मनोहर चमोली ‘मनु’

हर बार की तरह इस बार भी नया शिक्षा सत्र अप्रैल में शुरु हुआ। पर यह सत्र कुछ विशेष था। उत्तराखण्ड सरकार ने इसी साल से सभी शासकीय विद्यालयों में कक्षा एक  से  लेकर  आठवीं  तक एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा तैयार की गई पुस्तकों को लागू कर दिया। यह सब कुछ नियोजित ढंग से होता तो बेहतर था। परन्तु, अप्रैल शुरू होने को आया और किताबें बाज़ार में नहीं थीं। जुलाई तक भी सभी स्कूलों में किताबें न पहुँच पाने का अनुमान पहले ही लगा लिया गया था तो ऐसे में सरकार ने आनन-फानन में मिशन कोशिश नाम देकर दो माह का एक अभियान चलाया जो कक्षावार सीखने के लक्ष्य को हासिल करने जैसा था।

जो भी हो, भाषा की कक्षा के लिए यह बेहतर ही साबित हुआ। इस दौरान छात्रों को बस्ते में रखी जाने वाली एक अदद किताब से तो मुक्ति मिली  ही साथ ही, वे हिन्दी की किताब के पाठ पढ़ने और उसके प्रश्न-अभ्यास लिखने से फिलहाल आज़ाद थे।

कक्षा छह, सात और आठ के छात्रों को एक साथ बिठाकर हर रोज़ दो-दो पीरियड पढ़ाने की योजना बनी। चित्र-आधारित कुछ किताबें चुन ली गईं। चुनने का आधार कुछ विशेष नहीं था। बस यह ध्यान रखा गया कि चित्र बोलते-से हों। कहानी में छात्रों को अपने परिवेश नज़र आएँ। कहानी रोचक हो। अन्त तक जिज्ञासा बनाए रखती हो। लक्ष्य यही था कि क्या पाठ्यपुस्तक से इतर कहानी कक्षा में भाषाई कौशलों का विकास कर सकती है। इस सवाल के साथ पूरे पन्द्रह दिन की एक योजना बनाई गई। यहाँ एक कहानी के साथ कक्षा-कक्ष में जो अनुभव हासिल हुए, उन्हें केन्द्रित किया जा रहा है। आरम्भ के दो-तीन दिन में ही कुछ बातें स्पष्ट होती चली गईं।

  • कक्षा में कहानी भाषाई कौशलों का विहंगम विकास करती है।
  • पाठ की तरह न पढ़ाकर यदि कहानी को रोचक ढंग से पढ़ाया और सुनाया जाए तो छात्र सक्रिय रहते हैं।
  • हर छात्र में सीखने की गति भिन्न होती है लेकिन वे सामूहिकता में बेहतर ढंग से सीखते हैं।
  • कहानी समग्रता के साथ सीखने के भरपूर अवसर देती है।

इसकी पुष्टि करने के लिए कक्षा-कक्ष में एक चित्रात्मक कहानी माँ के समान और कौन की योजना बनाई गई। यह कहानी एक हज़ार तीन सौ शब्दों की है। किताब में छपी इस कहानी को पढ़ने में अमूमन दस मिनट भी नहीं लगते हैं। जब चित्रों के साथ पन्ने दर पन्ने पढ़ा जाता है तो यह कहानी अधिकतम बीस मिनट में पूरी कर ली जाती है। लेकिन जब बत्तीस पेज की किताब में छपी इस कहानी को चर्चा और कुछ सवाल-जवाब के साथ पढ़ा जाता है तो यह लगभग चालीस मिनट का समय लेती है। कक्षा में यदि दूसरे पीरियड की हड़बड़ाहट न हो तो यह कहानी भाषाई कौशलों के विकास के साथ लगभग एक घण्टा माँगती है। बदले में छात्रों के चेहरे आनन्द से भरे हुए मिलते हैं। वे कहानी के आरम्भ में, मध्य में और अन्त तक पहुँचते-पहुँचते कई मानवीय संवेगों से गुज़रते हुए साफ देखे जा सकते हैं।

कहानी के आवरण पर चर्चा 
छात्र संख्या को देखकर बच्चों को किताब के आसपास ही बिठाया जाता है। इतना पास कि वे कहानी के चित्र आसानी-से देख सकें। छात्र कम हैं तो अर्द्धचन्द्राकार बैठना ज़्यादा ठीक होगा। किताब के आवरण पर बात करते ही भाषा अपना काम करने लगती है। माँ के समान और कौन शीर्षक पढ़ने मात्र से चर्चा शुरु हो जाती है। छात्र बतलाने लगते हैं। हर बार छात्रों की नई और विस्तरित टिप्पणियाँ मिलती हैं। यहाँ पर अध्यापक का काम मात्र सुनना है। हर छात्र की बात को सुनना है। हामी भरनी है। चित्र देखकर हर एक छात्र अपने अनुभव के आधार पर अपनी राय देता है। अनुमान और कल्पना का सहारा लेता है। चर्चा में भाग ले चुके छात्रों के सहारे अन्य छात्र बात को आगे बढ़ाते हैं। दो-तीन अवसरों पर मात्र आवरण पर छात्रों के जो अनुभव सुनने को मिले हैं, उनमें से कुछ यहाँ दिए जा रहे हैं।

“एक माँ है। उसका बेटा है। माँ उसे बाण चलाना सिखा रही है। बच्चा तीर चला रहा है। धनुष है। बच्चे ने चड्डी नहीं पहनी है। कमर में एक लाल कपड़ा बाँधा हुआ है। बच्चे के बाल लम्बे हैं। नहीं, ये लड़का नहीं, लड़की है। नीला पहाड़ है। शाम का समय है। नहीं, सुबह का समय है। यह जंगल है। घना है। जंगल के पास ही माँ बच्चे के साथ रहती है। यह माँ नहीं टीचर है। चीड़ का पेड़ है। नहीं, यह ताड़ का पेड़ है। नहीं, ये नारियल का पेड़ है। यह उत्तराखण्ड का कोई गाँव है। नहीं, ये कहीं और का बच्चा है। कान में कुण्डल है तो यह लड़की है। लड़के भी कुण्डल पहनते हैं। लड़के भी लम्बे बाल रख सकते हैं। इस लड़के का मुण्डन नहीं हुआ है। यह लड़का पाँच साल से कम का है। ये ऐसी जगह रहते हैं जहाँ बच्चे बड़े हो जाते हैं और बाल नहीं कटाते। इस जंगल में बिजली नहीं है। दूर तक कोई सड़क नहीं है। यह पुराने ज़माने की माँ है।”

चर्चा का विस्तार
छात्रों की राय शुमारी अन्तहीन होती है। वे बहुत सारा समय लेते हैं और चित्र पर खूब बात करते हैं। पर्याप्त बातचीत के बाद  छात्रों द्वारा सुझाए गए सार्थक शब्दों को बड़े आकार में लिखा जाना ज़रूरी होगा। अब अध्यापक बात को आगे बढ़ाने के लिए कह सकते हैं - इस माँ का नाम रखा जाना है। सब इस बच्चे की माँ का नाम रखने में मेरी मदद करें। एक से एक विविधता से भरे नाम आते हैं। ये सब नाम छात्रों के अपने अनुभव से आते हैं। छात्रों द्वारा बताए गए नाम श्यामपट्ट पर लिखे जा सकते हैं। छात्रों से सुने गए माँ के नाम अपनी-अपनी कॉपी पर लिखने को कहा जा सकता है। कमला, सरोज, राधा, श्यामी, श्यामा, कृष्णा जैसे नाम अधिक आते हैं। कुछ नए नाम भी छात्र सुझाते हैं।

इसके बाद बच्चे का नाम सुझाने के लिए कहा जा सकता है। छात्र स्त्रीलिंग और पुल्लिंग, दोनों तरह के नाम सुझाते हैं। अध्यापक सभी नामों को लिखते चले जाते हैं। कम छात्र होने पर भी कम-से-कम दस नाम सामने आते हैं। इन नामों का लेखन करते समय छात्र उन नामों को दोहराते हैं, भले ही वे उन्हें न लिखें। इसके बाद चित्र में दिखाई दे रहे पेड़ के बारे में चर्चा आगे बढ़ाते हैं। छात्र अपने आसपास के पेड़ों के नाम सुझाते हैं। अध्यापक को चाहिए कि बताए जा रहे सभी नामों को लिखें। यहाँ सही-गलत से इतर भाषाई कौशल का विस्तार मकसद है।

पढ़कर सुनाने का पहला चरण
कहानी को पढ़कर सुनाने से पहले चित्र पर चर्चा में छात्र बातचीत करने लगते हैं। आवरण के चित्र के बाद यह चित्र कहानी को आगे बढ़ाता है। छात्र बेहद सक्रियता के साथ चर्चा में भाग लेते हैं जिसमें कहानी में प्रदर्शित उस गाँव की झलक मिलती है। बच्चे गाँव वालों के पहनावे पर बात करते हैं। बच्चों के पहनावे से उस गाँव का रहन-सहन सामने आता है। जंगली जानवरों के साथ पालतू पशुओं के बारे में चर्चा होती है। तीर-धनुष लिए बच्चे के बारे में बात होती है। इस चर्चा के बाद किताब में कहानी का आरम्भिक पैराग्राफ पढ़कर सुनाया जाता है।

पहला अनुच्छेद यानी पैरा यहाँ दिया जा रहा है-
किसी गाँव में     एक महिला रहती थी। उसका एक बेटा था। बेटे के अलावा उसका कोई और नहीं था। जिस समय की यह कहानी है, उस समय पशु-पक्षियों का मांस खाकर लोग जीवन यापन करते थे। इसी कारण माता-पिता बचपन से ही अपने बच्चों को धनुष-तीर से शिकार करना सिखाया करते थे। बच्चे भी धनुष-तीर से जंगलों में शिकार करना सीखते थे। बड़े होकर वे कुशल शिकारी बन जाते थे।

इस अनुच्छेद को पढ़ने के बाद कहानी पर चर्चा होने लगती है। छात्र बताने लगते हैं। “बहुत पुरानी बात है। पुराने ज़माने की बात है। यह तब की बात है जब गाँव वाले जंगल में रहते थे। एक गाँव है। वहाँ एक माँ है। उसका एक बेटा है। बेटा अकेला है। वे दोनों अकेले हैं। गाँव वालों के अजीब रिवाज़ हैं। वे शिकार करते हैं। शिकार से ही अपना पेट भरते हैं। तीर-धनुष चलाना ही उनका काम है। बच्चे बचपन से ही शिकार करना सीख जाते हैं।”

चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले एक बार पुनरावलोकन करते हैं तो पाते हैं कि कहानी का पहला पैरा छात्र अपने शब्दों में सुनाने को आतुर हैं। यहाँ रुककर कहा जा सकता है, “तो हमने अभी एक कहानी शुरू की। कौन अब तक सुनी कहानी को सुनाएगा?” एक के बाद एक छात्र अब तक सुनी हुई कहानी को सुनाने लगते हैं। मन से। अपने हिसाब से। दो-तीन छात्रों को सुनकर यह भी कहा जा सकता है कि “कोई ज़रूरी बात जो कहानी में आई थी और छूट गई हो, कहना चाहेंगे?” यह कमाल का होता है। यहाँ छात्र अपने अनुभव से नई-नई बातें कहने लगते हैं। शिकार और शिकारी की बात करते हैं। जंगली जानवरों की बात करने लगते हैं। भाई-बहनों की बातें करने लगते हैं। पशु-पक्षियों की बातें करने लगते हैं। कक्षा-कक्ष में यदि छात्र एक के बाद एक बातचीत का सिलसिला जारी रखते हैं तो वे अभिव्यक्ति के ज़रिए अपनी भाषा और अभिमत को समृद्ध कर रहे होते हैं।

कहानी को आगे बढ़ाने से पहले  
छात्र इस दिशा में भी लगातार सोचते रहते हैं -- अब आगे क्या होगा? यह सवाल छात्रों से पूछना विमर्श को आगे बढ़ाता है। उनका ध्यान अब तक की चर्चा की ओर जाता है। यहाँ एक बार फिर से कहानी का पहला पैरा पढ़कर सुनाना बेहतर रहता है, जिसके बाद छात्रों की टिप्पणियाँ कुछ इस तरह की होती हैं। “ये लड़का शिकारी बन जाएगा। ये शिकार करेगा। खतरनाक जानवरों को मारेगा। ये लड़का माँ की मदद करेगा।” चूँकि कहानी का यह पहला पैरा है, सो कहानी पर विविधता भरे अनुमान कम ही आते हैं। मात्र सात वाक्यों से किसी कहानी में आगे क्या होगा, कह पाना कठिन होता है।

क्या-क्या करती है कहानी?  
कहानी  भाषाई  कौशलों  के विकास में तो मददगार साबित होती ही है, लेकिन हर बार यदि कहानी यही हो और छात्र दूसरे हों तो अनुभव भिन्न-भिन्न हासिल होते हैं। इसे स्वयं महसूस करते हुए देखना प्रभावी रहता है। कहानी पूरी कर लेने के बाद दस मिनट की जो चर्चा अध्यापकों के साथ और पाठकों-श्रोताओं के साथ होती है, उससे कहानी कहना और पढ़ना समृद्ध होता चला जाता है। अलग-अलग जगह पर अध्यापकों ने इस कहानी के उपरान्त जो बातचीत साझा की, उसका सार निम्न है।

  • बच्चों को अपनी राय रखने के खूब मौके मिलते हैं।
  • कहानी के साथ-साथ ध्वनियाँ भी पढ़ी जा रही थीं। सुनी जा रही थीं। ऐसे में बच्चे आनन्दित होते हैं।
  • बच्चे अपने आसपास के अनुभव जोड़ते हैं।
  • बच्चे अनुमान लगाएँगे। कहानी के अगले चरण में भले ही वे अनुमान गलत साबित हों लेकिन अध्यापक की ओर से सभी अनुमानों का स्वागत महत्वपूर्ण होता है।
  • धीरे-धीरे अनुमान और कल्पना कहानी को नए तरीके से समझने की ताकत देंगे।
  • छात्रों में आगे क्या होगा, इस ओर जिज्ञासा बढ़ेगी और वे एकाग्र होकर कहानी को सुनेंगे।
  • कहानी सस्वर पढ़ी जाएगी और बच्चे अर्थ-निमार्ण की प्रक्रिया में शामिल होंगे।
  • कहानी पढ़ते हुए बच्चे सुन सकेंगे और अनुमान लगाकर वे अधूरे वाक्यों को पूरा भी कर रहे होंगे।
  • कहानी को एक पन्ने से दूसरे पन्ने में ले जाने की प्रक्रिया में बच्चे आतुर होंगे। वे आलोचनात्मक ढंग से सोचते हुए अपनी बात रखेंगे।
  • कहानी पढ़ते और सुनते हुए बच्चे अपनी सरल अभिव्यक्ति तो करेंगे ही, कुछ नए शब्दों के आते ही वे सन्दर्भ से उनके अर्थ भी सायास समझ लेते हैं।
  • अर्थपूर्ण वाक्यों को पढ़ते हुए सुनना रोचक रहेगा। वे कहानी में पाए जाने वाले खास शब्दों को ध्वनि के स्तर पर संवेगों के साथ जोड़ पाएँगे।
  • बच्चे सहजता से सामाजिक ताने-बाने की अवधारणाएँ कहानी के माध्यम से तलाशेंगे और उसे अपने जीवन से जोड़ भी लेंगे।
  • बच्चों की सक्रियता बढ़ेगी और वे परस्पर भागीदारी का हिस्सा बनेंगे।
  • कहानी के ऐसे वाचन से बच्चे ‘सहजता से कैसे पढ़ा जाता है’, इस ओर उन्मुख होंगे।
  • एक ही कहानी के माध्यम से एक साथ अँग्रेज़ी, हिन्दी और गणित को साथ-साथ पढ़ाया जा सकता है। किसी भी कहानी की कथावस्तु से पर्यावरण, सामाजिक विज्ञान के साथ-साथ सामाजिक व्यवहार पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है।
  • कहानी पढ़ने के इस तरीके से पढ़ने के साथ-साथ श्यामपट्ट का प्रयोग करते हुए लेखन की ओर भी ध्यान दिलाया जा सकता है।
  • कहानी में प्रयुक्त खास शब्दों से लिखना सिखाना आसान हो सकेगा।
  • कहानी कहने और पढ़ने के रोचक तरीके से जिज्ञासा बनी रहती है और कल्पना के अधिकाधिक अवसर पाकर बच्चे तर्कपूर्ण ढंग से सोचते हुए बातचीत का हिस्सा बनेंगे।
  • नए पन्ने पर जाने से पूर्व बच्चों से कहानी का पुनरावलोकन करवाना कारगर तरीका है। दोहराते हुए बच्चे सायास ही कहानी की क्रमबद्धता समझ लेते हैं। यह तरीका रटने के परम्परागत तरीके को तोड़ता हुआ, करके सीखने पर ज़ोर देता है।
  • कहानी कहने और कहानी पढ़ने के तरीके में सभी छात्र सहयात्री की तरह एक सफर पर रहेंगे और आनन्दित  होंगे।  हर  किसी  की सहभागिता इस तरीके का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
  • शिक्षक पढ़ाते समय वैज्ञानिक नज़रिए को भी चर्चा में शामिल कर सकता है। कहानी में एकाग्र बच्चे इस पर सार्थक चर्चा कर पाएँगे।
  • कहानी में नए और कठिन शब्द आते हैं। अर्थ बताए बिना ही बच्चे सहजता से उनके मायने समझ लेते हैं। उन शब्दों के पर्याय और समानार्थी शब्दों की चर्चा कहानी को और भी रोचक बना देती है।

कहानी कोई भी हो, यदि सार्थक चर्चा के साथ वह पढ़ी और सुनाई जाती है तो कमोबेश ऐसा ही होगा। बशर्ते उसे अर्थ के साथ पढ़ा जाए। छात्र उसे सुन रहे हों। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, उसके पात्रों और घटनाओं पर बात की जाती है। कहानी के बहाने उन्हें असल जीवन के तौर-तरीकों, परिवेश और छात्रों के अनुभवों से जोड़ा जाता हो। कहानी कहीं-न-कहीं किसी केन्द्रिय भाव को लेकर चल रही होती है लेकिन भाषाई कौशलों के विस्तार के लिए यह ज़रूरी है कि कहानी पढ़ते और सुनाते समय हम प्रत्येक छात्र की अभिव्यक्ति को स्थान दें। छात्रों द्वारा प्रकट किए जा रहे विचारों का स्वागत करें और किसी के अनुमान  को,  टिप्पणी  को  और मान्यताओं को खारिज न करें।  

चित्राधारित कहानियों में नायाब खासियतें होती हैं। वे उन बच्चों में भी भाषाई कौशलों का विस्तार करती हैं जो अभी तक स्कूल ही नहीं गए। वे कहानियाँ कक्षा एक-दो में पढ़ने वाले बच्चों के साथ भी उतनी ही कारगर होती हैं जितना कक्षा नौ-दस में  पढ़ने  वाले  छात्रों  के  साथ। चित्राधारित कहानी ऐसे पाठक वर्ग के साथ भी बेहतर संवाद करती हैं जहाँ चार साल से लेकर पन्द्रह साल के बच्चे एक साथ बैठे हों। ये कहानियाँ दो बच्चों के साथ या साठ बच्चों के साथ संवाद करने में सक्षम होती हैं।


मनोहर चमोली ‘मनु’: उत्तराखण्ड के सार्वजनिक विद्यालय, राजकीय हाईस्कूल भितांई, पौड़ी गढ़वाल में भाषा के अध्यापक हैं।
सभी चित्र: शैलेश गुप्ता: आर्किटेक्ट और चित्रकार जो आज भी बचपन को संजोए रखना चाहते हैं। एमआईटीएस, ग्वालियर से आर्किटेक्चर की पढ़ाई। कहानियाँ सुनने और सुनाने का शौक है। भोपाल में रहते हैं।