अंजु दास मानिकपुरी

भाग - 1

सन् 2015 अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाश वर्ष के रूप में मनाया जा रहा था। प्रकाश के गुण, प्रकाश सम्बन्धी परिघटनाओं और प्रकाश के अनुप्रयोग पर चर्चा के लिए जगह-जगह गोष्ठी, सम्मेलन, वक्तव्य, कार्यशाला आदि आयोजित हो रहे थे, तो मन में प्रकाश के बारे में और पढ़ने की जिज्ञासा हुई। इसी क्रम में पढ़ते-पढ़ते कुछ लिखने का भी मन हुआ तो प्रकाश द्वारा एक सेकण्ड में तय की जाने वाली 30,00,00,000 मीटर की यात्रा पर जाने का विचार जागा। प्रस्तुत लेख में उसी यात्रा के कुछ अंश का ज़िक्र कर रही हूँ।

लगभग सत्रहवीं शताब्दी तक कुछ दार्शनिकों जैसे अरस्तू, केप्लर और देकार्ते की यह मान्यता थी कि प्रकाश की चाल अनन्त है। लेकिन रोजर बेकन (1250 ईस्वी) और फ्रांसिस बेकन (1600 ईस्वी) को लगता था कि कुछ तो समय सीमा होगी जिसमें प्रकाश धरती पर पहुँचता है और इस तरह दोनों ने प्रकाश की एक अनन्त गति के खिलाफ बहस छेड़ी। पर यह विचार केवल कुछ लेखों में एक विचार के रूप में सिमट गया। कालान्तर में और कई वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रकाश की चाल अधिक तो ज़रूर है किन्तु अनन्त नहीं है। लेकिन इसे और अधिक जानने का सबसे पहला प्रयास गैलीलियो ने सन् 1600 में किया। हालाँकि, वे एक निश्चित अंक तो नहीं बता पाए किन्तु उनके प्रयास ने अन्य वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को और भी प्रयास करने के लिए प्रोत्साहन देने का काम अवश्य किया।

गैलीलियो की कोशिश
गैलीलियो ने प्रकाश की चाल ज्ञात करने के लिए एक प्रयोग किया। गैलीलियो इतना तो जानते ही थे कि प्रकाश की चाल बहुत अधिक होगी। इसके आधार पर वे जानते थे कि प्रकाश की चाल निकालने के लिए जो दूरी ली जाएगी, वह भी बहुत अधिक होगी। उन्होंनेे सोचा कि करीब एक मील की दूरी पर्याप्त होगी। इसके लिए उन्होंने पास-पास स्थित दो पहाड़ियाँ चुनीं। इनके शिखरों के बीच की दूरी एक मील के आसपास थी। अब उन्होंने दो लालटेन लिए, दोनों में खिड़की की व्यवस्था थी। विचार यह था कि एक पहाड़ी पर गैलीलियो खुद चढ़ेंगे और दूसरी पहाड़ी पर उनका कोई सहयोगी। दोनों के लालटेन जलते होंगे लेकिन खिड़कियाँं बन्द होंगी। पहले गैलीलियो अपने लालटेन की खिड़की खोल देंगे और समय गिनना शुरू कर देंगे। जैसे ही दूसरी पहाड़ी पर खड़े सहयोगी को गैलीलियो के लालटेन की रोशनी दिखाई देगी, वह अपने लालटेन की खिड़की खोल देगा। गैलीलियो को जैसे ही सहयोगी के लालटेन की रोशनी दिखाई देगी, वे समय गिनना बन्द कर देंगे।

यह वह समय होगा जो गैलीलियो के लालटेन से रोशनी को पास की पहाड़ी पर पहुँचने और पास की पहाड़ी पर खड़े उनके सहयोगी के लालटेन से रोशनी को वापिस गैलीलियो तक पहुँचने में लगा है। दूरी तो मालूम ही है, दो मील। करना बस इतना ही है कि दो मील में ऊपर नापे गए समय का भाग देकर प्रकाश की चाल निकाल लेनी है।

उन्होंने इस प्रयोग को कई मर्तबा किया। प्रकाश की चाल का मान हर बार अलग-अलग आता था।

गैलीलियो को लगा कि शायद चाल का जो मान निकल रहा है, वह प्रकाश की चाल नहीं है बल्कि सहयोगी द्वारा उनके लालटेन की रोशनी को देखने तथा उसके बाद अपने लालटेन की खिड़की खोलने में लगने वाला समय यानी प्रतिक्रिया की अवधि है।

इस समस्या से निपटने का उन्होंने एक अनोखा तरीका निकाला। हालाँकि, उस तरीके से भी वे ज़्यादा कुछ हासिल नहीं कर पाए मगर तरीका दिलचस्प है।

गैलीलियो ने सोचा कि यदि स्वयं और सहयोगी के बीच की दूरी बढ़ा दी जाए तो काम बन सकता है। उनका तर्क इस प्रकार था, दूरी बढ़ाने के बाद भी सहयोगी की प्रतिक्रिया अवधि तो पहले जितनी ही रहेगी। करेंगे यह कि पहले दो मील की कुल दूरी रखकर प्रकाश को पहुँचने में लगने वाला समय नापेंगे। यह समय होगा प्रकाश को दो मील की दूरी तय करने में लगा समय धन सहयोगी की प्रतिक्रिया अवधि अर्थात् प्रकाश द्वारा तय की गई दूरी में सहयोगी की प्रतिक्रिया अवधि का जोड़।

अब मान लीजिए, दूरी को दुगना कर दें। तो जो समय लगेगा, वह होगा प्रकाश को चार मील की दूरी तय करने में लगा समय धन सहयोगी की प्रतिक्रिया अवधि।
दूसरे प्रयोग में लगे समय में से पहले प्रयोग में लगा समय घटा देंगे, तो सहयोगी की प्रतिक्रिया अवधि शून्य हो जाएगी और दो मील की दूरी तय करने में लगा समय पता चल जाएगा।

इस प्रयोग के परिणाम अत्यन्त रोचक थे। अलग-अलग दूरी लेकर प्रयोग किए गए। मगर सारा हिसाब-किताब यानी साथी की प्रतिक्रिया का समय घटाने के बाद प्रकाश को विभिन्न दूरियाँ तय करने में लगभग बराबर समय लग रहा था।

गैलीलियो ने इससे यह निष्कर्ष निकाला कि प्रकाश की चाल बहुत अधिक है और लगने वाला समय इतना कम था कि उसे नापना गैलीलियो के साधनों के बूते की बात नहीं है।

असल में प्रकाश द्वारा लम्बी दूरी की यात्रा करने के लिए लिया गया अतिरिक्त समय इतना कम था कि गैलिलियो के लिए उसे मापना मुश्किल था, क्योंकि यह वह समय था जब समय को छोटी इकाइयों में नापने वाली कोई घड़ी नहीं थी। भले ही गैलीलियो ने प्रकाश की चाल सटीकता से नहीं बताई लेकिन उन्होंने अपने अनुमान और प्रायोगिक प्रयास की बदौलत एक नई दिशा की ओर ध्यान खींचा कि प्रकाश बहुत ही ज़्यादा तेज़ चाल से चलता है जिसका एक निश्चित मान होगा और यह तो तय है कि प्रकाश की चाल अनन्त तो नहीं होगी।

ग्रहण, रोमर व प्रकाश की गति
लगभग सत्तर साल के बाद डेनमार्क के एक खगोलशास्त्री रोमर ने आकाश में प्रकाश की चाल ज्ञात करने में सफलता प्राप्त की। दरअसल, रोमर बृृहस्पति ग्रह के चार उपग्रहों क्रमश: आयो, यूरोपा, गेनीमेड और कैलिस्टो (Io, Europa, Ganymede and Callisto) में होने वाले ग्रहण का अध्ययन कर रहे थे। रुचिकर यह है कि बृृहस्पति के इन चारों उपग्रहों को गैलीलियो द्वारा बनाई गई दूरबीन की मदद से ही देखना सम्भव हो पाया। रोमर ने पाया कि जब कोई भी उपग्रह बृहस्पति के पीछे चला जाता है तो पृथ्वी से देखने से यूँ लगता है कि वह ओझल हो गया और उसे ही रोमर ने ग्रहण की स्थिति कहा। उन्होंने अनुमान लगाया कि बृहस्पति के चन्द्रमाओं के ग्रहणों की भविष्यवाणी और असल मेंे होने वाले ग्रहण के बीच लगभग हज़ार सेकण्ड का अन्तर हो सकता है क्योंकि ग्रहण का होना पृथ्वी, सूर्य और बृहस्पति की ज्यामिति एवं स्थिति पर निर्भर करता है। इसे और जानने के लिए संदर्भ 2001 के फरवरी-मार्च अंक में प्रकाशित माधव केलकर के लेख ‘बृहस्पति के उपग्रह, देशान्तर रेखाएँ और प्रकाश की गति’ को ज़रूर पढ़ें।

रोमर ने अपने दो तर्क रखे जिसमें पहला तर्क यह था कि चूँकि बृहस्पति और पृथ्वी के बीच की दूरी गतिशील है, इसीलिए प्रकाश के पहुँचने का समय भी बदलता रहता है। दूसरा, सारे उपग्रह तो एक निश्चित गति के साथ ही बृहस्पति के चक्कर लगाते हैं तो इनमें होने वाला ग्रहण या पृथ्वी से ओझल होने में एक निश्चित समय अन्तराल लगता होगा। ग्रहण में लगने वाला समय कुछ इस तरह था, सबसे पास के उपग्रह को बृृहस्पति के पीछे जाकर ओझल होने और फिर से दिखाई देने में पौने दो दिन, दूसरे थोड़े दूर के उपग्रह के लिए साढ़े तीन दिन, तीसरे के लिए सात दिन और चार घण्टे तथा सबसे दूर के उपग्रह के लिए यह पौने सत्रह दिन था। उस समय ग्रहों की दूरी निश्चित तौर पर ज्ञात करने की कोई सुविधा तो थी नहीं मगर तब तक पेंडुलम घड़ी के बारे में लोग जानने लगे थे।

इस तरह, पेंडुलम घड़ी की मदद से ग्रहण का अध्ययन किया जा सकता था और इसी ने पेरिस की वेधशाला में काम करने वाले इस खगोल शास्त्री रोमर को सैद्धान्तिक रूप से प्रकाश की गति की गणना करने में मदद की।

रोमर के निष्कर्ष
रोमर 1668 से 1677 तक बृहस्पति ग्रह के चार उपग्रहों में होने वाले ग्रहण का लगातार अवलोकन करते रहे और लगभग सत्तर बार प्राप्त आँकड़ों को एकत्र करके वैचारिक ताना-बाना बुनते रहे। रोमर ने अपने सारे आँकड़ों का दस्तावेज़ीकरण भी किया पर 1728 में कोपेनहागेन में लगने वाली आग में कुछ कागज़ों को छोड़कर उनके लगभग सारे दस्तावेज़ जल गए। हाँ, लेकिन लगभग साठ आँकड़ों के विश्लेषण पर आधारित उनके द्वारा लिखे कुछ दस्तावेज़ ज़रूर प्राप्त हो पाए जिसेे बहुत बाद में न्यूटन द्वारा लिखी किताब प्रिंसिपिया में उल्लेखित किया गया। कुछ जगह यह भी लिखा मिलता है कि रोमर दस्तावेज़ीकरण ज़रूर करते थे पर उसे किसी पत्रिका में प्रकाशित करने नहीं भेजते थे। इसके पीछे कई मत मिलते हैं, उनमें से कुछ इस तरफ इशारा करते हैं कि उन्हें लगता था कि रॉयल सोसाइटी में उनके पत्रों को कोई जगह नहीं मिलेगी।

अपने इस अध्ययन के आधार पर रोमर ने पाया कि पृथ्वी को सूर्य के चारों तरफ पूरा एक चक्कर लगाने में लगभग एक साल लगता है, लेकिन बृृहस्पति बारह साल का समय लेता है क्योंकि यह सूर्य से ज़्यादा दूर भी तो है। इसका मतलब है, साल के छह महीने पृथ्वी उसी तरफ होगी जिस तरफ बृहस्पति होगा। साल की दूसरी छमाही में पृथ्वी विपरीत दिशा में होगी। दोनों स्थिति में लगने वाले ग्रहण के समय को रोमर ने नापा और पहली स्थिति में लगने वाले समय (T1) को दूसरी स्थिति में लगने वाले समय (T2) से घटाकर समयान्तर पता कर लिया। इस तरह दोनों स्थिति में पृथ्वी कितनी दूरी तय करती है, उसे ज्ञात कर दूरी में अन्तर निकाल लिया। इस तरह देखा जाए तो प्रकाश की गति पता करना आसान हो जाएगा, यदि दूरी में अन्तर और समयान्तर पता चल जाए।

उपरोक्त तथ्य से ऐसा लगता है कि रोमर प्रकाश की गति के लिए एक निश्चित मान बता सकते थे। लेकिन रोमर का मुख्य उद्देश्य यह नहीं था। उनकी प्रमुख चिन्ता का विषय यह था कि प्रकाश तात्क्षणिक रूप से उत्पन्न नहीं होता है बल्कि इसका एक निश्चित वेग होता है। पर प्रकाश के वेग के बारे में जानने के लिए ज़रूरी था कि पहले यह जाना जाए कि प्रकाश कितने समय में पृथ्वी तक पहुँचता है और उसके लिए ज़रूरी है कि पृथ्वी की कक्षा के व्यास या फिर त्रिज्या की जानकारी हो। पर उस समय पृथ्वी के कक्ष के व्यास का सही आँकड़ा पता नहीं था, और यही एक वजह थी कि रोमर सटीकता से सही आँकड़े तो नहीं दे पाए, लेकिन उन्होंेने ग्रहण के आधार पर बताया कि प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में लगभग बाइस मिनट लगते हैं जो प्राप्त कई आँकड़ों का औसत था, जिसे मौजूदा सन्दर्भ में गणना करें तो प्रकाश की चाल लगभग 214,000 कि.मी. प्रति सेकण्ड आती है।

रोमर का प्रयास इसलिए भी काबिले तारीफ है क्योंकि 1675 के दौर में विज्ञान में मापन सम्बन्धित ज़्यादा विकास तो हुआ नहीं था। पर वो पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने खगोलीय अवलोकन के आधार पर गैलीलियो के विश्वास को और मज़बूत किया कि प्रकाश की गति कम-से-कम अनन्त तो बिलकुल नहीं है। किन्तु यह केवल आकाशीय विधि थी।

लोग उत्सुक थे यह जानने को कि धरती, हवा या पानी में प्रकाश की चाल क्या होती है। जहाँ एक ओर गैलीलियो व रोमर द्वारा प्रकाश के चाल की अनन्त होने वाली बात झुठलाई जा रही थी, वहीं अरस्तू द्वारा प्रस्तावित चार तत्वों के अलावा पाँचवें तत्व ईथर का विचार मज़बूत हो चला था, जिसे हवा से भी ज़्यादा ऊपर और शुद्ध माना जाता था। इसे वह माध्यम माना गया जिसमें से प्रकाश सूरज-तारों से होते हुए पृथ्वी तक पहुँचता था।

जहाँं चारों तत्व एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकते थे, वहाँ ईथर को इन चारों से अलग काफी पवित्र माना गया और एक साफ आसमान की संज्ञा दी गई जो प्रकाश की तुलना में अत्यधिक सूूक्ष्म होता है। यह माना जाता था कि स्पेस में ईथर के छोटे-छोटे भँवर होते हैं जिसके कारण यह ज़्यादा लचीला होता है। इस समय तक प्रकाश के इस स्वभाव पर भी काफी अध्ययन हो रहा था कि प्रकाश कणीय प्रकृति का होता है। लेकिन जब रॉबर्ट हुक ने प्रकाश की तुलना पानी में बनने वाली तरंग से की तो इस बात ने गहरी पैठ बना ली कि जिस तरह से पानी में भँवर बनते हैं, उसी तरह स्पेस में ईथर के भँवर से प्रकाश तरंग ज़रूर गुज़रती होंगी और तेज़ी-से गुज़रती होंगी, इसलिए इसकी चाल बहुत ज़्यादा है। हॉलेण्ड के हाइगन ने तो ईथर को लेकर कहा था कि, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ईथर माध्यम व्याप्त है -- भारहीन और एकसार होने के साथ-साथ जिसका घनत्व भी बहुत कम है और यह खूब लचीला होता है और प्रकाश तरंगों की श्रृंखला बनाते हुए इस माध्यम में विचरण करता रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकाश कम्पन द्वारा ईथर, माध्यम में गमन करता है।

अब जबकि सब यह मान रहे थे कि पाँच तत्व युक्त माध्यम में प्रकाश गमन करता है लेकिन साथ ही कई सवाल भी उठ रहे थे जैसे क्या सभी माध्यम में प्रकाश की चाल एक ही होगी या अलग-अलग होगी। ये सवाल बने रहे तब तक जब तक कि कुछ और प्रयास और प्रयोग नहीं किए जा सके। तो ये प्रयास किस तरह के थे, इसे हम अगले अंक में पढ़ेंगे।

...जारी


अंजु दास मानिकपुरी: अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, रायपुर (छत्तीसगढ़) में विज्ञान शिक्षण सम्बन्धी काम कर रही हैं। इससे पहले वे इन्दौर में रसायन विज्ञान की सहायक प्रोफेसर थीं।