लेखक:   आइज़ैक बैशेविस सिंगर
अनुवाद: पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा [Hindi PDF, 426 kB]

कहानी   
लेटशिन गाँव बिलकुल छोटा-सा था -- एक रेतीला बाज़ार जहाँ इस इलाके के किसान सप्ताह में एक बार मिलते थे। बाज़ार छोटी-छोटी झोपड़ियों से घिरा हुआ था; पुआल या काठ की पटियों वाली इनकी छतों पर जमी काई से वे हरी लगती थीं। चिमनियाँ यों लगतीं थीं मानो पतीले हों। झोपड़ियों के दरम्यान खेत थे, जहाँ उनके मालिक सब्ज़ियाँ उगाते या अपनी बकरियाँ चराते थे।

सबसे छोटी झोपड़ी में बेर्ल रहता था, अस्सी साल का आदमी, और उसकी बीवी जिसे सब बेर्लचा (बेर्ल की पत्नी) बुलाते थे। बूढ़ा बेर्ल उन यहूदियों में से था जिन्हें रूस में उनके गाँवों से खदेड़ दिया गया था और जो पोलैण्ड में आ बसे थे। दुआ पढ़ते समय उच्चारण में होने वाली उसकी गल्तियों का लेंटशिन में मज़ाक उड़ाया जाता था। बोलते समय वह ‘र’ की तीखी ध्वनि निकालता था। वह ठिगना था, चौड़े कन्धों वाला, और उसकी छोटी सफेद दाढ़ी थी। गर्मी हो या सर्दी वह भेड़ की खाल से बना टोप, रूई से भरी सूती जैकेट और भारी-भरकम जूते पहने रहता था। वह धीमे-धीमे चलता था, पैर घसीटता हुआ। उसका खेत आधे एकड़ का था; एक गाय, एक बकरी और कुछ मुर्गियाँ भी थीं।

दम्पत्ति का एक बेटा था, सैम्यूअल, जो चालीस बरस पहले अमरीका चला गया था। लेंटशिन में अफवाह थी कि वह वहाँ लखपति बन गया है। हर माह लेंटशिन का डाकिया बूढ़े बेर्ल के लिए एक मनी-ऑर्डर और एक चिट्ठी लाया करता था, ऐसी चिट्ठी जिसे कोई नहीं पढ़ पाता क्योंकि उसमें कई शब्द अँग्रेज़ी के होते थे। सैम्यूअल अपने माता-पिता को कितना पैसा भेजता था यह एक राज़ ही बना रहा। साल में तीन मर्तबे बेर्ल और उसकी बीवी पैदल चलकर ज़ैक्रोज़ाइम जाते और वहाँ मनी-ऑर्डरों को भुनाते। पर वे उन पैसों को इस्तेमाल करते कभी नज़र न आते। और करते भी भला किसलिए? सब्ज़ी के खेत, गाय और बकरी से उन की अधिकतर ज़रूरतें पूरी हो जाती थीं। इसके अलावा बेर्लचा मुर्गियाँ और अण्डे भी बेचती थी, जिससे रोटी के लिए आटा खरीदा जा सकता था।

किसी को भी यह जानने की इच्छा नहीं थी कि बेर्ल बेटे द्वारा भेजे गए पैसों को कहाँ रखता है। लेंटशिन में चोर-उचक्के नहीं थे। उनके झोंपड़े में एक ही कमरा था, जिसमें उनकी सारी जमा पूँजी समाई हुई थी: मेज़, माँस रखने का आला, दूध से बनी चीज़ों के लिए आला, दो बिस्तर और मिट्टी से बना अलाव। मुर्गियाँ या तो लकड़ी रखने के शेड में सोतीं, या सर्दियों में अलाव के पास ही एक दड़बे में। मौसम खराब होता तो बकरी को भी अन्दर ही पनाह मिलती। गाँव के ज़्यादा सम्पन्न किसानों के पास कैरोसीन लैम्प थे पर बेर्ल और उसकी पत्नी का इन नए उपकरणों में कोई विश्वास नहीं था। तेल के दिये और बाती में भला क्या कमी थी? बेर्लचा सिर्फ विश्राम दिवस के लिए दुकान से चर्बी से बनी तीन मोमबत्तियाँ खरीदती थी। गर्मियों में पति-पत्नी सूर्योदय पर उठते और मुर्गियों के सोने के साथ सो जाते। सर्दियों की लम्बी शामों को बेर्लचा अपने चर्खे पर सन कातती और बेर्ल उसके पास मौन बैठा रहता, उन लोगों की तरह जो विश्राम का मज़ा लेना जानते हैं।

कभी-कभार बेर्ल संध्या की प्रार्थना के बाद उपासना-भवन से लौटता तो पत्नी को दुनिया का हालचाल, नए-ताज़े समाचार सुनाता। वॉरसॉ में हड़ताल करने वाले माँग कर रहे हैं कि ज़ार अपनी गद्दी छोड़ दे। डॉ. हर्ज़ेल नामक धर्मद्रोही ने कहना शु डिग्री किया है कि यहूदियों को फिलिस्तीन में फिर से बस जाना चाहिए। बेर्लचा सुनती और अपना टोपीदार सिर हिलाती। उसका चेहरा पीलापन लिए था और पत्तागोभी के पत्तों के समान झुर्रीदार। उसकी आँखों के नीचे नीली-सी थैलियाँ थीं। वह आधी बहरी थी। बेर्ल को उससे कहा हर शब्द दोहराना पड़ता था। तब वह कहती, “बड़े शहरों में क्या-क्या नहीं होता!”

यहाँ लेंटशिन में रोज़मर्रा की सामान्य घटनाओं के अलावा कुछ भी नहीं होता था: कोई गाय बछड़ा जनती, युवा दम्पत्ति लिंगाग्रच्छेदन की रस्म की दावत देते, या किसी के यहाँ बेटी पैदा होती और कोई दावत न दी जाती। कभी-कभार किसी की मौत होती। लेंटशिन में कब्रगाह नहीं थी, सो शव को ज़ैक्रोज़ाइम ले जाना पड़ता। दरअसल लेंटशिन ऐसा गाँव बन चुका था जहाँ नौजवानों की संख्या बेहद कम थी। युवा लड़के ज़ैक्रोज़ाइम, नोवी ड्वॉर, वॉरसॉ और यदा-कदा संयुक्त राज्य अमरीका का रुख करते। सैम्यूअल के पत्रों की ही तरह उनके भी पत्र पढ़े नहीं जा सकते थे; उनकी यिद्दी भाषा उन देशों की भाषा में मिली होती जहाँ वे अब रह रहे थे। वे फोटो भेजते जिसमें पुरुष लम्बे-लम्बे टोप पहने होते और स्त्रियाँ ज़मीन्दारनियों की तरह शानदार कपड़े।

बेर्ल और बेर्लचा को भी ऐसी ही फोटुएँ मिला करती थीं। पर दोनों की आँखें कमज़ोर हो चली थीं और चश्मा दोनों में से किसी के पास न था। बमुश्किल वे चित्र उन्हें नज़र आते। सैम्यूअल के बेटे-बेटियाँ थीं जिनके ईसाई नाम थे -- और नाती-पोते भी, जो स्वयं विवाहित थे और बाल-बच्चेदार। उनके नाम इतने विचित्र थे कि बेर्ल और बेर्लचा को कभी याद नहीं रहते थे। पर नामों से फर्क भी क्या पड़ता है? अमरीका बहुत दूर था, समुन्दर के उस पार, दुनिया के छोर पर। तालमुद1 के एक शिक्षक ने, जो लेंटशिन आया था, बताया था कि अमरीकी लोग सिर नीचे और पैर ऊपर कर चलते हैं। बेर्ल और बेर्लचा को यह बात समझ न आई थी। ऐसा कैसे सम्भव है? पर क्योंकि शिक्षक ने कहा था, तो सच ही होगा। बेर्लचा ने कुछ समय सोचा और फिर बोली, “आदत तो किसी भी चीज़ की पड़ ही जाती है।”
और बात वहीं रह गई। बहुत सोचने-विचारने से -- खुदा खैर करे -- इन्सान पगला सकता है।

एक शुक्रवार की सुबह, जब बेर्लचा विश्राम दिवस की डबल रोटियों के लिए आटा गूँथ रही थी, दरवाज़ा खुला और एक कुलीन शख्स अन्दर घुस आया। वह इतना लम्बा था कि उसे दरवाज़े से झुककर घुसना पड़ा। उसने बीवर टोप पहन रखा था और उसके चोंगे के किनार खाल से सिले थे। उसके पीछे ज़ैक्रोज़ाइम का कोचवान चाज़केल था, जो चमड़े की दो अटैचियाँ लिए था, जिन पर पीतल के ताले थे। अचम्भित बेर्लचा आँखें फाड़ अजनबी को देखने लगी।

कुलीन व्यक्ति ने चारों ओर नज़र दौड़ाई और कोचवान से यिद्दी में बोला, “ये लो।” उसने जेब से चाँदी का रूबल निकाला और उसे थमाया। कोचवान ने पैसे लौटाने की कोशिश की, पर वह बोला, “तुम अब जा सकते हो।”
जब कोचवान ने किवाड़ बन्द किया तो वह कुलीन बोला, “माँ, मैं हूँ, तुम्हारा बेटा सैम्यूअल--सैम।”
बेर्लचा ने शब्द सुने और उसके पैर सुन्न पड़ गए। उसके हाथ, जिन पर आटा लगा हुआ था, बेजान हो गए। उस कुलीन पुरुष ने उसे छाती से लगाया, उसका माथा और दोनों गाल चूमे। बेर्लचा मुर्गी की तरह किटकिटाने लगी, “मेरा बेटा!” इसी पल बेर्ल लकड़ी के शेड से काठ की ढेरी लिए लौटा। उसके पीछे बकरी थी। जब उसने एक अनजान कुलीन इन्सान को अपनी बीवी को चूमते देखा तो बेर्ल ने लकड़ी पटक दी और बोला, “यह क्या हो रहा है?”

कुलीन व्यक्ति ने बेर्लचा को छोड़ दिया और बेर्ल को गले लगाया। “पिताजी!”
काफी देर तक बेर्ल कुछ बोल नहीं पाया। वह यिद्दी बाईबल में पढ़े पवित्र शब्द उच्चारना चाहता था, पर उसे कुछ भी याद न आया। आखिरकार उसने पूछा, “क्या तुम सैम्यूअल हो?”
“हाँ बापू, मैं सैम्यूअल ही हूँ।”
“खैर, खुदा तुम्हें शान्ति अदा करे।” बेर्ल ने बेटे का हाथ थाम लिया। उसे अब तक भरोसा नहीं हुआ था कि कहीं उसे बेवकूफ तो नहीं बनाया जा रहा। सैम्यूअल इतना लम्बा-चौड़ा नहीं था जितना यह आदमी नज़र आ रहा था, पर तब बेर्ल ने खुद को याद दिलाया कि घर छोड़ते समय सैम्यूअल सिर्फ पन्द्रह बरस का ही था। ज़रूर वह उस दूर देश में बढ़ गया होगा। बेर्ल ने पूछा, “तुमने हमें बताया क्यों नहीं कि तुम आने वाले हो?”
“मेरा तार नहीं मिला?” सैम्यूअल ने सवाल किया।
बेर्ल को पता न था कि तार किस बला का नाम है।
बेर्लचा ने हाथों से आटा झाड़, अपने बेटे को कलेजे से लगा लिया। उसने माँ को फिर से चूमा और पूछा, “माँ, क्या तुम लोगों को मेरा तार नहीं मिला?”
“क्या? अगर मैं यह दिन देखने ज़िन्दा बची रही, तो मैं अब खुशी से मर सकती हूँ,” बेर्लचा बोली। वह खुद ही अपने कहे पर अचम्भित थी। बेर्ल भी अचरज में था। यही तो वे शब्द थे जो उसने कहे होते, अगर वे उसे याद आ गए होते। कुछ समय बाद बेर्ल को होश आया और वह बोला, “पेश्या, तुम्हें शोरबे के साथ दुगनी मिठाई बनानी होगी।”
बेर्लचा को उसके असली नाम से बेर्ल ने पुकारा हो तब से सालों गुज़र चुके थे। वह जब भी उसे सम्बोधित करना चाहता तो कहता ‘सुनो’ या ‘मैंने कहा।’ सिर्फ नौजवान या बड़े शहरों के लोग ही अपनी पत्नियों को उनके नाम से पुकारते हैं। अब बेर्लचा रो पड़ी। उसकी आँखों से पीले आँसू बह चले और सब कुछ धुँधला गया। तब वह पुकार उठी, “आज शुक्रवार है -- मुझे विश्राम दिवस की तैयारी करनी है।” हाँ, उसे आटा गूँथना था और डबल रोटियों को सजाना था। ऐसे मेहमान के लिए उसे ढेर सारा शोरबा पकाना था। सर्दियों के दिन छोटे होते हैं और उसे जल्दी करनी होगी।

उसका बेटा उसकी चिन्ता समझ गया, क्योंकि वह बोला, “माँ, मैं तुम्हारी मदद करूँगा।”
बेर्लचा खिलखिलाकर हँसना चाहती थी, पर उसके मुँह से एक दबी-सी सिसकी भर निकली। “क्या कह रहे हो? खुदा ना करे!”
उस कुलीन पुरुष ने अपना चोंगा और जैकेट उतार दिए। वह अपनी वास्कट पहने रहा जिसमें ठोस सोने की घड़ी की चेन लटक रही थी। उसने अपनी आस्तीनें समेटीं और परात के पास आ गया। “माँ, मैं न्यू यॉर्क में कई सालों तक डबल रोटी बनाने का काम करता रहा हूँ,” उसने कहा, और वह आटा गूँथने लगा।
“क्या! तू तो मेरा लाड़ला बेटा है, जो मेरे मरने पर कदीश2 पढ़ेगा।” वह फूट-फूट कर रो पड़ी। उसकी पूरी ताकत चुक गई, और वह खटिया पर लुढ़क गई।
बेर्ल बोला, “औरतें हमेशा औरतें ही बनी रहेंगी।” और वह और लकड़ी लाने शेड में चला गया। बकरी अलाव के पास बैठ गई; वह आश्चर्य से इस अजनबी को घूरने लगी -- उसकी लम्बाई, उसके विचित्र कपड़े।
पड़ोसियों को इस बीच यह खुश खबर मिल गई थी कि बेर्ल का बेटा अमरीका से आ पहुँचा है और वे उसका स्वागत करने आए। औरतों ने बेर्लचा की विश्राम दिवस की तैयारी में मदद की। कुछ हँसीं, कुछ रोईं। कमरा यों ठसाठस भरा था मानो शादी-ब्याह का मौका हो। उन्होंने बेर्ल के बेटे से पूछा, “तो अमरीका में नया क्या है?” बेर्ल के बेटे ने जवाब दिया, “अमरीका ठीक ही है।”
“क्या यहूदी वहाँ कमा पाते हैं?”
“वहाँ तो काम के दिनों तक में लोग सफेद डबल रोटी खाते हैं।”
“क्या वे यहूदी बने रहते हैं?”
“मैं कोई ईसाई थोड़े ही हूँ।”

बेर्लचा ने जब मोमबत्तियों पर दुआ पढ़ दी तो बाप-बेटा सड़क पार स्थित छोटे-से प्रार्थना-भवन गए। अभी-अभी बर्फ गिरी थी। बेटा लम्बे-लम्बे डग भरने लगा, पर बेर्ल ने चेताया, “धीमे चलो।”
प्रार्थना-भवन में यहूदियों ने ‘आओ प्रशस्ति करें’ और ‘आओ मेरे दूल्हे राजा’ का पाठ किया। इस दौरान बाहर बर्फ पड़ती रही। प्रार्थना के बाद जब बेर्ल और सैम्यूअल पवित्र स्थल से निकले तो गाँव को पहचाना नहीं जा सकता था। सब कुछ बर्फ से ढका था। बस छतों के आकार और खिड़कियों से मोमबत्तियाँ दिख पड़ती थीं। सैम्यूअल बोला, “यहाँ कुछ भी नहीं बदला।”
बेर्लचा ने भरवाँ माछ, मुर्गी के सूप के साथ चावल, माँस और गाजर का शोरबा पकाया था। बेर्ल ने शराब के गिलास पर दुआ पढ़ी। परिवार खाने-पीने बैठा, और जब कुछ समय चुप्पी घिर आई तो झींगुरों की गुँजार सुनाई देने लगी। बेटे ने खूब बातें कीं, पर बेर्ल और बेर्लचा कुछ ही समझ पाए। उसकी यिद्दी भिन्न थी और उसमें विदेशी शब्द भरे थे।
अन्तिम दुआ के बाद सैम्यूअल ने पूछा, “पिताजी, उन पैसों का क्या किया जो मैंने भेजे थे?”
बेर्ल ने अपनी सफेद भौंहें चढ़ाईं। “यहीं हैं।”
“उन्हें बैंक में जमा नहीं करवाया?”
“लेंटशिन में कोई बैंक नहीं है।”
“तो फिर पैसे कहाँ रखते हो?”
बेर्ल हिचका। “विश्राम के दिन पैसों को हाथ लगाने की मनाही है, पर मैं तुम्हें दिखा सकता हूँ।” वह बिस्तर के पास उकड़ूँ बैठा और कुछ भारी चीज़ धकेलने लगा। एक जूता निकला। उसका मुँह भूसे से भरा था। बेर्ल ने भूसा हटाया और बेटे ने देखा कि जूता सोने के सिक्कों से भरा है। उसने जूता उठाया।
“पिताजी, यह तो एक खज़ाना है!” वह बोल उठा।

“हाँ।”
“आपने कुछ खर्चा क्यों नहीं?”
“किस चीज़ पर? खुदा की मेहरबानी से हमारे पास सब कुछ है।”
“तो कहीं घूमने क्यों नहीं गए?”
“कहाँ जाते? घर तो यहीं है ना?”
बेटा एक के बाद दूसरा सवाल पूछता गया, पर बेर्ल का जवाब एक ही था: उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं, कोई कमी नहीं। खेत, गाय, बकरी और मुर्गियाँ ज़रूरत का सब साज़ो-सामान मुहैया करवा देते हैं। बेटे ने कहा, “अगर चोरों को पता चला तो जीना हराम हो जाएगा।”
“यहाँ चोर कहाँ हैं?”
“पैसों का क्या होगा?”
“तुम ले जाओ।”

धीमे-धीमे बेर्ल और बेर्लचा बेटे की अमरीकी यिद्दी से परिचित होने लगे। बेर्लचा उसे अब बेहतर सुन पा रही थी। उसकी आवाज़ तक पहचानी लगने लगी। वह कह रहा था, “शायद हमें एक बड़ा प्रार्थना-भवन बना लेना चाहिए।”
“यही काफी बड़ा है,” बेर्ल ने जवाब दिया।
“शायद एक वृद्धाश्रम।”
“सड़क पर तो कोई सोता नहीं है यहाँ।”
अगले दिन विश्राम दिवस का भोजन खाया गया। ज़ैक्रोज़ाइम से एक ईसाई एक कागज़ ले कर आया -- यह बेटे का भेजा तार था। बेर्ल और बेर्लचा दोपहर की नींद लेने लेटे। जल्दी ही खर्राटे भरने लगे। बकरी भी ऊँघ गई। बेटे ने चोंगा और टोप पहना और टहलने निकल पड़ा। लम्बी-लम्बी टाँगों से डग भरते वह बाज़ार तक निकल गया। हाथ फैला उसने एक छत को छुआ। वह सिगार पीना चाहता था पर उसे याद आया कि विश्राम के दिन ऐसा करना वर्जित था। वह किसी से बतियाना चाहता था, पर समूचा लेंटशिन सो रहा था। वह प्रार्थना-भवन में घुसा। वहाँ एक बुज़ुर्गवार प्रार्थनाओं का पाठ कर रहा था। सैम्यूअल ने पूछा, “प्रार्थना कर रहे हैं?”
“बूढ़े होने पर करने को और क्या बचता है?”
“आपका गुज़ारा चल जाता है?”
बुज़ुर्गवार को इन शब्दों का मतलब समझ न आया। वह अपने सूने मसूढ़े दिखाते हुए मुस्कुराया और बोला, “अगर खुदा स्वास्थ्य देता है तो व्यक्ति जीता जाता है।”
 
सैम्यूअल घर लौट आया। झुटपुटा घिर आया था। बेर्ल शाम की दुआ पढ़ने प्रार्थना-भवन गया और बेटा माँ के पास रुका रहा। कमरा छायाओं से भरा था।

बेर्लचा गम्भीर स्वर में गाने लगी: “अब्राहम, आइज़ैक और जेकब के खुदा, इस्राइल के गरीबों और अपने नाम की रक्षा कर। पवित्र विश्राम दिवस शेष होने को है; स्वागत सप्ताह हमारी ओर आने को है। मेहर बरसा कि यह स्वास्थ्य, धन-दौलत और अच्छे करमों से भरा हो।”
“माँ, दौलत माँगने की ज़रूरत नहीं,” सैम्यूअल बोला। “तुम तो वैसे ही दौलतमन्द हो।”
बेर्लचा ने सुना नहीं -- या ना सुनने का नाटक किया। उसका चेहरा छायाओं के गुच्छे में बदल चुका था।

झुटपुटे में सैम्यूअल ने अपनी जैकेट की जेब में हाथ डाल अपने पासपोर्ट, चैक बुक और क्रेडिट कार्डों को टटोला। वह बड़ी-बड़ी योजनाएँ बना कर आया था। उसकी अटैची में माता-पिता के लिए तमाम तोहफे भरे थे। वह गाँव को तोहफे देना चाहता था। वह न सिर्फ अपने पैसे लाया था बल्कि न्यू यॉर्क स्थित लेंटशिन सोसायटी की राशि भी लाया था, जिसने गाँव की मदद के लिए एक डाँस-पार्टी का आयोजन किया था। पर दूर-दराज़ पड़े इस गाँव को किसी चीज़ की ज़रूरत ही न थी। प्रार्थना-भवन से फटे स्वर में शब्द उच्चार सुनाई दे रहा था। दिन भर मौन रहा झींगुर फिर से गुँजारने लगा था। बेर्लचा उन पवित्र गीतों को उच्चारती आगे-पीछे झूमने लगी जो उसे विरासत में अपनी माँ और नानियों-दादियों से मिले थे:

अपनी पाक भेड़ों पर
रहे तेरी रहमत,
तोराह3 में लगे और नेक रहे मन;
जो उन्हें चाहिए देना वह सब,
जूते, कपड़े, और रोटी मिलें
और मसीहा की राह चलें।
3 मूसा-संग्रह।


आइज़ैक बैशेविस सिंगर (1902-1991): बीसवीं सदी के महानतम लेखकों में गिने जाते हैं। उनका जन्म पोलैण्ड में हुआ था और वे यिद्दी भाषा में कहानियाँ तथा उपन्यास लिखते थे, जिनका वे खुद ही बाद में अँग्रेज़ी में अनुवाद करते थे। 1935 में यूरोप में यहूदियों के दमन के कारण वे अमरीका चले गए और वहाँ न्यू यॉर्क में बस गए। 1978 में उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह कहानी उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह ‘पंखों का ताज और अन्य कहानियाँ’ से ली गई है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद: पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा: सुप्रसिद्ध अनुवादक। शिक्षा और बाल साहित्य के क्षेत्रों में अनेकों पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया है। जयपुर में रहती हैं।
सभी चित्र व सज्जा: कनक शशि: स्वतंत्र कलाकार के रूप में पिछले एक दशक से बच्चों की किताबों के लिए चित्रांकन कर रही हैं। भोपाल में निवास।