शारदा कुमारी

कार्तिक माह का पहला पखवाड़ा है। एक समय था जब इस माह के चढ़ते ही सुबह-सवेरे की सपनीली-सी हवा शरीर में झुरझुरी पैदा करती थी, पर अब? अब तो लगता ही नहीं कि कार्तिक चढ़ गया है। लगे भी कैसे, शरीर से तो पसीना अब भी ऐसे झरता है जैसे जेठ अभी गया ही नहीं। चलिए इस बात को अभी यहीं छोड़ते हैं क्योंकि अभी मैं आपको भारत की राजमहिषी राजधानी दिल्ली के एक विद्यालय में ले जा रही हूँ। मौसम का ज़िक्र तो कुछ इस तरह से आ गया कि इधर कार्तिक माह चढ़ा, उधर गर्म परिधानों की बक्सियाँ खुलीं और साथ-साथ शुरू हुआ हमारा ‘विद्यालय अनुभव कार्यक्रम’ जिसे टीचिंग प्रैक्टिस भी कहा जाता है।

अध्यापक-शिक्षा की पाठ्यचर्या का नवीकरण हुए न जाने कितना अर्सा हो गया है जिसमें ‘विद्यालय अनुभव कार्यक्रम’ की बात कही गई है, पर प्रचलन अब भी ‘टीचिंग प्रैक्टिस’ का ही है। तो पाठको, आज मैं दक्षिणी दिल्ली के सर्वोदय विद्यालय की कक्षा तीन में बैठी हूँ। मेरे विद्यार्थियों को अभी कक्षा का आवंटन नहीं हुआ है, तो सोचा तब तक यहाँ की नियमित कक्षाओं का ही अवलोकन कर लेती हूँ।

व्याकरण की कक्षा
हालाँकि, घण्टी बजे देर हो गई है पर कक्षा में अध्यापिका अभी पहुँची नहीं हैं। अध्यापिका की अनुपस्थिति में भीतर जाऊँ, न जाऊँ, अभी इस पशोपेश में थी कि वे आ पहुँचीं, एकदम चुस्त-दुरुस्त, पढ़ाने को एकदम बेताब-सी दिख रही थीं। पहले की पहचान काम आई और कक्षा में प्रविष्टि के लिए किसी तरह की कठिनाई नहीं हुर्ई। जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि वे पढ़ाई करवाने के लिए एकदम बेचैन-सी नज़र आ रही थीं, सो आते ही श्यामपट्ट पर बीचम-बीच लिखा ‘विशेषण’ और बोलीं, “आज तुम्हें, ‘विशेषण’ करवाती हूँ। मालूम है तुम्हें ‘विशेषण’ क्या होते हैं?”

सभी बच्चे चुप हैं। लग ही नहीं रहा कि ये वही कक्षा है जहाँ कुछ क्षण पहले मेले जैसी रौनक थी।

“हाँ भई, बोलते क्यों नहीं कुछ? क्यों री शेफाली, तुझे तो पक्का पता होगा। तुझे नहीं पता तो फिर किसको पता होगा? चलो कोई नहीं, निकालो सब अपनी-अपनी कॉपी और लिखो ....।” बच्चे पूरी बात सुन एवं समझ पाए या नहीं, इस बात की परवाह किए बगैर अध्यापिका श्यामपट्ट पर लिखने लगीं - जो शब्द संज्ञा एवं सर्वनाम की विशेषता बताते हैं, उन्हें ‘विशेषण’ कहते हैं। लिखते-लिखते वे पलटकर बोलीं, “अभी तुम्हारी कॉपी-पैंसिल तक नहीं निकली और मैंनेे पूरी परिभाषा तक लिख दी।”

कुछ और फुर्तीले भाव से कक्षा में कभी इधर तो कभी उधर जाते हुए बोलीं, “निकाल भई, कॉपी निकाल और तुम, तुम क्या सोच रहे हो, कॉपी लाए कि नहीं लाए?” कहते-कहते फुर्ती-से फिर वे श्यामपट्ट पर जा पहुँचीं और उनके हाथ की चॉक श्यामपट्ट पर फिसलने लगी।

  • सीता की साड़ी पीली है।
  • हनुमान की गदा विशाल है।
  • अशोक वाटिका सुन्दर है।
  • गंगा पवित्र नदी है।
  • शेर जंगली जानवर है।

पाँचों वाक्य लिखने के बाद वे बच्चों की तरफ मुड़ीं और समझाने के लहज़े में बोलीं, “देखो, ये मैंने पाँच वाक्य लिखे हैं न, हर वाक्य में किसी-न-किसी शब्द को मैंने अंडरलाइन किया है। तो इन अंडरलाइन शब्दों को ‘विशेषण’ कहते हैं। समझ में आया इन्हें क्या कहते हैं?” “विशेषण!” समूची कक्षा से एक साथ कोरस गान हुआ।

“वैरी गुड,” अब आप ये सब कॉपी में नोट करें, फिर मैं आपको एक वर्कशीट करने के लिए दूँगी। यह कहते-कहते अध्यापिका मेरे पास आईं।

उन्होंने मुझे कागज़ों का बड़ा-सा पुलिन्दा पकड़ाया और बोलीं, “मैम, देखिए मैंने कई सारी वर्कशीट डिवेलप की हैं। कुछ के तो मैंने पी.पी.टी. भी विकसित किए हैं। आप देख रही हैं न! हमारी सारी कक्षाएँ स्मार्ट क्लास हो गई हैं तो हमें हर-रोज़ एक पी.पी.टी. तो देना ही देना है। आप इन वर्कशीट पर अपने कुछ सुझाव दीजिए न प्लीज़! बहुत मेहनत की है मैंने इन पर।”

व्याकरण एक अलग तरीके से
ठीक चार दिन बाद इसी कक्षा में मेरी प्रशिक्षणार्थी बतौर प्रशिक्षु अध्यापक मौजूद है। आज वह ‘विशेषण’ पढ़ा रही है। हालाँकि, अध्यापक ने उसे बता दिया है कि संज्ञा, सर्वनाम वे कवर कर चुकी हैं। पर इस प्रशिक्षु अध्यापक से मेरा अनुरोध था कि कक्षा में मेलजोल-मस्ती हो जाने के बाद शुरुआत किसी कहानी और फिर विशेषण से ही की जाए। सो आज की कक्षा पुन: ‘विशेषण’ के नाम। आइए, आप भी अवलोकन करें।

उल्लास भरे अभिवादन के बाद बच्चों को सादे कागज़ वितरित किए गए। मॉनीटरनुमा विद्यार्थियों ने इस कार्य में भरपूर मदद की। अब उनसे कहा गया, “अपने-अपने मन में बहुत-सी चीज़ों के नाम सोचो। तुम्हें जो भी चीज़ सुन्दर लगती है, अच्छी लगती है, उसका चित्र इस कागज़ पर बनाओ।” अनुरोधनुमा निर्देश सुनकर बच्चे खुश दिखाई दिए।

कुछेक के तो ज्यामिती बॉक्स खुलने लगे। चटर-पटर-चर और सोचे-समझे बिना उनकी पैंसिलें उस सादे कागज़ पर थिरकने लगीं और कुछ विद्यार्थी सवालों की झड़ी लगाए आगे तक आ पहुँचे, ‘मैम जी, मैम जी, इस तरफ बनाऊँ कि उल्टी तरफ?” पन्ना उलट- पुलटकर दिखाते हुए। “मैम जी, ऊपर की तरफ बना लूँ?”, “मैम जी, मेरे को नी आती ड्रॉईंग।” सकुचाहट के बोझ-तले स्वयं को दबाते हुए। “मैम जी, साइकिल का पहिया बना लूँ?” “मैम जी, कलर भी करना है?” “मैम जी, आप ऐसा रोज़ करवाओगे?” बहुत ही खुश होते हुए। “मैम, मेरा पन्ना बाकी से छोटा है।” “मैम जी, मेरा पन्ना यहाँ से फट गया है।” “मैम जी, शमसी को कुछ भी सोचना नहीं आता। उसका पन्ना मैं ही ले लूँ?” “मैम जी, फिर क्या करवाओगे आप?” पन्ने को अपनी बगल में सहेजते हुए।

जो भी हो, तीसेक मिनट के बाद हर बच्चे के पास पन्ना था और उस पन्ने पर बनाई हुई एक तस्वीर, उनकी मनपसन्द चीज़ की तस्वीर।

कक्षा के पिछले दरवाज़े के पास बैठी श्यामली से शुरुआत हुई, यह बताने के लिए कि किसने क्या बनाया है। तो सूची कुछ इस प्रकार थी - तुलसी मैया, लट्टू, जलेबी, कमल का फूल, पतंग, माचिस, तितली, चिड़िया, साइकिल का पहिया, बस, कछुआ, झण्डा, लाल बत्ती, हाथी, आम, झोंपड़ी, पेड़, जोकर, लिटिल टॉमी (कुत्ते के चित्र के साथ यह शीर्षक लिखा था)।

कलात्मक अभिव्यक्ति का विश्लेषण
अपने इस नितान्त मौलिक सृजनात्मक कार्य के बाद बच्चों में होड़ थी कि वे प्रशिक्षु अध्यापक को दिखाएँ, यद्यपि कुछेक बच्चे अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को टकटकी लगाकर देख रहे थे। सभी बच्चों से उनकी कलाकृति ले ली गई और उनसे कहा गया, “देखो, इस बण्डल में से मैं आँख मींचकर एक चित्र निकालूँगी और फिर उसको सब मिलकर देखेंगे।” कक्षा के मध्य में बैठी लड़की को आगे बुलवाकर, आँख बन्द करवाकर एक कागज़ निकलवाया गया। कागज़ पर बना था ‘साइकिल का पहिया’। प्रशिक्षु अध्यापक ने पहले वहीं से, फिर आगे-पीछे इधर-उधर जाकर सब बच्चों को ‘साइकिल का पहिया’ दिखाया। जिस बच्चे की यह चित्रकारी थी, वह तो बस यही कहे जा रहा था, “मेरा पहिया, मेरा पहिया, मेरा पहिया, वा जी वाह, मेरा पहिया।”

प्रशिक्षु अध्यापक ने समूची कक्षा में उद्घोषणा की, “देखो, मेरे हाथ में है साइकिल के पहिए का चित्र।” पीछे से आवाज़ आई, “समझ लो कि असली का पहिया।”

प्रशिक्षु अध्यापक ने भी सुर में सुर मिलाया, “हाँ जी, समझ लो कि असली का पहिया। अब तुम सबको बताना है कि ये पहिया तुम को कैसा लग रहा है। यानी कि तुम्हें इस पहिए की कोई खास बात बतानी है। अब देखो इस पहिए के चित्र को, मैं यहाँ बीचम-बीच लगा देती हूँ जिससे कि सबको दिखता रहे।”

बहुत-से बच्चे उसके पास आ गए थे, कुछ छू रहे थे, कुछ सहला रहे थे, कुछ पैंसिल की नोंक से शेडिंग का प्रयास कर रहे थे।

प्रशिक्षु अध्यापक ने इस चेष्टा पर एतराज़ जताया और बोला, “देखो, मैंनेे तुमसे कहा न कि हमें इस पहिए की खास बात के बारे में कोई शब्द बोलना है।” फिर मेरी तरफ मुखातिब होते हुए बोली, “मैम, शुरुआत आप से करते हैं, बोलिए आपको कैसा लगता है यह पहिया?”

मैं समझ गई कि बच्चों को संकेत देना है तो मैंनेे थोड़ा-सा अभिनय करते हुए कहा, “मुझे तो यह पहिया गोल लगता है।”

“तो शारदा मैम को यह पहिया ‘गोल’ लगता है,” कहते हुए श्यामपट्ट पर ‘गोल’ शब्द लिख दिया। मुझसे ‘गोल’ का संकेत मिलते ही कई बच्चे चिल्लाए, “हाँ मैम जी, पहिया गोल है, गोल।”
“और कैसा दिखता है तुम्हें यह पहिया?” प्रशिक्षु अध्यापक ने फिर से पहिए की आकृति की ओर संकेत करते हुए कहा। आगे बैठे धीरज ने धीमे-से कहा, “फुस्सू पहिया।” ‘गोल’ के साथ ‘फुस्सू’ शब्द भी श्यामपट्ट पर दर्ज़ हो गया। और अब तो पहिए की खासियत बताने वाले शब्दों की झड़ी ही लग गई। श्यामपट्ट इन सब शब्दों से भर गया-

पुराना, गोल, फुस्सू, काला, असली, नया, चमकदार, बेकार, निक्का, नकली, रोन्टू, मरियल, मटमैला, जंग लगा, छोटा, तीलीदार।

काफी शब्द आने के बाद प्रशिक्षु अध्यापक ने अपनी चॉक की गति को विराम दिया और एक बार सभी शब्दों को दोहराया, फिर समझाया कि ये शब्द बताते हैं कि पहिया ‘कैसा’ है। तो किसी भी चीज़ की कोई खास बात, चाहे अच्छी वाली खास बात या बुरी वाली खास बात हो, हम ऐसे शब्दों को ‘विशेषण’ कहते हैं।
अब अभ्यास के लिए एक और चित्र निकाला गया। अब की बार ‘चिड़िया’ का चित्र हाथ लगा। पूरी प्रक्रिया दोहराई गई, सवाल दोहराया गया और श्यामपट्ट पर नतीजा कुछ इस प्रकार से था-

चूँचूँ, रंगबिरंगी, छोटी, गोलू-मोलू, चण्ट, भूरी, भूखी, ननकू-सी, ब्राउन, मॉडर्न, नन्हीं, सुन्दर, प्यारी, नखरीली, चमकीली, मक्खीमार...

सभी बच्चों के साथ शब्द दोहराए गए और समझाया गया कि कैसे ये शब्द चिड़िया की खास बात बता रहे हैं। ये खासियत, विशेष बात बताने वाले शब्द ‘विशेषण’ कहलाते हैं।
बच्चों को उनकी चित्रकारी वापिस कर दी गई और अपने-अपने चित्र पर ‘एक विशेषण’ लिखने एवं बोलने के लिए कहा गया। कुछ के उत्तर आपसे साझा कर रही हूँ:

  • झोपड़ी- छतवाली, झब्बरदार।
  • जलेबी- नारंगी, घुमरीली, रसीली।
  • पैंसिल- लाल, नुकीली।
  • तितली- सुन्दर, चमकीली।
  • कमल का फूल- गुलाबी, सॉफ्ट।
  • पतंग- सुन्दर, छबीली, रंगीन, कागज़ी, पतली, अकेली, नोनी-नोनी, जोगिय, कटखन्नी, जबरजोर।
  • झण्डा- तिरंगा, सुन्दर, देशी, लहरदार, हरियाला, सोन चिराग, सरदारों का सरदार, पहरेदार झण्डा, ऊँचा।

सभी बच्चों ने चित्र पर अपने मन से शब्द लिखे और कक्षा में बोलकर सुनाया। किसी-किसी ने तो यह भी बताया कि उसने अपने चित्र को ‘अमुक’ शब्द से सम्बोधित क्यों किया है।

प्रक्रिया पर शिक्षिका की टिप्पणी
इस पूरी प्रक्रिया में लगभग तीन घण्टे लगे। तीन घण्टे में देखिए तो कितने ‘विशेषण’ और ‘विशेषण’ की समझ हासिल की गई। कक्षा अध्यापिका प्रभावित तो थीं, परन्तु सन्तुष्ट नहीं। उनकी कुछ टिप्पणियाँ मैं आपसे साझा कर रही हूँ।

  • बहुत ही ‘टाइम कंज़्यूमिंग’ है। इतना समय यदि एक ही गतिविधि में लगेगा तो बाकी का सिलेबस कैसे कवर होगा?
  • कुछ बच्चे तो अजीब-अजीब-से घरेलू शब्द बोल रहे थे जैसे नोनी-नोनी, घुमरीली, ननकू, चूँचूँ। इन्हें कैसे स्वीकार किया जा सकता है कक्षा में?
  • कुछ बच्चों ने अपने विशेषण अँग्रेज़ी में दिए जैसे ब्राउन, सॉफ्ट। यह तो हिन्दी की कक्षा है। इसमें अन्य भाषा के, वह भी अँग्रेज़ी भाषा के शब्द कैसे लिए जा सकते हैं?
  • इतने सारे विशेषण जब कॉपी में आएँगे तो ज़रूरी नहीं कि हर बच्चा सही वर्तनी लिखे। जाँचने का कितना काम बढ़ जाएगा मैम, यह भी सोचा है आपने? आफ्टर ऑल, टाइम फैक्टर इज़ मोर इम्पॉर्टेंट। आपकी बच्ची तो ट्रेनी है और ये सब चोंचले ट्रेनिंग तक ही ठीक हैं।

कक्षा अध्यापिका की टिप्पणियों से न तो मैं आहत हुई हूँ और न ही मेरे प्रशिक्षणार्थी हतोत्साहित हुए हैं। बच्चों के अनुभवों को शामिल करते हुए और कला समावेशित करते हुए व्याकरण की अवधारणाओं को पढ़ाने-समझाने का सिलसिला जारी है।

बच्चों का शब्द भण्डार
इस दौरान एक बहुत ही रोमांचित कर देने वाला अनुभव हुआ। एक अन्य अभ्यास में प्रशिक्षु अध्यापक ने सभी बच्चों को एक-एक चित्र देखने के लिए दिया। कुछ इस प्रकार के चित्र बच्चों को दिए गए: कप-प्लेट, अनार, भरी हुई बस, सैल-फोन, ओखली, स्त्री, नल, कुआँ, गुड़िया, ठेला आदि।

चित्रों की विषयवस्तु, छपाई आदि देखकर लग रहा था कि एक समय-विशेष में वर्णमाला सिखाने वाले चार्टपेपर से ये चित्र काटे गए हैं। ये सभी चित्र एक टोकरी में रख दिए गए और प्रशिक्षु अध्यापक ने बच्चों से कहा कि टोकरी में से एक-एक चित्र निकालें, उसे ध्यान से देखें और जिस वस्तु/जीव का चित्र है, पहचान करें और पहचानकर चित्र के नीचे उसका नाम लिख दें। साथ ही, उसके लिए एक विशेषण भी लिखें। सभी बच्चों ने बहुत सुरुचिपूर्ण तरीके से अपने-अपने चित्र के लिए विशेषण और उस चित्र का नाम लिखा।

मैं दो चित्रों का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहूँगी। एक बच्चे को 10-12 वर्ष की आयु वाली लड़की का चित्र मिला। बच्चे ने उसके नीचे लिखा ‘यंगनी लड़की’। एक बच्चे के पास लोगों से भरी बस का चित्र आया। उसने उसके नीचे लिख दिया ‘भरियल बस’। प्रशिक्षु अध्यापक ने मुझसे पूछा कि इन दोनों बच्चों को अंक दिए जाएँ क्या। सोचने-विचारने या अंक काटने का तो सवाल ही नहीं था। उस बच्चे में तो बिना सिखाए ही व्याकरण की अवधारणाओं की समझ झलक रही थी।

देखिए, वह जानती-समझती थी कि किसी शब्द विशेष में ‘नी’ लगा देने से वह स्त्रीलिंग हो जाता है जैसे - कमल से कमलिनी, नौकर-नौकरानी, मास्टर-मास्टरनी आदि। इस तरह के प्रयोग उसने अपने घर, आस-पड़ोस एवं स्कूल में सुने होंगेे और पढ़े भी होंगे। अब देखिए, कितनी खूबसूरती से उसने अपनी शब्द सम्पदा में से ‘यंग’ शब्द लेकर उसे ‘यंगनी’ बना दिया। क्या व्याकरण के प्रकाण्ड पण्डित इस शब्द को गलत ठहराने का दुःसाहस कर सकते हैं? इसी प्रकार ‘भरियल बस’ के सन्दर्भ में ‘भरियल’ शब्द सम्भवत: बच्चे ने अड़ियल शब्द के आधार पर ईजाद किया होगा।

मुझे हैरानी होती है, हर उस अध्यापक पर जो सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बच्चों के अनुभवों व शब्द सम्पदा को साझा करने में कंजूसी करते हैं और इसे समय का अपव्यय मानते हैं। ऐसा न करके वे कितने बड़े खज़ाने से वंचित हो रहे हैं, वे नहीं जानते।


शारदा कुमारी: डाइट, नई दिल्ली में प्रधानाध्यापक हैं। दिल्ली और राजस्थान राज्यों की एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्यपुस्तकों को विकसित करने में योगदान। साथ ही, दिल्ली में प्री-प्रायमरी की शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम, अभ्यास पुस्तिका, मूल्यांकन कार्ड और अन्य टीएलएम विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

सभी चित्र: सौम्या मैनन: चित्रकार एवं एनिमेशन फिल्मकार। विभिन्न प्रकाशकों के बच्चों की किताबों एवं पत्रिकाओं के लिए चित्र बनाए हैं। बच्चों के साथ काम करना पसन्द करती हैं।