विजय प्रकाश जैन

स्कूल में बाल पंचायत के गठन की प्रक्रिया
स्कूल  और  समाज  का  रिश्ता बहुत ही गहरा है। कोई भी स्कूल समाज के व्यापक उद्देश्यों को पूरा करने में अपना योगदान देते हुए ही अपने औचित्य को स्थापित कर सकता है। अपने आसपास के साथ ही वृहत्तर समाज के मूल्यों, राजनैतिक प्रक्रियाओं एवं ढाँचों की अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए भावी नागरिक तैयार  करना  स्कूल  की  प्रमुख ज़िम्मेदारियों में से एक है। ऐसे में सवाल यह है कि शैक्षिकप्रक्रिया और स्कूल संचालन के तौर-तरीकों में ऐसा क्या हो कि हम बच्चों को इस अनुरूप तैयार कर सकें? विगत दिनों इस सवाल से उलझते हुए मैंने कुछ बिन्दुओं को रेखांकित करने की कोशिश की है --

  • बच्चों की विभिन्न प्रक्रियाओं में भागीदारी के लिए तैयारी।
  • परिस्थितियों एवं क्षमताओं के आधार पर निर्णय लेने की समझ का विकास।
  • व्यवस्था/संस्था के हित में व्यापक नियमों को बनाने और उन्हें लागू कर सकने के दायित्व का बोध।
  • किसी समूह/संस्था को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता का विकास।

उपरोक्त बिन्दुओं पर विचार करते हुए कुछ शिक्षक मित्रों की बातें याद आ रही थीं। बहुत सारे शिक्षक बार-बार यह शिकायत करते हैं कि आजकल विद्यालय में काम बहुत बढ़ गया है। दिन भर में बहुत सारी सूचनाएँ देना, बच्चों को मिड-डे मील खिलाना, शाला को व्यवस्थित और साफ-सुथरा रखना, विभिन्न योजनाओं और बैठकों में भागीदारी निभाना आदि अनेकों ऐसे काम हैं जिनकी वजह से बच्चों का विद्यालय में सीखने-सिखाने का काम बाधित होता है। इन सबके बीच आज भी स्कूलों की प्रमुख ज़िम्मेदारी सीखना-सिखाना ही है, बच्चे आज भी विद्यालय शिक्षा लेने ही आते हैं फिर बच्चों के शिक्षण के प्रति समझौता क्यों किया जाए? क्या स्कूल और शिक्षकों की इन चुनौतियों को सीखने के अवसर के रूप में तब्दील नहीं किया जा सकता है?

विद्यालय में होने वाले विभिन्न प्रकार के कार्य, चाहे वे शैक्षणिक हों या गैर शैक्षणिक, बच्चों को भिन्न प्रकार की भूमिकाओं के निर्वहन के अवसर प्रदान कर सकते हैं, यदि बच्चों की क्षमताओं पर हमारा विश्वास हो और उनकी गलतियों और अनुभवों को हम सहज रूप से स्वीकार करने के लिए स्वयं को तैयार कर सकें। इसी मान्यता के साथ मैंने बच्चों में सामाजिक/राजनैतिक ढाँचों और प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक मूल्यों के विकास की नियत से एक प्रयोग करने का विचार किया। यह प्रयोग बाल पंचायत के गठन का था जिसमें दो सावधानियाँ हमें बरतनी थीं। इस पूरी प्रक्रिया में बच्चों की भागीदारी मूल्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति पूरी समझ के साथ हो, दूसरा कि यह स्कूल की एक स्थाई और सतत प्रक्रिया के रूप में विकसित हो सके।

चुनाव प्रक्रिया की समझ
वार्षिक परीक्षाएँ समाप्त होने को थीं। इसके बाद परीक्षा परिणाम तक बच्चों का स्कूल आना लगभग बन्द हो जाता था। सोचा यही गया कि परीक्षा समाप्ति के बाद और परीक्षा परिणाम आने तक के समय के लिए बच्चों से बात की जाए और बाल संसद के गठन की प्रक्रिया को पूरा किया जाए। बच्चों से इस सम्बन्ध में चर्चा की, वे इसके लिए स्कूल आने के लिए तैयार थे। लेकिन बाल संसद विषय पर मैं बच्चों से साथ कक्षा-कक्ष वाली पढ़ाई नहीं करवाना चाहता था, न ही चुनाव प्रक्रिया की सैद्धान्तिक जानकारी देना चाहता था। मुझे बाल संसद के गठन को उनके पूर्व-ज्ञान से जोड़ना था। साथ ही सोचना, तर्क करना, विश्लेषण करना, निर्णय लेने जैसी प्रक्रियाओं में भागीदारी का अवसर प्रदान करते हुए क्षमताओं का विकास करना इस कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य था। इस सम्बन्ध में कुछ मित्रों से चर्चा की और चरणबद्ध तरीके से एक योजना को साकार रूप दिया। यह काम हमें 23 अप्रैल से प्रारम्भ करना था। परीक्षाएँ 21 अप्रैल को समाप्त हो चुकी थीं इसलिए डर था कि पता नहीं बच्चे आएँगे या नहीं। लेकिन जब स्कूल पहुँचा तो 78 बच्चे मेरा इन्तज़ार कर रहे थे। सुबह की सभा के बाद सारे बच्चों को एक साथ बिठाया और चर्चा का दौर प्रारम्भ हुआ। बच्चों से उनके गाँव के सरपंच और वॉर्ड पंच के बारे में पूछा तो बच्चों ने तीन नाम बताए -
हुमा देवी - वॉर्ड पंच
लक्ष्मी देवी - वॉर्ड पंच
रेखा देवी - सरपंच।
जब तीनों के बारे में पूछा तो बच्चों ने बताया कि हुमा देवी मेंदिया-डिंडोर, लक्ष्मी देवी मेंदिया-कटारा की वॉर्ड पंच हैं और रेखा देवी ग्राम पंचायत, वीरपुर की सरपंच हैं। चूँकि इस विद्यालय में मेंदिया-डिंडोर और मेंदिया-कटारा के बच्चे पढ़ने आते हैं इसलिए बच्चे इन दो गाँवों के वॉर्ड पंचों के बारे में ही बता पाए। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मैंने बच्चों से पूछा, “अच्छा, ये कैसे बने?” तो बच्चों ने कुछ जवाब दिए-
सुनील (तीसरी कक्षा) - सर, पढ़ते-पढ़ते बन गए।

राजेश (कक्षा सात) - गाँव के लोगों ने बनाया।
मैं - अच्छा किन लोगों ने वोट दिया?
बच्चे एक साथ - सर, गाँव वालों ने।
मैं - अच्छा, तुमने भी दिया था?
भैरू - नहीं सर, हमारे माता-पिता ने दिया था।
मैं - तो तुमने क्यों नहीं दिया?
अजय (कक्षा दो) - सर, हम तो नाने (छोटे) हैं।
मैं - तो छोटे बच्चे वोट नहीं देते हैं?
लीला - नहीं देते सर, जो 18 वर्ष के हो जाते हैं, वे देते हैं।
मुझे लगा बच्चों को गाँव में होने वाले चुनावों के बारे में जानकारी तो है, बस इस जानकारी को बाल संसद के गठन से जोड़ना है। मैंने फिर पूछा, “अच्छा ये बताओ, क्या ये अकेले ही खड़े हुए थे?” बच्चे बोले, “नहीं सर, बहुत सारे जने खड़े थे पर ये जीत गए।”
मैं - अच्छा, जीते कैसे?
अनिल - सर, इनको वोट ज़्यादा मिले तो जीत गए।

अब चुनावी प्रक्रिया पर बात करना चाहता था इसलिए मैंने पूछा, “अच्छा, ये ही क्यों जीते?”
अनिल - सर, इनको ज़्यादा वोट मिले थे न।
मैं - पर इनको ही ज़्यादा क्यों मिले?
सुभाष - सर, इन्होंने बहुत सारी चीज़ें बाँटी थीं।
मैंने पूछा - क्या?
बच्चे एक साथ बोलने लगे - सर, लुगदी (बूँदी), नमकीन, दारू, चाय पिलाई, बिस्कुट भी बाँटे।
मैं - अच्छा, तो ये चीज़ें केवल जीतने वालों ने ही बाँटी थी क्या?
कालूराम - नहीं सर, सबने बाँटी थी पर ये जीत गए।
मैं - तो दूसरे लोग क्यों हारे?
अजेश - सर, इन्होंने कहा था,  मकान देंगे, कुँआ देंगे, पेंशन बँधवा देंगे (और बच्चे भी बीच-बीच में बोलते जा रहे थे, सड़क बनवा देंगे आदि)।
मैं - और क्या किया?
विनय - सर, मीटिंग की।
दीवान- हमारे घर भी आए।
वसुंधरा - अपने फोटो वाले कागज़ (पर्चे) बाँटे।

आज दूसरा दिन है। उत्साह मेरे मन पर हावी है। ठीक आठ बजे स्कूल पहुँचा, बच्चे आ चुके थे। हमने मिलकर स्कूल की सफाई की, पेड़-पौधौं को पानी पिलाया, प्रातःकालीन सभा के बाद बच्चों से चर्चा प्रारम्भ हुई। मैंने पूछा, “बताओ, तुमने कभी देखा है कि वोट कैसे डालते हैं?” मुन्ना ने कहा, “सर, वोट तो वीरपुर में होते हैं, वहाँ हम नहीं जाते।”
सुनीता - वोट अपने गाँव में भी तो होते हैं।

बच्चों में इस बात को लेकर बहस हुई कि वोट वीरपुर में होते हैं या हमारे गाँव में। दरअसल, दोनों बच्चे अपनी जगह सही थे। सरपंच और वॉर्ड पंच के चुनाव के लिए मतदान ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम पंचायत मुख्यालय वीरपुर में और विधायक और सांसद के लिए मतदान प्रत्येक गाँव में बने बूथ पर होते हैं। मैंने बच्चों की बहस को सुलझाया और बताया कि किसके वोट कहाँ पड़ते हैं। कई बातों की जानकारी हमें बच्चों से मिलती है। मेरे कुछ साथियों को भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि ग्राम पंचायत और विधानसभा व लोकसभा के वोट डालने के लिए पोलिंग बूथ अलग-अलग होते हैं।
मैंने बच्चों से पूछा, “अच्छा, तुम्हें पता है वोट कैसे डाले जाते हैं?” एक बच्चे ने जवाब दिया, “सर, मशीन से।” मैंने फिर पूछा, “अच्छा तुमने मशीन देखी है?” इतने में एक बच्ची बोली, “सर हमारी आई (माँ) तो कह रही थी कि वोट के लिए मुहर लगाते हैं।” मैंने बताया, “वोटिंग मशीन से भी होती है और कागज़ पर मुहर लगाकर भी। जो लोग चुनाव में खड़े होते हैं, उनके नाम और चिन्ह एक कागज़ पर होते हैं। हमें जिस व्यक्ति को वोट देना होता है, उसके सामने चिन्ह पर मुहर लगाते हैं।” दीवान बोला, “सर और मशीन?” मैंने कहा, “मशीन को ई.वी.एम कहते हैं।” तभी मुझे ध्यान आया तो मैंने तुरन्त लैपटॉप को इंटरनेट से जोड़कर उसमें यूट्यब के माध्यम से ई.वी.एम. की कार्य प्रणाली बच्चों को बताई। इन चर्चाओं ने मेरे कुछ भ्रम तोड़े और समझ में आया कि बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली चुनावी प्रक्रिया की समझ रखते हैं।

आज तीसरा दिन प्रारम्भ हुआ। स्कूल में कुछ हो रहा है, यह सुनकर जो बच्चे नहीं आ रहे थे, वे भी पहुँच गए। आज लगभग 123 बच्चे उपस्थित थे। एक आश्चर्यजनक बात यह भी हुई कि जैसे ही बच्चे बैठे, एक बच्चा बोला, “सर सिखाओ।” मैंने सहज ही पूछा, “सिखाओ या पढ़ाओ?”
दूसरा बच्चा बोला, “सर, सिखाओ।” मैंने फिर कहा, “पढ़ाओ क्यों नहीं?” राजेश बोला, “सर, ये पढ़ाना थोड़ा ही है। ये तो सिखाना है।” मैंने टटोलना जारी रखा, “यह पढ़ाना क्यों नहीं है?” राजेश फिर बोला, “सर, पढ़ाना तो कक्षा में होता है, ये तो सिखाना है।” बच्चे इस बात को कैसे समझ रहे थे, ये मेरी समझ से परे था, परन्तु कक्षा-कक्षों की पाबन्दियाँ, पाठ्यक्रम की बाध्यता और कड़े अनुशासन से बच्चोंें को लगता है कि वह पढ़ना है और जहाँ बहुत सारी बातें होती हैं, बच्चों के साथ गतिविधियाँ होती हैं वहाँ सीखना होता है। बच्चों से पिछले दिन की चर्चा की जो कि ई.वी.एम. पर जाकर समाप्त हुई थी। बच्चों को लैपटॉप पर ई.वी.एम. मशीन देखना बड़ा अच्छा लगा था। लोकेश बोला, “सर, क्या ये मशीन आप हमारे स्कूल में ला सकते हो?” यह काम असम्भव-सा था, परन्तु मुझे ध्यान आया कि राजस्थान में 6-7 माह बाद चुनाव होने वाले हैं और चुनाव पूर्व बी.एल.ओ. द्वारा मशीनों को ग्रामीणों के समक्ष प्रदर्शित किया जाता है। उस समय बालकों को इस मशीन का अवलोकन करवाया जा सकता है। मैंने बच्चों से यही वादा किया। इस पर विनीता बोली, “सर, कुछ महिनों बाद क्यों?” मैंने कहा, “कुछ महिनों बाद चुनाव होंगे, तब मशीन हमारे गाँव में आएगी और हम देख लेंगे।”

कालूराम बोला, “सर, फिर सरकार बनने वाली है।” मैं भी आज बच्चों से सरकार पर बात करने वाला था। प्रश्न था कि सरकार क्या होती है। बच्चे कुछ देर चुप रहे, फिर अनिल बोला, “सर, मोदी।” मैंने फिर पूछा, “मोदी कौन है?”
पूँजालाल - सर, प्रधानमंत्री।
अजेश  -  सर,  धनसिंहजी (धनसिंहजी हमारे ज़िले के निवासी और राजस्थान सरकार के पंचायतीराज राज्य मंत्री हैं)।
माया - धनसिंह थोड़े, वसुुन्धरा राजे।
बच्चों में बहस प्रारम्भ हो गई थी। एक बच्चा बोला, “कलेक्टर।” मैंने बीच में दखल दिया और कहा, “जितने भी मंत्री, प्रधानमंत्री, विधायक, सांसद, सरपंच, पंच जिन्हें बनाने के लिए वोट डाले जाते हैं और जितने भी सरकारी काम करने वाले कर्मचारी जैसे स्कूल के अध्यापक, पटवारी, कलेक्टर, डॉक्टर और हम सब सरकार हैं।” मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बच्चों को सरकार के बारे में कैसे बताऊँ। इसलिए मैंने दूसरा प्रश्न पूछा, “ये बताओ कि सरकार क्या-क्या करती है?”
अशोक - कुछ नहीं करती, सर।
मैं - क्यों?
अशोक - सर, हमारे स्कूल में एक ही कमरा है। (अशोक मेंदिया कटारा का निवासी है जहाँ स्कूल में एक ही कमरा है।)
मैं - पर बेटा यह कमरा भी तो सरकार ने ही बनाया है। और सब बताओ कि सरकार क्या-क्या करती है।
बच्चों ने कई बातें बताईं जिन्हें मैं एक चार्ट पर लिखता गया। इस चर्चा  में कक्षा-6 से 8 तक के छात्रों की भागीदारी ज़्यादा थी। बच्चों ने जो सरकार के काम बताए वो मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं थे। इसके लिए बच्चों को अधिकाधिक बोलने के लिए प्रोत्साहित किया।

सरकार कुआँ देती है, मकान बनवाती है, हैंडपम्प खुदवाती है, स्कूल खुलवाती है, सड़क बनवाती है, लाइट लगवाती है, कैरोसीन देती है, गेहूँ देती है, शक्कर देती है, पुलिस थाने खुलवाती  है,  तहसील,  पंचायत, पंचायत  समीतियाँ  खुलवाती  है, शौचालय  बनवाती  है,  किताबें, छात्रवृत्ति, भोजन, बैंक खुलवाती है, मन्दिर, हॉस्पिटल, बाँध, नहर, एनिकट बनवाती है, पेड़ लगवाती है, ज़िला बनाती है, पेंशन, गैस टंकी, नल लगवाती  है,  आँगनवाड़ी,  तालाब बनवाती है, नौकरियाँ देती है, साईकिल देती है, फीस माफ करती है, स्कूटी, लैपटॉप देती है, चुनाव करवाती है,  देश की रक्षा करती है, ट्रेन चलवाती है, रोडवेज़ बस चलवाती है, मीटिंग करवाती है, टोलटैक्स लेती है, शमशान घाट बनवाती है।
इस पूरी चर्चा में अधिकांश बातें बच्चों के परिवेश की थीं और कुछ वे थीं जो उन्होंने अपने परिवार में या स्कूल में सुनी थीं। बच्चों को हम अबोध मानते हैं या यह मानते हैं कि वे सरकार के काम जैसे मुद्दे पर कुछ नहीं जानते और उन्हें हम ऐसे मुद्दों को बड़े सैद्धान्तिक रूप से समझाते हैं। इस चर्चा से स्पष्ट था कि बच्चे इन सबके बारे में बहुत सारी जानकारियाँ रखते हैं पर हम उनसे इन मुद्दों पर बात करने का प्रयास ही नहीं करते।

आज चौथा दिन था। प्रार्थना सत्र के बाद एक बार फिर बच्चों के साथ बैठक शुरू हुई। पहले मैं यह सोचता था कि कक्षा एक से पाँच और कक्षा छह से आठ तक के बच्चों को अलग-अलग बिठाकर काम किया जाए। लेकिन समस्या यह थी इस काम को मुझे अकेले ही करना था। अत: यह सम्भव नहीं हो पाया। बच्चों को एक साथ बिठाने के कुछ फायदे भी हुए। छोटे बच्चे बीच-बीच में बोलकर अपनी भागीदारी निभा रहे थे। अब यह ज़रूरी था कि चर्चा को स्कूल की तरफ मोड़ा जाए, अत: मैंने बच्चों से सवाल किया, “यदि हमारे स्कूल में भी एक सरकार हो तो वो कौन-कौन से काम करेगी?”

बच्चों ने इस सवाल के जो जवाब दिए, उन्हें मैं श्यामपट्ट पर लिखता गया और यह ध्यान रखा कि एक प्रकृति के कामों को एक साथ लिखा जाए। बच्चों द्वारा जो काम बताए गए वो निम्नानुसार हैं - स्कूल में पौधे लगाएँ, पानी पिलाएँ और उनकी सुरक्षा करें, स्कूल में अच्छी पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था करें, दोपहर के भोजन की अच्छी व्यवस्था व पीने के पानी की व्यवस्था, सुबह की सभा का संचालन करें, स्कूल व शौचालय की साफ-सफाई, बच्चों की साफ-सफाई व स्कूल ड्रैस, रोज़ाना बच्चों को स्कूल लाना व लंच में जो बच्चे भाग जाते हैं उन्हें रोकना, पुस्तकालय की पुस्तकें लाना व बाँटना, 15 अगस्त व 26 जनवरी के कार्यक्रम करवाना, बच्चों के स्वास्थ्य का ध्यान रखना (यहाँ सन्ता ने ध्यान दिलाया कि विमला न तो बोलती है और न ही सुनती है, ऐसे बच्चों के लिए कुछ करना)।

स्कूल के लगभग समस्त प्रमुख कामों को बच्चों ने गिनवा दिया था। मैंने बच्चों से पूछा, “अपने स्कूल में तो सरकार नहीं है फिर ये काम कौन करेगा?” एक बच्चा बोला, “सर, आप और हम सब करते हैं न।” बात सही थी, स्कूल का सारा काम बच्चे और शिक्षक मिलकर करते हैं। बच्चों से पूछा, “अच्छा ये बताओ कि इन कामों की ज़िम्मेदारी बाँट दें तो कैसा रहेगा?”
सुनील - सर कैसे?
मैं - यही कि कौन-सा काम कौन करेगा, यह तय कर दिया जाए, तो?
कालूराम - अच्छा रहेगा सर।
मैं - फिर एक काम करते हैं, स्कूल में भी सरकार बनाते हैं।
यह सुनते ही बच्चे ज़ोर-से बोले, “हाँ सर, अच्छा रहेगा।”
मैं - पर सरकार बनेगी कैसे?
विनीता - सर, वोट डलवाएँगे।
मैं - अच्छा योजना बनाओ, कैसे होगा यह सब।

बच्चों से कहा कि वे अपने घर पर और आपस में चर्चा करें और कल आकर बताएँ। आज गाँव में शादी थी, बच्चे जल्द घर जाना चाह रहे थे। जब गाँव में शादी होती थी, बच्चे स्कूल नहीं आते थे। सारे शिक्षक इस बात को लेकर आश्चर्यचकित थे कि बच्चे शादी होने के बाद भी स्कूल कैसे आ गए। एक बात हमें समझ में आ रही थी कि यदि स्कूल में बच्चों की रुचि का काम हो तो बच्चे स्कूल आना नहीं छोड़ते हैं।

आज पाँचवाँ दिन है। यदि स्कूल शिक्षक और बच्चों के लिए आनन्द का केन्द्र बन जाए तो सीखना और सिखाना बड़ा आसान हो जाता है। प्रार्थना सत्र के बाद कल किए गए कामों पर बातचीत हुई। अँग्रेज़ी के क्रिया-शब्दों पर समूह बनाकर काम करवाया। एक घण्टे तक यह काम चला, उसके बाद बच्चे दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हुए। चर्चा शु डिग्री हुई कि स्कूल में सरकार कैसे बनाएँ। बच्चों से पूछा, “कौन-कौन अपने घर में बात करके आया है?”

राजेश - सर, दादाजी कह रहे थे कि पता नहीं तुम्हारे सर क्या-क्या करवाते हैं, उन्हीं से पूछना।
मैंने कहा, “तय तो तुम्हें ही करना है, क्योंकि स्कूल तुम्हारा है तो सरकार भी तुम्हारी ही बनेगी।”

चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत  
बच्चों के छह ग्रुप बना दिए और कहा कि अब तुम तय करो कि सरकार कैसे बनेगी, और कौन-कौन-से काम करने के लिए कौन-कौन-से पद होंगे।
आधे घण्टे तक बच्चे चर्चा करते रहे। समूहों में खास बात यह थी कि बड़े बच्चे बात कर रहे थे और छोटे बच्चे ध्यान से सुन रहे थे। कुछ छोटे बच्चे थोड़ी देर में खेल में लग गए, उन्हें किसी ने टोका भी नहीं। मैं और मेरे स्कूल के एक अन्य साथी सारे समूहों में जाकर देख रहे थे कि क्या चर्चा चल रही है परन्तु हमने बातचीत को अपने विचारों से बाधित नहीं किया। आधे घण्टे बाद मैंने बच्चों से पूछा, “बात शुरू करें?” चर्चा शुरू हुई और इन बातों पर सहमति बनी।

  • सारी कक्षाओं से एक-एक बच्चा लिया जाए।
  • जो दस काम बनाए हैं, उन्हें आठ कामों में बाँटा जाए।
  • स्कूल का एक सरपंच बनाया जाए।

तीसरे बिन्दु पर मामला अटक गया। कि सरपंच और आठ कक्षाओं से आठ छात्र कौन-से लिए जाएँ। राजेश बोला, “सर, हर कक्षा के सबसे होशियार बच्चे को लिया जाए।”
मुन्ना - कक्षा में तीन-चार होशियार हों तो?
राजेश - फिर चुनाव करा दिए जाएँ।
पूजा - सर, चुनाव करा दो।
मैं - पर कैसे?
पूजा - सर, जो चुनाव में खड़ा हो उसे होने दो और उनके बीच चुनाव करा दो।
मैं - और सरपंच के लिए?

कुछ बच्चों के सहयोग से तय हुआ कि आठ कक्षाओं के आठ कक्षा-पंच होंगे अैर एक स्कूल का सरपंच होगा। आठ कक्षाओं के पंचों का चुनाव कक्षावार बच्चे करेंगे और सरपंच का चुनाव सारे स्कूल के छात्र करेंगे। स्कूल की सरकार को बाल पंचायत कहेंगेे। लेकिन राधी बोली, “सर, पहली कक्षा तो है ही नहीं।”
अश्विन - है तो।

राधी - अभी 30 को रिज़ल्ट आ जाएगा, सब बच्चे आगे की कक्षा में आ जाएँगे तो पहली में कौन रहेगा?
इसलिए फिर तय हुआ कि सात कक्षा-पंच ही चुने जाएँ। पोषाहार बनाने वाली दो-तीन बार आकर कह चुकी थी कि खाना तैयार है, अत: सारे बच्चे खाना-खाने चले गए। खाने के बाद बच्चे आकर बैठ गए। मैंने पूछा, “आज खेलना नहीं है क्या?” बच्चे बोले, “नहीं सर, बात करेंगे।” चर्चा जहाँ खत्म हुई थी कि अभी सात कक्षा-पंच और एक सरपंच बनाया जाएगा, वहीं से आगे बढ़ाई गई।

अनिल - सर, ये कक्षा-पंच क्या करेंगे?
अशोेक- कल तय किया था न - साफ-सफाई, पेड़ों को पानी पिलाना और काम।
अनिल - पर कल तो ये 10 काम थे, पंच तो सात ही हैं।

अनिल सही कह रहा था। कल के कामों के चार्ट पर बात शुरू हुई और अलग-अलग कामों के पद तय किए गए।  पर्यावरण-पंच,  स्वच्छता  व स्वास्थ्य-पंच, पोषाहार-पंच, शिक्षा-पंच, उपस्थिति-पंच, प्रार्थना, उत्सव व जयन्ति-पंच, पुस्तकालय-पंच।
अब कार्यक्रम तय करना था कि चुनाव कब हों और कैसे हों। मैं चाहता था कि बच्चे तय करें कि कब और कैसे करना है। हाँ, मैं सहयोग अवश्य  करूँ। यदि आवश्यकता हो तो। मैंने बच्चों से पूछा, “ये बताओ कि जब गाँव में चुनाव होते हैं तो पता कैसे चलता है?”

नारायण - सर, सरकार बताती होगी।
मैं - बिलकुल सही। सरकार बताती है कि कब चुनाव होंगे। इसे चुनावों की अधिसूचना जारी करना कहते हैं।

चर्चा के बाद बच्चों के साथ चुनावी कार्यक्रम तय हुआ। बच्चे अगले दिन ही चुनाव करना चाहते थे। पर मैंने कहा, “कौन खड़ा होगा और जो खड़ा होगा, वह प्रचार भी तो करेगा।” तो इस प्रकार चुनावी कार्यक्रम तय हुआ। आज ही अधिसूचना जारी होगी। कल यानी 28 अप्रैल को जो चुनाव लड़ेगा, उसके फॉर्म भरे जाएँगे और चुनाव चिन्हों का वितरण होगा। 29 अप्रैल को रविवार है। जो चुनाव में खड़ा होगा वह प्रचार करेगा। 30 अप्रैल को सुबह चुनाव होंगे और वोटों की गिनती होगी। 1 मई को विभागों का वितरण होगा और टीम बनेगी।

चुनावों की अधिसूचना विद्यालय के प्रधानाध्यापकजी के हस्ताक्षर से जारी की गई और उसे नोटिस बोर्ड पर लगा दिया गया। फिर छुट्टी हो गई। बच्चे चुनावों की ही बात करते जा रहे थे। आज घर जाकर चुनाव के लिए नामांकन फॉर्म तैयार करने थे।

छठा दिन - प्रार्थना के बाद बच्चे बैठे। आज कक्षा-पंच और सरपंच के लिए फॉर्म भरने थे। सारे बच्चों को कक्षावार बिठा दिया और आधे घण्टे का समय दिया कि वे तय कर लें कि किसे खड़ा करना है। यदि एक ही बच्चे पर सहमति बने तो वह भी बना लें। ठीक 9.00 बजे फॉर्म भरने का कार्य प्रारम्भ हुआ।
दोपहर के भोजन के बाद बच्चे फिर बैठे। अब चुनाव चिन्हों का वितरण किया जाना था। इस काम में बच्चों को बड़ा मज़ा आया क्योंकि वेे चुनाव चिन्हों से परिचित थे।

तीन कक्षा-पंच निर्विरोध निर्वाचित हो चुके थे। चार कक्षा-पंच और सरपंच पद हेतु मतदान किया जाना था। जैसे ही निर्विरोध चुने गए बच्चों के बारे में बताया गया, सभी ने तालियाँ बजाकर उनका अभिनन्दन किया। इस प्रक्रिया में सारा स्टाफ भी वहाँ मौजूद रहा। इस सूची को नोटिस बोर्ड पर चस्पा किया गया और बच्चों से कहा कि आज और कल का दिन प्रचार के लिए है।

जो  बच्चे  आठवीं  की परीक्षाएँ दे चुके थे और अगले सत्र से इस विद्यालय के छात्र नहीं रहने वाले थे, उनमें से कुछ बच्चे प्रतिदिन विद्यालय आ रहे थे। उन बच्चों से अलग से बात करके, उन्हें चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई यानी  उन्हें  पोलिंग  पार्टी बनाया। इनमें से चार बच्चों को उनका काम समझाया कि एक बच्चा हाजरी रजिस्टर से जो बच्चा आया है उसका नाम मिलाकर टिक करेगा, एक बच्चा परमानेंट मार्कर से अँगुली पर स्याही लगाएगा, एक बच्चा बैलेट पेपर देगा। उक्त बैलेट पेपर में से कक्षा-पंच का बैलेट पेपर कक्षावार बच्चों को दिया जाएगा और सरपंच का बैलेट पेपर प्रत्येक बच्चे को दिया जाएगा। और एक बच्चा मतपेटी से थोड़ा दूर बैठकर सारी प्रक्रिया पर नज़र रखेगा।

इधर प्रचार का काम शुरू हो चुका था। सर्वाधिक प्रभावी प्रचार सरपंच पद के लिए था। बच्चे दो धड़ों में बँट चुके थे। इस विद्यालय में मेंदिया कटारा के बच्चे भी पढ़ने आते थे क्योंकि वहाँ कक्षा पाँच तक ही स्कूल है। चूँकि दोनों गाँव पास-पास हैं इसलिए कभी-कभी दोनों गाँवों के बीच कटुता भी हो जाती है। इसका असर यहाँ भी देखने को मिला। बच्चे मेंदिया डिंडोर और मेंदिया कटारा, दो धड़ों में बँट चुके थे क्योंकि सरपंच पद का एक प्रत्याशी कालूराम मेंदिया डिंडोर और अशोक मेंदिया कटारा का निवासी था। छुट्टी का समय हो चुका था। बच्चे शोर मचाते हुए घर चले गए। आज काम बहुत था। बैलेट पेपर बनाने थे, कक्षा-पंच के अलग और सरपंच के अलग। घर पहुँचकर कम्प्यूटर से सारे बैलट पेपर तैयार किए।

आज सोमवार था यानी 30 अप्रैल। स्कूल में दो काम होने थे - बाल पंचायत का चुनाव और बच्चों का परीक्षा परिणाम। हमारे पहुँचने से पूर्व ही बच्चे आ चुके थे। सबसे पहले बच्चों को उनका परीक्षा परिणाम बताया। उसके बाद सारे बच्चों को एक साथ बिठाकर चुनावी प्रक्रिया शुरू की गई।

ठीक 9.00 बजे पोलिंग पार्टी मतदान के लिए तय कमरे में बैठ गई। कक्षा-8 के बच्चों से प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। बच्चों को पंक्ति में लगाने की ज़िम्मेदारी स्कूल की एक शिक्षिका ने ली जो प्रारम्भ से ही इस प्रक्रिया में काफी रुचि ले रही थीं। आज समस्त स्टाफ साथी भी इस प्रक्रिया में हमारे साथ शामिल थे। सुबह से चुनाव प्रचार बन्द हो चुका था। लेकिन सरपंच पद के दोनों प्रत्याशी सभी से मिल रहे थे। तभी सूचना मिली कि कक्षा-पंच के एक प्रत्याशी ने कुछ बच्चों को टॉफी बाँटी हैं। इस समाचार को सुनकर हमने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, हम केवल यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि बच्चे परिवेश से सीखी हुई कौन-कौन-सी बातों को यहाँ अमल में लाते हैं।

चुनाव शुरू हो चुके थे। जिन छोटे छात्रों को बैलेट पर निशान लगाने में दिक्कत आ रही थी, उन्हें स्कूल की मैडम समझा रही थीं। 10.00 बजे चुनाव समाप्त हुए।

भोजन अवकाश आज जल्दी कर दिया गया क्योंकि बच्चों को चुनावों का परिणाम सुनने की जल्दी थी। 10:30 बजे मतगणना प्रारम्भ हुई। इससे पूर्व समस्त प्रत्याशियों को मतपेटी के पास बिठाया गया। पोलिंग पार्टी व स्कूल स्टाफ के साथियों ने पहले कक्षावार वॉर्डपंच और सरपंच के बैलेट अलग-अलग किए। उसके बाद प्रत्येक मत को प्रत्याशियों को दिखाया और खारिज मतपत्रों को अलग किया। बच्चों में बहुत उत्सुकता थी। पहले सरपंच के मत गिने गए। इसमें कालूराम विजयी घोषित हुआ। जैसे ही कालूराम जीता, वह उठकर जाने लगा लेकिन उसे रोक दिया और कहा कि पहले सबके परिणाम आ जाएँ, तब ही सब बाहर जाएँगे। कमरे का दरवाज़ा बन्द था लेकिन बच्चे दरवाज़ों की झिरियों से, खिड़कियों से देखने का प्रयास कर रहे थे। कक्षा-8 के कक्षा-पंच के लिए राजेश डिंडोर चुने गए। कक्षा-6 के लिए सुभाष, कक्षा-4 के लिए विनय डिंडोर, और कक्षा-2 के लिए सोनिया डिंडोर चुने गए। जैसे ही बाहर आकर परिणामों की घोषणा हुई, बच्चों ने कालूराम को कन्धों पर उठा लिया, चारों तरफ शोर मच गया। सारे बच्चों को एक स्थान पर बिठाया गया और मतगणना की सारी प्रक्रिया को उन्हीं बच्चों ने बताया जो अन्दर थे। इसके पश्चात विजयी बच्चों के लिए तालियाँ बजाई गईं। तत्पश्चात छुट्टी हो गई और बच्चे शोर मचाते हुए घर चले गए।

आज विभागों का बँटवारा किया जाना था। जीते हुए सारे बच्चों को और पोलिंग पार्टी में शामिल बच्चों को आगे बिठाया गया। पहले पोलिंग पार्टी में शामिल समस्त बच्चों को खड़ा कर, बेहतर तरीके से चुनाव करवाने के लिए तालियाँ बजाकर उनका अभिनन्दन किया गया।
उसके बाद जीते हुए कक्षा-पंचों से पूछा गया कि वेे कौन-सा काम करना चाहेंगे। इसके लिए सातों पदों को श्यामपट्ट पर लिखा व कहा गया कि वे अपनी रुचि के अनुसार काम चुन लें। इस काम में अन्य बच्चों ने भी मदद की और विभागों का बँटवारा हुआ। सभी ने ताली बजाकर स्वागत किया। इसके बाद बच्चे खाना खाने चले गए।

कुछ बच्चे आपस में बात कर रहे थे और सुभाष को कह रहे थे कि अब तो तू पर्यावरण-पंच है। सफाई करने और पेड़ों को पानी पिलाने का काम तेरा ही है। मुझे लगा कि जिस उद्देश्य से यह बाल पंचायत बनाई गई है, कहीं वह उद्देश्य ही समाप्त न हो जाए। लेकिन इसका उपाय क्या हो, इसका तरीका भी बच्चों से ही पूछने का निर्णय लिया।
भोजन समाप्ति के बाद बच्चों को एक साथ बिठाया गया और पूछा, “क्या स्कूल की सारी ज़िम्मेदारी अब इन आठ जनों की ही है?”
“हाँ सर, अब ये ही सारे काम करेंगे।” सामने से आवाज़ आई।
सरपंच कालूराम - पर हम इतना सारा काम कैसे करेंगे?
मैंने कहा, “कालूराम सही कह रहा है। बताओ क्या करें?”
विनिता - सर, इनके साथ कुछ बच्चे और जोड़ दो।
राजेश - हाँ सर, इनकी टीम बना दो।
मैं - पर कैसे बनाएँ?

इस पर काफी चर्चा हुई और अन्त में यह तय किया कि प्रत्येक कक्षा-पंच के साथ एक टीम होगी जिसमें प्रत्येक कक्षा से एक बच्चा रहेगा। इस तरह प्रत्येक टीम में कुल 8 बच्चे रहेंगे। बच्चों के चयन में यह ध्यान रखा कि जिसे कक्षा-पंच चाहे और जो बच्चा तैयार हो, उसे टीम का सदस्य बना दिया जाए। इस तरह 57 बच्चों की एक टीम तैयार हुई।

चुनाव परिणाम एवं निष्कर्ष
स्कूल में बाल पंचायत का गठन हो चुका था। आज काम था कि बच्चों को यह बताया जाए कि उनकी टीम क्या करेगी। इसके लिए बच्चों को उन सातों समूहों में बिठाया गया जिनके वे सदस्य थे और कहा गया कि वे तय करें कि उनकी टीम क्या करेगी। इसके लिए एक घण्टे का समय दिया गया और सरपंच को यह कहा गया कि वह थोड़ी-थोड़ी देर जाकर सब समूहों में बैठे। एक घण्टे बाद जब बच्चों से बात की गई तो सब समूहों ने जो तय किया,  वह  मेरे  लिए  अत्यन्त विस्यमकारी था। मुझे अन्दाज़ा ही नहीं था कि बच्चे इतनी अच्छी योजना बना लाएँगे। मैंने बिलकुल भी फेरबदल नहीं किया और बच्चों से कहा कि वे अपनी योजना को लागू करें।

शिक्षा टीम - 1. कोई कक्षा खाली होगी तो सर को बुलाकर लाएँगे। 2. यदि सर नहीं आए तो हम कक्षा में पढ़ाएँगे। 3. सारे कालांश समय पर लगें, इसका ध्यान रखेंगे।
स्वास्थ्य व स्वच्छता टीम - 1. स्कूल की साफ-सफाई रखेंगे। 2. सारे बच्चे नहाकर आएँ, इसका ध्यान रखेंगे। 3. सारे बच्चों के नाखून कटे हों और दाँत साफ हों, इसका ध्यान रखेंगे।
पर्यावरण टीम - 1. पेडों को पानी पिलाएँगे। 2. बकरी पेड़ों को न खाएँ, इसका ध्यान रखेंगे। 3. नए पेड़ लगाएँगे।
एम.डी.एम. टीम - 1. खाना खाने से पहले दरियाँ बिछाएँगे। 2. सारे बच्चे खाने से पहले हाथ धोएँ, इसका ध्यान रखेंगे। 3. बर्तन अच्छी तरह साफ हों, इसका ध्यान रखेंगे।
उपस्थिति टीम - 1. सारे बच्चे स्कूल आएँ, इसका ध्यान रखेंगे। 2. जो बच्चे स्कूल नहीं आते हैं, उनके घर जाएँगे। 3. जो बच्चे लंच में घर भाग जाते हैं, उनका ध्यान रखेंगे।
पुस्तकालय टीम - 1. कमरों में टँगी हुई पुस्तकालय की पुस्तकों का ध्यान रखेंगे। 2. कोई बच्चा यदि किताबों को फाड़ेगा, तो उसका ध्यान रखेंगे। 3. रोज़ाना किताब पढ़ेंगे।
उत्सव/प्रार्थना  टीम  -  1.  प्रार्थना करवाएँगे। 2. सरस्वती की तस्वीर को लगाकर अगरबत्ती जलाएँगे। 3. उत्सवों की तैयारी करवाएँगे।

बाल पंचायत के गठन के बाद स्कूल की अधिकांश व्यवस्थाओं को बाल पंचायत ने सम्भाल लिया। इस बात को दो घटनाओं से समझा जा सकता है। एक दिन प्रात: चार बजकर पचास मिनिट पर स्कूल के शिक्षा-पंच राजेश का फोन आया और बोला, “सर, स्कूल में चॉक खत्म हो गई है, लेकर आना।” अब विद्यालयों में होने वाले समस्त सांस्कृतिक कार्यक्रमों की ज़िम्मेदारी बाल पंचायत ने सम्भाल ली है। स्वतंत्रता दिवस आदि की ज़िम्मेदारी  बच्चों  ने  सम्भाली  और कार्यक्रम को भव्य रूप दिया।

ये पूरा अनुभव और दोनों घटनाएँ बच्चों को मौके देने और उन पर भरोसा करने को प्रेरित करते हैं।


विजय प्रकाश जैन: राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, मेंदिया डिंडोर, ज़िला बाँसवाड़ा, राजस्थान में पिछले दस वर्षों से प्रबोधक के रूप में कार्यरत। पूर्व में लोक जुम्बिश परियोजना एवं सर्व शिक्षा अभियान में चौदह वर्षों तक अकादमिक एवं प्रशासनिक पदों पर कार्य किया। हिन्दी विषय हेतु स्टेट रिसोर्स ग्रुप के सदस्य, सी.सी.ई. कार्यक्रम के दक्ष प्रशिक्षक, कक्षा एक से पाँच तक अध्यापन का विशेष अनुभव। कक्षा-कक्षीय प्रक्रियाओं को लेख के रूप में लिखा जिन्हें राजस्थान की शिविरा पत्रिका, अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन की टीचर्स ऑफ इंडिया एवं पाठशाला भीतर और बाहर में प्रकाशित किया गया।

सभी फोटो: विजय प्रकाश जैन।
एकलव्य में कार्यरत अलक्स एम जॉर्ज ने इस विषय पर शोध किया था जिसका मोनोग्राफ बच्चे और सरकार नाम से एकलव्य द्वारा प्रकाशित किया गया जो पिटारा, एकलव्य में उपलब्ध है। सरकार के बारे में बच्चों की क्या समझ होती है, इसे गहराई से जानने के लिए इस पुस्तिका को पढ़ सकते हैं।