड़ते हैं। प्रोटीन बनाने के लिए नाइट्रोजन अमोनिया के रूप में ज़रूरी होती है। और नाइट्रोजन से अमोनिया बनाने की क्षमता प्रकृति ने कुछ बैक्टीरिया को ही बख्शी है - लेग्यूम (फलीदार) पौधों की जड़ों में सहजीवी के रूप में रहने वाले राइज़ोबियम बैक्टीरिया और स्वतंत्र या सहजीवी के रूप में रहने वाले सायनोबैक्टीरिया। अब यदि आपको नाइट्रोजन चाहिए तो इन दोनों से दोस्ती करनी ही होगी। इसी दोस्ती का नाम है सहजीवन (symbiosis)। इसमें जीव या तो मेज़बान के शरीर के बाहर रहता है या अन्दर (endosymbiont)। क्लोरोप्लास्ट और मायटोकॉण्ड्रिया जीवों के अन्त:सहजीवी के उदाहरण हैं।

आन्तरिक सहजीवी सिद्धान्त
बहुत पहले एंड्रीज़ शिम्पर ने 1883 में यह विचार रखा था कि पेड़-पौधों की हरी कोशिकाओं में पाया जाने वाला क्लोरोप्लास्ट अन्त:सहजीवी का एक उदाहरण है। इस परिकल्पना के अनुसार क्लोरोप्लास्ट उन नीले-हरे बैक्टीरिया की सन्ताने हैं जो कालान्तर में किसी परपोषी जीव की कोशिका द्वारा कोशिका भक्षण (engulfing) द्वारा अपनी कोशिका के अन्दर ले लिए गए थे। और अब वहाँ आन्तरिक सहजीवी के रूप में निवास कर रहे है।

समय के साथ ये स्वतंत्र रूप से रहने की क्षमता खो बैठे क्योंकि इनकी आनुवंशिक सूचनाओं का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे मेज़बान कोशिका के केन्द्रक में चला गया। नीली-हरी शैवाल और क्लोरोप्लास्ट द्वारा निर्मित प्रोटीन  ाृँखला में समानता के आधार पर भी इस परिकल्पना की पुष्टि होती है।

एक प्रमाण और है, इनकी आन्तरिक भित्ती जो प्रोटोक्लोरोफाइट की प्लाज़्मा झिल्ली से मिलती है परन्तु बाहरी झिल्ली मेज़बान कोशिका की भित्ति से। ऐसा तभी सम्भव है जब इनका भक्षण इनवेजिनेशन (देखें चित्र) द्वारा हुआ हो। कोशिका के अन्दर रहने के बावजूद क्लोरोप्लास्ट में स्वयंविभाजन की क्षमता होती है। ये स्वयं कोशिका से अलग अपने एटीपी के अणुओं का निर्माण करते हैं यानी अपनी ऊर्जा स्वयं बनाते हैं। क्लोरोप्लास्ट का स्वतंत्र आनुवंशिक पदार्थ यानी डीएनए होता है। इनकी अपनी प्रोटीन निर्माण व्यवस्था है। एक सामान्य कोशिका की तरह यानी कोशिका के अन्दर रहते हुए भी ये अपना अलग स्वतंत्र अस्तित्व बनाए हुए हैं, केन्द्र राज्य सम्बन्धों की तरह।
क्लोरोप्लास्ट के जीनोम यानी प्लास्टोम (इनकी अपनी आनुवंशिक सामग्री अर्थात् डीएनए) की आनुवंशिक भूमिका पर दुनिया की कई प्रयोग-शालाओं में काम चल रहा है। मेज़बान कोशिका से अलग किए गए क्लोरोप्लास्ट अपना आरएनए बनाते पाए गए हैं जो सामान्यत: कोशिका के केन्द्रक की उपस्थिति में ही सम्भव होता है। प्लास्टोम के बिना नए क्लोरोप्लास्ट नहीं बन सकते हैं। यह इनकी आंशिक स्वायत्तता का प्रमाण है।

क्लोरोप्लास्ट और मायटोकॉण्ड्रिया के रायबोसोम का प्रोटीन निर्माण केन्द्रक-रहित बैक्टीरिया की तरह क्लोरएम्फेनिकॉल एंटीबायोटिक से रुक जाता है जबकि इस एंटीबायोटिक का उस कोशिका की प्रोटीन निर्माण प्रक्रिया पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। यह इस बात का एक और प्रमाण है कि ये प्रोकेरियॉटिक बेक्टीरिया से ज़्यादा मिलते हैं बजाय उस यूकेरियॉटिक कोशिका के जिसके अन्दर ये आज कैद हैं।

जीव के अन्दर जीव
क्लोरोप्लास्ट और मायटोकॉण्ड्रिया के आन्तरिक सहजीवी उत्पत्ति के सिद्धान्त की सम्भावना को इस बात से और बल मिलता है कि पैरामीशियम जैसे एककोशीय जीव की काया के अन्दर कई बैक्टीरिया पाए जाते हैं। इसी तरह नीले-हरे बैक्टीरिया सामान्य रूप से कई जन्तुओं के और यहाँ तक कि पौधों के अन्दर आज भी मिलते हैं। प्रकाश-संश्लेषी बैक्टीरिया आन्तरिक सहजीवी हों तो मेज़बान कोशिका में प्रकाश ऊर्जा का उपयोग कर कई प्रकार के नए रसायन बनाने की क्षमता आ जाती है। दूसरी तरफ इन बैक्टीरिया को एक जैसा अनुकूल सुरक्षित वातावरण मिल जाता है। जैव-विकास के सन्दर्भ में यह स्वीकारा जा सकता है कि इस प्रकार का सहयोगी सम्बन्ध ऐसी परिस्थितियों में विकसित हुआ होगा जहाँ अन्दर मेहमान को थोड़ी स्वायत्तता होगी। बाकि विशिष्ट रसायनों के लिए वह मेज़बान कोशिका के केन्द्रक और जीवद्रव्य पर निर्भर रहता होगा।

क्लोरोप्लास्ट और सायनेल्स
कई जीव-जन्तु अपने शरीर में क्लोरोप्लास्ट जैसी रचनाएँ पाले हुए हैं। इनकी रचना नीले-हरे बैक्टीरिया से मिलती है और इन्हें सायनेल्स कहा जाता है। सायनोफोरा पेराडोक्सा के शरीर में 2-4 सायनेल्स मिलते हैं। इन सायनेल्स में बने भोज्य पदार्थों का स्थानान्तरण होकर मेज़बान कोशिका को मिलना भी सिद्ध किया जा चुका है। मेज़बान जीव और सायनेल्स का यह सम्बन्ध अविकल्पी (obligate) प्रकार का लगता है क्योंकि इन्हें अलग करने पर दोनों में से कोई एक भी जीवित नहीं रहता। अत: सायनेल्स को अन्य जीवों में पाए जाने वाले क्लोरोप्लास्ट के समान माना जा सकता है।

उपरोक्त प्रमाण यही दर्शाते हैं कि क्लोरोप्लास्ट और मायटोकॉण्ड्रिया की उत्पत्ति शायद कभी स्वतंत्र जीवी केन्द्रकहीन (प्रोकेरियॉटिक बैक्टीरिया) जीवों के रूप में हुई थी जिन्होंने कालान्तर में किसी तरह परपोषी कोशिकाओं के अन्दर शरण ले ली। ऐसी कोशिकाएँ केन्द्रक-युक्त जीवों की पूर्वज थीं। अन्दर समाहित इन छोटी-छोटी कोशिकाओं के पास ऊर्जा संग्रह करने और उसे परिवर्तित करने की विशिष्ट क्षमता थी। कालान्तर में ये महत्वपूर्ण लक्षण इन्होंने बड़ी कोशिका (मेज़बान) को दे दिए और अब इन कोशिकाओं में कोशिकांग के रूप में रहते हैं।

एक और उदाहरण - हेटिना
क्लोरोप्लास्ट के आन्तरिक सहजीवी होने की एक मिसाल मिली है जो उक्त सिद्धान्त की पुष्टी करती है। जापान के ट्सुकुबा विश्वविद्यालय के नोरिको ओकामोटो और इसाओ इनुए ने हाल ही में एक ऐसा जीव खोजा है जो ऐसे सहजीवी को हर पीढ़ी में अंगीकार करता है। इसका नाम है हेटिना। इसमें सहजीवी के रूप में एक शैवाल पाई जाती है। साइंस पत्रिका में छपे एक पर्चे में इन्होंने बताया कि जब हेटिना विकसित होता है तो बनने वाली एक कोशिका तो शैवाल-सहित होती है परन्तु दूसरी शैवाल-रहित। मज़ेदार बात यह है कि शैवाल-रहित हेटिना के शरीर पर भोजन ग्रहण करने का एक अंग बनता है जो अपने पर्यावरण से एक नई शैवाल अपने अन्दर ले लेता है जो सहजीवी के रूप में उसके साथ रहती है। आन्तरिक सहजीवी सिद्धान्त का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है?

ताज़ा मिसाल: एटेलोसायनोबैक्टीरिया
तो अब तक हम जान चुके हैं कि केंडीडेटस एटेलोसायनोबैक्टीरिया थैलेसा, प्रिम्नेेसियोफाइट शैवाल का कोशिकांग होने जा रहा है। इसने सब पूर्व तैयारी कर ली है जैसे अपने प्रकाश संश्लेषण की क्षमताओं को खो देना। यही बात इसे पूर्व में अन्त:सहजीवी बन चुके सायनेल्स और क्लोरोप्लास्ट से अलग करती है क्योंकि वर्तमान में क्लोरोप्लास्ट अपनी मेज़बान कोशिका के लिए भोजन बनाते हैं। हालाँकि, केंडीडेटस की तरह नाइट्रोजन का स्थिरीकरण नहीं करते। क्लोरोप्लास्ट ऐसे अन्त:सहजीवी हैं जो पौधों की कोशिकाओं में रहते हैं और जिनकी वजह से पूरी दुनिया के पौधे हरे दिखाई देते हैं। क्लोरोप्लास्ट अपना भोजन खुद बनाते हैं और हमारे जैसे अन्य परपोषियों का भरण-पोषण करते हैं। इस सन्दर्भ में जे़हर अन्दाज़ा लगाते हैं कि हो सकता है कि कोई अनखोजी शैवाल एटेलोसायनोबैक्टीरिया थैलेसा जैसे किसी नाइट्रोजन स्थिरीकारी जीव को पूरी तरह से अपने शरीर में अंगीकार कर चुकी हो। यदि ऐसी किसी शैवाल का अस्तित्व है तो यह ऐसा पहला जीव होगा जो नाइट्रोजन के लिए किसी दूसरे बाहरी स्रोत पर निर्भर नहीं होगा। यदि ऐसा हो तो यह सम्भव हो सकता है कि भविष्य में ऐसी फसल भी तैयार कर भी पाएँ जो अपनी उर्वरक बनाने में स्वयं सक्षम हो। जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से यह मुश्किल नहीं है। ऐसा होने पर हमें महँगे और पर्यावरण बिगाड़ने वाले कृत्रिम नाइट्रोजनी उर्वरकों से मुक्ति मिलेगी। हालाँकि, कुछ पौधों जैसे लेग्यूम पौधों में यह क्षमता आज भी है जिससे वे अपनी रायज़ोबियम बैक्टीरिया वाली विशेष जड़-ग्रन्थियों की मदद सेनाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तित कर रहे हैं। परन्तु इस सहयोगी सम्बन्ध के बीच सिगनलों का जो आदान-प्रदान होता है वह बहुत जटिल है। उन्हें समझना और कॉपी करना मुश्किल है।

परन्तु गहरे समुद्री पानी में मिले इस सायनोबैक्टीरिया ने उम्मीद की किरणें जगाई हैं। यह तंत्र जड़-ग्रन्थियों जितना जटिल नहीं है - इसे समझना और कॉपी करना आसान होगा। यदि ऐसा सम्भव हो पाया तो बिना पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए दुनिया के लोगों का पेट भरना सम्भव होगा। यानी सस्टेनबल डेवलपमेंट की दिशा में एक कदम। अन्त में, इस पूरी खोज के प्रक्रम में मुझे सन्त कबीर का यह दोहा बार-बार याद आ रहा है -
जिन खोजा तिन पाइयाँ
गहरे पानी पैठ।


किशोर पंवार: होल्कर साइंस कॉलेज, इन्दौर में बीज तकनीकी विभाग के विभागाध्यक्ष और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक हैं। विज्ञान लेखन में गहरी रुचि।