शिक्षकों की कलम से

कालू राम शर्मा  

यह दुःखद है कि 15 मई 2020 को होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (होविशिका) का अहम हिस्सा रहे कमलनयन चांदनीवाला का निधन हो गया। चांदनीवालाजी एक सरकारी स्कूल के शिक्षक थे और होविशिका में उन्होंने एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में जुड़कर विभिन्न स्तरों पर किट व्यवस्था को बखूबी सम्भाला।  
चांदनीवालाजी की होविशिका से जुड़ाव की कहानी 1982 में प्रारम्भ होती है। होशंगाबाद ज़िले से आगे बढ़कर होविशिका को मालवा इलाके के उज्जैन व इंदौर सम्भाग में फैलाने की तैयारी चल रही थी। उस वक्त उज्जैन के पीजीबीटी कॉलेज में एक बैठक का आयोजन किया गया जिसमें चांदनीवालाजी ने एक आमंत्रित सदस्य के रूप में भाग लिया था। तब वे उज्जैन के एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। इसके बाद मालवा अंचल में इस कार्यक्रम का फैलाव हुआ तो 1983 में गर्मियों की छुट्टियों के दौरान आयोजित शिक्षक प्रशिक्षण में आपने भाग लिया। उस दौरान उज्जैन में एकलव्य केन्द्र की स्थापना की जा रही थी, तब चांदनीवालाजी इस कार्यक्रम में पूर्णकालिक रूप से जुड़े।

चांदनीवालाजी ने होविशिका के साथ जुड़कर विद्यार्थियों के लिए माध्यमिक शालाओं को दी जाने वाली विज्ञान की प्रयोग सामग्री यानी किट उपलब्ध करवाने की व्यवस्था सम्भाली। एक तो प्रत्येक शाला में किट उपलब्ध करवाना ताकि बच्चे प्रयोग कर पाएँ और दूसरा शिक्षक प्रशिक्षणों में इसकी समूची व्यवस्था सम्भालना, जहाँ शिक्षकों का उन्मुखीकरण इस तरह से होता था कि वे बच्चों के साथ कक्षा में प्रयोग-आधारित विधि अपना सकें। इसके लिए उन शिक्षकों को भी प्रशिक्षण के दौरान उसी प्रक्रिया से गुज़रना होता था जैसे कि बच्चों से अपेक्षा होती है कि वे टोलियों में काम करें, प्रयोग करें, प्रयोग के दौरान अवलोकन करके आँकड़े एकत्र करें, परिभ्रमण पर जाएँ, वैसे ही इस पूरी प्रक्रिया से शिक्षक को भी गुज़ारा जाता। इसलिए शिक्षक प्रशिक्षण में शिक्षकों को बाल वैज्ञानिक के समस्त प्रयोग करने होते थे। इस सब के लिए प्रशिक्षण में किट व्यवस्था का खासा इन्तज़ाम किया जाता था।

शिक्षक से कार्यकर्ता का सफर
किशोर भारती व मित्र मण्डल केन्द्र रसूलिया के संयुक्त प्रयासों से चुनिन्दा सरकारी स्कूलों में प्रारम्भ किए गए होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय व मध्यप्रदेश के महाविद्यालयों के प्राध्यापकों का सक्रिय जुड़ाव रहा। यह जुड़ाव दो प्रकार का था। होविशिका में काम करने के लिए प्राध्यापकों को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से फैलोशिप प्रदान की गई। इस फैलोशिप स्कीम के तहत बहुत सारे प्राध्यापकों ने कुछ साल तक इस कार्यक्रम में पूर्णकालिक रूप से योगदान दिया। प्राध्यापकों का ऐसा समूह भी था जिसने शिक्षक प्रशिक्षणों, मासिक बैठकों, पाठ्यपुस्तक लेखन, अनुवर्तन जैसे कार्यों में स्वैच्छिक रूप से सहयोग किया। इसी प्रकार स्कूली शिक्षकों का इस कार्यक्रम से जुड़ाव बनाने के लिए प्रतिनियुक्ति यानी डेप्युटेशन का प्रावधान किया गया। सरकारी स्कूल के उत्साही शिक्षक जो होविशिका से पूर्णकालिक जुड़ना चाहते थे, वे मध्यप्रदेश शिक्षा विभाग की ओर से इस कार्यक्रम में प्रतिनियुक्ति पर आ सकते थे।
1984 में चांदनीवालाजी इस कार्यक्रम के दौरान एकलव्य से जुड़े। यह वह समय था जब होविशिका को उज्जैन व इंदौर सम्भाग के प्रत्येक ज़िले में कुछ चुने गए संगम केन्द्र के स्कूलों में लागू किया जा रहा था। होविशिका को नए क्षेत्र में लागू करने का अर्थ इन शालाओं के शिक्षकों व अनुवर्तनकर्ताओं का प्रशिक्षण करना व उन स्कूलों में किट व्यवस्था को बनाना सबसे प्रमुख था। अगर शिक्षकों का प्रशिक्षण नहीं हो पाया तो वे इस विधि से पढ़ा नहीं पाएँगे। और अगर शिक्षकों का प्रशिक्षण कर दिया और स्कूलों में विज्ञान की प्रयोग सामग्री ही नहीं पहुँची तो शिक्षक विज्ञान शिक्षण नहीं कर पाएँगे। होविशिका की रीढ़ थी कक्षाओं में प्रयोग करके सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को गतिशील बनाना। इसलिए प्रयोग करने के लिए विज्ञान सामग्री समय पर उपलब्ध करवाना अत्यन्त ज़रूरी था।

करके सीखना – शिक्षण का एक महत्वपूर्ण आयाम
दरअसल, यह क्रान्तिकारी बदलाव था। एन.सी.ई.आर.टी. ने तो सत्तर के दशक में कह दिया था कि स्कूलों में विज्ञान को प्रयोगों के ज़रिए नहीं पढ़ाया जा सकता क्योंकि भारत जैसे देश में शालाओं को इतने संसाधन उपलब्ध करवाना सम्भव नहीं है। उल्लेखनीय है कि होविशिका में बच्चे टोलियों में विभाजित होकर प्रयोग करते थे। यह भारत की स्कूली शिक्षा के इतिहास में पहली बार था जब सामान्य शासकीय माध्यमिक शालाओं में बच्चों को प्रयोग करने के मौके मिल रहे थे। अगर बच्चों को प्रयोग करने के मौके देना है तो उन्हें प्रत्येक प्रयोग में लगने वाली प्रयोग सामग्री भी देनी होगी। और वो भी इस मात्रा में कि बच्चे टोलियों में ठीक-से प्रयोग कर सकें।
इसका अर्थ यह भी है कि अगर स्कूलों की कक्षाओं में बच्चे प्रयोग करें तो शिक्षकों को भी इस प्रकार से तैयार किया जाए कि उनमें प्रयोग करने का हुनर पैदा हो एवं वे प्रयोग की बारीकियों से वाकिफ हों। इसलिए होविशिका के शिक्षक प्रशिक्षण ने भाषण पद्धति व प्रदर्शन पद्धति को तिलांजली दे दी थी। प्रशिक्षण में भाग लेने वाले शिक्षकों को कक्षावार विज्ञान का प्रशिक्षण प्राप्त करना होता था। इस प्रशिक्षण में शिक्षकों को उस पूरी प्रक्रिया से गुज़रना होता था जिसमें प्रयोग करना, प्रयोग से प्राप्त आँकड़ों का विश्लेषण करना, लम्बी अवधि के प्रयोग करना इत्यादि शामिल था। प्रशिक्षण के दौरान शिक्षक भी खुद टोलियों में बँटकर प्रयोग करते। शिक्षक प्रशिक्षणों में भी किट का इन्तज़ाम करना एक काफी ज़िम्मेदारी-पूर्ण एवं कठिन काम होता था।
होविशिका की किट का एक हिस्सा ऐसा था जिसका जुगाड़ स्थानीय स्तर पर करना होता था। कुछ चीज़ें ऐसी होतीं जो बच्चे अपने आसपास की दुनिया से जुगाड़ते। लेकिन कुछ चीज़ें जैसे सूक्ष्मदर्शी, तराजू, परखनली, उफननली, थर्मामीटर इत्यादि की व्यवस्था शासन के माध्यम से करनी होती थी। कुछ ऐसी चीज़ें भी थीं जिनका स्थानीय स्तर पर निर्माण करना होता जैसे अप्लावी (ओवरफ्लो) बर्तन, गणक, रबर, पत्थर, धातु के गुटके इत्यादि। यह किट सामग्री स्कूली शिक्षण के दौरान भी ज़रूरी होती और शिक्षक प्रशिक्षण में भी।

मुझे याद है, 1987 में नर्मदा सम्भाग व इंदौर-उज्जैन सम्भाग के शिक्षकों का प्रशिक्षण होशंगाबाद में आयोजित किया गया था। इस वृहद शिक्षक प्रशिक्षण में किट की व्यवस्था की जानी थी। इस प्रशिक्षण में चांदनीवालाजी किट व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा थे। शिक्षक प्रशिक्षण का दिनभर का समय-चक्र सुबह साढ़े सात बजे शुरू होता। सुबह साढ़े सात बजे के पहले कक्षाओं में स्रोत दल के सदस्य किट-कक्ष से किट का डिब्बा उठाकर प्रशिक्षण-कक्ष में ले जाते थे। इस किट के डिब्बे में उस दिन के लिए प्रस्तावित अध्याय के शिक्षण में लगने वाली सम्पूर्ण सामग्री होती। इस डिब्बे को एक दिन पहले ही किट टीम के सदस्य तैयार करके रख देते थे। दरअसल, स्रोत दल के सदस्यों को सम्बन्धित कक्षा के कम-से-कम एक दिन पहले किट-सूची तैयार करके किट-टीम को देनी होती थी। इतना ही नहीं, स्रोत दल के सदस्य एक दिन पहले तैयारी करके वक्त उन तमाम प्रयोगों को करके जाँचते भी थे। तो किट की व्यवस्था शिक्षक प्रशिक्षण में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं समय की पाबन्दी से चलने वाला अहम पहलू था। सोचिए, अगर सुबह साढ़े सात बजे प्रशिक्षण कक्ष में किट न हो तो स्रोत दल के सदस्य कुछ नहीं कर सकते। शिक्षक प्रयोग करके ही तो प्रमाणों पर चर्चा कर सकेंगे। इसलिए किट की व्यवस्था पर शिक्षक प्रशिक्षणों में खासा ध्यान दिया जाता था। चांदनीवालाजी और उनकी टीम के सदस्य हमेशा तैयार रहते थे। अक्सर ऐसा होता कि अगले दिन सुबह जो प्रयोग करवाना है, उसके बारे में अचानक कोई विचार स्रोत दल के सदस्यों के दिमाग में कौंधे और वे किट-कक्ष में जाकर प्रयोग करना चाहें, या किसी विशेष सामग्री की फरमाइश प्रस्तुत कर दें। इन सब स्थितियों में चांदनीवालाजी हमेशा तैयार एवं तत्पर रहते और स्रोत सदस्यों को ज़रूरी किट सामग्री उपलब्ध करवाते।
प्रत्येक शिक्षक प्रशिक्षण में एक हॉल या कमरा किट के लिए तय किया जाता जहाँ समस्त किट व्यवस्थित तौर पर जमा कर रखी जाती। मुझे याद है, चांदनीवालाजी अपनी किट टीम के साथ किट-कक्ष में हमेशा जमे होते थे। अगले दिन की कक्षा के लिए किट की तैयारी के लिए किट टीम शाम से देर रात तक लगी रहती। अगले दिन सबसे पहले किट-कक्ष खुलता व प्रत्येक कक्षा की निर्धारित किट कक्षा में पहुँचाई जाती।

किट विकास से शाला तक का सफर
अगर आप यह समझ रहे हैं कि विज्ञान किट कुछ मँहगे व चमचमाते उपकरणों से युक्त होगी तो इसके ठीक उलट ही मामला था। होविशिका ने विज्ञान किट की इस छवि को एकदम ही पलट दिया था। किट ऐसी थी जो प्रयोग करने वाले शिक्षकों व बच्चों के लिए जानी-पहचानी हो। मतलब कि बच्चे व शिक्षक किट के साथ अन्तःक्रिया करने में संकोच न करें।
दरअसल, यह भी दिलकश है कि होविशिका की किट का काफी हिस्सा स्थानीय स्तर पर बनवाना होता था। मुझे याद है कि उज्जैन में चांदनीवालाजी और उनके अन्य साथी कई सारी चीज़ों का निर्माण स्थानीय स्तर पर करवाते थे। आयतन व चीज़ें क्यों तैरती हैं जैसे अध्यायों में लगने वाले अप्लावी बर्तन (ओवरफ्लो वेसल), गणक, रबर व पत्थर के गुटके इत्यादि का निर्माण स्थानीय स्तर पर करवाया जाता था जिसमें उन्हें खुद भी जुटना होता था। अप्लावी बर्तन पतरे का एक बेलनाकार डिब्बा होता था जो लोहार से थोक में बनवाया जाता। जब वे बनकर आते तो उन पर वॉर्निश की जाती। यह काम एकलव्य, उज्जैन के ऑफिस में किया जाता। गणक बनाने के लिए एक लकड़ी का पटिया और सायकिल की ताड़ियों की ज़रूरत होती। प्रयोगों में ऑलपिन, कील जैसी तमाम चीज़ों की ज़रूरत होती। इन सभी को थोक में खरीदा जाता और फिर अमुक स्कूल की अमुक कक्षा के छात्रों की संख्या के आधार पर किट पैक की जाती। सोचा जा सकता है कि यह काम कितने धैर्य और बारीकी का है। दरअसल, अलग-अलग ज़िलों के संगम केन्द्रों की स्कूलवार किट के बक्सों से एकलव्य का ऑफिस लबरेज़ होता।
तो एक स्तर पर किट की डिज़ाइन व व्यवस्था, और फिर अगले स्तर पर उस ज़िले में जाकर संगम केन्द्र स्तर पर किट का वितरण करना होता था। जब कार्यक्रम की शुरुआत हुई तो समस्त स्कूलों में किट स्कूल खुलने के पहले पहुँच जाए, यह प्रयास होता। प्रत्येक स्कूल में कितने बच्चे हैं और प्रत्येक कक्षा के कितने वर्ग हैं, इसे ध्यान में रखकर किट की गणना की जाती और तदनुसार किट स्कूलों तक पहुँचाई जाती। जीप में किट भरकर स्कूलों तक पहुँचाने के लिए चांदनीवालाजी सदैव तत्पर रहते।

जब बच्चे प्रयोग करेंगे तो कुछ सामग्री तो खर्च होगी व कुछ टूट-फूट जाएगी या गुम होगी। इसके लिए प्रत्येक वर्ष किट की क्षतिपूर्ति का प्रावधान था। मैंने अनुभव किया कि स्कूलों में किट पहुँचाना अपने आप में एक जटिल व नियोजन की माँग रखने वाला व एक बड़े भौगोलिक क्षेत्रफल में फैला हुआ कार्य था। इस काम को काफी अहमियत के साथ किया जाता। चांदनीवालाजी के होविशिका में किट के निर्माण एवं वितरण की व्यवस्था में योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। किसी भी काम में पर्दे के पीछे संलग्न लोगों का योगदान अहम होता है। चांदनीवालाजी उनमें से एक थे जिन्होंने विज्ञान शिक्षण में किट की व्यवस्था को बखूबी अंजाम दिया। चांदनीवालाजी हमारे बीच मिसाल प्रस्तुत करते हैं कि शिक्षा जगत में ऐसे शिक्षक हैं जो शान्त ढंग से एवं मौनभाव से अपने काम को शिद्दत से करने की चाहत रखते हैं। चांदनीवालाजी एक हरफनमौला किस्म के मज़ाकिया इन्सान थे। उन्हें सभी साथी ‘किट्टाचार्य’ कहते थे। उनके कई किस्से हैं जो होविशिका समूह के साथियों के बीच चर्चा का विषय बनते रहे हैं। मेरा मानना है कि होविशिका से जुड़े उस दौर में जिनका चांदनीवालाजी के साथ जुड़ाव रहा होगा, वे जब इस लेख के ज़रिए उन्हें याद करेंगे तो बहुत-से अनकहे किस्से उनकी आँखों के सामने जीवन्त हो उठेंगे।


कालू राम शर्मा: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, खरगोन में कार्यरत। स्कूली शिक्षा पर निरन्तर लेखन। फोटोग्राफी में दिलचस्पी। एकलव्य के शुरुआती दौर में धार एवं उज्जैन के केन्द्रों को स्थापित करने एवं मालवा में विज्ञान शिक्षण को फैलाने में अहम भूमिका निभाई।
फोटो: कालू राम शर्मा।